‘नई आस, नया विश्वास, अपनों के साथ, खुशियों में बीते नया साल।'
हाल ही में मानवता जिन-जिन कठिनाइयों से गुजरी उसके मद्दे नज़र अब तो बस यही एक प्रार्थना रह गई है। गत् 2011 को अनिश्चितता, बर्बरता और हादसों का वर्ष कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। वैश्विक स्तर पर भी और मेरे लिए तो व्यक्तिगत् रूप से भी। ( अब सब ठीक है। एक असंभव छलांग लगाकर एक हड्डी के चार टुकड़े जो किए थे, वे पुनः जुड़ चुके हैं।)
अंधविश्वास और रूढ़िवादिता के विरुद्ध जो सामाजिक आंदोलन पूर्वजों ने धर्म के नए-नए रूपों में 13 वीं और चौदहवीं शताब्दि में शुरु किया था वह सहजता और साम्यवाद की मांग करता, आज सहिष्णुता के नए धरातल पर पहुँच चुका है और आज विश्व-व्यापी असंतोष से ग्रसित युवा बदलाव चाहते हैं...किसी भी कीमत पर। पर क्या मूल्यों और सिद्धांतों का संरक्षण ही किसी भी लड़ाई को जीतने के लिए पहली शर्त नहीं! बदलाव सुनियोजित और सबके हित में हो तभी परिणाम तक पहुँच पाता है, क्या यह भी निश्चित नहीं?
सामाजिक भ्रष्टाचार और अन्याय की घुटन जब असह्य हुई तो ट्यूनिशिया में एक युवक ने विद्रोह स्वरूप सार्वजनिक रूप से आत्मदाह किया, फिर तो उस आग की चिनगारियाँ तहरीर चौक को लपेटती लीबिया सीरिया ही क्या पूरे विश्व में लपलपा उठीं। उपभोक्तावादी संपन्न पश्चिमी समाज के युवाओं तक ने वॉल-स्ट्रीट के आगे धरना दे दिया और समाज की इस नैतिक फिसलन का विरोध किया। यही नहीं, रोष और बेरोजगारी के बावजूद भी शांतिपूर्ण ठंग से पुलिस के डंडे खाए। आज जब संपन्न और विपन्नों की खाई दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है, हर जगह सब कुछ शांति से गुजरा हो ऐसी भी बात नहीं। जुलाई में यहाँ ब्रिटेन में हुई युवाओं द्वारा असंतोषजनक लूटपाट और तोड़-फोड़ और हाल ही में एक निर्दोष भारतीय छात्र अनुज की मैनचेस्टर में पौइंट ब्लैंक रेंज पर स्थानीय युवा द्वारा हत्या ने हमारे आधुनिक समाज का असंतुलित और घिनौना चेहरा सामने रखा है और समाज के रेशे-रेशे में व्याप्त नसली भेदभाव और नफरत को मिटाने के लिए एक बार फिर अपने तौर-तरीके बदलने की हमसे मांग की है।
क्या है सभ्य समाज की परिभाषा...क्या नए के लिए पुराने को जड़ से काटकर फेंकना ही बेहतर है या पुराने की भी उपयोगिता है? क्या यह नए के साथ पुराने का सामंजस्य एक सहज और संतुलित बेहतर समाज हमें दे पाएगा-
यह वह सामाजिक और राजनैतिक आंधी है जिसने 2011 में वैचारिक बवंडर का रूप लिया और बड़ों-बड़ों के पैर उखाड़ दिए । भारत में लोकपाल बिल की जोर पकड़ती मांग भी शायद इसी नव जागृत चेतना का ही परिणाम है जो आज सत्ता की ताकत तक को ललकार रही है।
नैसर्गिक रूप से भी 2011 की शुरुवात हादसों से ही हुई । पर्यावरण प्रदूषण की वजह से हवाई यातायात का 2011 के शुरुवाती दिनों में पूरे ही यूरोप में पूर्णतः रुक जाना तो एक इंगित मात्र था कि संभले नहीं, तो बहुत कुछ बिखरने और टूटने वाला है। लगातार ही चौंकाने वाली गति से कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ ने असंख्य मासूम और अभागों की जान ली और अधिकांश विश्व के हम शांति-प्रिय नागरिक अपने-अपने घरों में लम्बी तानकर सोते रहे या खबरों के बहाने तमाशा देखते रहे, क्योंकि आग अभी हमसे बहुत दूर थी।
जापान में हुआ आणविक हादसा एक दुखद याद और चेतावनी बना अभी भी स्मृति-पटल से मिट नहीं पाया। दुखों से उबरने का भी हरेक का अपना अलग तरीका होता है और इसमें जापानियों ने एक बार फिर जिस सूझबूझ और दृढ़ राष्ट्रीय चरित्र का परिचय दिया है वह पूरे ही विश्व के लिए अनुकरणीय है।
परम्परा और आधुनिकता को एक बहुत ही संतुलित और प्रगतिवादी दृष्टिकोण से संजोए हुई जापान की संस्कृति वास्तविक अर्थों में आधुनिकता का उदाहरण बनती जा रही है।
वक्त की नब्ज पहचानने की, जरूरतों को वैचारिक रूप से समझने और सुलझाने की एक कोशिश ...दूसरे शब्दों में आधुनिक या वर्तमान को समर्पित लेखनी का यह अंक बिन्दुओं को बस उठा भर पाया है, समाधान और सामंजस्य की खोज तो जारी है और जारी रहेगी। फिर इसके बाद क्या... एक ऐसा सवाल है जो हमेशा ही उठता रहेगा और इसके उत्तर भी जरूरतों के हिसाब से बदलते रहेंगे। विनाश और विध्वंस ...पुराने को बदलने की मांग शुरुवात है, पर उस विध्वंस से पुनः मनमाफिक परिस्थिति , व्यक्ति और विचारधारा का सृजन ही सही अर्थ में ;आधुनिक' शब्द की सर्वाधिक सही अनुमानिक परिभाषा हो सकती है। 18 वीं और शुरुवाती 19 वीं सदी की आधुनिक परिभाषा और फिर 1980 के बादका उत्तराधुनिक विश्व; परिभाषायें हैं जिनसे हम कुछ घटनाक्रमों और आन्दोलनों का पता चलता है , पर वे समकालीन या आधुनिक नहीं हैं। आधुनिकता का सम्बन्ध आधुनिक युग और आधुनिकता से है, लेकिन यह एक विशिष्ट अवधारणा का निर्माण करती है जो अपने समय की मांग को पूरा करती है । पुराने से हटकर अपनी राह बनाती है।
दिन-रात के श्वेत-श्याम पटल पर वक्त की जरूरतें ही तस्बीर उकेरती और रंग भरती हैं । माना, यह कल आज और कल का चक्र सदा ही नए की ओर ही अग्रसर रहेगा परन्तु यह भी तो उतना ही सच है कि वक्त स्वयं अपनी परिभाषा गढ़ता है और एक सुनियोजित प्रकरण के साथ अनावश्यक को हटाता चलता है।
परिस्थितियाँ और चुनौतियाँ नित-नित बदलती हैं और उनसे जूझने व जीतने के तरीके भी। शायद इस आत्म संरक्षण और सामंजस्य में ही आधुनिकता की कुंजी है। नए बीच, निरर्थक या पुराने को पहचानना , उससे निपटना वक्त की मांग है और रहेगी ।
नित नित बुदबुदे से उठते वाद और विवादों से ऊपर उठकर, आस पास की अंधी दौड़ से निकलकर और थमकर यदि हम सोच पाएँ तो आज भी हमारी पृथ्वी में, आसपास और खुद हमारे अपने अंदर भी, बहुत कुछ ऐसा है जो संचनीय व स्पृहणीय ही नहीं, आनेवाले वक्त की धाती भी है जिसे सहेजना हर प्रबुद्ध नागरिक की जिम्मेदारी है।
वर्ष 2012 में एकबार फिर ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः ‘ की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है नए सपनों और नई उम्मीदों को संजोए लेखनी का वर्ष-2012 का यह प्रवेशांक। उम्मीद है आपको पसंद आएगा।
नफस नफस, कदम कदम बस एक फिक्र दम ब दम घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिएं जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिएं
इंकलाब जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद
जहां अवाम के खिलाफ साजिशें हो शान से जहां पे बेगुनाह, हाथ धो रहे हो जान से वहां न चुप रहेंगे हम कहेंगे हां, कहेंगे हम हमारा हक, हमारा हक हमें जनाब चाहिए कि इंकलाब चाहिएं
इंकलाब जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद
वतन की राह पर हुए शौक से जो बेवतन उन्हीं की आह बेअसर उन्हीं की लाश बेकफन लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके करे तो क्या करे भला न जी सके, न मर सके स्याह जिंदगी हुई उनकी सुबहो ओर शाम उनके आसमां को सुर्ख आफताब चाहिए
कि इंकलाब चाहिए। इंकलाब जिंदाबाद
यकीन जिन पर जान कर किया था आंख मूंदकर वहीं हमारी राह में खडे है सीना तानकर उन्हीं की सरहदों में कैद है हमारी बोलियां वहीं हमारी थाल में परोस रहे गोलियां जो इनका सर मरोर दे गरुर इनका तोड दे वह सरफरोश इंकलाब का शबाब चाहिए
कि इंकलाब चाहिए। इंकलाब जिंदाबाद
तसल्लियों के इतने साल बाद सोच अपने हाल पर निगाह डाल और सोच कर सवाल कर कहां गएं वो वायदे सुखों के ख्वाब क्या हुएं जिन्हें था तुझकों इंतजार वे जवाब क्या हुए तूं इनकी झूठी बात पर न और एतवार कर कि तुझकों सांस सांस का सही हिसाब चाहिए
कि इंकलाब चाहिए इंकलाब जिंदाबाद।
-श्री राम सिंह 'शलभ'
मेरे गांव में
मेरे गांव में कोई तो होगा कम्प्यूटर पर बैठा मेरी राह देखता
मेरी पाती पढ़ने वाला मेरी भाषा मेरा दर्द समझने वाला मेरी लीपि को मेरी तरहा रखने वाला मेरी मिट्टी की खुशबू में रचा-बसा सा मेरी सोच समझने वाला
या कोई मेरी ही तरहा घर से बिछुड़ा भारत की मिट्टी का पुतला परदेशी सा दिखने वाला एकाकी कमरे में बैठा खोज मोटरों में उलझा सा टंकित करता होगा तरह तरह के नाम पते भाषा और लीपियाँ
ढूँढ रहा होगा अपनों को मेरी तरहा जीवन की आपाधापी में रमा हुआ भी पूरा करने को कोई बचपन का सपना। अपनों की आशा का सपना देश और भाषा का सपना।
मेरे गांव में बड़े-बड़े अपने सपने थे दोस्त गुरु परिचित कितने थे बड़े घने बरगद के नीचे बड़ी-बड़ी ऊँची बातें थीं कहाँ गए सब?
कोई नजर नहीं आता है यह सब कैसा सन्नाटा है? तोड़ो यह सन्नाटा तोड़ो नए सिरे से सब कुछ जोड़ो दूर वहीं से हाथ हिलाओ मेरी अनुगूँजों में आओ आओ सफर लगे ना तन्हा बोलो साथ-साथ तुम हो ना!
-पूर्णिमा बर्मन
नदी
बहें, हम भी बहें जैसे नदी!
खोलकर नित पर्वतों के द्वार ढलानों से उतरती है धार
उत्स का उन्मेष हम भी गहें जैसे नदी!
झेलकर सब शीत-वर्षा-घाम लिख गई तट पर नगर-वन-ग्राम
सृष्टि की यह कथा हम भी कहें जैसे नदी!
चमकता बहता हुआ यह श्रम पूर्ण करके एक यात्रा-क्रम
सिन्धु के घर रहें जैसे नदी!
सत्यनरायण
साल आकर...
साल आकर बड़ी तेजी से गुज़र जाते हैं पर बदलते नहीं, जीवन के बही-खाते हैं
मंजिलें भूलना लाज़िम है मुसाफिरों के लिए रास्ते रास्तों से हर जगह टकराते हैं
जन्म फुटपाथ पर, फुटपाथ पर ही उम्र कटी पेट पर हाथ रख, पुटपाथ पर सो जाते हैं
जुल्म की धूप कड़ी, यातना हर सिम्त बढ़ी लोग ताने हुए बेशर्मियों के छाते हैं
रोष, नाराजगी बेचारगी सब नामंजूर दोस्तों, हम यहां इन्सानियत के नाते हैं
डॉ. शेरजंग गर्ग
निर्वसन होने लगे हैं
सभ्यता के नाम पर हम निर्वसन होने लगे हैं
चरण तो बदले बहुत, अब आचरण बदलें
शब्द की खातिर समूचा व्याकरण बदलें
नाप कर लोग अपना कुर्सियाँ बोने लगे हैं
लग रहा है रोशनी से हो गयी कोई खता
पूछता फिरता अंधेरा सूर्य के घर का पता
मंजिलों की भ्रांतियां अब रास्ते ढोने लगे हैं
लाज की अवधारणा ही बह गयी सारी पिघलकर
आ गया कोठे तलक अब रूप घूंघट से निकलकर
जिन्दगी अवशेष है पर अर्थ सब खोने लगे हैं।
-जगपाल सिंह सरोज
दृष्टि
दोष किसी का नहीं जब गति तेज हो तो दृष्टि भटक ही जाती है धुरी पर घूमती एक अकेली तीली सौ रूपों में नजर आती है शेर की खाल ओढ़े गीद़ड़ जंगल-जंगल डर फैला आता है दस्तानों के पीछे जादूगर कबूतर उड़ा जाता है पर जब तीली रुकी खाल उघड़ी, जादू टूटा बादलों के पीछे से निकला फिर सूरज।
-शैल अग्रवाल
रिक्शावाला
हर मौसम में देखती हूँ गेट पर उस रिक्शा वाले को पाँव में चप्पल तन पर अध-फटे कपड़ों से पसीने की महक उसकी सूखी अंतड़ियाँ पेट की भूख चेहरे की लकीरें इन्तजार करती है मेरा।
क्योंकि मैं उसे भाड़े में तीन नहीं पाँच रुपए देती हूँ। उसके शरीर के रोएँ मुझे देते हैं दुआएँ।
पेट भरे या न भरे रात को शराब पीकर वह चैन से सोता है एक नई सुबह की आस में
तीन या पाँच की तलाश में।
-अरुण सबरवाल
पहले जमीं बांटी थी...
पहले ज़मीन बांटी थी फिर घर भी बंट गया इंसान अपने आप में कितना सिमट गया. अब क्या हुआ कि खुद को मैं पहचानता नहीं मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छंट गया हम मुन्तजिर थे शाम से सूरज के दोस्तों लेकिन वो आया सर पे तो कद अपना घट गया गांव को छोड़कर तो चले आए शहर में जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया किससे पनाह मांगें कहाँ जाएँ, क्या करें फिर आफताब रात का घूंघट उलट गया सैलाबे-नूर में जो रहा मुझसे दूर-दूर वो शख्स फिर अँधेरे में मुझसे लिपट गया
जी हाँ, लिख रहा हूँ ... बहुत कुछ ! बहोत बहोत !! ढेर ढेर सा लिख रहा हूँ ! मगर , आप उसे पढ़ नहीं पाओगे ... देख नहीं सकोगे उसे आप !
दरअसल बात यह है कि इन दिनों अपनी लिखावट आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की तरह वो अगले ही क्षण गुम हो जाती हैं चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो बस दो-चार सेकेंड तक ही टिकती है .... कभी-कभार ही अपनी इस लिखावट को कागज़ पर नोट कर पता हूँ स्पन्दनशील संवेदन की क्षण-भंगुर लड़ियाँ सहेजकर उन्हें और तक पहुँचाना ! बाप रे , कितना मुश्किल है ! आप तो 'फोर-फिगर' मासिक - वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे, मन-ही-मन तो हसोंगे ही, की भला यह भी कोई काम हुआ , की अनाप- शनाप ख़यालों की महीन लफ्फाजी ही करता चले कोई - यह भी कोई काम हुआ भला !
नया तरीका
दो हज़ार मन गेहूँ आया दस गाँवों के नाम राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम
चिकनी किस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल।
पुलिस अफसर
जिनके बूटों से कीलित है, भारत माँ की छाती जिनके दीपों में जलती है, तरुण आँत की बाती
ताज़ा मुंडों से करते हैं, जो पिशाच का पूजन है अस जिनके कानों को, बच्चों का कल-कूजन
जिन्हें अँगूठा दिखा-दिखाकर, मौज मारते डाकू हावी है जिनके पिस्तौलों पर, गुंडों के चाकू
चाँदी के जूते सहलाया करती, जिनकी नानी पचा न पाए जो अब तक, नए हिंद का पानी
जिनको है मालूम ख़ूब, शासक जमात की पोल मंत्री भी पीटा करते जिनकी ख़ूबी के ढोल
युग को समझ न पाते जिनके भूसा भरे दिमाग़ लगा रही जिनकी नादानी पानी में भी आग
पुलिस महकमे के वे हाक़िम, सुन लें मेरी बात जनता ने हिटलर, मुसोलिनी तक को मारी लात
अजी, आपकी क्या बिसात है, क्या बूता है कहिए सभ्य राष्ट्र की शिष्ट पुलिस है, तो विनम्र रहिए
वर्ना होश दुरुस्त करेगा, आया नया ज़माना फटे न वर्दी, टोप न उतरे, प्राण न पड़े गँवाना
घिन तो नहीं आती है
पूरी स्पीड में है ट्राम खाती है दचके पै दचके सटता है बदन से बदन पसीने से लथपथ । छूती है निगाहों को कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन सच सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है ? जी तो नहीं कढता है ?
कुली मज़दूर हैं बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर आपस मैं उनकी बतकही सच सच बतलाओ जी तो नहीं कढ़ता है ? घिन तो नहीं आती है ?
दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं ये तो बस इसी तरह लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की सच सच बतलाओ अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ? जी तो नहीं कुढता है ? घिन तो नहीं आती है ?
आए दिन बहार के
'स्वेत-स्याम-रतनार' अँखिया निहार के सिण्डकेटी प्रभुओं की पग-धूर झार के लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के आए दिन बहार के !
बन गया निजी काम- दिलाएंगे और अन्न दान के, उधार के टल गये संकट यू.पी.-बिहार के लौटे टिकट मार के आए दिन बहार के !
सपने दिखे कार के गगन-विहार के सीखेंगे नखरे, समुन्दर-पार के लौटे टिकट मार के आए दिन बहार के !
आओ रानी
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की यही हुई है राय जवाहरलाल की आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
आओ शाही बैण्ड बजायें, आओ बन्दनवार सजायें, खुशियों में डूबे उतरायें, आओ तुमको सैर करायें-- उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
तुम मुस्कान लुटाती आओ, तुम वरदान लुटाती जाओ, आओ जी चांदी के पथ पर, आओ जी कंचन के रथ पर, नज़र बिछी है, एक-एक दिक्पाल की छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
सैनिक तुम्हें सलामी देंगे लोग-बाग बलि-बलि जायेंगे दॄग-दॄग में खुशियां छ्लकेंगी ओसों में दूबें झलकेंगी प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र के भाल की आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
बेबस-बेसुध, सूखे-रुखडे़, हम ठहरे तिनकों के टुकडे़, टहनी हो तुम भारी-भरकम डाल की खोज खबर तो लो अपने भक्तों के खास महाल की ! लो कपूर की लपट आरती लो सोने की थाल की आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो प्रेसिडेन्ट की लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो पद्म-भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो पार्लमेण्ट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो मिनिस्टरों से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लो दायें-बायें खडे हज़ारी आफ़िसरों से प्यार लो धनकुबेर उत्सुक दीखेंगे उनके ज़रा दुलार लो होंठों को कम्पित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो बिजली की यह दीपमालिका फिर-फिर इसे निहार लो
यह तो नयी नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो एक बात कह दूं मलका, थोडी-सी लाज उधार लो बापू को मत छेडो, अपने पुरखों से उपहार लो जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की ! आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी ! रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की यही हुई है राय जवाहरलाल की आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
अन्न पचीसी के दोहे
सीधे-सादे शब्द हैं, भाव बडे ही गूढ़ अन्न-पचीसी घोख ले, अर्थ जान ले मूढ़
कबिरा खड़ा बाज़ार में, लिया लुकाठी हाथ बन्दा क्या घबरायेगा, जनता देगी साथ
छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट मिल सकती कैसे भला, अन्नचोर को छूट
आज गहन है भूख का, धुंधला है आकाश कल अपनी सरकार का होगा पर्दाफ़ाश
नागार्जुन-मुख से कढे साखी के ये बोल साथी को समझाइये रचना है अनमोल
अन्न-पचीसी मुख्तसर, लग करोड़-करोड़ सचमुच ही लग जाएगी आँख कान में होड़
अन्न्ब्रह्म ही ब्रह्म है बाकी ब्रहम पिशाच औघड मैथिल नागजी अर्जुन यही उवाच
युगचेता ठक्कन,बैद्यनाथ मिश्र वैदेह, यात्री से नागार्जुन
एक युक्ति है जिसके पाँव न पड़े बिबाइ। वह क्या जाने पीर पराइ॥ यह उक्ति नागार्जुन के सम्बंध में सही उतरती है। नागार्जुन का जन्म मिथिला के एक अत्यन्त ही गरीब परिवार में सन् १९११ ई. में हुआ था। इसका प्रमाण इससे मिलता है कि जब गॉव की पाठशाला से प्राइमरी विद्यालय की परीक्षा समाप्त करने के बाद अगली पढ़ाई के लिए नामांकन की बात आई तब इनके पिता श्री गोकुल मिश्र ने अगली पढ़ाई में आनेवाले खर्च वहन करने की अपनी असमर्थता जताई। फलस्वरूप गॉव के निकट के संस्कृत पाठशाला से जहॉ मुफत में शिक्षा की व्यवस्था थी,वहॉ नामांकन कराना पड़ा । गॉव के संस्कृत पाठशाला से संस्कृत की प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद संस्कृत की अगली पढ़ाई, मध्यमा मिथिलांचल के ही एक गॉव के संस्कृत विद्यालय से और शास्त्री की पढ़ाई क्वीन्स कालेज,बनारस से की। बनारस में रहते ही इनके भीतर का कवि हृदय उद्वेलित होने लगा। इनके कविगुरु श्री सीताराम झा रहे जो उस समय बनारस में रहते थे। वे स्वयं मैथिली,हिंदी एवं संस्कृत में काव्य रचना करते थे। सीतराम झा ने ही र्संस्कृत की तुकबंदी पर पाबंदी डालते हुए,नागार्जुन को मिथली एवं हिंदी में काव्यरचना की प्रेरणा ही नहीं दी अपितु मार्ग निर्देशन भी किया।
जब सीताराम झा नागार्जुन को काव्यरचना के लिए भाषा,शिल्प,बिंब आदि के प्रयोग से शब्द और वाक्य में चमत्कार उत्पन्न करने का रहस्य सिखाते रहते थे,उस समय पंडित बलदेव मिश्र,वैद्यनाथ के अन्दर जनजीवन,परपंरा और रूढ़ियों के सम्बंध में नए ढंग से सोचने के लिए प्रेरित करने का प्रयास करते रहते थे। रूढिबादी परिवार के वैद्यनाथ के भीतर वर्तमान को समझने के लिए,श्रेष्ठ साहित्य के अध्ययन के साथ साथ समाज की गतिप्रकृति को समझने के लिए दैनिक अखबार एवं जन जीवन को निकट से देखने परखने की इच्छा पंडित बलदेव मिश्र ने जागृत की। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ठक्कन से नागार्जुन के पीछे पंडित अनिरुद्घ मिश्र,कविवर सीताराम झा एवं पण्डित बलदेव मिश्र का सहयोग रहा है।
नागाजुर्न की पहली रचना मैथिली में वैद्यनाथ मिश्र विद्यार्थी तरौनी निवासी के नाम से मिथिला पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बनारस में रहते हुए इन्होंने संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत एवं बंगला भाषा का भी अध्ययनमनन किया था। बनारस से प्रकाशित हस्तलिखित पत्रिका मैथिली सुधाकर में इनके अनेकानेक रचनाओं का प्रकाशन हुआ। सन् १९३२ में शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद, पुरोहित का कार्य करने के लिए, कोलकाता आ गए। इस बीच बंगला सीख जाने के बाद रवीन्द्रनाथ की रचनाऔं का अध्ययनमनन किया एवं इससे प्रभावित होकर अपना नाम यात्री रखा। कोलकाता में रहते ही इन्होंने कोलकाता संस्कृत कालेज से काव्यतीर्थ की उपाधि प्राप्त की। कोलकता में रहते ही अपने अध्ययन के अतिरिक्त बंगला साहित्य का गहन अध्ययन किया। साथसाथ उस समय की राजनीतिक स्थितियों को भी समझने का प्रयास किया। कोलकाता में रहते हुए एक विज्ञापन देखा कि उत्तर पद्रेश के सहारनपुर में रहनेवाले एक बंगभाषी को प्राकृत भाषा सिखाने के लिए शिक्षक की आवश्यकता है। वे कोलकाता से सहारनपुर गए। किंतु सहारनपुर से कोलकाता का यात्री फिर वापस नहीं गए। उसके बाद पंजाव से पटियाला,लाहौर, फिरोजपुर, अबोहर आदि की यात्राएँ की एवं मन में लेखक बनने की इच्छा बना ली। सन. १९३५ ई, अबोहर के साहित्य सदन से दीपक नाम की पत्रिका का सम्पादन किया । इन्होंने अबोहर प्रवास के दौड़ान गहन ध्ययन-मनन किया। यहीं पर रहते ही इनकी अनेक रचनाएँ दीपक में प्रकाशित हुई । इनकी पहली कहानी समर्थदाता सन् १९३६ ई. में प्रकाशित हुई। अबोहर में ही दीपक पत्रिका के सम्पादन काल में मझ्झिम निकाय का अनुवाद पढने का मौका मिला। पाली भाषा के भी जानकार थे ही फलस्वरूप बौद्घ ग्रंथ को मूल में पढ़ने की इच्छा जागृत हुई। फलस्वरूप काशी के सारनाथ बौद्घमठ से सम्पर्क स्थापित किया। वहाँ से इन्हे जानकारी मिली कि यह केवल श्रीलंका के केलेनिया विद्यालंकार परिवेश में ही सम्भव हो सकता है। वैद्यनाध मिश्र को केलेनिया जाने की इच्छा हुई । अबोहर से किसी प्रकार अनुमति लेकर केलेनिया जाने के लिए काशी के सारनाथ बौद्धमठ में गए। इस बीच इन्होंने बौद्ध होने की मानसिकता बना ली। पारिवारिक मायामोह को विसर्जन देते हुए केलेनिया की ओर प्रस्थान किया। इस बीच वे बहुत बीमार भी हो गए। एक घाव हो गया था जिससे वे जीवन से निराश हो चुके थे! इसी मनस्थिति को ध्यान में रखते हुए प्रणाम नाम की कविता की रचना की।
केलेनिया विद्यालंकार परिवेश में आने पर इनका नामांकन परिवेश के अधिकारी ने नहीं लिया। उस समय राहुल जी देश से बाहर थे। फलस्वरूप पटना के काशी प्रसाद जायसवाल को अपना पूरा परिचय भेजा एवं उनसे अनुरोध किया कि परिवेश के अधिकारी को मेरे नामांकन के लिए अनुशंसा का पत्र भेज दें। जायसवाल की अनुशंसा पर इनका नामांकन परिवेश में हो गया। परिवेश में रहते हुए इन्होंने संस्कृत साहित्य एवं दर्शन के अध्ययन-मनन के अतिरिक्त बौद्घ साहित्य एवं दर्शन का भी अध्ययन किया। परिवेश के छात्र एवं अधिकारियों की इच्छा हुई कि बैद्यनाथ मिश्र बौद्घ धर्म में दीक्षित हो जाएँ। क्योंकि इसी परिवेश में राहुल सांकृत्यायन,भदन्त आनन्द कौशल्यायन,जगदीश कश्यप,शांति रक्षित बौद्घ धर्म में दीक्षित हुए थे। सन् १९३६ ई. के अंत में श्रीलंका गए और सन् १९३७ ई. में बौद्घ धर्म में दीक्षित हुए। गॉव का ठक्कन, मॉपिता का बैद्यनाथ,लेखक वैदेह,कवि यात्री, नागार्जुन के नाम से परिचित हुए।
परिवेश में रहते हुए ही इन्हें माकर्सवादी विचारधारा की पुस्तकों को अध्ययनमनन करने का मौका मिला था। साथसाथ भारतीय समाचार पत्रों को भी देखा करते थे। पत्रपत्रिकाओं में तत्कालीन राजनीतिक समाचार पत्रों को पढ़ने के बाद, इनके मन में आया कि बिहार के किसान नेता स्वामी सहजानन्द से पत्राचार करें। पत्राचार आरम्भ हुआ। किंतु अपनी रचनाएँ अपने परिचित को भेजते रहे जो प्रभाकर नाम की पत्रिका में प्रकाशित हुआ करती थीं । श्रीलंका में रहते हुए वहाँ की भाषा सिंहली भी सीख ली थी। इनकी कुछ कविताएँ एवं निबंध वहाँ की पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई थीं।
सन् १९३८ ई. में राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध साहित्य की खोज के लिए एक अभियान दल के लिए नागार्जुन को बिहार आने का आमंत्रण दिया। राहुलजी से परिचय था ही। इससे इनका निकट का सम्पर्क स्थापित हुआ। तिब्बत जाने की यात्रा बनी। किंतु स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण, इन्हें यात्रा स्थगित कर देनी पड़ी।
इसी बीच इनका सम्पर्क स्वामी सहजानन्द से हुआ। सहजानन्दजी ने इन्हें पुरातत्त्व की खोजखबर से अधिक जनजीवन की खोजखबर लेने के लिए प्रेरित किया। परिणाम स्वरूप बिहार किसान आन्दोलन में भाग लेने का निर्णय लिया। राहुलजी से सम्पर्क बने रहने के कारण, राहुलजी ने भी तिब्बत यात्रा के बाद, सक्रिय राजनीति में भाग लेने का निर्णय लिया था। १ जनवरी,१९३९ को राहुलजी के साथ पटना आए। २ जनवरी, १९३९ को किसान आन्दोलन का संगठन करने के लिए दोनो व्यक्ति छपरा गए। वहाँ आन्दोलन का संगठन करने के लिए समय लगा। अमवारी के आसपास किसान आन्दोलन की पृष्ठभूमि बनी। सन.२० फरवरी,१९३९ से किसान सत्याग्रह का आरम्भ हुआ। यह आन्दोलन जमींदार के खिलाफ था। एक खेत से ईख काटने की योजना बनी। वह खेत जमींदार ने एक किसान से छीनकर, अपनी पत्नी के नाम कब्जा कर लिया था। इस सत्याग्रह में राहुल,नागार्जुन, मजहर जलील और देवनारायण सम्मिलित हुए। इनलोगों की बहुत पिटाई की गई। राहुलजी का मस्तिष्क भी फोड़ दिया गया। पुलिस आई। गिरफतारी हुई। १७ अप्रैल, १९३९ को पहलीबार इन्हें जेल जाना पड़ा। छपरा से इनका स्थानन्तरण हजारीबाग जेल में सन् २२ जून,१९३९ ई. को किया गया।
इस प्रकार जेल जाने के बाद, सक्रिय रूप से राजनीति में भाग लेना आरम्भ किया और यायावर की भाँति पंजाब, हिमाचल प्रदेश एवं पश्चिम तिब्बत की यात्राएँ की। इनकी प्रकृति विषयक कविता इस काल की हैं। क्योंकि इन्हें हिमालय को निकट से देखने का अवसर मिला था। इस यायावरी जीवन में रहते हुए पुनः बौद्घ भिक्षु की वेशभूषा में बिहार आए। किसान की समस्या के अध्ययन के लिए चम्पारण गए। सुभाषचन्द्र बोस के आन्दोलन से जुड़ने के कारण पुनः भागलपुर जेल में रहना पड़ा। भागलपुर जेल से छुटने के बाद पटना, बनारस, इलाहाबाद होते हुए लुधियाना पहुँचे। लुधियाना में सन् १९४१ से १९४२ तक कुछ दिनों तक रहे। वहाँ के जैन मंदिर में मुनि हेमचन्द्र के साथ मिलकर कुछ जैन ग्रंथों का सपादन किया। सिंधु प्रदेश के हैदराबाद में सारस्वत ब्राह्मण पाठशाला में अध्यापन का कार्य किया। वहाँ रहते हुए सिंध राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हैदराबाद से प्रकाशित कौमी बोली का सम्पादन किया। इसके बाद कराची गए। पुनः राहुलजी के साथ मिलकर तिब्बत जाने की योजना बनाई । किंतु राहुलजी किसी कार्य से बीच में ही लौट आए। किंतु इन्होंने केले थोलिड. महाविहार तक की यात्रा की। इस बीच इनके पिताश्री गोकुल मिश्र का देहावसान हो गया। इस सात्रा के बाद सन् १९४४ ई. में इलाहाबाद आए। इलाहाबाद में रहते हुए शरतचन्द्र के अनेकानेक उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद किया। साथ ही साथ एक गुजराती उपन्यास का भी हिंदी में अनुवाद किया। इनकी लेखनी में प्रबुद्धता आई। अनेकानेक रचनाएँ मैथिली एवं हिंदी में प्रकाशित होने लगी। इस बीच मैथिली में पारो उपन्यास लिखा। इसका प्रकाशन भी हुआ। इसी उपन्यास के आवरण पृष्ठ पर षोडषी नाम से काव्य संग्रह की भी उद्षोघणा की गई थी किंतु यह संकलन प्रकाश में नहीं आया। १९४८ में पटना से उदयन नामक पत्रिका का प्रकाशन-सम्पादन भी किया। इसी पत्रिका में इनके हिंदी उपन्यास बलचनमा के कुछ अंश छपे थे। महात्मा गाँधी की हत्या पर लिखे गए शोणित तर्पण और अन्य कविताएँ शीर्षक से चार कविताएँ पटना से प्रकाशित हानेवाली जनशक्ति में प्रकाशित हुई। फलस्वरूप इन्हें सरकार का कोपाभाजन होना पड़ा। स्वतंत्र भारत में भी इन्हें जेल जाना पड़ा। उसी वर्ष हिंदी में रतिनाथ की चाची हिंदी में प्रकाशित हुई और सन् १९४९ ई. में इलाहाबाद से चित्रा नामक मैथिली काव्य संग्रह का प्रकाशन हुआ। इसके बाद कुछ दिनों तक राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,वर्धा जाकर नौकरी भी की। बड़े पुत्र की बीमारी के कारण, पटना वापस आ गए। १९५२ ई.में बलचनमा का प्रकाशन हुआ और सन् १९५३ ई. में पहला हिंदी काव्य संग्रह युगधारा आया। इसके बाद इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लेखन कार्य के लिए समर्पित कर दिया। इस बीच इन्हें प्रकाशक बनने की इच्छा जागृत हुई। सन् १९५९ ई. में कोलकाता से यात्री प्रकाशन के नाम प्रकाशन संस्था का आरम्भ किया। इसी प्रकाशन संस्था से इनका दूसरा काव्यसंग्रह संतरंगे पंखो वाली का प्रकाशन हुआ। यायावरी स्वभाव के कारण, इनका प्रकाशन भी यायावर की भाँति कोलकाता से इलाहाबाद आ गया। इलाहाबाद से यात्री प्रकाशन के माध्यम से सन् १९६३ ई. में प्यासी पथराई आँखे का प्रकाशन हुआ। बामपंथी विचारधारा से प्रभावित होने के बावजूद भारत चीन युद्ध पर इनका मत भिन्न रहा। इस युद्ध को लेकर इन्होंने अनेकानेक कविताएँ लिखीं जो बामपंथी विचारधारा से भिन्न होने के कारण, इनलोगों से अलगथलग रहने लगे। किंतु सभी जानते थे कि ये बामपंथी विचारधारा से ओतप्रोत हैं।
सन् १९६७ ई. में इलाहाबाद से पत्रहीन नग्न गाछ का प्रकाशन हुआ। जिसे १९६८ का साहित्य-अकादमी का पुरस्कार मिला। इनका अंतिम उपन्यास जमनिया का बाबा है। जे पी के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में इन्हें बंगाल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कोपभाजन भी होना पड़ा। सन् २६ जून,१९७५ में आपातकाल की घोषणा से पूर्व ही इन्हें १ जून,१९७५ ई. को सीवान में गिरफतार कर लिया गया। दस महीने तक जेल में रहने के बाद २६ मार्च, १९७६ को छूटकर बाहर निकले। हिंदी में ११ उपन्यास का प्रकाशन होने के बावजूद, सन् १९८० ई. से ही हिंदी के प्रकाशक इनके कवितासंग्रह प्रकाशित करने के लिए तैयार हुए। नागार्जुन ने चाहे जिस किसी की सरकार क्यों न हो भारतीय जनता के दुःख दर्द पर जितनी कलम चलाई है उतनी कलम स्वतंत्र भारत के किसी रचनाकार ने नहीं चलाई। फलस्वरूप इनका मूल्यांकन भी नए ढंग से होने लगा। यायावरी स्वभाव के कारण ये स्पष्ट वक्ता थे किसी रोकटोक के बिना साफ-साफ अपनी बातें कहने में हिचकते नहीं थे। नागार्जुन ने ४५ पुस्तकों की रचनाएँ की हैं। इनका देहावसान भी अपनी मातृभूमि मिथिला में ही ५ नवम्बर,१९९८ ई. को हुआ।
बुनी हुई रस्सी को घुमाएं उल्टा तो वह खुल जाती है और अलग-अलग देखे जा सकते हैं उसके सारे रेशे
मगर कविता को कोई खोले ऐसे उल्टा तो साफ़ नहीं होंगे हमारे अनुभव इस तरह क्योंकि अनुभव तो हमें जितने इसके माध्यम से हुए हैं उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहाँ
कविता को बिखरा कर देखने से सिवा रेशों के क्या दिखता है लिखने वाला तो हर बिखरे अनुभव के रेशे को समेट कर लिखता है!
मुझे हवा पुकार रही है
मुझे कोई हवा पुकार रही है कि घर से बाहर निकलो तुम्हारे बाहर आए बिना एक समूची जाति एक समूचि संस्कृति हार रही है
मुझे हवा पुकार रही है।
सोचता हूँ सुनने की शक्ति बची है तो चल पड़ने की भी मिल जाएगी अकेला भी निकल पड़ा पुकार पर तो धरती हिल जाएगी।
अबके
मुझे पंछी बनाना अबके या मछली या कली
और बनाना ही हो आदमी तो किसी ऐसे ग्रह पर जहां यहां से बेहतर आदमी हो
कमी और चाहे जिस तरह की हो पारस्परिकता की न हो !
नाव डूबने वाली है
नाव डूबने वाली है क्या इसलिए हम सिवा अपनी जान के और कुछ नहीं सोचेंगे ना, भाई ना! डूब मरें हम सब पूरी नाव को बचाने की कोशिश में
मौत को लज्जात्मक ढंग से गले न लगाएँ मरना है तो शान के साथ मरें खूब मरें!
हाँ, भाई हाँ!
बुद्धि को...
बुद्धि को तेजस्वी बनाने का एक ही रास्ता है कि हम हठपूर्वक कुछ तय न करें खुला रखें अपना मन
मन में विचार हवा की तरह आएँ-जाएँ तूफान उठाएँ हम भय न करें
निर्भय मन दुविधा का लय कर देता है बिना किसी दुराग्रह के पथ तय कर लेता है।
नाव डूबने वाली है
नाव डूबने वाली है क्या इसलिए हम सिवा अपनी जान के और कुछ नहीं सोचेंगे ना, भाई ना! डूब मरें हम सब पूरी नाव को बचाने की कोशिश में
मौत को लज्जात्मक ढंग से गले न लगाएँ मरना है तो शान के साथ मरें खूब मरें!
हाँ, भाई हाँ!
बुद्धि को...
बुद्धि को तेजस्वी बनाने का एक ही रास्ता है कि हम हठपूर्वक कुछ तय न करें खुला रखें अपना मन
मन में विचार हवा की तरह आएँ-जाएँ तूफान उठाएँ हम भय न करें
निर्भय मन दुविधा का लय कर देता है बिना किसी दुराग्रह के पथ तय कर लेता है।
हर बात का
हर बात का वक्त होता है
आज अगर आँख का पानी रक्त होता है तो समझो इसे भी
जिसे भी रंगना चाहो रँगों आज अपने रक्त से आँख मत चुराओ वक्त से हर बात का वक्त होता है।
इतिहासों की गलियों से गुजरे अगुवे-नेता-महराजे शंख बिगुल दुंदुभी कभी तो कभी बजाते झूठे बाजे बदले ध्वज नक्शे अधिकारी राज-पुरोहित ज़र जमीन सब हर स्थिति में जनता ने ही खोले बन्द किए दरवाज़े
( 2)
जहां भी रुकना पड़ा उस मोड़ पर कुछ हो गए हम और बदल कर निकले वहां से और पहुँचे एक बदले ठौर और अब बदलाव इतने हुए क्या थे असल में भी रहा न याद किंतु रुक सकते नहीं अब क्योंकि पीछे छोड़ जाएगा समय का दौर
( 3)
जो बैठ गए हम उन्हें उठाने-उकसाने का यंत्र नहीं अब जन हैं अपनी दुनिया से जुड़े युद्ध लड़ते अपना बाहर से दिखते मुक्त किंतु भीतर शंकित... स्वतंत्र नहीं
( 4)
हर ‘हुए’ का पता हमको देर से अक्सर चला ‘मिल गया पानी’ सुना देखा तो क्या था जलजला घुस न पाए थे अदालत में कोई सच्चे गवाह गेट पर पहुँचे तो पाया हो चुका था फैसला
जब से भारत को आजादी मिली है और भारतीय राष्ट्र की पुनः प्रतिष्ठा हुई है, तब से राष्ट्रीय भावना की चर्चा बहुत होती रही है। चीनी आक्रमण के बाद के दो वर्षों में तो यह चर्चा एक व्यापक कोलाहल की सीमा तक पहुँच गई थी। लेकिन वास्तव में हमारे चिंतन में राष्ट्रीय भावना अधिक पुष्ट हुई है या नहीं, यह एक ऐसा प्रश्न है जो हमें स्वयं अपने आपसे बार-बार पूछते रहना चाहिए। क्योंकि राष्ट्रीय भावना का उदय निरी चर्चा से कभी नहीं होगा, वह निरंतर आत्म-परीक्षण और आत्म-शोध से ही प्राप्त हो सकता है। चर्चा से हम ऐसी भावनाओं को अवश्य उत्तेजित कर सकते हैं जो राष्ट्रीयता के नाम पर इतर राजनीतिक लक्ष्यों की प्रप्ति में सहायक हो सकें; लेकिन इस तरह का राजनीतिक तनाव कुल मिलाकर कोई शुभ परिणाम नहीं छोड़ पाता।
हमारे भाषा सम्बंधी विश्वासों में राष्ट्रीय भावना की समस्या विशेष रूप से लक्षित होती है। भाषा सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का सबसे अधिक समर्थ माध्यम है इसलिए इससे लगाव होना स्वाभाविक है। लेकिन भारत एक सर्वव्यापी भाषा के न रहते हुए भी इतना भाग्यवान तो है कि एक सजीव राष्ट्रीय संस्कृति पा सका हो। राष्ट्रीय भावना जितनी राजनीतिक एकता को प्रतिबिंबित करती है उस से कहीं अधिक ही राष्ट्रीय सांस्कृतिक भावना को वाणी देती है। अंग्रेजी इस देश में उस उत्तरदायित्व का निर्वाह आज नहीं कर सकती और कभी नहीं कर सकेगी। तब प्रश्न यह रह जाता है कि राष्ट्रीय संस्कृति की जो निधि आज हमें उपलब्ध है उसे क्या हम अधिक सुरक्षित और सम्पन्नतर बनाएंगे, या कि बाँट-बिखेरकर सांस्कृतिक क्षेत्र में भी इस प्रकार विपन्न हो जाएंगे जिस प्रकार ज़मीन का बँटवारा करके अन्न-उत्पादन के क्षेत्र में हो गये?
मैं हिन्दी को राज्यभाषा बनाने का तर्क नहीं दे रहा हूँ। उसे सिद्ध करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। हमारा काम अंग्रेजी से नहीं चल सकता इतना हम मान लें तो उस के आगे के तर्क स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। कोई भी भारतीय भाषा अंग्रेजी का स्थान ले ले, यह मुझे स्वीकार्य है। कौन-सी भारतीय भाषा के लिए इसकी संभावना सबसे अधिक है ? किस को यह स्थान देने में देश को, प्रदेशों को सबसे कम परिश्रम करना पड़ेगा ? इन प्रश्नों के उत्तर जो संकेत करते हैं मैं उससे संतुष्ट हूँ।
लेकिन कुछ राष्ट्रीय संस्थाओं को सभी भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देते हुए और भी कुछ सोचना चाहिए। साहित्य अकादेमी ऐसी राष्ट्रीय संस्थाओं का एक उदाहरण है। यह संस्था प्रतिवर्ष सभी भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को पुरस्कृत करती है। पुरस्कार देने की पद्धति में और भी त्रुटियां हैं जिनकी आलोचना होती रहनी चाहिए, लेकिन यहाँ मैं एक बुनियादी सवाल उठाना चाहता हूँ जिस का संबंध राष्ट्रीय चेतना से है। अकादेमी सब भाषाओं को समान दृष्टि से देखना चाहती है। लेकिन जो मां अपनी सभी सन्तान को समान दृष्टि से देखती है वह विकासशील किशोर और वयस्क युवक को एक-सी मात्रा में भोजन देने में आग्रह नहीं करती। समान दृष्टि से देखना ही असमान व्यवहार को अनिलार्य बना देता है। उस से भी बढ़कर महत्व की बात यह है कि समान दृष्टि आ कहां सकती है अगर आप किन्ही दो को एक साथ रखने रो ही तैयार न हों ? मेरा आग्रह यह रहा है और अब भी है कि भाषाओं के पुरस्कारों के अतिरिक्त और ऊपर, कम से कम एक पुरस्कार ऐसा होना चाहिए जो कि सच्चे अर्थों में 'राष्ट्रीय पुरस्कार' हो – भाषाओं के विचार से ऊपर हो और शुद्ध साहित्यिक प्रतिमानों के आधार पर दिया जाए। इस में और भाषावार पुरस्कारों में कोई विशेष नहीं है, बल्कि वे परस्पर पोषक हैं।
साहित्य अकादेमी, जो अपने को ' नेशनल एकैडमी ऑफ लैटर्स ' कहती है, तबतक ' नैशनल ' नहीं हो सकती जब तक कि लह प्रादेशिक बुद्धि से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय बुद्धि से भी विवेक नहीं कर सकेगी। केवल मात्र प्रादेशिक आधार पर साहित्य को देखना और इसलिए दूसरों को भी उसी संकुचित दृष्टि से देखने को प्रेरित करना राष्ट्रीय कसौटियों के निर्माण में बाधक होना है और व्यापकतर साहित्य-दृष्टि के प्रति अपने उत्तरदायित्व से भागना है। ' अमुक ग्रन्थ कश्मीरी का या असमिया का या हिन्दी का या बंगला का या तामिल का श्रेष्ठ ग्रन्थ है' - यहाँ तक न रहकर हम क्यों न यह भी सोचने को बाध्य किए जायें कि इन सीमित दृष्टियों से श्रेष्ठ ग्रन्थों का व्यापकतर भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में क्या स्थान है ? अगर हम अपने साहित्य को भारतीय दृष्टि से देखने तक भी नहीं बढ़ा सकते तो किस आधार पर वह आशा कर सकते हैं कि हमारे साहित्य को विश्व साहित्य में कोई स्थान मिलेगा ?
मेरी समझ में तो इस संकुचित ढंग से सोचने का-- और यह संकुचन हम हर स्तर पर पाते हैं, प्रादेशिक साहित्यकारों में, भाषाओं की संस्थाओं में, प्रादेशिक अकादेमियों में, राज्यों की सरकारों में और केन्द्र की साहित्य और शिक्षा की संस्थाओं में-- ही परिणाम यह है कि एक ओर हम प्रादेशिकता के कूप मण्डूक बने रहते हैं और दूसरी ओर विदेशी प्रभावों को अन्धाधुन्ध ग्रहण करते जाते हैं और कृतिकार की बजाय अनुकृतिकार होते जाते हैं।
मैं यह स्वप्न देखता हूँ कि सभी भारतीय भाषाओं के कृतिकार इस व्यापकतर दृष्टि को अपना सकेंगे और साहित्य अकादेमी को इतनी प्रेरणा और इतना बल दे सकेंगे ति कम-से-कम एक ऐसे
राष्ट्रीय पुरस्कार की प्रतिष्ठा हो सके। उस में व्यवहार और पद्धति सम्बन्धी कई कठिन समस्याएँ उठेंगी, लेकिन कोई समस्या असाध्य नहीं होगी अगर सही सिद्धांत से आरम्भ किया जाए। हम ' विश्व -शांति-पुरस्कार' की कल्पना कर सकते हैं और समझते हैं कि उसके निर्णय के लिए हम सारे संसार के शांति-कर्मियों के कार्यों का मूल्यांकन कर सकेंगे; हम ' अंतर्राष्ट्रीय फिल्म प्रतियोगिता ' कर सकते हैं और विश्वास करते हैं कि हम न केवल अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से देख और सोच सकते हैं बल्कि उसकी कसौटी पर स्वयं भी खरे उतर सकते हैं; तब क्या एक साहित्य का ही क्षेत्र ऐसा है जिसमें हम रेंग कर चलना आवश्यक मानते हैं ?
' कावेरी' पत्रिका के लिए फरवरी 1965 में लिखित ? ज्ञानपीठ के साहित्य पुरस्कार की स्थापना से एक पुरस्कार तो ऐसा हुआ है जो कि भाषा-प्रदेशों से ऊपर उठकर सार्वदेशिक लक्ष्य सामने रखता है। व्यवहारतः वह कहाँ तक 'राष्ट्रीय' पुरस्कार बन पाया है , साहित्येतर वि।यों से यह सम्भावित रह सका है, ' भाषाओं के विचार से ऊपर' रह सका है और ' शुद्ध साहित्यिक प्रतिभाओं के आदार पर' निर्णीत होने का अविचल लक्ष्य सामने रख सका है, और जन-साधारण में ऐसी प्रतिष्ठा पा सका है, पाँच निर्णयों के बाद भी ऐसा नहीं है कि ये प्रश्न भ्रमित हो गए हों। भाषा और साहित्य में प्रादेशिक आग्रह कम नहीं हुए हैं बल्कि सरकारी संस्थाओं से फैलकर विश्वविद्यालयों में भी जड़ पकड़ गए हैं-- या यों भी कहा जा सकता है कि वि्वविद्यालयों को ही सरकारी संस्थाएं बनाने और मानने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी है।
(साभार 'सर्जना और संदर्भ 'से) -------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
श्रद्धांजलि
तो आमीन अदम गोंडवी, आमीन !
क्या आदमी इतना कृतघ्न हो गया है? खास कर हिंदी लेखक नाम का आदमी।इस में हिंदी पत्रकारों को भी जोड सकते हैं। पर फ़िलहाल यहां हम हिंदी लेखक नाम के आदमी की चर्चा कर रहे हैं क्यों कि पूरे परिदृष्य में अभी हिंदी पत्रकार इतना आत्म केंद्रित नहीं हुआ है, जितना हिंदी लेखक। हिंदी लेखक सिर्फ़ आत्म केंद्रित ही नहीं कायर भी हो गया है। कायर ही नहीं असामाजिक किस्म का प्राणी भी हो चला है। जो किसी के कटे पर क्या अपने कटे पर भी पेशाब करने को तैयार नहीं है। दुनिया भर की समस्याओं पर लफ़्फ़ाज़ी झोंकने वाला यह हिंदी लेखक अपनी किसी भी समस्या पर शुतुर्मुर्ग बन कर रेत में सिर घुसाने का आदी हो चला है। एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। ताज़ा उदाहरण अदम गोंडवी का है। अदम गोंडवी की शायरी में घुला तेज़ाब समूची व्यवस्था में खदबदाहट मचा देता है। झुलसा कर रख देता है समूची व्यवस्था को। और आज जब वह खुद लीवर सिरोसिस से तबाह हैं तो उन की शायरी पर दंभ करने वाला यह हिंदी लेखक समाज शुतुरमुर्ग बन गया है। अदम गोंडवी कुछ समय से बीमार चल रहे हैं।उन के गृह नगर गोंडा में उन का इलाज चल रहा था। पैसे की तंगी वहां भी थी। पर वहां के ज़िलाधिकारी राम बहादुर ने प्रशासन के खर्च पर उन का इलाज करवाने का ज़िम्मा ले लिया था। न सिर्फ़ इलाज बल्कि उन के गांव के विकास के लिए भी राम बहादुर ने पचास लाख रुपए का बजट दिया है। लेकिन जब गोंडा में इलाज नामुमकिन हो गया तो अदम गोंडवी बच्चों से कह कर लखनऊ आ गए। बच्चों से कहा कि लखनऊ में बहुत दोस्त हैं। और दोस्त पूरी मदद करेंगे। बहुत अरमान से वह आ गए लखनऊ के पी जी आई। अपनी रवायत के मुताबिक पी जी आई ने पूरी संवेदनहीनता दिखाते हुए वह सब कुछ किया जो वह अमूमन मरीजों के साथ करता ही रहता है। अदम को खून के दस्त हो रहे थे और पी जी आई के स्वनामधन्य डाक्टर उन्हें छूने को तैयार नहीं थे। उन के पास बेड नहीं था। अदम गोंडवी ने अपने लेखक मित्रों के फ़ोन नंबर बच्चों को दिए। बच्चों ने लेखकों को फ़ोन किए। लेखकों ने खोखली संवेदना जता कर इतिश्री कर ली। मदद की बात आई तो इन लेखकों ने फिर फ़ोन उठाना भी बंद कर दिया। ऐसी खबर आज के अखबारों में छपी है। क्या लखनऊ के लेखक इतने लाचार हैं? बताना ज़रुरी है कि लखनऊ से गोंडा दो ढाई घंटे का रास्ता है। गोंडा भी उन्हें देखने कोई एक लेखक उन्हें लखनऊ से नहीं गया। हालां कि लखनऊ में करोडों की हैसियत वाले भी एक नहीं अनेक लेखक हैं। लखपति तो ज़्यादातर हैं ही। यह लेखक अमरीका और उस की बाज़ारपरस्ती पर चाहे जितनी हाय तौबा करें पर बच्चे उन के मल्टी नेशनल कंपनियों में बडी बडी नौकरियां करते हैं। दस बीस हज़ार उन के हाथ का मैल ही है। लेकिन वह अदम गोंडवी को हज़ार पांच सौ भी न देना पड जाए इलाज के लिए इस लिए अदम गोंडवी के बच्चों का फ़ोन भी नहीं उठाते। देखने जाने में तो उन की रूह भी कांप जाएगी। अब आइए ज़रा साहित्य की ठेकेदार सरकारी संस्थाओं का हाल देखें। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष का बयान छपा है कि अगर औपचारिक आवेदन आए तो वह विचार कर के पचीस हज़ार रुपए की भीख दे सकते हैं। इसी तरह उर्दू अकादमी ने भी औपचारिक आवेदन आने पर दस हज़ार रुपए देने की बात कही है। अब भाषा संस्थान के गोपाल चतुर्वेदी ने बस सहानुभूति गीत गा कर ही इतिश्री कर ली है। अब इन ठेकेदारों को यह नहीं मालूम कि अदम इलाज कराएं कि औपचारिक आवेदन ले कर इन संस्थानों से भीख मांगें। और इन दस बीस हज़ार रुपयों से भी उन का क्या इलाज होगा भला, यह इलाज करवाने वाले लोग भी जानते हैं। रही बात मायावती सरकार की तो खैर उन को इस सब से कुछ लेना देना ही नहीं। साहित्य संस्कृति से इस सरकार का वैसे भी कभी कोई सरोकार नहीं रहा। वह तो भला हो मुलायम सिंह यादव का जो उन्हों ने यह पता चलते ही कि अदम बीमार हैं और इलाज नहीं हो पा रहा है, खबर सुन कर अपने निजी सचिव जगजीवन को पचास हज़ार रुपए के साथ पी जी आई भेजा। पैसा पाते ही पी जी आई की मशीनरी भी हरकत में आ गई। और डाक्टरों ने इलाज शुरु कर दिया। मुलायम के बेटे अखिलेश का बयान भी छपा है कि अदम के पूरे इलाज का खर्च पार्टी उठाएगी। यह संतोष की बात है। कि अदम के इलाज में अब पैसे की कमी तो कम से कम नहीं ही आएगी। और अब यह जान कर कि अदम को पैसे की ज़रुरत नहीं है उन के तथाकथित लेखक मित्र भी अब शायद पहुंचें उन्हें देखने। हो सकता है कुछ मदद पेश कर उंगली कटा कर शहीद बनने की भी कवायद करें। पर अब इस से क्या हसिल होगा अदम गोंड्वी को? अपने हिंदी लेखकों ने तो अपना चरित्र दिखा ही दिया ना ! अभी कुछ ही समय पहले इसी लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल बीमार हो कर हमारे बीच से चले गए। वह प्रशासनिक अधिकारी थे। उन के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। सो इन लेखकों ने उन की ओर से कभी आंख नहीं फेरी। सब उन के पास ऐसे जाते थे गोया तीर्थाटन करने जा रहे हों। चलते चलते उन्हें पांच लाख रुपए का ग्यानपीठ भी मिला और साहित्य अकादमी, दिल्ली ने भी इलाज के लिए एक लाख रुपए दिया। लेकिन कुछ समय पहले ही अमरकांत ने अपने इलाज के लिए घूम घूम कर पैसे की गुहार लगाई। किसी ने भी उन्हें धेला भर भी नहीं दिया। तो क्या जो कहा जाता है कि पैसा पैसे को खींचता है वह सही है? आज तेरह तारीख है और कोई तेरह बरस पहले मेरा भी एक भयंकर एक्सीडेंट हुआ था। कह सकता हूं कि यह मेरा पुनर्जन्म है। यही मुलायम सिंह यादव तब संभल से चुनाव लड रहे थे। उन के कवरेज के लिए हम जा रहे थे। उस अंबेसडर में हम तीन पत्रकार थे। जय प्रकाश शाही,मैं और गोपेश पांडेय । सीतापुर के पहले खैराबाद में हमारी अंबेसडर सामने से आ रहे एक ट्रक से लड गई। आमने सामने की यह टक्कर इतनी ज़बरदस्त थी कि जय प्रकाश शाही और ड्राइवर का मौके पर ही निधन हो गया। दिन का एक्सीडेंट था और मैं भाग्यशाली था कि मेरे आई पी एस मित्र दिनेश वशिष्ठ उन दिनों सीतापुर में एस पी थे। मेरा एक्सीडेंट सुनते ही वह न सिर्फ़ मौके पर आए बल्कि हमें अपनी गाडी में लाद कर सीतापुर के अस्पताल में फ़र्स्ट एड दिलवा कर सीधे खुद मुझे पी जी आई भी ले आए। मैं उन दिनों होम भी देखता था। सो तब के प्रमुख सचिव गृह राजीव रत्न शाह ने भी पूरी मदद की। स्टेट हेलीकाप्टर तक की व्यवस्था की मुझे वहां से ले आने की। मेरा जबडा, सारी पसलियां, हाथ सब टूट गया था। ६ महीने बिस्तर पर भले रहा था और वह तकलीफ़ सोच कर आज भी रूह कांप जाती है। लेकिन समय पर इलाज मिलने से बच गया था। यह १८ फ़रवरी, १९९८ की बात है। उस वक्त मेरे इलाज मे भी काफी पैसा खर्च हुआ। पर पैसे की कमी आडे नहीं आई। मैं तो होश में नहीं था पर उस दिन भी पी जी आई में मुझे देखने यही मुलायम सिंह यादव सब से पहले पहुंचे थे। और खाली हाथ नहीं पहुंचे थे। मेरी बिलखती पत्नी के हाथ पचीस हज़ार रुपए रखते हुए कहा था कि इलाज में पैसे या किसी भी चीज़ की कमी नहीं आएगी। आए तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी और एक लाख रुपए और मुफ़्त इलाज का ऐलान ले कर आए। अटल बिहारी वाजपेयी से लगायत सभी नेता तमाम अफ़सर और पत्रकार भी। नात-रिश्तेदार, मित्र -अहबाब और पट्टीदार भी। सभी ने पैसे की मदद की बात कही। पर किसी मित्र या रिश्तेदार से परिवारीजनों ने पैसा नहीं लिया। ज़रुरत भी नहीं पडी। सहारा के चेयरमैन सुब्रत राय सहारा जैसा कि कहते ही रहते हैं कि सहारा विश्व का विशालतम परिवार है, इस पारिवारिक भावना को उन्हों ने अक्षरश: निभाया भी। हमारे घर वाले अस्पताल में मेहमान की तरह हो गए थे। सहाराश्री और ओ पी श्रीवास्तव खुद अस्पताल में खडे रहे और सारी व्यवस्था खर्च से ले कर इलाज तक की संभाल ली थी। बाद में अस्पताल से घर आने पर अपनी एक बुआ से बात चली तो मैं ने बडे फख्र से इन सब लोगों के अलावा कुछ पट्टीदारों, रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए कहा कि देखिए सब ने तन मन धन से साथ दिया। सब पैसा ले कर खडे रहे। मेरी बुआ मेरी बात चुपचाप सुनती रही थीं। बाद में टोकने पर भोजपुरी में बोलीं, ' बाबू तोहरे लगे पैसा रहल त सब पैसा ले के आ गईल। नाईं रहत त केहू नाई पैसा ले के खडा होत! सब लोग अखबार में पढि लेहल कि हेतना पैसा मिलल, त सब पैसा ले के आ गइल !' मैं उन का मुंह चुपचाप देखता रह गया था तब। पर अब श्रीलाल शुक्ल और अदम गोंडवी का यह फ़र्क देख कर बुआ की वह बात याद आ गई। तो क्या अब यह हिंदी के लेखक अदम गोंडवी से मिलने जाएंगे अस्पताल? पचास हज़ार ही सही उन्हें इलाज के लिए मिल तो गया ही है। आगे का अश्वासन भी। और मुझे लगता है कि आगे भी उन के इलाज में मुलायम कम से कम पैसे की दिक्कत तो नहीं ही आने देंगे। क्यों कि मुझे याद है कि इंडियन एक्सप्रेस के एस के त्रिपाठी ने मुलायम के खिलाफ़ जितना लिखा कोई सोच भी नहीं सकता।मुलायम की हिस्ट्रीशीट भी अगर आज तक किसी ने छापी तो इन्हीं एस के त्रिपाठी ने। पर इसी पी जी आई में जब एस के त्रिपाठी कैंसर से जूझ रहे थे तब मुलायम न सिर्फ़ उन्हें देखने गए थे बल्कि मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष से उन्हें दस लाख रुपए भी इलाज के लिए दिए थे। मुझे अपना इलाज भी याद है कि जब मैं अस्पताल से घर लौटा था तब जा कर पता चला कि आंख का रेटिना भी डैमेज है। किसी ने मुलायम को बताया। तब वह दिल्ली में थे। मुझे फ़ोन किया और कहा कि, 'पांडेय जी घबराइएगा नहीं, दुनिया में जहां भी इलाज हो सके कराइए। मैं हूं आप के साथ। सब खर्च मेरे ऊपर।' हालां कि कहीं बाहर जाने की ज़रुरत नहीं पडी। इलाज हो गया। लखनऊ में ही। वह फिर बाद में न सिर्फ़ मिलने आए बल्कि काफी दिनों तक किसी न किसी को भेजते रहे थे। मेरा हालचाल लेने। पर हां, बताना तकलीफ़देह ही है पर बता रहा हूं कि मेरे परिचित लेखकों में से [मित्र नहीं कह सकता आज भी] कभी कोई मेरा हाल लेने नहीं आया। मैं तो खैर जीवित हूं पर कानपुर की एक लेखिका डा सुमति अय्यर की ५ नवंबर, १९९३ में निर्मम हत्या हो गई। आज तक उन हत्यारों का कुछ अता-पता नहीं चला। सुमति अय्यर के एक भाई हैं आर सुंदर। पत्रकार हैं। उन्हों ने इस के लिए बहुत लंबी लडाई लडी कि हत्यारे पकडे जाएं। पर अकेले लडी। कोई भी लेखक और पत्रकार उन के साथ उस लडाई में नहीं खडा हुआ। एक बार उन्हों ने आजिज आ कर राज्यपाल को ग्यापन देने के लिए कुछ लेखकों और पत्रकारों से आग्रह किया। वह राजभवन पर घंटों लोगों का इंतज़ार करते खडे रहे। पर कोई एक नहीं आया। सुंदर बिना ग्यापन दिया लौट आए। राजभवन से। और बहन के हत्यारों के खिलाफ़ लडाई बंद कर दी। लेकिन वह टीस अभी भी उन के सीने में नागफनी सी चुभती रहती है कि क्यों नहीं आया कोई उस दिन राजभवन ग्यापन देने के लिए ! तो अदम गोंडवी आप ऐसे हिंदी लेखक समाज में रहते हैं जो संवेदनहीनता और स्वार्थ के जाल में उलझा पैसों, पुरस्कारों और जुगाड के वशीभूत आत्मकेंद्रित जीवन जीता है और जब माइक या कोई और मौका हाथ में आता है तो पाठक नहीं हैं का रोना रोता है। समाज से कट चुका यह हिंदी लेखक अगर आप की अनदेखी करता है तो उस पर तरस मत खाइए। न खीझ दिखाइए। अमरीकापरस्ती को गरियाते - गरियाते अब यह लेखक अमरीकी गूगल और फ़ेसबुक की बिसात पर क्रांति के गीत गाता है। और ऐसे समाज की कल्पना करता है जो उसे झुक झुक कर सलाम करे। फासीवाद का विरोध करते करते आप का यह लेखक समाज खुद बडा फ़ासिस्ट बन गया है अदम गोंड्वी ! आप गज़ल लिखते हैं तो एक गज़ल के एक शेर में ही बात को सुनिए, ' पत्थर के शहर,पत्थर के खुदा, पत्थर के ही इंसा पाए हैं/ तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं !' तो आमीन अदम गोंड्वी, आमीन !
(सरोकार की तरह प्रस्तुत यह आलेख अभी छप भी नहीं पाया था कि हम सबके प्रिय कवि और शायर गोंडवी हमें छोड़कर चले गए। प्रस्तुत है दयानंद जी की ही कलम से भावभीनी श्रद्धांजलि।)
अदम गोंडवी आज सुबह क्या गए लगता है हिंदी कविता की सुबह का अवसान हो गया। हिंदी कविता में नकली उजाला, नकली अंधेरा, बिंब, प्रतीक, फूल, पत्ती, चिडिया, गौरैया, प्रकृति, पहाड आदि देखने- बटोरने और बेचने वाले तो तमाम मिल जाएंगे पर वह मटमैली दुनिया की बातें बेलागी और बेबाकी के साथ करने वाले अदम को अब कहां पाएंगे?
कबीर सा वह बांकपन, धूमिल सा वह मुहावरा, और दुष्यंत सा वह टटकापन सब कुछ एक साथ वह सहेजते थे और लिखते थे - गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे/पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें। अब कौन लिखेगा- जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/ कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे। या फिर काजू भुनी प्लेट मे ह्विस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में। या फिर, जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में/ परधान बन के आ गए अगली कतार में।
गुज़रे सोमवार जब वह आए तभी उनकी हालत देख कर अंदाज़ा हो गया था कि बचना उन का नमुमकिन है। तो भी इतनी जल्दी गुज़र जाएंगे हमारे बीच से वह यह अंदाज़ा नहीं था। वह तो कहते थे यूं समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी गज़ल में। और जो वह एशियाई हुस्न की तसवीर लिए अपनी गज़लों में घूमते थे और कहते थे कि, आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में/ मैं रहूं न रहूं भूख मेज़बां होगी। और जिस सादगी से, जिस बुलंदी और जिस टटकेपन के ताव में कहते थे, जिस निश्छलता और जिस अबोधपन को जीते थे कविता और जीवन दोनों में अब वह दुर्लभ है। तुम्हारी फ़ाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आंकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है। या फिर ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चांद-आइना-गुलाब/भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब। उनके शेरों की ताकत देखिए और फिर उनकी सादगी भी। देखता हूं कि लोग दू ठो कविता, दू ठो कहानी या अलोचना लिख कर जिस अहंकार के सागर में कूद जाते हैं और फ़तवेबाज़ी में महारत हासिल कर लेते हैं इस बेशर्मी से कि पूछिए मत देख कर उबकाई आती है।
पर अदम इस सब से कोसों दूर ठेंठ गंवई अंदाज़ में धोती खुंटियाये ऐसे खडे हो जाते थे कि उन पर प्यार आ जाता था। मन आदर और श्रद्धा से भर जाता था। और वो जो शमशेर कहते थे कि बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही को साकार करते जब उन की गज़लें बोलती थी और प्याज की परत दर परत भेद खोलती थीं, व्यवस्था और समाज की तो लोग विभोर हो जाते थे। हम जैसे लोग न्यौछावर हो जाते थे।
अदम मोटा पहनते ज़रूर थे पर बात बहुत महीन करते थे। उनके शेर जैसे व्यवस्था और समाज के खोखलेपन और दोहरेपन पर तेज़ाब डालते थे। वह उनमें से नहीं थे कि कांख भी छुपी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे। वह तो जब मुट्ठी तानते थे तो उनकी कांख भी दीखती ही थी। वह वैसे ही नहीं कहते थे कि- वर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी गज़ल। तो गज़ल को जामो मीना से निकाल कर शमशीर की शक्ल देना और कहीं उस पर पूरी धार चढा कर पूरी ताकत से वार भी करना किसी को जो सीखना हो तो अदम से सीखे।
हां वह व्यवस्था से अब इतना उकता गए थे कि उनकी गज़लों में भूख और लाचारी के साथ साथ नक्सलवाद की पैरवी भी खुले आम थी। उन का एक शेर है- ये नई पीढी पे मबनी है वही जजमेंट दे/ फ़लसफ़ा गांधी का मौजू है के नक्सलवाद है। वह यहीं नहीं रुके और लिख गए कि -लगी है होड सी देखो अमीरों और गरीबों में/ ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है/ तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के/ यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।
अदम के पास अगर कुछ था तो बेबाक गज़लों की जागीर ही थी। और वही जागीर वह हम सब के लिए छोड गए हैं। और बता गए हैं कि - घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/ बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है। वह तो बता गए हैं - भीख का ले कर कटोरा चांद पर जाने की ज़िद / ये अदा ये बांकपन ये लंतरानी देखिए/ मुल्क जाए भाड में इससे इन्हें मतलब नहीं/ कुर्सी से चिपटे हुए हैं जांफ़िसानी देखिए। वह बताते भी थे कि अदम के साथ गमों की बरात होती है। तो लोग ज़रा नहीं पूरा बिदक जाते थे। घुटनों तक धोती उठाए वह निपट किसान लगते भी थे।
पर जब कवि सम्मेलनों में वह ठेंठ गंवई अंदाज़ में खड़े होते थे तो वो जो कहते हैं कि कवि सम्मेलन हो या मुशायरा लूट ले जाते थे। पर यह एक स्थिति थी। ज़मीनी हकीकत एक और थी कि कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उन्हें वाहवाही भले सब से ज़्यादा मिलती थी, मानदेय कहिए, पारिश्रमिक कहिए उन्हें सब से कम मिलता था। लतीफ़ेबाज़ और गलेबाज़ हज़ारों में लेते थे पर अदम को कुछ सौ या मार्गव्यय ही नसीब होता था। वह कभी किसी से इसकी शिकायत भी नहीं करते थे। रोडवेज की बस या रेलगाडी के जनरल डब्बे में सवारी बन कर चलना उन की आदत थी।
वह आम आदमी की बात सिर्फ़ कहते भर नहीं, आम आदमी बन कर रहते जीते भी थे। उन के पांव की बिवाइयां इस बात की बराबर चुगली भी खाती थीं। वह वैसे ही नहीं लिख गए कि, भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो/ या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो/ जो गज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई/ उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो। और वह बेवा की माथे की शिकन से और आगे भी गज़ल को ले भी आए इस बात का हिंदी जगत को फख्र होना चाहिए। उनकी शुरुआत ही हुई थी चमारों की गली से। कि- ''आइए, महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को/ मैं चमारो की गली तक ले चलूंगा आप को''। इसी कविता ने अदम को पहचान दी। फिर ''काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में'' शेर ने उन्हें दुनिया भर में परिचित करवा दिया। उनकी तूती बोलने लगी। फिर तो वह हिंदी गज़ल की मुकम्मल पहचान बन गए।
उर्दू वालों ने भी उन्हें सिर माथे बिठाया और उनकी तुलना मज़ाज़ से होने लगी। ''समय से मुठभेड़'' नाम से जब उनका संग्रह आया तो सोचिए कि कैफ़ भोपाली ने लंबी भूमिका हिंदी में लिखी और उन्हें फ़िराक, जोश और मज़ाज़ के बराबर बिठाया। हिंदी और उर्दू दोनों में उनके कद्रदान बहुतेरे हो गए। तो भी अदम असल में खेमे और खाने में भी कभी नहीं रहे। लोग लोकप्रिय होते हैं वह जनप्रिय थे, जनवाद की गज़ल गुनगुनाने और जनवाद ही को जीने ओढने और बिछाने वाले। यह अनायास नहीं था कि उनके पास इलाज के लिए न पैसे थे न लोगबाग। अपने जन्म दिन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में मुलायम भी उनकी सादी और बेबाक गज़लों पर रीझ जाते थे।
मुलायम उन्हें भूले नहीं। अबकी जब वह बीमार पडे तो न सिर्फ़ सब से पहले उन्होंने इलाज खर्च के लिए हाथ बढाया बल्कि आज सुबह जब पांच बजे उनके निधन की खबर आई तो आठ बजे ही मुलायम सिंह पीजीआई पहुंच भी गए। बसपा की रैली की झंझट के बावजूद। न सिर्फ़ पहुंचे उन का पार्थिव शरीर गोंडा में उन के पैतृक गांव भिजवाने के लिए सारा प्रबंध भी करवाया। लखनऊ से गोंडा तक रास्ते भर लोगों ने उनका पार्थिव शरीर रोक रोक कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। लखनऊ में भी बहुतेरे लेखक और संस्कृतिकर्मियों समाजसेवियों ने उन्हें पालिटेक्निक चौराहे पर श्रद्धांजलि दी। उनके एक भतीजे को पानीपत से आना है। सो अंत्येष्टि कल होगी।
अदम अब नहीं हैं पर कर्जे में डूब कर गए हैं। तीन लाख से अधिक का कर्ज़ है। किसान सोसाइटी से डेढ लाख लिए थे अब सूद लग कर तीन लाख हो गए हैं। रिकवरी को लेकर उनके साथ बदतमीजी हो चुकी है। ज़मीन उनके गांव के दबंगों ने दबा रखी है। है कोई उनके जाने के बाद भी उन के परिवारीजनों को इस सब से मुक्ति दिलाने वाला? एक बात और। अदम गोंडवी का निधन लीवर सिरोसिस से हुआ है। यह सभी जानते हैं। पर यह लीवर सीरोसिस उन्हें कैसे हुई कम लोग जानते हैं।
वह ट्रेन से दिल्ली से आ रहे थे कि रास्ते में उनके साथ जहर खुरानी हो गई। वह होश में तो आए पर लीवर डैमेज करके। जाने क्या चीज़ जहरखुरानों ने उन्हें खिला दी। पर अब जब वह बीमार हो कर आए तो उन की मयकशी ही चरचा में रही। यह भी खेदजनक था। उनके ही एक मिसरे में कहूं तो- आंख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे। तो कोई कुछ भी नहीं कर सकता। उनके एक शेर में ही बात खत्म करुं कि, एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए/ चार छै चमचे रहें माइक रहे माला रहे। अब यह बात हर हलके में शुमार है अदम गोंडवी, यह भी आप जान कर ही गए होंगे। पर क्या कीजिएगा भारत भूषण का एक गीत है कि ये असंगति ज़िंदगी के साथ बार बार रोई/ चाह में और कोई/ बांह में और कोई!
-दयानंद पाण्डेय
भारत भूषण
भारत भूषण हिंदी के एक ऐसे गीतकार हैं जिनकी तुलना किसी भी कवि से नहीं की जा सकती है |गहरी संवेदनाएं और सरल अभिव्यक्ति ,दूध की धारा की तरह बहते हुए गीत पढ़ने और सुनने वाले मंत्रमुग्ध ,कविता का एक तिलिस्म गढ़ते हैं भारत भूषण |हिंदी कविता के आँगन में आज मातम है ,गीत के भवन में अचानक अन्धेरा छा गया है ,वेदना को गीतों की माला में पिरोने वाला और अनहद को गाने वाला कवि ,हमारा अपना कवि ,हमारा गीतकार भारत भूषण आज हमारे बीच सदेह नहीं रहा | मैं गीत बेच कर घर आया ,सीमेंट और सरिया लाया ,हे ईश्वरमुझे छमा करना " अथवा यह असंगति ज़िन्दगी के द्वार सौ सौ बार रोई ,चाह में है और कोई , बांह में है और कोई |"जैसी विसंगतियों के कवि भारत भूषण का १७ दिसंबर २०११ को मेरठ के लोक प्रिय अस्पताल में हृदय गति रुक जाने के कारण निधन हो गया |जिस दिल के लिए जीवन भर गीतों के तोहफे सजाते रहे वही दिल आखिरकार उन्हें धोखा दे गया |"राम की जल समाधि " गाते गाते अंततः भारत जी अखंड समाधि में चले गए | उनकी "पाप" शीर्षक की रचना "जो में न होता कहीं धरा पर ,धरा बनी ये मशान होती / न मंदिरों में मृदंग बजते न मस्जिदों में अजान होती ", संपूर्ण हिंदी जगत में प्रसिद्ध हुई | उनके तीन काव्यसंग्रह "सागर क सीप (1958)" ,"ये असंगति (1993)", तथा "मेरे चुनिन्दा गीत (2008)" में प्रकाशित हुए |भारत जी १९४६ से हिंदी कवि सम्मलेन से जुड़े और संपूर्ण देश में अपार ख्याति प्राप्त की | २७ फरवरी २०११ को नयी दिल्ली में उनका आखिरी कविसम्मेलन हुआ |वे बहुत दिनों से लकवा ग्रस्त थे |हिंदी मंच के महान कवियों बच्चन जी ,दिनकर ,वीरेंद्र मिश्रा .गोपाल सिंह नेपाली .रमानाथ अवस्थी ,महादेवी वर्मा , आनंद शर्मा , राम नरेश त्रिपाठी , राम कुमार वर्मा , आचार्य बृजेन्द्र अवस्थी ,चन्द्र शेखर मिश्र ,रूप नारायण त्रिपाठी ,श्रीपाल सिंह छेम ,काका हाथरसी तथा गोपाल प्रसाद व्यास आदि के साथ मंच पर जगमगाते रहे | ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे भारत जी का आत्मीय स्नेह प्राप्त था | वे मेरी वीर रस की कविताओं के प्रशंसक तो थे ही मेरे गीतों , गजलों , और छंदों के भी प्रशंसक थे |वे अक्सर कहा करते थे "नरेश तुम्हारे अन्दर कविता संपूर्ण रूप से विद्यमान है |तुम्हारी भाषा , शिल्प और भावों का सामंजस्य सदैव छंद के अनुकूल होता है |" उनकी स्मृतियाँ मेरी धरोहर है | हिंदी जगत में उनकी रिक्तता को कोई नहीं भर पाएगा | मेरी व्यक्तिगत क्षति हुई है |जब जब उनकी याद आएगी आंखें बरबस भीग जाएंगी | भारत जी अपने पीछे गीतों का एक संसार अपनी अर्धांगिनी शारदा देवी ,पुत्र कुमार पाटल तथा पुत्री जूही का भरा पूरा परिवार छोड़ गए |वर्ष २००६ में जब मैंने अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ द्वारा गीत को केंद्र में रख कर गन्ना संस्थान सभागार लखनऊ में "रंग स्मृति समारोह "का आयोजन किया तो मैनें उन्हें शारदा सम्मान ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया तो अस्वस्थ होने के कारण उन्होने क्षमा मांग ली |मैंने उन्हें पीठ की पत्रिका "उपलब्धि में कई बार छापा |५० से अधिक कवि सम्मेलनों में उनके साथ काव्य पाठ किया |ये मेरा सौभाग्य है कि मेरे संचालन में उन्होंने कई बार काव्य पाठ किया है | हिंदी जगत उनके अभाव को महसूस करता हुआ उन्हें कभी भुला नहीं पाएगा |डॉ नरेश कात्यायन के द्वारा शोक संवेदना व्यक्त करने के साथ पीठ द्वारा आयोजित शोक सभा प्रारंभ हुई |वेदना के इन क्षणों में अपनी श्रदधान्जलियाँ व्यक्त करने वालों में श्रीमती पुष्पा सुमन ,डॉ. आमिर रियाज ,अरुण मिश्र , सुरेश उजाला ,सुनील बाजपेई , अनंत प्रकाश तिवारी ,वीरेंद्र कुसुमाकर ,डॉ. कमलेश दिवेदी (कानपूर ) फारुक सरल(लखीमपुर ),पवन बाथम (कायमगंज ),विनय कुमार एडवोकेट (इलाहाबाद )कु.दिव्या मिश्रा एवं कु. काव्या मिश्रा आदि साहित्यकार थे |शोक सभा भारत भूषण के निधन का समाचार पाते ही अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ के मुख्यालय -२०१, राजकीय कालोनी ,सेक्टर -२१ इंदिरा नगर लखनऊ में दिनांक १८/१२/२०११ प्रातः दस बजे आयोजित की गयी
डॉ. नरेश कात्यायन अध्यक्ष ,अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ ,लखनऊ
विधुरचंद का बडा भयंकर दबदबा था। क्या किसी सामंत या आला हाकिम का खौफ होगा इतना उन दिनों, जब देश को आजाद हुए दशकों बीत गए हों और सरकारी नौकरियों में कर्मचारी पेंशन भोगी हो चुके हों। काम के बदले चाटुकारिता और सुविधा शुल्क, जब देश का चरित्र बन चुका हो और भ्रष्टाचार सहज कर्तव्य। राजनीतिक भ्रष्टाचार का तो कोई ओर छोर ही न रहा हो और जनता मजबूरन उसे एक रूटीन मान्यता भी दे चुकी हो। तब आप कल्पना कीजिए कि राष्ट्र के बेहतरीन युवा इन्जीनियर विधुरचंद के आतंक के कारण, बगैर कोई आवाज किए दबे पाँव ऑफिस में घुसते हों और बेवजह घंटों डांट खाते हों, भी-भी गालियाँ सुनते हों और सर झुकाए खड़े रहते हों, विधुरचंद भारत सरकार के एक उर्जा उपक्रम के प्रबंधक थे, नया-नया पी एस यू. था तब तक वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की हवा बहने का कोई अंदेशा तक नहीं था।
आपात्काल हाल ही में खत्म हुआ था। रुड़की इन्जीनियरिंग कॉलेज से सिविल इन्जीनियरिंग में विधुरचंद ने डिग्री हासिल की थी। द्वितीय श्रेणी में पास हुए थे नौकरी मिलना आसान नहीं था। इधर उधर भटकने के बाद एक प्रायवेट फर्म में जो बिल्डिंग कान्सट्रक्शन का काम करती थी वे बहुत कम तनख्वाह पर लगे थे। फिर दो तीन और प्राइवेट कंपनियों में ठिब्बे खाने के बाद लीबिया के लिए वान्ट्स निकली जिसमें उन्हें मौका मिल गया सो वे चले गए। उनका दो वर्ष का कान्ट्रेक्ट था लौटकर आए तो बिल्ली के भाग से छींका टूटा। वह एसू में सहायक अभियंता (सिविल) नियुक्त हो गए।
विधुरचंद की यहाँ पौ बारह थी। सिविल इन्जीनियर थे ही, प्राइवेट कंपनियों में काम भी करा चुके थे, सो ईंट, रेत, सीमेंट, लोहे का अनुपात अच्छी तरह समझते थे। ऊपर से लीबिया में रहकर कमाई कर आए थे तो पैसा बनाने की उनमें खासी ललक थी।
फिर यहाँ अच्छा मौका भी मिल गया था। जब पैसा बन रहा हो तो और भी शौक अनायास ही रास आने लगते हैं। गुणी ठेकेदारों की आनंददायी सोहबत और दिल्ली की चमक-दमक, विधुरचंद अब आसमान में कुलाचें भरने लगे। पश्चिमप्रेरित आधुनिकता, विचारों की स्वतंत्रता, अराजकता और यौवन की मदहोशी, विधुरचंद के जीवन मूल्य बन चुके थे। उनमें एक अनचाहा दर्प प्रवेश कर गया था। दिन में दफ़तर और साइट पर वह लोगों को उपकृत करते, उन्हें डांटते फटकारते। इस सब से विधुरचंद को बड़ी तुष्टि मिलती। वह सोचते कि वे लोगों से अलग हैं, उनसे ऊपर हैं। शाम को वह कनाट प्लेस की रंगीनियों में खो जाते। रात होते न होते ठेकेदारों के सौजन्य से मदिरा पान की व्यवस्था होती। उन्हें लगने लगा जीवन जीने की यह बेहतरीन शैली है। जीवन का भरपूर आनंद अब ले लेना चाहिए। उनके कदम यौवन की रंगीनियों की तलाश में मुड़ चले। यूँ इस मामले में वह बचपन से ही उस्ताद थे। विवाहित महिलाओं से मित्रता रखना उनका विशेष शौक था। एक बार एक क्लर्क के घर पकडे़ जाने पर पिटे भी। मगर यह सब करने के लिए इतनी रिस्क तो लेनी ही पड़ती है, ऐसी उनकी मान्यता थी।
विधुरचंद को नौकरी करते हुए करीबन सात वर्ष हो चुके थे। तीन वर्ष देश की प्राइवेट कंपनियों में, दो लीबिया में और अब दो वर्ष यहाँ भी हो चुके थे। उम्र तीस के पास पहुँचने को थी। एक दिन पिता ने अचानक उन्हें घर बुला भेजा। पिता से विधुरचंद बहुत डरते थे, तत्काल छुट्टी लेकर घर पहुँचे। पिता बहुत क्रोधी स्वभाव के थे।पिता के क्रोधी होने के कारण ही प्रतिक्रिया स्वरूप विधुरचंद के जीवन में अराजकता भी पनपी थी फिर भी वह पिता की बात मानते थे। पिता ने घर बुलाने का कारण बताते हुए कहा, ’मैंने तुम्हारे लिए एक लड़की देख ली है, इसी वर्ष विवाह होना है।’ विधुरचंद एकाएक इस स्थिति से दो चार होने को तैयार नहीं थे। उनकी अपनी कल्पनाऐं थीं, सुंदर पढ़ी-लिखी उच्च अधिकारी की लड़की, दहेज में स्कूटर, मोटर-गाड़ी और भी बहुत कुछ। उन्हें पिता का निर्णय बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, यह बात माँ भी जानती थीं। माँ ने पिता को समझाने की कोशिश की, नोंकझोंक भी हुई, पर पिता जिद के पक्के थे। उन्होंने किसी की कोई बात नहीं सुनी और एक व्यवसायी की कन्या से विधुरचंद का विवाह तय हो गया। विधुरचंद पिता की बात नहीं टाल सकते थे, उन्होंने परिस्थितियों से समझौता कर लिया। विवाह खूब धूमधाम से हुआ। पत्नी देखने में सामान्य मगर पढ़ी-लिखी थी। समय बीतने लगा। उनकी साइट का काम भी खत्म होने को था। इधर पुराने बॉस का तबादला हो गया और नए एक्स ई एन उनके बॉस हो गए।
मैटेरियल रिकौंसिलेशन शुरू हो गया था। फरवरी का महीना था। विधुरचंद को अजीब सी बेचैनी महसूस होती। अक्सर वह मित्रों के साथ बैठकर मदिरा पान करते रहते। शाम को अकेले ही कनाट प्लेस घूमने चल देते, मिन्टो ब्रिज होकर रात देर से घर लौटते। उनका यह नित्य का रूटीन बन गया। किसी भी भारतीय भावुक पत्नी को यह सब अच्छा नहीं लग सकता। उनकी पत्नी भी परेशान रहतीं, अन्दर ही अन्दर घुटतीं, रोतीं। विधुरचंद से शिकायत करतीं, समझाने की कोशिश करती। विधुरचंद पर कोई फर्क नहीं पड़ता, उनका एक ही जवाब रहता, ’तुम व्यर्थ ही परेशान होती हो, जमाना बदल रहा है, अपने को हर हाल में खुश रखना सीखो।’ जब कोई अपनी मनमानी पर उतर आए तो दूसरे व्यक्ति से उसकेमतभेद बढ़ने लगते हैं। पति-पत्नी में नोंकझोंक, कहा सुनी की नौबत आ जाती है। विधुरचंद के साथ भी यही हुआ, लड़ाई-झगड़ा उनके पारिवारिक जीवन का नियमित अंग बनने लगा। इधर विधुरचंद द्वारा कराए गए काम को लेकर नए एक्स.इएन. असंतुष्ट थे। मैटेरियर रिकौंसिलेशन की गति से वह प्रसन्न नहीं थे। ठेकेदारों से विधुरचंद के गहरे संबंधों की सूचनाऐं भी एक्स. ई. एन. को अपने अन्य मातहतों से मिल चुकी थीं इसी के चलते विधुरचंद को उन्होंने टाईट करना शुरू किया। बात-बात पर दफ़्तर में बुलाकर फटकारते, चाहते कि विधुरचंद टूट जाऐ और अपनी तमाम गलतियाँ स्वीकार कर लें। विधुरचंद को यह मंजूर नहीं था। उन्होंने परोक्ष रूप से एक्स. ईएन. पर आक्षेप लगाए कि वह अपनी जेब गरम करना चाहते हैं। अब घर और दफ़्तर दोनों मोच… पर विधुरचंद ने जंग छेड़ दी थी। वह और अधिक शराब पीते, अधिक देर से घर पहुँचते। आवारागर्दी करते। अपने किसी काम में रुचि न लेते। इसका अपेक्षित परिणाम हुआ। उन्हें मेमो इश्यू हुए, उनके काम पर इन्क्वायरी बैठ गई, उन्हें और आगे काम नहीं दिया गया उनके मातहतों को अधिक तवज्जो दी जाने लगी। उनका बकाया काम, दूसरे सबडिवीजन के सहायक अभियंता को दे दिया गया। स्टोर्स और मैटेरियल को लेकर दिनभर वह परेशान रहते, रात को ग्रहयुद्ध होता। इस तरह पूरा एक वर्ष बीत गया। अन्तत: उनकी सर्विस बुक में उनके खिलाफ गंभीर एँट्रीज हुई। कांफिडेन्शियल रिपोर्ट भी खराब हो गई। उन्हें दूसरे सब डिवीजन में अटैच कर दिया गया। लेकिन सुधरने के बजाय बिगड़ना ही विधुरचंद को अधिक रास आया। पत्नी की परवाह किए बगैर वह रंगरेलियों में पूरी तरह मस्त हो गए।
झगड़ा दिनोंदिन बढ़ता गया। पत्नी उन्हें रोकती, वह नहीं मानते। मारपीट होती, गाली गलौच, पत्नी को नीचा दिखाने का वह हर संभव प्रयास करते आखिर बात ससुराल तक पहुँच गई। समझाने के सारे प्रयास व्यर्थ गए। ससुराल वाले बहुत दुखी थे, पत्नी अब महीनों वहीं पड़ी रहतींकभी-कभार ससुराल जातीं तो वहाँ दूसरी परेशानियाँ होती। उनके विवाह को दो वर्ष से अधिक बीत गए थे। विधुरचंद के घरवालों की अपेक्षा थी कि घर में कोई नन्हा मुन्ना आए लेकिन यह भी नहीं हो पा रहा था, कारण घरवाले नहीं समझ पा रहे थे। उधर विधुरचंद नौकरी से असंतुष्ट हो गए थे। वह वहाँ ठीक से चल नहीं पा रहे थे जहाँ भी रिक्तियाँ देखते, प्रार्थना पत्र भेज देते, पर कहीं से कोई बुलावा नहीं आता। कभी एक आध बार बुलावा आया तो इन्टरव्यू में अटक गए। तकनीकी पक्ष में तो पहले से ही कमजोर थे, फिर पारिवारिक क्लेश और नौकरी के दबाव ने उन्हें बिल्कुल तोड़ के रख दिया था। संयोग से उन्हीं दिनों विद्युत ऊर्जा का नया निगम बना था। वहाँ सिविल इन्जीनियर की रिक्तियाँ निकलीं, यहाँ उन्हें कुछ उम्मीद बँधी क्योंकि जगहें बहुत थीं। इन्टरव्यू हुआ, अच्छा नहीं रहा, वह पूर्ववत निराश हो गए। कुछ समय बाद अचानक जब ऑफर मिला तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ परन्तु यह उतना आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि नये निगम को अनुभवी व्यक्तियों की आवश्यकता थी। इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, प्रायवेट कंपनियों के अनुभवी तथा अन्य निगमों के इन्जीनियर उनकी आवश्यकता के अनुरूप थे। उनके अपने नए शिक्षणार्थियों की जेनरेशन अभी वहाँ तैयार होने को थी।
विधुरचंद दिल्ली में ही रहना चाहते थे, उन्हें दिल्ली में ही पोiस्टंग मिल भी गई। शुरू शुरू में तो नई नौकरी, नया ढंग, नया माहौल उन्हें अच्छा लगा पर यह नौकरी अजीब थी। सुबह ठीक साढ़े आठ बजे दफ़्तर पहुँचना, शाम साढ़े पाँच बजे छूटना, लेकिन अधिकांश लोग उसके बाद भी सीट से चिपके होते लगता अभी न जाने कितना और काम बाकी है जो पूरा किए बिना वे नहीं उठेंगे। छ: साढ़े छ: से पहले वे नहीं उठते। विधुरचंद तो एसू में जब चाहे कहीं भी जा सकते थे कोई ओवरटाइम थोड़े करना था जो देर तक रुके रहते यह तो बाबुओं और लाइनमैनों का काम था। यहाँ सभी इन्जीनियर थे, न बाबू, न चपरासी, न ओवरसियर, फिर भी बैठे रहते थे। कोई साहब कहने वाला नहीं, एक ही कमरे में कई-कई टेबिलें, विधुरचंद को बहुत अजीब लगता, कभी-कभी वह रुआँसे हो उठते। अपनी पुरानी नौकरी से तुलना करते, कहाँ ऐसू का असिस्टेन्ट इन्जीनियर, कहाँ ये फटीचर वरिष्ठ अभियंता, गजब का फर्क था दोनों में। यहाँ न कोई पावर, न स्टेटस। इन्जीनियर्स की इतनी मिट्टी तो प्राइवेट कंपनियों में भी खराब नहीं होती। विधुरचंद जरा सी जगह में गोदरेज की रिवाल्विंग चेयर पर बैठते, क्लर्क वाला काम करते। हाँ यह गोदरेज वाली कुर्सी जरूर नहीं थी एसू में फिर भी वहाँ अच्छा खासा रुतबा रहता था। बैठे रहने की इतनी आदत उन्हें थी नहीं, चैन नहीं पड़ता,पर नौकरी तो करनी थी।
पत्नी को मायके वाले ले गए थे। सारे सुलह समझौते के प्रयत्न विफल हो जाने पर ऐसा करना उनकी मजबूरी थी। विधुरचंद अब अकेले थे, उन्हें अकेले ही रहने में मजा भी आता था। वह प्रसन्न थे, एक भारी आफत से पीछा छुट गया था। धीरे-धीरे ससुराल पक्ष और घर वालों को भी यह पता चल गया कि विधुरचंद अपना वंश चला पाने में अक्षम थे, इसमें उनकी पत्नी का कोई दोष नहीं था इसके लिए तमाम डाक्टरी टेस्ट कराए जा चुके थे। समय बीतते देर नहीं लगती, नई नौकरी में तीन वर्ष बीत गए। अब प्रमोशन की बात थी, यहाँ हर तीन वर्षों में प्रमोशन होता था। प्रमोशन पाने के लिए सब जी जान से मेहनत करते। बॉस की जबान से निकली हर बात का पालन करना, यस सर-यस सर की रट लगाना, बुलावा आने पर दौड़ कर जाना। विधुरचंद सोचते, इस नौकरी से तो पान की दुकान लगाना कहीं अच्छा है। लेकिन धीरे-धीरे वह भी इस दौड़ में शामिल होते गए। वह देखते, यहाँ बड़े अधिकारी एकाएक दबाव सृजित करते हैं, बेमतलब उस बात के पीछे आठ-दस इन्जीनियर दौड़ पड़ते हैं। एक छोटा सा काम, जिसे बहुत आसानी से भी किया जा सकता था, उसके पीछे अच्छी खासी घुड़-दौड़ होती। बेचारे इन्जीनियर! हर कोई अपने साथी से आगे निकलना चाहता है, ऊपर वाले इस घुड़-दौड़ का मजे से आनंद लेते। यहाँ के आला अफसरान अच्छे नौटंकिया हैं, घर पर आराम और चमक-दमक का जीवन जीते हैं पर ऑफिस में बैठते ही उनमें चाबी भर जाती है। बीच के अफसर, प्रबंधक उनके पक्के चमचे बने रहते हैं लगता है इनसे ज्यादा मेहनती, गंभीर, और निगम का भला चाहने वाला और कोई नहीं है, हर जगह दौहरे मानदण्ड। विधुरचंद की भी कोशिश इस घुड़-दौड़ में शामिल होने की थी, उन्हें भी प्रमोशन की चिन्ता सताने लगी। पुरानी नौकरी में तो सीनियरिटी के आधार पर तरक्की होती थी, समय भी काफी लगता था। वहाँ के स्टेटस की याद करने पर विधुरचंद के मन में एक कसक उठती।
सी पी सी का समय भी आया। सबको अपने-अपने प्रमोशन का इन्तजार था। विधुरचंद अब काफी गंभीर हो गए थे सोच रहे थे कि अब उप प्रबंधक हो जाऐगे, शायद कुछ पावर भी बढ़े। सी पी सी का रिजल्ट आने में देर हो रही थी, अटकलें लगाई जा रही थीं, किसका प्रमोशन होगा, किसका नहीं। ऐसे में शुक्रवार की शाम छ: बजे लिस्ट निकली। पर्सनल डिपार्टमेन्ट के अलावा बाकी लोगों को भनक भी नहीं लग पाई। इक्का-दुक्का जो लोग वहाँ बचे, उन्होंने लिस्ट देखी। विधुरचंद उस दिन संयोग से देर तक कुर्सी पर बैठे थे। वह कुर्सी से उठने के बाद जाने क्यों पर्सनल डिपार्टमेन्ट की तरफ से गुजरे। वहाँ कुछ लोग इकट्ठा थे, लिस्ट देख रहे थे। उनकी भी उत्सुकता जागी, नोटिस बोर्ड की तरफ बढ़े, वह कुछ नर्वस थे उन्होंने लिस्ट पर जल्दी से नजर घुमाई। पूरी लिस्ट एक बार देखने के बाद उन्होंने दुबारा फिर ध्यान से देखा वहाँ खड़े लोगों से एक बार पूछ भी लिया। अपना नाम न पाकर वह विह्वल हो उठे। अब वहाँ और ठहर पाना उनके वश में नहीं था। वह एकांत में बैठकर रो लेना चाहते थे। सीधे घर पहुँचे। बोतल में थोड़ी व्हिस्की बची पड़ी थी, वह हलक से नीचे उतारी, फिर आंय-बांय बकने लगे। टेबिल पर पड़ा अखबार जमीन पर फेंका और बिस्तर पर गिर पड़े। उन्हें बहुत बुरा लग रहा था, जीवन के सभी महत्वपूर्ण ठिकानों पर वह असफल महसूस कर रहे थे। उन्होंने तकिया उठाकर सीने से भींच लिया, सिसकने लगे और अन्तत: सो गए।
सुबह आँख खुलने पर विधुरचंद को बहुत खाली-खाली और लुटा-पिटा सा महसूस हो रहा था। ऐसे में पहली बार उन्हें अपनी पत्नी की याद आई सोचा छुट्टी लेकर पहले घर चले जाऐगे, उसके बाद ससुराल जाकर पत्नी को ले आने की कोशिश करेंगे। अगले रोज ऑफिस पहुँच कर उन्होंने देखा, जो पदोन्नत हो गए थे, लोग उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे। उन्हें देखकर लोगों ने औपचारिकतावश ’हार्ड लक’ कहा। वह चुपचाप बॉस के केबिन की तरफ बढ़ गए। वह किसी भी तरह कुछ दिनों के लिए इस माहौल से दूर जाना चाहते थे। वह छुट्टी का कार्ड लेकर बॉस के केबिन में घुसे उनकी बात सुनकर बॉस बोले, ’आय कैन अन्डरस्टैंड योर कंडीशन, बट ऐसे निराश होने से काम नहीं चलेगा। अभी यहाँ बहुत काम बाकी है, अभी छुट्टी मत लो।
विधुरचंद अपनी बात पर डटे रहे बोले, ’मेरा लीव पर जाना जरूरी है सर, प्लीज आप एक सप्ताह की छुट्टी सेंक्शन कर दीजिए।’
बॉस ने कहा, ’अच्छा देखेंगें, अभी रुको अपना कार्ड ले जाओ।’
विधुरचंद वहाँ से उठ आए, आकर अपनी सीट पर बैठ गए। ड्राअर से कागज निकालते, देखते, रख देते। काम करने में उनका जरा भी मन नहीं लग रहा था। ऐसे ही एक हफ़्ता गुजर गया लेकिन उन्हें छुट्टी नहीं मिल पाई। अब उनका धैर्य चुक गया था। सोचा, सीधी तरह काम नहीं चलेगा, अब बॉस को हिन्दी में समझाना होगा। आज वह यह तय करके ऑफिस आए थे कि छुट्टी सेंक्शन करा कर ही रहेंगे। आते ही लीव कार्ड निकाल कर वह बॉस के केबिन में घुसे, पता चला कि बॉस टूर पर चले गए हैं। महीने में बीस दिन बॉस टूर पर ही रहते थे। बॉस ही क्या, इस निगम के अधिकांश अफसर अक्सर टूर पर ही रहते थे। वह झुँझला गए, उन्हें एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा था। दफ़्तर से निकल सीधे कनाट प्लेस जाते, वहाँ बेमतलब टहलते रहते। देर रात लौटते, खूब शराब पीते और लुढ़क जाते। बॉस ने टूर से लौट कर उनकी छुट्टी सेंक्शन कर दी। कमरे पर आते ही उन्होंने सामान पैक किया और उसी रात घर रवाना हो गए।
चार-पाँच दिन घर पर रहे, फिर ससुराल चल दिए। हाँलाकि बाप ने बहुत मना किया, ’इतने दिनों बाद जाकर क्या करोगे, चार वर्ष हो रहे हैं, अब तक उस लड़की की दूसरी शादी हो गई होगी।’ पर विधुरचंद का मन इस बात को नहीं मान रहा था। वह एक बार जाकर देख लेना चहते थे। अत: वह ससुराल पहुँच गए। उन्हें देखकर ससुराल में सब चकित हुए। पर साफ नजर आ रहा था कि उनका आना किसी को अच्छा नहीं लगा। सभी उनसे कन्नी काट रहे थे। उन्होंने पत्नी से मिलने की इच्छा जाहिर की, लेकिन पत्नी ने मिलने से इन्कार कर दिया। वह अपमानित हुए, खिसिया कर तलाक की धमकी दी। ससुराल वालों ने कहा, ’यही ठीक होगा।’ अपना सा मुँह लेकर वह वापस घर लौट आए। माँ ने कहा, ’वह औरत बड़ी दुष्ट है, तू लेने गया फिर भी वह नहीं आई।’ आखिर विधुरचंद अकेले वापस दिल्ली लौट आए। समय गुजरने लगा अपनी रफ़्तार से, विधुरचंद पुन: आवारागर्दी में रंग गए। एक वर्ष बाद वह पदोन्नत भी हो गए। बाप, बहन, बहनोई अभी भी विधुरचंद के गृहस्थ जीवन के लिए चिन्तित थे। उन्होंने एक युक्ति सोची। एक और लड़की का जीवन बरबाद करने से अच्छा यह रहेगा कि विधुरचंद का विवाह किसी परित्यक्ता या विधवा से करा दिया जाए। अगर उसकी अपने पूर्व पति से संतान हो तो और भी अच्छा रहेगा। पत्नी और बच्चे, दोनों के साथ विधुरचंद का मन भी लगेगा और उनके रंग-ढंग भी सुधर जाऐ शायद। बहनोई की रिश्तेदारी में एक विधवा लड़की थी जिसका एक पुत्र भी था। विवाह के दो वर्ष बाद ही उसके पति की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। बात उस लड़की और उसके घरवालों को तैयार करने की थी जो अधिक मुश्किल नहीं लग रही थी। लड़की के ससुराल वालों का रवैया जानना भी जरूरी था। जैसे-तैसे दौड़-भाग कर बहनोई ने सम्बन्ध तय करवा ही दिया। एक बार फिर विधुरचंद दूल्हा बने और दुल्हन ले आए। बच्चा कुछ दिनों तक नाना नानी के पास रहा। दो चार माह बाद विधुरचंद ने जब अपनी दूसरी पत्नी को आश्वस्त कर दिया कि वह बच्चे की परवरिश असली पिता की तरह करेंगे तब वह बच्चे को साथ ले आई। यूँ तो उन्होंने पत्नी को आश्वस्त कर दिया था परन्तु बच्चे के आने के बाद वह मन ही मन सोचते कि यह एक जबर्दस्ती की लायबिलिटी ले ली। जब व्यक्ति हृदय से कोई चीज स्वीकार नहीं कर पाता तो उसकी यह अस्वीकृति लाख नाटक करने के बाद भी झलकने लगती हैं। दूसरी बात यह थी कि विधुरचंद ने अपनी जिन्दगी का जो ढर्रा बना लिया था, उससे दूर हटना भी मुश्किल ही था। शराब पीना, देर से घर लौटना, आवारागर्दी की बातें करना, उनके नित्य और पसंदीदा शगल थे। आठ-नौ घंटे ऑफिस और चार घंटे तफरी के, इस तरह पूरे बारह-तेरह घंटे वह घर से बाहर रहते। घर पर रहने के लिए बस रात बचती थी। यहाँ तक कि संडे या कोई अन्य छुट्टी का दिन भी वह बाहर अकेले मौज मस्ती में गुजारते।
हाँलाकि उनकी दूसरी पत्नी पहली पत्नी से अधिक समझदार, सहनशील और समझौतावादी थीं लेकिन विधुरचंद की न थमने वाली हरकतों ने उनमें भी आक्रोश, असंतोष और विद्रोह पैदा करना शुरू कर दिया था। नतीजा यह रहा कि उनके जीवन में गड़बड़ी फिर शुरू हो गई। दूसरी पत्नी पहली की अपेक्षा तेज और साहसी भी अधिक थीं। उन्होंने विधुरचंद को जवाब उन्हीं की शैली में देना प्रारंभ कर दिया। विधुरचंद तो अक्सर बाहर ही रहते थे। उनकी पत्नी को अकेलापन अखरता, वह घर के बाहर खड़ी हो जातीं, अड़ोस पड़ोस से संबंध बनाने की कोशिश करतीं। इसी कोशिश में पड़ोस के एक युवक से मित्रता हो गई। मित्रता अंतरंगता में बदल गई। विधुरचंद को बहुत दिनों तक कुछ पता नहीं चला, और जब चला तो उनके क्रोध की सीमा न रही। उन्हें इस सब की अपनी पत्नी से कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने पत्नी को जबर्दस्ती उसके मायके भेज दिया। अब वह दूसरी पत्नी से पीछा छुड़ाना चाहते थे, लेकिन पत्नी उनका पीछा नहीं छोड़ना चाहती थी। ससुराल पक्ष ने हर्जे का दावा ठोंका। बीस-पच्चीस हजार की एकमुश्त माँग की गई। पत्नी को मारने-पीटने और तंग करने का आरोप लगाया गया। विधुरचंद को अपना पीछा छुड़ाना बहुत महँगा पड़ रहा था। जैसे- तैसे नगद देकर और हर माह हर्जा खर्चा देने के इकरार के बाद मामला निपटा।
विधुरचंद पुन: अकेले हो गए थे। दिल्ली में भी उनका मन नहीं लग पा रहा था। प्रमोशन हुए तीन वर्ष हो चुके थे। अब अगले प्रमोशन की प्रतीक्षा थी। अब विधुरचंद नौकरी के उस गूढ़मंत्र को प्राप्त कर चुके थे जिसका प्रयोग अंग्रेज अफसरों के जमाने से भारतीय कारकून और कारिन्दे करते चले आ रहे थे। सर-सर कहते उनकी जबान नहीं रुकती थी, बॉस की हर बात का उत्तर ’यस सर’ ही होता। ऑफिस के बाहर बॉस के व्यक्तिगत काम विधुरचंद की डायरी में नोट होते। अच्छे नौकर की यही पहचान है कि वह अपना अहम्, पहचान और विवेक सब छोड़ दे। विधुरचंद ने यह जान लिया था। अब वह इन्जीनियर से नौकर में परिवर्तित हो गए थे। उनका परिवर्तन रंग लाया, वह समय से प्रमोशन पा गए, पोस्टिंग भी दिल्ली से बाहर हो गई। दिल्ली में रहते-रहते वह वैसे भी बुरी तरह ऊब चुके थे।
विधुरचंद प्रसन्न भाव से उत्तरी क्षेत्र के एक शहर इलाहाबाद पहुँच गए। सब कुछ नया-नया, वह बहुत उत्साहित थे। यह शहर दिल्ली की तरह बडा और चकाचौध वाला नहीं था। इस शहर की प्रकृति शांत और डल थी। इस शहर के बारे में कहा जाता था कि यह आगंतुक को अपनाने में जल्दी नहीं दिखाता। थोड़े दिनों तक तो विधुरचंद का उत्साह कायम रहा लेकिन जल्दी ही उन्हें दिल्ली की रंगीनियाँ और तड़क भड़क की कमी यहाँ अखरने लगी। यहाँ वह किसी को जानते भी नहीं थे। ऐसे शांत शहर में घूमने में भी उन्हें मजा नहीं आता था। दफ़्तर में भी कोई बहुत महत्वपूर्ण काम उनके पास नहीं था कि वह खुद को व्यस्त रख सकें। ऑफिस के अन्य लोगों के मिलने जुलने वाले आते, हाय हैलो, हँसी ठट्ठा करते। विधुरचंद अकेले बैठे बोर होते। वह परेशान रहने लगे, उन्हें लगता उन्होंने यहाँ आकर गलती की है, उन्हें दिल्ली में ही बने रहने की कोशिश करनी चाहिए थी। पर अब क्या किया जा सकता था, अब तो दिल्ली उनके लिए दूर थी। दफ़्तर से लौटकर अक्सर कमरे पर ही पड़े रहते। संडे का दिन तो पहाड़ बन जाता, काटे नहीं कटता। लेकिन आखिर ऐसा कब तक चलता, कुछ न कुछ तो समस्या का हल निकालना ही था। उन्होंने सोचा, क्यों न शनिवार को दिल्ली के लिए रवाना हो लें, संडे का दिन मजे से दोस्तों के साथ गुजारें, सोमवार को फिर ऑफिस में हाजिर हो जाऐ। इससे उनकी बोरियत तो दूर होगी ही, साथ ही बाकी दिन ऑफिस का काम करने का उत्साह भी बना रहेगा। उन्हें यह तरकीब जँच गई, आर्थिक समस्या तो थी नहीं, ले देकर अकेली जान। अब वह शनिवार को दिल्ली भाग लेते।
इसी भाग-दौड़ में दिल्ली में रह रही अपनी एक विधवा रिश्तेदार से उनकी मित्रता हो गई। धीरे-धीरे मित्रता गहरी होने लगी। अब दिल्ली प्रवास के दौरान उस विशेष मित्र से मिलना उनकी आवश्यकता बन गई, वह वहीं अपने को हल्का और ताजा करते। कभी कभी उसे इलाहाबाद घुमाने भी ले आते। नौकरी में भी वह निपुण और पारंगत हो चुके थे। उधर कई साइट्स पर कान्स्ट्रक्शन का काम बड़ी तादाद में आ रहा था। उन्होंने अपनी गोटी फिट कर ली। जयपुर के पास वह एक सब स्ेशन और कुछ ट्रांसमीशन लाइनों के इन्चार्ज बना दिए गए।
विधुरचंद की जिन्दगी का यह स्वर्णकाल था। उन्होंने यहाँ अपनी सारी कुण्ठाऐ, विकृतियाँ पूरी तरह निकालीं। अतीत में वह जिस-जिस क्षेत्र में असफल रहे, जो जो खरी-खोटी बातें सुनी, जब जब अपमानित हुए उन सबका बदला उन्होंने यहाँ अपने मातहतों पर जुल्म करके लिया। वह निरंकुश, तानाशाह हो गए, किसी का मानसिक चैन उन्हें गवारा नहीं था, जो अच्छा था उसका भी, और जो खराब था उसका भी। सुबह नौ बजे से वह गला फाड़ कर चिल्लाना शुरू करते तो शाम छ: बजे ही रुकते। उनके कुछ शिकार स्थायी थे तो कुछ अस्थायी। किसी को समय पर छुट्टी नहीं देते थे। ऑफिस के काम के अलावा किसी को उनके राज में व्यक्तिगत जिन्दगी जीने का अधिकार नहीं था। दूर छोटी साइट पर जो इन्जीनियर पोस्टेड थे, उन्हें भी भाँति-भाँति से प्रताड़ित करते। जनवरी-फरवरी की कड़कड़ाती सर्दियों में उन्हें रातोंरात सफर करके ऑफिस पहुँचने का निदे|श देते। दिन भर उनकी रेगिंग करते और रात को फिर वापस खदेड़ देते। ठेकेदारों के सामने इन्जीनियरों की माँ-बहन तमाम कर देते। इन्जीनियरों को अकेले में अपमानित करके उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती, हमेशा चार छ: लोगों की मौजूदगी में पुलिसिया अंदाज में आतंकित करते। वह किसी ग्रामीण थाने के दरोगा लगते, दूसरे शब्दों में कहें तो, साक्षात यमराज।
देश के श्रेष्ठ इन्जीनियर आजादी के इतने दशकों बाद भी गुलामों की तरह अपमानित और शोषित होते। यह उनकी नियति बन गई थी। अनुभव यही सिद्ध करता है कि जो स्वयं शोषित और दमित होते हैं, अवसर मिलने पर अपने से कमजोर लोगों का शोषण और दमन उसका स्वभाव बन जाता है। विधुरचंद के साथ यही हुआ, और अब भविष्य के लिए वह अन्य विधुरचंदों का निर्माण कर रहे थे। कैरियर के लालच ने प्रतिभा सम्पन्न इन्जीनियरों को अस्मिताहीन, कायर और पंगु बना दिया था। विद्युत ऊर्जा निगम का यह ऑफिस हिटलर की फासीवादी मनोवृति का नाजी कैम्प बन गया था। यहाँ के इन्जीनियर कायर, सामथ्र्यहीन और आत्माहीन हो चुके थे, विरोध दर्ज करना उनकी डिक्शनरी में नहीं रह गया था। वहाँ हर व्यक्ति विधुरचंद का सेवक, गुलाम और दलाल था। और विद्युत निगम का वह ऑफिस विधुरचंद की बपौती था।
जिस तरह हर वस्तु की निश्चित जीवन अवधि होती है, कोई भी चीज हमेशा कायम नहीं रह सकती। उसी तरह व्यक्ति विशेष के आतंक की भी एक अवधि होती है। कुछ दस-बीस वर्षों तक आतंक फैला सकते हैं तो कुछ दस- बीस दिन। आतंक का अन्त होना निश्चित होता है, लेकिन यह होगा कब? किसी को भी इसकी पूर्व जानकारी नहीं होती। विधुरचंद के खौफ का साया करीब तीन वर्षों तक लोगों के सर पर मँडराता रहा।
एक इन्जीनियर बाहर से उनके पास ट्राँसफर होकर आया। वह विनम्र, अनुभवी और अच्छे संस्कारों वाला कर्मठ व्यक्ति था। विधुरचंद ने उसे दूर वाली साइट पर पोस्ट कर दिया। धीरे-धीरे उन्होंने अपना शिकंजा कसना शुरू किया। पहले उसे ईमानदारी और गुणवत्ता बनाए रखने का आदेश दिया। ठेकेदारों को परेशान करने का यह कारगर अस्त्र था। ठेकेदार इस ईमानदारी और गुणवत्ता मुहिम से परेशान हो विधुरचंद के पास पहुँचा। विधुरचंद की घाघ दृष्टि ठेकेदार का मंतव्य ताड़ गई। पहले तो उन्होंने उसे बुरी तरह डाँटा, फिर प्यार से समझाया। ठेकेदार सब समझ गया। शीघ्र ही वह ब्रीफकेस में फल-फूल भर लाया। अगले हफ़्ते जब इन्जीनियर की पेशी हुई तो ठेकेदार सामने कुर्सी पर आराम से विराजमान था। उसी के सामने इन्जीनियर की लानत मलानत हुई फिर तो यह सिलसिला चल निकला। इन्जीनियर ने अपनी सहिष्णुता का पूरा परिचय दिया। समय के साथ विधुरचंद अपनी सारी सीमाऐ पार करने लगे। अब इन्जीनियर का धैर्य भी साथ छोड़ने लगा क्योंकि शोषण और दमन सहन करना उसका स्वभाव नहीं था। फिर एक दिन वह हुआ जिसे बहुत पहले हो जाना चाहिए था। मार्च का अंतिम सप्ताह था, ठेकेदारों के पेमेन्ट प्राथमिकता के आधार पर होने थे। बजट का पूरा उपयोग करना था परंतु उस कान्स्ट्रक्शन कंपनी का पेमेन्ट विधुरचंद के कारण ही पिछले तीन महीनों से रुका पड़ा था। इन्जीनियर ने एम बी कर रखी थी पर विधुरचंद उसे रोके हुए थे।
महाप्रबंधक से बजट उपयोग करने का फैक्स आया। कंपनी ने ऊपर शिकायत कर दी थी। अब विधुरचंद इन्जीनियर पर फट पड़े। इन्जीनियर ने कहा उसने एम बी कर रखी है, पेमेन्ट तो आपके कार्यालय से ही होना था। तीन बार एम.बी. बिना किसी कारण के लौटा दी गई मूवमेंट सीट मेरे पास है। विधुरचंद गरजे, ’जबान लड़ाते हो। तुम झूठ बोल रहे हो, तुम्हारी नीयत ठीक नहीं हैं। मैं तुम्हें नंगा कर दूँगा।’
इन्जीनियर ने हिम्मत करके जवाब दिया, ’आप गलत भाषा का उपयोग कर रहे हैं, गलत इल्जाम लगा रहे हैं, आपको ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए।’ विधुरचंद का पारा और चढ़ गया, ’मुझे समझाने चला है।’ वह आंय-बांय बकने लगे इन्जीनियर भी तैश में आ गया था। वह भी ऊँची आवाज में बोलने लगा। विधुरचंद को यह नागवार गुजरा। अचानक उनके मुँह से हल्की सी गाली निकल गई। दूसरे ही क्षण बिजली की तेजी से उनके गाल पर एक झापड़ पड़ा। उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई, उनके गुब्बारे की सारी हवा निकल गई। अभी तक ऑफिस के दूसरे इन्जीनियर जो कमरे के बाहर कान लगाए सुन रहे थे, वहाँ आए और इन्जीनियर को खींच कर बाहर ले गए। विधुरचंद अपनी जिन्दगी में पहले भी एक दो बार मार खा चुके थे, पर वह और बात थी। यह थप्पड़ तो उन्हें अपने साम्राज्य के ढहने की पूर्व सूचना दे रहा था। ’मैं तुम्हें देख लूँगा’, धमकी देते हुए वह तुरत ऑफिस से खिसक लिए।
आकाश के जादूगर ने काली चादर निकाल ली थी और जल्दी-जल्दी सब समेटने को व्यग्र था ।
क्षितिज तक पहुँच कर भी यह सूरज डूबने पर ही क्यों मजबूर है और इसका हर दिन अंधेरे के साथ एक घोर संघर्ष के बाद ही क्यों शुरु हो पाता है? क्या कोई आसान और मनचाहा रास्ता नहीं जीने का, इस दुनिया में रहने-बसने का... उलझन ही थी, नव्या के मन की भी और जिज्ञासु वैज्ञानिक सोच की भी। चटपट के इस युग में बनाने और संवारने की, या यूँ लड़ते रहने की फुर्सत ही किसके पास है? शकल- सूरत, बच्चे ... जब हर चीज ही मनमाफिक चुनी और खरीदी जा सकती है, तो संघर्ष किस बात का?
‘स्वाद और संतोष का’- मन के अदृश्य कोने से अस्फुट एक आवाज उठी, ‘अंततः इसी में तो अस्मिता और उपलब्धि सबकुछ डूब जाता है।‘
नव्या अंतस् के दार्शनिक से प्रायः चमत्कृत भी होती और उस पर खीजती भी। बड़े-से-बड़े सुख-दुख को कितनी आसानी से नकार जाता है यह। माना कि कुछ चीजें अभी भी हम चुन नहीं सकते जैसे कि पैदा होने और मरने की जगह या वक्त आदि, पर जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ रहा है वह दिन भी तो दूर नहीं, जब यह भी संभव हो, शायद।
ईमानदारी से सोचा जाए तो जितना ही धरती और आसपास के गृह, उपगृहों के बारे में ज्ञान बढ़ रहा है उतना ही इसकी विराटता का अहसास और इस अबूझ के प्रति भय भी तो। अपनी लघुता और क्षण-भंगुरता को जीतने की ही तो खोज है यह मानवता और संस्कृति की दौड़...नित नई ज्ञान-विज्ञान की बातें। चलने को तो जिन्दगी हजारों वर्ष ऐसे ही चल सकती है और खतम होने को कल ही कोई बड़ा गृह-उपगृह टकरा जाए तो बस एक ही बड़े धमाके के साथ सब खतम। या फिर शायद एक और ‘बिग बैंग‘ और एक और नयी शुरुआत । बस, हम ही नहीं होंगे। कम-से-कम ‘हम ‘ के जिस रूप को जानते हैं, उस रूप में तो नहीं ही।
पर क्या रूप, पसंद यह सब भी पलपल बदलते नहीं रहते? कल की ही सी तो बात है जब मम्मी के साथ शादी के वक्त बड़े चाव से पचास-पचास हजार की साड़ियां खरीदी थीं और आज औक्सफौम में दे आई है उन्हें, यहाँ अमेरिका शोध पर आने के ठीक पहले। जरूरत ही नहीं अब उसे। दस बारह पौंड की ये पौलिएस्टर की पैंटें ही बढ़िया हैं अब तो। पहनो और वाशिंग मशीन में डाल दो। न ड्राइक्लीनिंग की जरूरत न घंटों की उलट-पुलट और देखभाल की। वक्त की जरूरतों पर खरा उतरे , वक्त के साथ साथ चले वही बचेगा और इसके लिए समझ और समझौते दोनों को ही आधुनिकतम् रखना जरूरी है। फिर चुनौतियों से हारे नहीं, जीते, वही तो आधुनिक है।
सामने अपनी ही रक्तिम और स्वर्णिम आभा में डूबा सूरज युद्ध भूमि में शहीद होते सैनानी-सा दिख रहा था ; मानो युद्धभूमि में लड़ता वीर नायक हो। नायक तो सही, पर थका-हारा और अब रोया,तब रोया क्यों? नव्या ने ब्रेक पर पैर मारा । रेगिस्तान में सुकुमार पौधे को लहलहाते देख सुखद आश्चर्य हुआ था, कुचलकर आगे नहीं बढ़ पाई थी वह।
' मौसम बदल रहा है शायद रेगिस्तान तराइयों में पलट जाएँ और तराईयाँ .... ' यही तो हकीकत थी, एक ऐसी हकीकत जिसे आज भी स्वीकार नहीं पाई नव्या।
हारना शब्द उसके शब्दकोश में नहीं था। बदलना और थामना चाहती थी वह सृष्टि और इसकी परिवर्तनशील प्रकृति को। अनकहे नियमों को। चुनौतियाँ संघर्ष नहीं, परिणाम और उपलब्धियाँ बनकर ही आई हैं उसके जीवन में...कुछ कर गुजरने की चाह बनकर साथ रही हैं । यही वजह है शायद कि आज नव्या शाह जीव विज्ञान के क्षेत्र में यूरोप, अमेरिका और भारत में ही नहीं, विश्व भर का जाना-माना नाम है। पृथ्वी पर जो भी बचाने लायक है, अवश्य बचाएगी वह। एक ईमानदार कोशिश तो करेगी ही। कितनी भी बूढ़ी हो चुकी हो यह पृथ्वी कोई तो रास्ता होगा इसे फिरसे हरा-भरा करने का। उसके अपने जीवन में नहीं तो अगली एक दो पीढ़ी में तो यह संभव होना ही चाहिए। बस यही एक धुन..एक सपना था अब तो उसका।
जब भी मौसम या प्रकृति में बदलाव आया है पूर्व सूचना इन्ही साधारण सी घास पूस और कीड़े-मकोड़ों ने ही तो दी है। कितनी अजीब बात है; हवा पानी और प्रकृति जिसे रोज ही खाते-पीते, ओढ़ते-बिछाते हैं, परिचित होकर भी इससे कभी पूर्णतः परिचित नहीं हो पाते हम। सहज तो ठीक, वरना इसके कोप के आगे कौन टिक पाया है। इन रहस्यों की तह तक पहुँचने के लिए ही तो यूँ जगहृ-जगह भटक रही है नव्या...जंगल और रेगिस्तानों तक में।
पूरी रात नवादा के बीहड़ रेगिस्तान में दौड़ते-दौड़ते ही निकाल दी है नव्या ने । गुर्राता-हांफता कार का थका इंजन तक आराम करने की विनती करने लगा है अब तो । कार का कम्पस फेल होते ही कोई दिशा ज्ञान नहीं बचा उसके पास। कैसे और कहाँ रुक सकती थी वह इस वीराने में! अनजाने और अँधेरे उस विस्तार में जो भी राहत और रौशनी मिल पा रही थी, दादा जी के साथ बचपन से जाने-समझे झिलमिल तारों के समूह से ही तो मिल पा रही थी। वही सात सखी का झूमका और तीन तारों का पलटा... रातभर उसे न सिर्फ सही वक्त बता रहे थे, अपितु यह भी निर्देश दे रहे थे कि उत्तर-दक्षिण किधर को है, और किधर को पूरब व पश्चिम , किधर को मुड़कर देर-सबेर ही सही, वह अपने गन्तव्य तक वह पहुँच सकती है। किस्मत ही तो है कि एक बार फिर से अटक गई है वह यहाँ वरना इन अनजाने और अप्रत्याशित विलंबो को तो जरूरत ही नहीं थी।
नव्या के पास कुछ नहीं था सिवाय एक अनुमान, एक सिद्धांत के। आने वाले खतरे या बदलाव को इंगित कर रही एक नयी तरह की वनस्पति के; जिसे लैब में अभी जांच तक नहीं पाई थी वह, पर जिसकी संरचना और रंग दोनों बेहद ही फर्क नजर आ रहे थे और बारबार ध्यान खींच रहे थे उसका।
अपनी इस अथक और जिद्दी खोज से थकी या हारी नहीं थी वह अभी। तपते रेगिस्तान में भी इक्की-दुक्की नयी तरह की वह हरियाली ढाढस दे रही थी उसे, विश्वास दिला रही थी कि सवालों का, इन अबूझ रहस्यों का जबाव उसे इसी रेगिस्तान से ही मिलेगा। इससे ज्यादा विषम परिस्थितियाँ और इससे अधिक जीवटता और भला कहाँ अध्ययन करने को मिल सकती है?
फिर, एक बार लत् लग जाए, तो झुटकारा पाना भी तो इतना आसान नहीं। कैसे विलग करे कोई खुद कोः मन से, मस्तिष्क से, सपने डूबी आँखों से। टूटें, तो भी किरकें, और अगर ना टूटने दो तो आजीवन छलें और भटकाएँ , दुःख दर्द बांटे बगैर .. एक अदृश्य भ्रम और छलावा बने... आकाश पर सजे तारों से, दूर-दूर छिटके-ठिठके, रिझाते-लुभाते, पास दिखते जरूर, पर पास नहीं । परिचित, पर अपने नहीं।
कहते हैं हर तारा एक सूरज होता है ; बस, हमारे सौर मंडल से दूर, बहुत दूर। .. तो क्या आँख का तारा भी। पिछले चन्द दिनों के अपने इस एकाकी सफर में .यह बात नव्या भलीभांति जान गई थी कि आँख के तारों के साथ भी रहना और पालना आसान तो नहीं। आँखों में ही सूरज को बिठा लो, तो जलन सहने की आदत तो डालनी ही पड़ती है ...तन से भी और मन से भी।
नव्या ने आदत डाल ली थी।
वैसे भी, सूरज, चांद, तारों से भरे आसमान के अलावा कुछ और था भी तो नहीं वहाँ, देखने, सोचने या मन बहलाने को। मन बहलाना...सोच मात्र से ही नव्या हंस पड़ी ...काश, जिन्दगी इतना वक्त देती कभी उसे।
वैसे तो परिपक्व उमर और सच्चे झूठे सैकड़ों अनुभव कम नहीं होते, सच और सपनों का फ़रक समझाने के लिए...शर्त बस इतनी है कि कोई समझना चाहे ! पापा कहा करते थे- आदमी जैसे वातावरण में रहता है, जैसे लोगों से मिलता-जुलता है, वैसी ही सोच बन जाती है।एक छोटे बच्चों को पढ़ाने वाला मास्टर उम्रभर बच्चा ही बना रह जाता है। कोई वास्ता जो नहीं पड़ता बडों की दुनिया से। क्या जाने वह बड़ों की दुनिया के बारे में। तो क्या नव्या का मन केमिकल ट्यूब्स और किताबों जैसा नीरस और सपाट हो चुका है...वह भी तो चौबीसों घंटे इन्ही के साथ जगी और सोई है? शायद,हाँ।..इन्ही सी बेजान और संवेदनहीन ही तो होती जा रही है वह भी। घर-बार की तो छोड़ो, पति कहाँ हैं, बेटा कहाँ है, कैसा है, यह तक तो होश नहीं रहता अक्सर उसे। पिछले अठारह घंटों में कोई बात नहीं हुई है किसी से। कार के रेडिओ के अलावा कोई दूसरी आवाज नहीं सुनी है उसने। घर से चलते वक्त ऐसा तो नहीं सोचा था, फिर मोबाइल भी तो सिगनल नहीं पकड़ रहा है। अचानक मन भर आया।
कहाँ उलझ गई वह भी... क्या हैं यह मन और क्या है इसका बहलना? क्या .यह सब बस भटकने और भटकाने वाली ही बातें नहीं?..क्या यह शरीर मात्र एक यंत्र ही नहीं? और यह मन इसकी रगों में दौड़ता एक रसायनिक आंदोलन। रसायनिक आंदोलन? ...समझ में नहीं आ रहा था नव्या को कि अपनी इस बेतुकी सोच और तर्क-वितर्क का एक भी सिरा। वह एक वैज्ञानिक थी, बिना प्रमाण के कुछ भी मान लेना आदत में नहीं था, फिर भी उस पल जाने किस भावावेश में वह सबकुछ मान लेना चाहती थी, परियाँ और ईश्वर तक को भी। ...
सामने भोर की ठंडी रोशनी में रेत के कण चांदी से चमक रहे थे, मानो रेत का समंदर हो। हां, समंदर भी सही ही शब्द है ...रहस्यमय और विशाल। समंदर की तरह रेगिस्तान में भी तो भांति-भांति के जीव-जन्तुओं का घर बनता चला जाता है। उमर गुजारी जा सकती है इसे पढ़ते और समझते। उड़ती छिपकली और मेढकों ने शुरू शुरू में जिज्ञासा जरूर बढ़ाई थी पर अब तो बारबार बस उन्हें ही देखते-देखते ऊब-सी हो रही थी नव्या को।
कुछ ही देर में ठंडी हवा ने गरमाना शुरु कर दिया था।
रात की कालिमा को चीरती किरणें अब सीधी आँखों पर पड़ रही थीं और तीखे कांच-सी चुभ रही थी। नींद से बोझिल आँखों को बारबार पोंछती नव्या ने साफ साफ देखना चाहा, पर अगले पल ही सामने से उमड़ती हजारों टिड्डों की काली आँधी ने सब घटाघोप कर दिया। अभी वह हिम्मत नहीं हारी थी, हाँ एक बात जरूर चोरी-चोरी मन और मस्तिष्क में कीड़े-सी घुसी धैर्य के साथ-साथ अब उसके संकल्प तक को कुतरे जा रही थी। ' बहुत हो चुका। बस, अब और नहीं। कैसे भी एक बार इस बीहड़ से निकले, तो निश्चय ही कुछ महीने बस आराम करेगी !' पक्का मन तक बना लिया था अब तो उसने ।
आदतन डायरी और कंपस बाहर निकाले और जगह का उत्तरांश और दक्षिणांश सही-सही ढूँढने लगी वह। फिर तुरंत याद आते ही कि कंपस तो कबका फेल हो चुका है, बेबसी पर हंसते हुए, पैरों के पास ही सबकुछ वैसे ही वापस भी रख दिया उसने...। अब खिड़कियों के साथ कार का इन्जन तक बन्द करके वह इस नयी आपदा के टलने का इन्तजार करने लगी । कोई और रास्ता भी तो नहीं था उसके पास, विशेषतः अब,जब कि रेडिओ तक औन करने की हिम्मत नहीं बची थी । कहीं बैटरी न बैठ जाए... फालतू खतरा मोल नहीं ले सकती थी वह। पूरी उर्जा बचानी होगी। ... अगला गैस स्टेशन पता नहीं कहाँ और कितनी दूरी पर मिले, मिले भी या न मिले। भगवान से प्रार्थना कर रही थी अब तो वह कि कैसे भी जल्दी ही इस रेगिस्तान से छुटकारा दिलाएँ और वापस सभ्यता में , आदमियों के बीच, किसी शहर तक पहुँचा दे, बस। आभास नहीं था कि वह इस रेगिस्तान में कहां और पास के किसी भी शहर से कितनी दूरी पर है? चारो तरफ अंधेरा इतना बढ़ चुका था कि नंगी आंखों से देख पाना, दिशा या जगह का सही अनुमान लगा पाना संभव ही नहीं था। टिड्डियों के उड़ते जत्थे ने पूरा-का-पूरा सूरज ही निगल डाला था और निढाल नव्या व्यग्र, उस रेत के विस्तार मे बड़ी हिम्मत के साथ, सैकड़ों उमड़ते कीड़ों के भयावह दृष्य से अकेली ही जूझ रही थी अब । आराम तो दूर, थकने तक का वक्त नहीं था अब तो उसके पास। सिर झटककर, पीछे छूटे जीवन में तुरंत ही वापस पहुँचने की उस व्यग्र ललक को चुपचाप चाभी के गुच्छे सा ही सहेज कर वापस पर्स में रख लिया था उसने ।
जैसे जैसे देर हो रही थी , वक्त एक असह्य व्यग्रता के साथ बेशकीमती होता जा रहा था।
वैसे भी, क्या हैं ये सपने...एक याद, एक महत्वाकाक्षा, एक अप्राप्य लक्ष्य या फिर काला जादू? ...छूटी-टूटी असंभव सी ख्वाइशों का कंटीला झाड़! ह़ृदय, मस्तिष्क, सभी का तो हाथ रहता है इसके जुटाव...इस संरचना में; फिर आँखों को ही क्यों दोषी माना जाता है? क्या ये मात्र एक गलियारा ही नहीं , जहाँ बेमतलब टहलते, बसते और भटकते रहते हैं हम ! फिर ये ही क्यों झरती-बहती रहती हैं अपनी ज़िद में, बिन सावन के मेघों सी; मौके-बेमौके, हर पल ही।
नम आँखों को सदा ही बड़ी चतुराई से छुपा ले जाने वाली नव्या अपना सूनापन बांटने को बेचैन हो चली थी और आसपास क्या दूर-दूर तक कोई नहीं था । ... क्यों न वह एक बार जोर-जोर से फूटफूटकर रो ही ले...यहाँ तो किसी लाज शरम की, आँसू पोंछने तक की, जरूरत नहीं । कोई आवाज तो पड़ेगी कानों में- उसने रोना चाहा परन्तु गले से आवाज नहीं निकली। भयभीत नहीं थी, सच्चाई तो यह थी, कि जोर-जोर-से रोना आता ही नहीं था धीर-गम्भीर नव्या को।
शायद थकान और रेगिस्तान के निर्जन अकेलेपन का ही असर था कि अपनी ही बेतुकी सोच में डूबी और थकी नव्या ने छोड़ दिया खुद को औऱ अपनी आँखों को भी मनमानी करने के लिए। भीग जाने दिया चेहरे की सारी निढाल थकी मांसपेशियों के साथ, गर्दन, कपड़े और मन को भी। ढाढस मिल रही थी उसे तपते रेगिस्तान में बहती आंसुओं की इस अनियंत्रित ठंडी लड़ी से ।
कहते हैं सपने आँखों में रहते हैं।.. पर आँखों में इतनी सामर्थ कहाँ जो इन बड़े-बड़े सपनों को समा और संजो ले ! कम ही सपनों में सच का चोला पहनकर सामने आ पाने की सामर्थ होती है। ये आँखें सपने देखती और पालती जरूर हैं, पर अधिकांश की किस्मत में अनाथ भटकना ही तो लिखा होता है। या तो आँसुओं के साथ टूट और झर जाते हैं ये, या नियंत्रण न रखो, तो पूरा अस्तित्व ही निगल लेते हैं । गुलाम बना लेते हैं अच्छे खासे स्वस्थ व्यक्ति को भी, कभी महत्वाकांक्षा बने, तो कभी राग-लगाव बने। काया में रचे-बसे रोग-से हो जाते हैं। नव्या का भी एक ऐसा ही सपना है, जो अब उसके जीवन को, जीवन की हर दिनचर्या तक को निगल चुका है। अपनों से ही नहीं, खुद तक से विलग कर दिया है इसने उसे। देश-विदेश, न जाने कहां-कहां भटका रहा है ख्याति प्राप्त जीव वैज्ञानिक नव्या शाह को उसका जिद्दी और असाध्य सपना-विनाश के कगार पर खड़ी इस धरती को कैसे बचा सकते हैं हम...यदि धरती नहीं तो कम-से-कम बचाने लायक तत्वों को कैसे बचाया जा सकता है...तत्व शब्द उतना ही उलझा हुआ था जितनी कि नव्या की सोच...वैज्ञानिक थी माना पर ईश्वर नहीं जो नोहा की नाव बनाकर सब मनमाना भर ले, कहीं अक्षुण्ण टापू पर सहेज ले ।
याद नहीं आ रहा था कि यह सपने देखने का क्रम कब और कहां-से शुरू हुआ था उसके जीवन में; वहाँ से शायद जब पापा ने पांच साल की लाडली को गोदी में लेकर कहा था, जीवन में कुछ ऐसा सार्थक और अनूठा करना बेटी कि हर आदमी देखे और कहे कि देखो यह नव्या के पापा जा रहे हैं... मात्र धीरज शाह की बेटी नव्या नहीं। बोलो बेटी, मुझे अपनी पहचान दोगी ना...मेरे सपनों का सहारा बनोगी ना?और तब बहुत प्यार से दोनों बाहें पापा के गले में डाल कर धीरे-से हमेशा की तरह मुस्कुरा भर दी थी नव्या। ऐसी ही थी नव्या बचपन से ही- कहने और समझने का, दोनों ही काम बेहद किफायत के साथ एक मुस्कुराहट के साथ ही पूरा करने वाली। उस दिन भी चुपचाप पापा की बात मानती, मुस्कुराती वहीं बैठी रह गई थी वह। पापा जानते और समझते थे बेटी के मन को भी और उसकी काबलियत को भी। इसी लिए तो क्या करना है , कैसे करना है कोई निर्देश नहीं देते थे उसे । जानते थे कि हर उमड़ती नदी को खुद ही अपनी राह तराशनी होती है।
वह दिन है कि आज का दिन है ...तीस-बत्तीस साल बाद भी पापा के उसी 'कुछ' को ढूँढती ही तो भटक रही है नव्या। पापा को अपनी पहचान दिलाने की कोशिश में, आइना तक देखना भूल चुकी है उनकी लाडली।
आँधी गुजर चुकी थी और आसमान साफ हो चुका था। कार वापस स्टार्ट कर ली नव्या ने। रास्ता नहीं भूली थी वह, बस रेगिस्तान के रहस्यों ने भरमा लिया था उसे और गुत्थियाँ सुलझने के बजाय और भी उलझती ही जा रही थीं।...कार सड़क पर भाग रही थी और नव्या अपने विचारों के साथ।
धावा तो बहुत जोर से बोला था पर कुछ ही पलों में वह भयावह आँधी सर्रर् से जैसे आई थी , निकल भी गयी।
एकबार फिर तेज चमकती धूप से आकाश भर गया। कुछ दूरी पर हरियाली भी दिखी। जरूर कोई बस्ती होगी पास ही में। अचानक नव्या का दिल किशोरियों सा बल्लियों उछलने लगा। लगता है कि अब मंजिल दूर नहीं...मन किया तालियां बजाए, जोर-जोर से कहकहे लगाए। परन्तु तुरंत ही खुद को संयत करके गाड़ी की स्टीयरिंग वापस संभाल ली उसने। कार के बन्द शीशों से भी जबरन घुस आया और साथ-साथ चलता वह चमकता गुलाबी धूप का टुकड़ा अब उसे राहत दे रहा था...देश, गांव और घर की याद दिला रहा था। सुबह की गुनगुनी गुलाबी धूप जब रेगिस्तान की रात भर की ठंडी रेत पर पड़ती है तो रेगिस्तान हीरे सा चमकने लग जाता है । और यही आंखों को सेंकती-सी किरणें बारह बजते-बजते प्रचंड होकर माथे तक को चटकाने लग जाती हैं......ग्यारह, साढ़े ग्यारह बजे तक तो उसे इस रेगिस्तान से बाहर निकल ही जाना होगा। उसने एक्सिलेटर पर पैर का जोर थोड़ा और बढ़ा दिया। गुनगुनी उस धूप में नव्या का पोर-पोर तक अलसा रहा था। जगे रहने के लिए जरूरी था कि वह खुद से ही बात करती रहे...गाती गुनगुनाती रहे।
धूप ने अब नींद से थकी आँखों के साथ साथ बोझिल मस्तिष्क को भी तिरकाना शुरू कर दिया था - बहुत हो चुकी बदलते मौसम और बदलती सूरज की किरणों के बारे में जानकारी हासिल करने की यह दौड़...अब वह और किसी नए तथ्य और अनुसंधान पर काम नहीं करेगी... यूँ भटक-भटक कर जीवन बरवाद नहीं करेगी। कम-से-कम कुछ दिन तो जरूर ही बस आराम करेगी। पहले तो भारत जाकर अपनी पसंदीदा जगह कुलू-मनाली में हफ्ता बिताएगी...दीन-दुनिया और सारे कामों से दूर। आरून और प्रखर के साथ जी भरकर घूमेगी। कितनी पागल है वह ...लोग विदेश; अमेरिका, आस्ट्रेलिया, और यूरोप घूमने के सपने संजोते हैं और वह यहां पहुंचकर भी भारत लौटने को बेताब है। नव्या को खुद पर, अपनी सोच पर हंसी आ गयी....चलो थोड़ा अमेरिका घूमकर ही वापस लौट लेगी पर एक बात तो निश्चित है, कि धूप पर तो फिलहाल और कोई अनुसंधान नहीं ही करना है उसे... कोई तथ्य जुटाने की हिम्मत नहीं बची है उसमें। सभी जानते हैं कि अल्ट्रा वायलेट रेज बढ़ रही हैं बढ़ते तापमान के साथ चमड़ी का कैंसर बढ़ेगा दुनिया में। फिर नया क्या ढूँढ लिया उसने ? या तो आदमी की नसल ही मिट जाएगी पृथ्वी से धीरे धीरे या फिर कैक्टस की तरह मोटी चमड़ी वाले आदमी पैदा होंगे; कंटीले, विषाक्त और जीवट....कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में जीने और जूझने का हुनर जानने वाले। कैक्टस-सा आदमी हंसी आ गई नव्या को अपनी सोच पर....अभी कौनसा कैक्टस से कम कटीला है आदमी का स्वभाव, जो कैक्टस से कंटीले और जीवट आदमी की कल्पना किए जा रही है वह !
कार एक निश्चित रफ्तार पर क्रूज कर रही थी। सूनी आँखें में खुद ही आ अटकी एक और याद कार की रफ्तार से भी अधिक तेजी-से एकबार फिर ले उड़ी उसे।
कहानी अच्छी थी, बचपन में बहल भी जाती थी नव्या, मां जब दूर के तारे दिखाकर कहती -देख, वे तारे नहीं बड़े-बूढ़ों की आँखें हैं जो वहां, स्वर्ग के पार से, प्यार से टोहती हैं हमें। अपना आशीर्वाद और प्यार देती रहती हैं। तब, एक रहस्य ...एक झूठमूट का सहारा-सा लगती थीं मां की वे बातें , पर आज ऐसा नहीं। सच कहा जाए तो न तो हिम्मत ही बची थी और ना ही बचपन का वह विश्वास ही, जो आज भी उन असंख्य तारों को एकबार फिर से कार की खिड़की से घंटो बेमतलब ही निहारे ... ढूँढे कि कौन-सी वे आँखें हैं, जो उसकी अपनी मां की हो सकती हैं..घंटों क्या, चन्द मिनटों को भी नहीं । इस उम्र में तो बन्द आँखों से ही देखना ज्यादा आसान और आरामदेह लगता है, विशेशतः तब, जब इतनी थकान हो जितनी कि नव्या को उस वक्त महसूस हो रही थी। उन टिमटिमाते तारों में दादा जी को ढूँढना तो उसने उसी दिन से छोड़ दिया था, जब जिस तारे को दादा समझकर वह घंटों बातें किया करती थी, वही तारा उसकी आँखों के आगे ही टूटकर झट-से विलीन भी हो गया था...बिना बताए कि कहाँ जा रहा है, या फिर अब दोबारा तारा बनकर उग भी पाएगा या नहीं। क्यों याद आ रही हैं ये सारी निरर्थक बातें उसे...वह भी इस रेगिस्तान में? कैसा सहारा चाहिए उसे? सैंतीस वर्षीय नव्या शाह को तो बचपन से ही किसी सहारे की कभी जरूरत ही नहीं रही । ..
कौन लौटता है दुनिया से जाकर....लौटना तो दूर, पता तक नहीं मिल पाता किसी का --बेहद भारी मन से नव्या ने कार की रफ्तार और तेज कर दी। हाँ, एक बात तो है इन तारों के बारे में जिसे झुठलाना आसान नहीं- कोई और साथ दे या न दे, इस चांद, सूरज और तारों भरे आसमान ने लगातार साथ दिया है। इस रेगिस्तान में भी। जरूरत पड़ने पर अकेला नहीं छोड़ दिया है उसे। एक तारा थक-हारकर टूट जाए तो दूसरा तुरंत ही झिलमिलाने लग जाता है अपनी सारी जगर-मगर और सजधज लिए मुस्कुराते चंदा के साथ। और सूरज डूबते ही वादा कर देता है कि अगले दिन आँखें खोलने से पहले ही मैं निकल आऊंगा। निराश मत होना।
शहर हो या वीराना, दिन हो या अंधेरी से अंधेरी रात, बेधड़क साथ ही तो चलता है यह आसमान। यह बात दूसरी है कि इस आसमानी ढक्कन से भी कभी-कभी बड़ी ऊब होती है नव्या को। फिर यह ऊब ही तो ले डूबेगी हमें...यह ऊब ही तो भटका रही है वरना क्या जरूरत थी इस तरह से भटकने की, इस शोध कार्य में फंसने की। औरों की तरह वह भी तो घर में आराम से रह ही सकती थी, सारे सुख भोगती... आरुन के साथ खेलती। आरून की याद आते ही एक क्षीण मुस्कान कौंध गई नव्या की नम आँखों में। ... क्या पता सच में होंते ही हों बड़े साथ इन तारों के रूप में...कौन जानता है, हों ही कहीं अम्मा भी उसके आस-पास ही, इन्ही तारों के बीच झुपी, प्यार से उसे देखती-दुलरातीं, आशीष देतीं ! एक पढ़ी-लिखी सुलझी वैज्ञानिक की ऐसी सोच? आश्चर्य हो रहा था नव्या को खुद पर, बचकानी इस मनःस्थिति पर।
तभी, वह जाने कहाँ से आया और सरपट गाड़ी के आगे से हवा की ही रफ्तार से यह जा, वह जा, गुजर गया। ‘ ए मरना है तो कहीं और जाकर मरो । मेरी गाड़ी के आगे नहीं। पर यह यहाँ ऐसे आया कहाँ से , दूर-दूरतक घर बस्ती की तो छोड़ो अभी तो कोई सड़क तक नहीं दिखी उसे।‘
नव्या हैरान थी।
इसके पहले कि कोई दुर्घटना हो उसने कसकर ब्रेक पर पैर मारा और अधरुकी गाड़ी से ही कूदकर अपरिचित की मदद के लिए दौड़ पड़ी । हत्प्रद करता सामने बस निर्जन रेत का विस्तार था। आस पास कोई अजनबी तो क्या चिड़िया का बच्चा तक नहीं दिखा उसे। नव्या हर दिशा में दस बीस कदम दौड़ी भी कि शायद वह दिख जाए । नव्या को अच्छा लगा था तीन दिन बाद अपने अलावा किसी और को देखना। वह तो उस पैदल चलते आदमी को शहर तक लिफ्ट देने की योजना भी बना चुकी थी मन ही मन, पर अब वहाँ कोई नहीं था, उससे बात करने, साथ चलने को ।
पता नहीं मरुधर निगल गया या आसमान खा गया। हाँ, पैरों से चार कदम की दूरी पर वही बनस्पति जरूर लहलहा रही थी। नव्या ने एक टहनी काटी और साथ वापस कार में रख ली। बैठते ही कार धूप के एक सुनहरे गुबार से भर गई । हाँ, गुबार ही सही शब्द है उस धूप के आवेग के लिए।
धूप का वह गुलाबी-सुनहरा टुकड़ा मनमोहक और संक्रामक था रुप और राहत दोनों में ही। अचानक ही उसे हवा संग आता एक दिव्य संगीत सुनाई देने लगा मानो तारे गा रहे हों, जैसा कि बचपन में होता था जब वह बहुत खुश होती थी। नव्या अब खुद को बेहद हल्का महसूस कर रही थी। इतना हल्का कि रेत के एक कण-सी गुबार में गोल-गोल खुद भी तो घूम रही थी वह अब।
खुश ही नहीं, बेहद खुश थी नव्या। सारी उदासी, सारी थकान मिट चुकी थी उसकी।
कार वापस स्टार्ट करने के लिए हाथ बढ़ाया तो खुद अपनी ही बांहों के टहनियों जैसे हलके पन ने चौंका दिया उसे। खुद को महसूस करना चाहा तो बस हवा-सी एक रेशमी सरसराहट ही थी ।
'-तो ऐसे बचाती है सृष्टि खुद को-उसी की तरह मनमाफिक कटिंग ले-लेकर।'
प्याज के छिलके से सभी रहस्य खुद ही अनावृत हो रहे थे। जिस गुत्थी को सुलझाने के लिए पिछले 15 साल से वह भटक रही थी वह अब जाकर खुली , जब उसके पास बताने और बचाने को हाथ और जुबां तक नहीं रहे ।
कुछ भी तो वश में नहीं।
अंदर ही अंदर उठती आह सी एक ठंडी सिहरन थी बस । आकाश अभी भी वैसे ही तारों से भरा झिलमिला रहा था। कुछ नहीं बदला था। बस, नव्या ही हो कर भी, अब नहीं थी।
अंदर से उठती हवा की तरंगों पर अगले दिन के अखबारों की हेडलाइन जरूर गूंज रही थीं उसके चारो तरफ – साफ-साफ और स्पष्ट।
‘दुनिया भर से रहस्यमय तरीके से गायब होते सैकड़ों नागरिकों की तालिका में नया नाम अब जीव वैज्ञानिक ‘नव्या शाह’ का भी जुड़ गया है। वह जीव वनस्पति और उसका पृथ्वी व हमसे रिश्ते पर अनुसंधान कर रही थीं। क्या अनादि और निरंतर इस प्रकृति का वाकई में मानव से बहुत ही नजदीकी संबंध है, उसके सृजन , और विनाश से संबंध है!- नजदीकी सूत्रों के अनुसार वे एक उल्लेखनीय खोज के बेहद करीब थीं।
सेना अभी भी जीप और हेलिकाप्टर के जत्थों के साथ उन्हें ढूँढ रही है। उनकी खाली रेंजरोवर के मिलने के बावजूद भी हम उम्मीद नहीं छोड़ सकते जब तक कि उनके मानवीय अवशेष न मिल जाएँ। पांच साल पहले वैज्ञानिक राबर्ट दिक्रुजा भी अपनी असिस्टैंट के साथ ऐसे ही गायब हुए थे। ब्राजील के जंगल में और हिमालय पर्वत पर भी कुछ अन्य व्यक्तिओं की ऐसे ही गायब होने की खबरें मिली हैं। हो सकता है जंगली जानवरों के शिकार बने हों सब। ...पर कुछ तो अवशेष या निशान मिलने ही चाहिएँ। रहस्य दिनप्रतिदिन गहराता जा रहा है।‘ नव्या जानती थी कि बस अटकलें ही लगेगीं। रहस्य शायद ही कोई जान पाए। चयन में ही तो सृष्टि की अनश्वरता का रहस्य छुपा है। प्रकृति स्वयं और पुरुष को पुनः पुनः बनाती और बिगाड़ती है, नष्ट नहीं होने देती। ये लगातार के बदलते मौसम पतझर और बसंत, मात्र क्रम नहीं, एक नियोजित चयन प्रकरण ही हैं। कुछ बनेगा तो कुछ बिगड़ेगा भी और बिगड़ा तो वापस बनेगा भी। मुठ्ठी में बन्द करके या रूई के फाहे में समेटकर कुछ भी नहीं रखा जा सकता। काश्, कोई तो समझे कि अभी तक गायब लोगों के बीच एक अद्भुत कड़ी रही है –सब अपने-अपने क्षेत्र में अद्वितीय, बेहद प्रतिभावान व कर्मठ व्यक्ति थे...प्रकृति द्वारा अगली और बेहतर फसल के लिए बचाए जाने लायक ‘बीज’।...
अपने ही घर में माया चूहे-सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई-- स्तब्ध। जीवन में आज पहली बार, मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी। आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। अब समय ही कहाँ बचा था कि वह सदा की भांति सोफ़े पर बैठकर टेलीविज़न पर कोई रहस्यपूर्ण टी.वी. धारावाहिक देखते हुए चाय की चुस्कियाँ लेती।
हर पल कीमती था। तीन दिन के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के संबंध, जी जान से बनाया ये घर, ये सारा ताम झाम और बस केवल तीन दिन! मज़ाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ करने का क्या लाभ। डाक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी। ढाई या साढ़े तीन दिन की क्यों नहीं, उसने तो यह भी नहीं पूछा। माया प्रश्न नहीं पूछती, बस जुट जाती है तन मन धन से किसी भी आयोजन की तैयारी में, वह भी युद्ध स्तर पर।
बेटी महक होती तो कहती, ममा, 'स्लो डाउन।' जीवन में उसने अपने को सदा मुस्तैद रखा कि न जाने कब कोई ऐसी वैसी स्थिति का सामना करना पड़ जाए। बुरे से बुरे समय के लिए स्वयं को नियंत्रित किया, ताकि वह मन को समझा सके कि इससे और भी तो बुरा हो सकता था।
ख़ैर, तीन दिन बहुत होते हैं। एक हफ़्ते में तो भगवान ने पूरी दुनिया रच डाली थी। बिगाड़ने के लिए तो एक तिहाई समय भी बहुत होना चाहिए। किंतु उसे बिगाड़ कर नहीं ये घर सँवार के छोड़ना है। संपत्ति को ऐसे बाँटना है कि किसी को यह महसूस न हो कि अंधा बाँटे रेवड़ी, भर अपने को दे। संसार से यों विदा लेनी है कि लोग याद करें। कमर कसकर वह उठ खड़ी हुई। तीनों अलमारियों के पलड़े खोलकर माया लगी अपनी भारी साड़ियों, सूटों और गर्म कपड़ों को पलंग पर फेंकने। जैसे उस ढेर में दब जाएगी उसकी दुश्चिंता। छोटे बेटे वरुण की शादी को अभी एक साल भी तो नहीं हुआ। कितने कपड़े और गहने बनवाए थे माया ने। जैसे अपनी सारी इच्छाओं को वह एक ही झटके में पूरा कर लेना चाहती हो।
'हे भगवान! अब क्या होगा इन सबका?' समय होता तो वह भारत जाकर बहन भाभियों में बाँट देती। ऑक्सफैम में जाने लायक नहीं हैं ये कीमती साड़ियाँ पर उसकी बहुओं और बेटी को इस 'इंडियन' पहनावे से क्या लेना देना।
रूपहली नैट की गुलाबी साड़ी को चेहरे से लगाए माया सोच रही थी कि इसे पहनने के लिए उसने अपना पूरा पाँच किलो वज़न घटाया था। मुँह माँगे दाम पर ख़रीदी थी ये साड़ी उसने रितु कुमार से। छोटी बहन तो बस दीवानी हो गई थी, 'जीजी, इस साड़ी से जब आपका दिल भर जाए तो हमें दे दीजिएगा, प्लीज़।' उसे तब ही दे देती तो छोटी कितनी खुश हो जाती। पर तब उसने सोचा था कि इसे पहन कर पहले वह अपने लंदन और योरोप के मित्रों की चर्चा का विषय बन जाए, फिर दे देगी। किसी ने ठीक ही कहा है, 'काल करे सो आज कर।' एकाएक उसे एक तरक़ीब सूझी। क्यों न वह इसे छोटी को पार्सल कर दे और साथ में ही भेज दे इसका मैचिंग कुंदन का सैट भी। कुंदन के सैट के नाम पर उसका दिल मानो सिकुड़ के रह गया। बड़ी बहु उषा को पता लगेगा कि सास ने साढ़े तीन लाख का सैट छोटी को दे दिया तो वह उसे जीवन भर कोसेगी। पर छोटी जितनी क़द्र भला बहुओं और बेटी महक को कहाँ होगी। माया चाहे कितना कहे कि वह किसी से नहीं डरती पर सच तो ये है कि वह मन ही मन सबसे ही डरती है अपने बच्चों से लेकर, सड़क पर चलते राहगीरों तक से कि वे क्या सोचते होंगे, कहीं वे यह न कहें या कहीं वे वो न सोचें। पर अब वह वही करेगी जो उसका मन चाहेगा। वैसे भी, बच्चे अपने अपने घरों में सुख से हैं। न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलु मामलों में दखलअंदाज़ी नहीं करेगी। सगे संबंधी और मित्र भी मरने वाले की अंतिम इच्छा का सम्मान करेंगे ही।
फिर भी, न चाहते हुए भी माया दूसरों के लिए ही सोच रही थी। अपने लिए सोचने को रखा ही क्या है। मंदिर जाए, गिड़गिड़ाए कि भगवान बचा लो। ज़िंदगी के इस आख़री पड़ाव पर क्यों अपने लिए कुछ माँगे और माँगने से क्या कुछ मिल जाएगा। अब तक तो वह जब भी भगवान के आगे गिड़गिड़ाई है, सदा औरों के लिए। हर सुबह यही प्रार्थना करती आई है, 'भगवान सबका भला करना', या `जो भी ठीक समझो वही करना,' क्योंकि मनुष्य की हवस का तो कोई अंत नहीं। अमेरिका में तो सुना है कि लोगों ने हज़ारों डालर देकर मरणोपरांत अपने शवों के प्रतिरक्षण का प्रबंध करवा लिया है ताकि भविष्य में, जब भी टैकनौलोजी इतनी विकसित हो जाए, उन्हें जिला लिया जाए। माया को यह समझ नहीं आता कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाए। गाँधी, मदर टेरेसा या मार्टिन लूथर किंग जैसों महानुभावों को सुरक्षित रख पाते तो और बात थी। अच्छी से अच्छी प्लास्टिक सर्जरी के उपलब्ध होने पर भी एलिज़ाबेथ टेलर जैसी करोड़पति सुंदरी भी कुरुप दिखती है। प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या लाभ। उसे जो करना था वह कर चुकी। बच्चे अपने-अपने घरों में सुख से हैं। न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलु मामलों में दखलअंदाज़ी नहीं करेगी।
माया एक अजीब-सी मन:स्थिति से गुज़र रही है। उसे लगता है कि कहीं कुछ अप्राकृतिक अवश्य है। वह परेशान है कि उसे मौत से डर क्यों नहीं लग रहा। हो सकता है कि अत्यधिक भय की वजह से उसने भय को अपने मस्तिष्क से 'ब्लॉक' कर रखा हो। जो भी हो, अच्छा ही है। अन्यथा भयवश न तो वह कुछ कर पाती और न ही ठीक से सोच ही पाती। बच्चों को बताने का कोई औचित्य नहीं। बेकार परेशान होंगे और उसकी नाक में दम कर डालेंगे। पिछले महीने ही की तो बात है जब उसे फ़्लू हो गया था। दुर्भाग्यवश वरुण और विधि घर पर थे। उन्होंने तीमारदारी कर करके माया की ऐसी की तैसी कर दी थी। उसे आराम से सोने भी नहीं दिया था। कभी दवाई का समय हो जाता तो कभी खिचड़ी का, कभी गरम पानी की बोतल बदलनी होती तो कभी गीली पट्टी। नहीं नहीं, चुपचाप मर जाना बेहतर होगा। बच्चों को भी तसल्ली हो जाएगी जब लोग कहेंगे कि माया बड़ी भली आत्मा रही होगी कि नींद में चल बसीं। वैसे, कह भर देने से ही कितनी तसल्ली हो जाती है या शायद दिल को समझा लेना आसान हो जाता होगा। लोगों के पास चारा भी क्या है। जीवन के हल में सीधे जुत जो जाना होता है। आजकल तो लोग तेरहवीं तक भी घर में नहीं रुकते। छुटि्टयाँ ही कहाँ बचती हैं। साल में एक बार भारत जाना होता है। फिर परिवार और मित्रों के साथ दो या तीन बार योरोप की यात्रा पर भी जाना पड़ता है। पहले ज़माने में कभी लेते थे लोग छुटि्टयाँ ऐसे कामकाज के लिए। माया तो हारी बीमारी में भी उठके दफ्तर चली जाती थी कि एक छुट्टी बचे तो मंडे बैंक हौलिडे के साथ जोड़ कर कहीं आस-पास ही हो आए। उसका मानना है कि इंग्लैंड की तनाव भरी जलवायु से जब तब निकल भागना आवश्यक है। वैसे भी यहाँ के बहुत से लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। जिसे देखिऐ वही 'टैन्स्ड' है।
माया भी 'टैन्स्ड' है। अपनी उँगलियाँ उलझाए वह सोच रही है कि पर्दों को धो डाले और घर की झाड़ पोंछ भी कर ले। मातमपुर्सी को आए लोग कहीं ये न कहें कि दूसरों को सफ़ाई पर भाषण देने वाली मायी स्वयं इतने गंदे घर में रहती थी। आज तो केवल बुधवार है और घर की सफ़ाई करने वाली ममता तो शनिवार को ही आएगी। शनिवार को वे दोनों मिलकर घर की खूब सफ़ाई करती हैं और फिर दोपहर में एक नई हिंदी फ़िल्म देखने जाती हैं। शाम का खाना भी बाहर ही होता है। रात को ममता को उसके घर छोड़ कर जब माया वापस आती है तो अपने साफ़ सुथरे फ्लैट में खुशबुदार बिस्तर पर पसर जाना उसे बहुत अच्छा लगता है। कभी-कभी तो इस संवेदना के रहते, वह सो भी नहीं पाती। उनके मना करने के बावजूद ममता उसे 'मैडम' कहकर ही पुकारती है और उसकी बहुत इज़्ज़त करती है। हालाँकि बच्चों को लगता है कि माँ ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है, माया उसे अपने परिवार का एक सदस्य ही मानती है। कर्मठ, इमानदार और निष्ठावान है ममता, माया की तरह ही। शायद इसीलिए माया को उसका साथ पसंद है। उसकी सहेलियाँ उसके इस बर्ताव पर नाक भौं चढ़ाती रहतीं हैं तो चढ़ाया करें।
नारायण को लेकर ममता कुछ अधिक ही परेशान है। उसका इकलौता बेटा नारायण, जिसके पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी, बुरी संगत में पड़ कर एक गुंडे के गिरोह में ड्राइवरी कर रहा है। आजकल उसकी इच्छा है कि उसके प्रवास के दौरान नारायण एक बार लंदन घूमने आ जाए। माया ने दिल्ली में अपने भाई पारस के ज़रिए उसका पासपोर्ट बनवा दिया है और वीज़ा भी लग ही जाएगा। ममता के इसरार पर माया ने पिछले साल पटना के किसी अधिकारी को इस बाबत लिखा भी था पर वहाँ से आज तक कोई जवाब नहीं आया। दिल्ली मुंबई जैसे शहर होते तो शायद कोई जान पहचान निकल भी आती। हर शनिवार ममता को बड़ी आस लिए आती है, 'मैडम कोई चिट्ठी पत्री आई।' न में सिर हिलाती माया सोचती है कि कुछ करना चाहिए किंतु वह कर क्या सकती है? अपना बेटा होता तो क्या वह चुप बैठ जाती? उसका मन कई बार होता है कि बारक्लेज़ बैंक के पाँच हज़ार के बौंड्स ममता को दे दे ताकि वह नारायण को उन गुंडों से बचा सके। किंतु फिर वही दुविधा कि मेहनत से कमाए उसके धन का सीधी-सादी ममता कहीं दुरुपयोग न कर बैठे।
बच्चों को क्या, किसी और को भी यदि ये पता लग गया कि उन्होंने इतनी बड़ी रकम ममता को दे दी तो वे उसे पागल समझेंगे। किंतु धन का इससे अच्छा उपयोग भला क्या हो सकता है। महक होती तो कहती, 'ममा, डू व्हाट यू लाईक, इटज़ यौर मनी आफ़्टर ऑल।' वरुण और विधि को उसके धन से कुछ लेना देना नहीं। विधि साई बाबा ट्रस्ट की सदस्य है, कभी बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ जाती है तो कभी किसी सेवा शिविर के लिए काम करती है। अरुण कहता है कि उन्हें पैसे की कोई कद्र नहीं और ये भी कि यदि माँ चाहें तो उनका पैसा वह किसी अच्छी जगह इन्वैस्ट कर सकता है। इकलौती संतान के नाते, उषा को हर चीज़ अपने नाम करवाने की पड़ी रहती है। इतनी बड़ी रकम उन्होंने पहले किसी को दी भी तो नहीं। उनकी मृत्यु के बाद कहीं बच्चे बेचारी ममता पर कोई मुकदमा ही न ठोक दें। दुनिया में क्या नहीं होता। माया का सोचना ही उसका दुश्मन है पर सोच पर किसी का क्या बस।
बस अब और नहीं सोचेगी माया। अभी जाकर वह बौंड्स भुनवा लेगी और शनिवार को ममता को दे देगी। कहीं वह शुक्रवार को ही स्वर्ग सिधार गई तो? हालाँकि वह शुक्रवार की शाम को मरे तो बच्चों और सगे संबंधियों को सप्ताहांत मिल जाएगा। इतवार को ही स्विटज़रलैंड से वरुण और विधि भी छुटि्टयाँ मना कर लौट आएँगे। माया को अच्छा नहीं लगा कि आते ही उन्हें कोई बुरी ख़बर दे पर किया क्या जा सकता है।
बैंक जाते समय माया सोचने लगी कि किसी के आख़री वक्त में सबसे विशेष बात क्या हो सकती है? क्यों वह सीधे कपड़ों गहनों की तरफ़ भागी? क्या ये मामूली चीज़ें उसके लिए इतना महत्व रखती हैं? आज तक तो वह यही सोचती आई थी कि उसके मरने के बाद बेटे बहु उसका तमाम बोरिया बिस्तर बोरियों में भर कर ऑक्सफ़ैम या किसी और चैरिटी को दे आएँगे। समय के अभाव में शायद उसका सामान वे कूड़ेदान में ही न फेंक दें। ख़ैर, ये सोचकर क्या वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गँवा रही? उसे क्या लेना देना इस भौतिक सामान से किंतु किसी के काम आ जाए तो अच्छा ही है। भारत में कई परिवार इन चीज़ों से अपने बहुत से तीज त्योहार मना सकते हैं। ऑक्सफ़ैम वाले क्या समझेंगे भारतीय पहनावे को? वे इन्हें 'रीसाइकिलिंग' के लिए दाहित्र में ही न कहीं डाल दें।
पिछले दो वर्षों में ही माया ने दो मौतें देखीं थीं और दोनों ही मृतकों ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी। अभी अर्थी भी नहीं उठी थी कि बच्चों ने घर सिर पर उठा लिया। जिन माँ बाप ने अपना जीवन अपने बच्चों पर न्योछावर कर दिया था, उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने की बजाय उनके बच्चे उन्हे ही भला बुरा कह रहे थे। ख़ैर, उसे इस सब की परवाह नहीं है। उसने अपनी सारी जायदाद, गहने, शेयर इत्यादि बाँट दिए हैं सिवा इन कपड़ों और कुछ पारिवारिक गहनों के और इन्हीं की वजह से वह कल रात भर ठीक से सो भी नहीं पाई थी। इन भौतिक चीज़ों में मृत्यु जैसी विशेष बात भी डूब के रह गई थी।
सुबह उठते ही नहा धो कर माया बैठ गई आईने के सामने। बिना मेक अप के चेहरा कैसा बेरंग लग रहा था, करेले-सी झुर्रियां और अर्बी सा रंग। उसने कहीं पढ़ा था कि जिसने जीवन में बहुत दुख झेलें हों, केवल वही एक अच्छा विदूषक हो सकता है। ठंड की गुनगुनी धूप सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई। किंतु ये झुर्रियों से भरा चेहरा मृत्यु के पश्चात कैसा लगेगा? जब लोग बक्से में रखे उसके पार्थिव शरीर के चारों ओर घूमकर श्रृद्धांजलि अर्पित करेंगे तो उन्हें कहीं मुँह न फेर लेना पड़े। माया को आकर्षक लगना चाहिए और ये मेकअप आर्टिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह कैसी दिखाई दें। शायद और लोग भी इस बारे में चिंतित होते हों। हिम्मत करके उसने अंत्येष्टि निदेशक का नंबर घुमाया। 'हेलो, हाउ मे आइ हेल्प यू?' मीठी आवाज़ में स्वागती ने पूछा।
माया ने झिझकते हुऐ पूछा, 'सौरी टु बौदर यू, आइ हैड बुक्ड ए कौफ़िन फ़ॉर माइसेल्फ दि अदर डे, आइ वंडर इफ समवन कुड टेक केयर ऑफ माई मेकअप एंड क्लोद्स आफ़्टर आई एम डेड. . .।' 'ऑफ़ कोर्स मैडम, यौर विश इज़ अवर कमांड।' स्वागती की वरदायनी अदा पर माया मुस्कराने लगी। उसने सोचा कि वह मेकअप आर्टिस्ट को अपना भरा पूरा वैनिटि केस ही दे देगी ताकि कई अन्य भारतीय महिला मृतकों का भी उद्धार हो जाए। गोरे गोरियों के रंग का मेकअप तो इन लोगों के पास होता है किंतु किसी भारतीय महिला ने शायद ही कभी ऐसी माँग की हो। उसे कहाँ फ़ुर्सत इस आडंबर की। उसे यकायक याद आई मीना कुमारी की, जो पूरी साज सज्जा के साथ दफ़नाई गई थी। चलो मेकअप और कपड़ों का तो बंदोबस्त हो गया। उसने सोचा कि क्यों न वह अपने बाल भी ट्रिम करवा ले? उसे अपने हेअरड्रैसर से भी विदा ले लेनी चाहिए। पिछले तीन दशकों में दोनों के बीच एक अच्छा समझौता हो गया है। वह जानता है कि कब उसके बालों को पर्म करना है, कब रंगना है या कब सिर्फ़ ट्रिम करना है। कभी माया उल्टी सीधी माँग कर भी बैठे तो वह साफ़ इनकार कर देता है, 'नहीं, ये आप पर अच्छा नहीं लगेगा', या 'अपनी ज़रा उम्र तो देखो माया।' हालाँकि माया को आज भी लगता है कि वह एक बार उसके बालों को किसी सुर्ख रंग में रंग दे।
माया झट से उठी और कार में बैठकर चल दी वैम्बली हाई रोड की ओर। अभी कार को उसने दाईं ओर मोड़ा ही था कि उसने सोचा कि पहले उसे अपने होंठ के ऊपर उग आए बालों को ब्लीच करवा लेना चाहिए। उसने एक ख़तरनाक यू टर्न मारा। यदि कोई पुलिस वाला देख लेता तो उसे अवश्य ही धर लेता। 'ऑन दि स्पौट फ़ाईन' अलग देना पड़ता। पर अब डर किस बात का और ये पैसा किस काम का? यकायक उसने निर्णय लिया कि चाहे कितने भी पाउंड लगें, वह रीजैंट स्ट्रीट पर स्थित सबसे महँगे ब्यूटी पारलर में जाकर मसाज, ट्रिमिंग, भवें, ब्लीचिंग और फ़ेशल आदि सब करवा लेगी। 'टी टूँ टी टूँ' का शोर मचाती एक एम्बुलेंस पास से गुज़री तो कार को धीमा करके माया एक तरफ़ हो गई। न जाने किसको दिल का दौरा पड़ा हो या दुर्घटना में घायल कोई दम तोड़ रहा हो। यदि समय पर डॉक्टरी सहायता मिल जाए तो कई मौतों को बचाया जा सकता है पर ये तो सब नसीब की बातें है। एकाएक माया को ध्यान आया कि उसने अभी तक अपनी आँखे भी दान नहीं की थीं। आँखे ही क्यों, गुर्दे, फेफड़े, दिल आदि उसे अपने सभी अंग दान कर देने चाहिए। साथ तो ये जाएँगे नहीं उसके। किसी के काम ही आ जाएँ तो अच्छा है। किंतु उसके बूढ़े अंग भला किसके काम आएँगे? डॉक्टरों को अनुसंधान के लिए भी तो मृत शरीरों की आवश्यकता पड़ती होगी। क्यों न वह अपना पूरा शरीर ही दान कर दे ताकि जिसे जो चाहिए, ले ले। बाकी के बचे खुचे टुकड़ों का क़ीमा बना कर खाद में डाले या. . .। माया भी कभी-कभी कैसी पागलों जैसी बातें सोचती है पर अस्पतालों से जो मनो अंग प्रत्यंग प्रतिदिन फेंके जाते हैं, वे कहाँ जाते होंगे? प्लास्टिक के थैलों से लेकर दही के डिब्बों तक माया कूड़े में कुछ नहीं फेंकती। जहाँ देखिए कचरा ही कचरा। लोगों को रीसाइक्लिंग की ओर ध्यान देना होगा नहीं तो ये विश्व अवश्य तबाह होकर रहेगा।
अस्पताल जाकर वह अपना समूचा शरीर दान तो कर आई किंतु मन में कई संदेह आते जाते रहे। एक दुर्घटना में माया के दादा की उँगली कट गई थी। उनकी मृत्यु के उपरांत, दादी ने विशेष तौर पर कृत्रिम उँगली लगवा कर उनका दाह संस्कार करवाया था। उनका विचार था कि यदि दादा को उनके सभी अंगों के साथ नहीं जलाया गया तो वह अगले जन्म में बिना उँगली के पैदा होंगे। हो सकता है, क्योंकि माया ने अपना पूरा शरीर दान कर दिया है, कि माया का जन्म ही न हो। वह यह भी मानती है कि हर जन्म में मनुष्य अपने को विकसित करता है और जब वह पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है, तब ही वह परमात्मा में विलीन होने में समर्थ होता है। माया को लगता है कि वह तो एक बच्चे से भी गई गुज़री हैं। बच्चे भी जब तब कहते रहते हैं, 'ममा, यू आर ए चाइल्ड' या `ममा, यू शुड ग्रो नाओ।' वह कहाँ इस योग्य कि भगवान उसे अपने में लीन कर सकें। अभी तो वह सांसारिक भोगों में आकंठ डूबी है।
खुशबूदार मोमबत्तियों के मध्यम प्रकाश में तैरते भारतीय शास्त्रीय संगीत में डूबते उतरते उसके शरीर की मुलायम और सधे हाथों द्वारा मालिश ने उसे स्वर्ग में पहुँचा दिया। उसे लगा कि तन से मानो मनों मैल उतर गया हो। मन हवा से बातें कर रहा था। शायद संसार के ये छोटे-छोटे सुख दुख ही स्वर्ग और नर्क हों। ब्यूटी पारलर से निकली तो पहली बार माया ने जाना कि लोग अपने ऊपर इतना पैसा क्यों खर्च करते हैं। वह सचमुच कितनी मूर्ख थी कि जीवन भर दाँत से भींचकर पैसा खर्च करती रही। पैसा होते हुए भी ऐसे सुख का उपभोग नहीं कर पाई। हालाँकि उसकी बहुएँ नियमित रूप से ब्यूटी पारलर और जिम जाती हैं। विधि तो उनसे भी चलने को कहती रहती थी। किंतु वह उसे सदा हँस कर ये जवाब देकर टाल देती थी, 'बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम।'
आज वह बीसियों साल बाद गुनगुना उठीं, 'ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द जाने कोय' पर कमज़ोरी के मारे आवाज़ खींच नहीं पाईं और चुप हो गईं। सोचा कि घर जाकर कुछ रियाज़ करेगी और फिर गाने की कोशिश करेगी। अभी तो उसे ज़ोरों की भूख लगी थी। सामने ही क्रेज़ी हौर्स पब था, जो फ़िश एण्ड चिप्स के लिए मशहूर था। माया उसमें ही जाकर एक कोने में बैठ गई। किसी के फ्यूनरल से लौटी भीड़ शराब और सैंडविचेज़ में डूब उतर रही थी, 'फ़ार सच ए यंग फेलो, ही वाज़ एन एलीफैंट, माइ शोल्डर स्टिल हर्टस', एक लंबा चौड़ा गोरा युवक अपने कंधे दबाता बोला और उसके अन्य साथियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई, 'ही डाइड ईटिंग, यू नो।'
माया ने सोचा कि अमेरिका में अर्थी उठाने वालों का क्या हाल होता होगा क्योंकि वहाँ तो हर तीसरा व्यक्ति मोटापे से ग्रस्त है। दो ही दिन बचे हैं खाने को। यदि वह दो दिन कुछ न भी खाए तो भला उसका कितना वज़न कम हो जाएगा। बेचारी ने सलाद और संतरे के जूस का ही और्डर दिया। जल्दी से खा पीकर वह सीधे जिम पहुँची कि यदि वह जम कर व्यायाम करे तो एक किलो वज़न तो वह घटा ही सकती है। कम से कम उसके बेटे ये तो नहीं सोचेंगे कि ममा कितनी भारी थी, उनके कंधे तो नहीं दुखेंगे।
खाने से उसे यह भी याद आया कि जीजाजी की तेरहवीं के अवसर पर बनवाई गई कद्दू की सब्ज़ी को लोग आज भी याद करते हैं। पर बच्चों को तो ये भी नहीं पता होगा कि कद्दू क्या होता है। अपनी तेरहवीं का मेन्यु भी वह स्वयं ही बना के रख दे तो बच्चों का एक और सिरदर्द दूर हो जाए। कहीं उसके बच्चे भी ये न सोचें कि माँ को उन पर ज़रा भी विश्वास न था तभी तो सारे इंतज़ाम करके गई पर उसे कहाँ बस था स्वयं पर। क्रिसमस के कार्ड तक तो वह अक्तूबर में लिख कर रख लेती है। अच्छा हुआ कि केवल दिन का ही नोटिस मिला अन्यथा मृत्यु की तैयारी में वह महीनों लगी रहती।
घर वापस आकर उसने अपनी तसल्ली के लिए एक फ़ाइल खोल ही ली। पहले पन्ने पर अंत्येष्टि निदेशक, उसकी सहायक और दो तीन जाने माने खान पान प्रबंधकों के नाम, पते, फ़ोन और उनके ईमेल आदि लिख दिए, अपनी एक टिप्पणी के साथ कि वे चाहें तो मौसा जी की तेरहवीं पर सपना केटरर द्वारा परोसा गया खाना ही दोबारा ऑर्डर कर सकते हैं जो सभी को बहुत पसंद आया था। हाँ, यदि वे कुछ नया या आधुनिक आयोजन करना चाहें तो माया को कोई आपत्ति नहीं होगी।
आगंतुकों की भीड़-भाड़ में घर की सफ़ाई, चाय पानी के इंतज़ाम के लिए ममता का होना आवश्यक है। हालाँकि माया की मृत्यु का समाचार सुन कर कहीं उसके हाथ पाँव ही न छूट जाएँ। बेटे का जीवन सँवारने के लिए ममता रात दिन लोगों के घरों में सफ़ाई करती है। वह तो शायद कभी ये भी नहीं जान पाती होगी कि कब फूल खिले, कब पत्ते झड़ें या कब बरसात हुई। 'नारायण, नारायण' जपती वह पोचे मारती है, 'नारायण, नारायण' करती वह बर्तन धोती है और 'नारायण, नारायण' करके उसने माया की नाक में दम कर रखा है। बर्फ़ में भी वह बिना मोज़े पहने निकल पड़ती है घर से। दास्तानों की तो बात दूर है। अकड़े हाथों से न जाने कैसे काम करती है। ठंड के मारे उसके पैरों की बिवाइयों में खून भी जम जाता है।
ममता एक भारतीय राजनयिक और उनके परिवार के साथ लंदन आई थी, जिन्हें कार्यवश जल्दी ही स्वदेश वापस जाना पड़ा। वे उसे को दो वर्षों के लिए यहीं छोड़ जाने को राज़ी हो गए थे कि यहाँ वह कुछ पैसा कमा लेगी। नारायण तुला है किसी भी क़ीमत पर माँ के पास आने को और ममता दिन रात यही सोचकर डरती रहती है कि यदि उसकी मंशा किसी को भी पता लग गई तो गुंडे उसका न जाने क्या हश्र करें। नारायण का पासपोर्ट बन चुका है और माँ के पास आने की बेचैनी में उसे लगता है कि माँ जल्दी से टिकट क्यों नहीं भेज रही। भूखे प्यासे रह कर पैसा जोड़ने के सिवा वह और क्या कर सकती है। बच्चे कहाँ समझते हैं माँ की मजबूरियाँ, उसकी बेबसी और उसकी चिंता।
बच्चे क्या जाने कि मृत्यु क्या होती है। उन्हें तो छोटी बड़ी हर चीज़ चाहिए। माया की पोती, रिया, जब केवल ढाई वर्ष की थी तो दादा की बेशकीमती घड़ी लेने की ज़िद कर रही थी। माया ने हँसी-हँसी में कह दिया कि दादा जी के बाद ये सब उसी का तो ही है। रिया ने झट पूछा, 'दादी, वैन विल दादु डाई?' माया सन्न रह गई थी। अरुण ने बच्ची को एक थप्पड़ मार दिया। रोती हुई रिया को उषा घसीट कर अपने शयनकक्ष में ले गई, क्रोध में ये कहती हुई, 'आर यू मैड, अरुण?'
रिया बच्ची थी और नहीं जानती थी कि उसे घड़ी तो अवश्य मिल जाएगी पर वह अपने प्यारे दादु को खो देगी। वैसे कितने ही लोग हर रोज़ अपने संबंधियों के मरने की राह देखते हैं। अभी हाल में ही केवल एक हज़ार डॉलर्स के लिए दो पोतों ने मिल कर अपनी दादी की हत्या कर डाली। दहेज की वजह से बहुओं की हत्या का भी कारण यही लालच है। माया सोचती है कि अपने जीते जी ही बच्चों को सब दे देना चाहिए। किंतु हवस का तो कोई ठिकाना नहीं। जितना पैसा माँ बाप दहेज़ में लगाते हैं, कितना अच्छा हो कि यदि वे अपनी बच्चियों की पढ़ाई लिखाई पर खर्च करें ताकि वे अपने पाँव पर खड़ी हो सकें, उनके बुढ़ापे की लाठी बन सकें पर न जाने क्यों आज भी इसकी अपेक्षा तो बेटों से ही की जाती हैं।
दो बेटों के होते हुए भी आज माया कितनी अकेली है। हालाँकि वे माँ को अपने पास रखने को सहर्ष तैयार हैं, पर उनका मन किसी के साथ रहने को माने तब न। एक महक ही है जो बिना नागा फ़ोन पर उनका हालचाल पूछती रहती है। जब मौका मिलता है, आ जाती है, उनके सिर में तेल मलती है, उनके नए पुराने कपड़े छाँटती है और अब भी उनसे चिपट कर सोती है। महक और पीटर कभी-कभी उसे ज़बरदस्ती सेंट एंड्रूज़ ले जाते है। किंतु वही बेटियों के घर में रहने खाने की बात उसे खटकती है। जबकि यहाँ सासें दामादों के यहाँ रहती हैं। माया सोचती है कि वह स्वयं भी कितनी दोगली है कि एक तरफ़ जहाँ वह दर्शन और आदर्श बघारती है, दूसरी तरफ़ उन्हीं बातों के लिए दूसरों की निंदा करती है। जैसी भी है, माया अब तो बदलने से रही। बुराइयाँ किसमें नहीं होतीं, अच्छाइयाँ भी उसमें कम नहीं। कोई ज़रा माया से सहायता माँग तो ले, चाहे उसके पास समय या हिम्मत हो न हो, वह न नहीं कर सकती। उत्साह में तो वह ये भी भूल जाती है कि किसका काम है, क्या काम है, उसके पास समय होगा भी कि नहीं। पूरे ज़ोर शोर से जुट जाती है। व्यवस्था का कोई भी पहलू मजाल है कि उसकी आँख से छूट जाए। शवपेटिका की व्यवस्था माया कर ही चुकी थी। बच्चों पर छोड़ देती तो वे सबसे महँगी लकड़ी का सुनहरी कुडों से जड़ा बक्सा ही ख़रीदते। शव को कपड़े में लपेटकर भी काम चलाया जा सकता है। भारत में लोग कितने यूज़र फ्रेंडलि हैं। हर चीज़ को रीसाईक्ल करते हैं। भाड़ ही में तो झोंकना है, पानी में पैसा बहा देने का क्या फ़ायदा। इससे तो वो पैसा किसी ग़रीब के काम आ जाए तो अच्छा हो। पर कौन देकर जाता है कुछ ग़रीबों को। कब से सोच रही है माया कि रॉयल स्कूल ऑफ़ ब्लाइंड की सहायता करने को पर बात है कि बस टलती चली जाती है। वह कल अवश्य जाएगी। हालाँकि पिछले हफ़्ते ही उसने कुछ धन हरे रामा हरे कृष्ण वालों को दिया था पर उस दान से उसे कुछ भी तृप्ति नहीं मिली थी। वह घंटों बैठी सोचती रही कि उन्हें कितना पैसा दान दे, सब कुछ उन्हीं को दे दे, या दे भी कि नहीं।
नब्बे प्रतिशत तो सुना है धन इकट्ठा करने वालों की जेब में चला जाता है। गोरे लोग कितना दान करते हैं। वे तो कभी नहीं सोचते कि पैसा कहाँ जा रहा है। जिनके मन में लालच हो, उन्हें तो बस कोई बहाना चाहिए। वह मन ही मन शर्मिंदा हो उठी। वास्तव में तो वह अधिक से अधिक धन बच्चों के नाम छोड़ना चाहती है। हालाँकि वह जानती है कि उषा तो यही कहेगी, 'हमारे हिस्से में बस इतना ही आया, मम्मा वरुण और विधि को ज़रूर अलग से दे गईं होंगी।' विधि को कुछ भी दो वह यही कहती है, 'मम्मी जी पहले आप महक जीजी और भाभी से पसंद करवा लीजिए, हम बाद में ले लेंगे।' न जाने अरुण और उषा सदा यही क्यों सोचते हैं कि माया वरुण और विधि को ही अधिक चाहती हैं। कोई माँ से पूछे कि उसे अपनी कौन-सी आँख प्यारी है।
माया को लगता है कि जैसे-जैसे व्यक्ति उम्र में बड़ा होता जाता है, अनासक्त होने के बजाय आसक्त होता जाता है। जहाँ विधि और महक को पैसे अथवा चीज़ों की ज़रा परवाह नहीं, वहीं उषा को और स्वयं उसे छोटी-छोटी चीज़ों से लगाव है। उन्हें ये भी चिंता रहती है कि देने लेने से कौन कितना प्रसन्न होगा। अस्थाई और क्षणिक प्रसन्नता के लिए इतना आयोजन प्रयोजन और परम आनंद के लिए कुछ भी नहीं। किंतु आनंद भी तो इन्हीं रिश्तों से जुड़ा है। जहाँ जा रही है माया, वहाँ दुख सुख के मायने शायद दूसरे हों। शायद वहाँ दुख सुख हों ही नहीं। पिछले साल ऋषिकेश में वह दीपक चोपड़ा से मिली थी। आनंदा में वह अपने पच्चीस अनुयायियों के साथ ठहरे हुए थे। मृत्यु के विषय पर उनका एक व्याख्यान सुनकर माया को लगा कि जीवन मृत्यु जैसे पेचीदा विषयों को समझना कितना सरल था। 'फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं और फिर खिलते हैं। इस पृथ्वी पर जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, पर उसका पुनर्जन्म भी उतना निश्चित है।' माया बस यही नहीं समझ पाती है कि ऋषि मुनियों की बातें उसके मस्तिष्क में टिक क्यों नहीं पातीं। क्योंकि शायद ये संसार है और यहाँ की हर चीज़ क्षणिक है, क्षणभंगुर है। किंतु प्रश्न ये उठता है कि मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच के समय में क्या होता होगा।
मृत्यु के उपरांत क्या होगा, इसका भय शायद दूसरों को अधिक होता हो। तभी तो इस वक्त माया को स्वयं कोई भय नहीं। जबकि पिछले दस बारह वर्षों में वह जब तब यही सोचती रही थी कि मृत्यु के बाद क्या होता होगा और ये भी कि क्या बेहतर है, मृतक को जलाना, ज़मीन के नीचे दबाना या चीलों को खिलाना। आबादी बढ़ती जा रही है, इतने सारे मृतकों को पृथ्वी कैसे और कब तक अपने में जज़्ब कर पाएगी। स्वयं वह जलाने की पक्षधर रही है। चीलों द्वारा नोच खसोट मृतक का अपमान नहीं तो और क्या है। किंतु इस जाति की भावना तो देखिए, शायद ये ही लोग अंततोगत्वा 'परम पिता परमात्मा' में समा जाते हों। 'परम पिता परमात्मा' से उसे याद आई अपने पिता की जो सारा जीवन राम नाम की माला जपते रहे। हालाँकि उनके क्रोध, आत्मरतिक, और मांसाहारी प्रवृत्ति से परेशान उनका परिवार सदा यही सोचता रहा कि केवल 'परम पिता परमात्मा' ही उनकी रक्षा कर सकते थे और शायद उन्होने रक्षा की भी। नहीं तो ऐसी अच्छी मौत किसे नसीब होती है।
माया के पति हरीश की मृत्यु हुए पाँच वर्ष होने को आए। उन्हें दफ़्तर में दिल का दौरा पड़ा और एम्बुलैंस के आने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके शव को घंटो निहारती बैठी रही थी माया कि अब साँस आई कि तब। नर्सों के विश्वास दिलाने के बावजूद कि हरीश अब नहीं रहे, उसे लगता रहा कि उनके शरीर में उसने हरक़त देखी। विवाहित जीवन के दौरान वे कभी अलग नहीं रहे। पढ़ाई, इम्तहान या दफ़्तर के सिलसिले में जब भी हरीश को कहीं जाना पड़ा, वह माया को अपने खर्चे पर साथ लेकर गए। वह स्तब्ध थी कि बिना कुछ कहे वह उसे अकेले कैसे छोड़ के चले गए। अब क्या बचा था, केवल चौखट, दरवाज़े, दीवारें और इन सबसे सिर मारती माया। अरुण और उषा तो पहले ही अलग घर बसा चुके थे। अठारह वर्ष की आयु में विवाह करके महक अपने पति, पीटर, के साथ स्काटलैंड में जा बसी थी और वरुण बर्मिंघम में पढ़ रहा था।
आस पड़ौस में भी किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि हरीश यों चल बसेंगे। संबंधियों और पड़ौसियों ने मिल कर बारी लगा रखी थी। कोई न कोई हमेशा घर में बना रहता कि न जाने माया को कब और क्या आवश्यकता आन पड़े। हफ़्तों तक परिवार के लिए ही नहीं, अपितु मेहमानों के लिए भी नियमित खाना पीना आता रहा, भजनों के नए-नए सीडीज़ और कैसेट्स बजते रहे, दिये में घी डाला जाता रहा। एक सप्ताह के अंदर ही माया ने अपने दुख पर पूरी तरह काबू पा लिया था और घर परिवार अब उसके पूरे नियंत्रण में था।
नए काले क्रिस्प सूटों में बेटों, दामाद और पोते को देख माया फूली नहीं समा रही थी। विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर हरीश ने उसे हीरे के छोटे-छोटे बुंदें और नेकलेस दिए थे, जो बहुओं द्वारा पहनाई उस महँगी सफ़ेद साड़ी के साथ कुछ अधिक ही चमक रहे थे। बहुएँ स्वयं लिपटी थीं काली साड़ियों में जिस पर चाँदी के धागों का हल्का बॉर्डर था। माया ने ही कहा था कि चाहे कितना भी बुरा अवसर क्यों न हो, सुहागने काला कपड़ा नहीं पहनती।
घर में अवलोकनार्थ रखे हरीश के शव को देख महक का बेटा आर्यन बार-बार 'हेलो दादू' 'हेलो दादू' पुकारे जा रहा था। आर्यन की हरीश से खूब छनती थी। उनसे मिलने वह महीने में एक या दो बार लंदन से सेंट एंड्रूज़ जाते थे। जब कभी आर्यन शरारत करता, वह उससे कुट्टी कर लिया करते और जहाँ उसने गाल फुलाए कि हुई दादु की अब्बा। 'वाऐ इज़ दादु नॉट टॉकिंग टु मी।' उसकी आँखों में आँसू थे। 'ममा, टैल दादु आई एम नॉट नौटी एनी मोर।' माया कुछ न कह सकी। उसे गोदी में ले पीटर बाहर चला गया।
हरीश के फूलों को गंगा में विसर्जन करने के लिऐ पूरा परिवार हरिद्वार पहुँचा था। माया का भारी भरकम भाई पारस यदि उन सबको नहीं बचाता तो पंडितों की धक्का-मुक्की में घिरे इस परिवार का राम नाम सत्य हो जाता। वस्र्ण और विधि तो पहली बार भारत आऐ थे। उनकी `एक्सक्यूज़ मी, एक्सक्यूज़ मी' भी किसी काम नहीं आई थी। माया ने सोचा कि हरीश की मृत्यु यदि भारत में होती और उनका क्रियाक्रम यहाँ करना पड़ता तो बच्चों के सब्र का बाँध तो अवश्य टूट जाता। हरीश को यदि पिता का कपाल फोड़ना पड़ता तो न जाने क्या होता।
शायद समय आ गया था माया का वापस संसार में लिप्त हो जाने का कि एक दिन उसकी पड़ोसन, जयश्री उसे ज़िद कर अपने साथ घसीट कर ले गई। ऐरे ग़ैरे नत्थू ख़ैरे सभी बाबाओं के सतसंगों में जाती है जयश्री। माया को इन बाबाओं और माताओं पर कोई श्रद्धा नहीं किंतु इस बार वह जयश्री को टाल नहीं पाईं। एक बड़े नामी योगी लंदन आए हुए थे। भीड़ में बैठी हुई माया को इंगित करके जब बाबा ने पूछा, 'बेटी किसके शोक में डूबी है।' माया ने सोचा कि बाबा को उसकी रोती धोती शक्ल से ही पता लग गया होगा कि यह नमूना कुछ ज़्यादा ही दुखी है, इसमें कौन-सी बड़ी बात थी। शायद माया के विधवा होने की बात उन्हें जयश्री ने बताई हो। ख़ैर, जब बाबा मन की बात जानते हैं तो वह माया का कष्ट भी जान ही गए होंगे। जयश्री उसे पकड़ कर बाबा के ठीक आगे ले गई, 'बाबा, इसका हज़बेंड ऑफ़ थेई गया छे, कोई नई साथे वात करती न थी अने कोई ने मलती न थी।' जयश्री के हज़बेंड ऑफ़ थेई गया छे, पर माया को हँसी आ गई और बाबा भी मुस्करा पड़े और जयश्री प्रसन्न थी कि माया के कारण, उसे बाबा के नज़दीक जाने की मौका मिल गया था।
'अपनी हानि को तो बेटी सभी रोते हैं, कभी उनकी भी सोचो जो प्रभु के पास हैं, उनके लाभ में भी तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए।' माया को लगा कि सचमुच वह कितनी स्वार्थी थी कि उसने हरीश के विषय में तो कभी सोचा ही नहीं। जब तक बाबा लंदन में रुके, माया नियमित रूप से उनके पास योगासन सीखने जाती रही। किंतु उसके बाद न तो बाबा ने कुछ कहा, न ही माया ने कुछ पूछा। उसके दिल में एक सुकून व्याप्त हो गया था जैसे हरीश फिर उसके साथ थे।
शादी की हर वर्षगाँठ पर हरीश मोगरे के फूलों के हार और गजरे माया के लिए विशेष तौर पर बनवाते थे। माया ने सोचा कि यदि हरीश जीवित होते तो उसकी शव पेटिका को मोगरे के फूलों से लाद देते। सगे संबंधी गुलदस्ते लेकर आएँगे। नहीं होंगे तो बस उनके भिजवाए मोगरे के फूल। कितनी अधूरी और फीकी लगेगी माया की शवयात्रा। शायद हरीश उसकी इंतज़ार में हों। वह हुलस उठी। पर क्या करे। कोई हलक़ में उँगली डाल कर तो आत्महत्या नहीं कर लेता। कर भी ले तो जो थोड़ा बहुत उनसे मिलने का मौका है, माया कहीं वो भी न गँवा दे। हालाँकि हरीश स्वयं एक जाने माने वकील थे, वह उसे 'मी लॉर्ड' कहकर पुकारते थे क्योंकि बाल की खाल उतारने की आदी थी माया। हरीश की याद उसे कभी-कभी दीवाना बना देती है। दिल है कि सँभलता ही नहीं, 'याद आए वो यों जैसे, दुखती पाँव बिवाई जी. . .।'
माँ बचपन में माया को हरिश्चंद्र तारामती के अमर प्रेम की कहानी सुनाती थी। वही तारामती जो अपने पति को यमराज से भी छुड़ा लाई थी। माया ने हाल ही में बी.बी.सी. पर एक फ़िल्म देखी थी जो एक ऐसी बीमारी के विषय में थी जिसमें रोगी बिल्कुल मृत दिखाई पड़ता है। डॉक्टरों को भी उसमें जीवन का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता और जीते-जी उसे मुर्दाघर में डाल जाता है। एक ऐसी ही महिला अब सोने से भी डरती है कि कहीं फिर न उसे मृत समझ के मुर्दाघर में डाल दिया जाए। माया को लगा की सत्यवान के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा होगा। तारामती को पूर्ण विश्वास होगा तभी तो वह पति के शव को गोदी में लेकर बैठी रही। जो भी हो, माया का प्रेम अमर है और हरीश आज भी उसके साथ हैं। इस विचार मात्र से वह सिहर उठी। मृत्यु के पश्चात वह उनसे अवश्य मिलेगी। वह इंतज़ार कर रहे हैं उसका उस पार। 'याद आए वो यों जैसे, दुखती पाँव बिवाई जी. . .।'
भाव विह्वल माया ने अंत्येष्टि निदेशक को पत्र लिखकर उसे मोगरे के फूलों के छल्ले पर 'स्वागतम माया, सस्नेह हरीश' लिखवाने की व्यवस्था करने को कह दिया। यह बात भला वह किससे कहती, कहती तो लोग समझते कि उसका सिर फिर गया है। कोई मृत व्यक्ति भी फूल भिजवाता है किसी को? पर कितना मज़ा आएगा जब लोग मोगरे के फूलों के साथ हरीश का नाम देखेंगे, अंतिम बार दोनों का नाम एक साथ। वह रोमांचित हो उठी और ये सोच कर कि 'वैन इन रोम, बी रोमन्ज़' उसने एक मरसेडीज़ भी बुक करवा दी। विदेशों में विवाह के अवसर पर अथवा शवयात्रा में काली रॉल्सरौयज़ बुलवाना पौश समझा जाता है।। हरीश होते तो मरसेडीज़ों की क़तार खड़ी होती। माया की अर्थी भी शान से उठनी चाहिए। बच्चों को भी अच्छा लगेगा। काली लंबी रॉल्सरौयज पर मोगरे के फूल कितने भव्य दिखेंगे। गली कूचों में लोग ठिठक के रुक जाएँगे और सराहेंगे इस शवयात्रा को।
मृत्यु का भय नहीं सता रहा माया को। जो होना है, सो तो होकर ही रहेगा। नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म या 'कुछ नहीं'। 'कुछ नहीं' के साँप को तो वह मन में ही दबाती रहती है और शायद उनकी अपनी बीन पर ही, फन उठाए यह भय जब तब लहराने लगता है। लोगों को उसने कहते सुना है कि कहीं आत्मा खालीपन में भटकती न रहे। भला ये भी कोई बात हुई। देवग्रंथों के अनुसार आत्मा को न तो कोई मार सकता है, न ही कोई दुख पहुँचा सकता है। तो फिर काहे का डर। डर तो बस माया को है पुनर्जन्म से, वही पढ़ाई लिखाई, विवाह, बच्चे, और फिर से मृत्यु। पर क्या पता उसे अगली योनि मनुष्य की मिले या न मिले। जिस रूप में भी पैदा हो बस भगवान मनुष्य जन्म की याद भुला दें। क्या जाने कीड़े मकौड़े और जानवरों को याद रहता हो अपना पिछला जन्म। शायद इसी का नाम नरक हो, कर्मों का फल। माया को लगता है कि उन्हें अपने पिछले जन्म की कुछ-कुछ याद है। वैसे तो मनुष्य का मस्तिष्क न जाने क्या-क्या खेल दिखाता है किंतु यदि यह बात सच है तो दो बार वह मनुष्य योनि में जन्म ले चुकी है और अब मनुष्य योनि का संयोग कम ही है। ख़ैर, जो भी होगा, देखा जाएगा, अभी से परेशान होने का क्या फ़ायदा। इस आख़िरी वक्त में भजन गाने से तो भगवान प्रसन्न होने से रहे। तैयारी भी करे तो क्या और कैसी?
जब भी माया किसी यात्रा पर निकलती है, ढेर-सी तैयारी करके चलती है। हर तरह की बीमारी की दवाएँ, गरम पानी की बोतलें, डिब्बे का खाना, अचार मुरब्बे, माचिस, चाकू, स्क्रू ड्राइवर, असमय की ठंड के लिए गरम कपड़े, कंबल, ब्रांडी, अतिरिक्त पेट्रोल का कनस्तर और न जाने क्या-क्या। जब वह लौटती है सारे सामान के साथ लदी-फदी, तो बच्चे हँसते हैं, 'डिडंट वी टैल यू टु ट्रैवल लाइट।' पर किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ जाती तो माया को किसी का मुँह तो नहीं ताकना पड़ता। अब चाहे अंगारों पर चलना पड़े या बर्फ़ पर, इस यात्रा पर उसे खाली हाथ ही निकलना है। काश कि उसने 'ट्रैवल लाइट' की आदत डाल ली होती तो आज उसे इस बेचैनी से दो चार न होना पड़ता।
समय की पाबंद, माया बिल्कुल तैयार बैठी है। जैसे बस और इंतज़ार नहीं कर पाएगी। क्यों कर लोग समय का पालन नहीं करते। पर मृत्यु को दोष नहीं दिया जा सकता और न ही डॉक्टरों को। कोई समय तो तय नहीं किया गया था। पहली बार उसके दिमाग़ में ये बात आई कि डाक्टर ग़लत भी तो हो सकता है। थोड़ी-सी आशा बँधी किंतु जीवन की नन्ही-सी किरण भी उसे अधिक उत्तेजित न कर पाई। डाक्टर ने कह दिया, माया ने सुन लिया और चुपचाप चली आई। एक प्रश्न तक नहीं पूछा। डाक्टर ने उससे कोई सहानुभूति भी नहीं प्रकट की। यहाँ तो टर्मनली इल रोगियों को विशेष परामर्श की सुविधा दी जाती है। एक ज़माना था जब रोगियों को बुरे समाचार से वंचित रखा जाता था किंतु अब तो विशेषज्ञों का मत है कि रोगी और उसके संबंधियों को सीधे-सीधे बता देना उचित है।
काश कि माया बिजली के बटन की तरह जीवन का स्विच खट से बंद कर पाती क्योंकि वह सचमुच तैयार है शरीर त्यागने को। बेकार बैठी है और उसकी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है। शायद उसे इसकी आवश्यकता पड़े मृत्यु के उपरांत। पर उसके बस में कुछ नहीं है। मनुष्य के बस में कुछ भी नहीं है। माया सोचती है कि आँधी तूफ़ान और भूचाल आदि के माध्यम से प्रकृति जब-तब अपने प्राणियों की संख्या नियंत्रित करती रहती है, जिसे भगवान का कोप समझ कर झेलते रहते हैं पृथ्वीवासी। जो समझ से परे हो, उसे भगवान का नाम दें या किसी बुद्धिमान अभिकल्पक का, क्योंकि जगत की संरचना के पीछे एक प्रतिशत संदेह तो बना ही हुआ है। इसी विषय को लेकर अमेरिका जैसे विकासशील देश में आज भी लोगों के बीच छुट-पुट घटनाएँ सुनने में आती हैं, जिनमें कोई डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को कोसता है तो कोई विज्ञान को। माया के पल्ले जब कुछ नहीं पड़ता तो वह गाने लगती है, 'कोई तो बता दे जल नीर कि सिया प्यासी है।' ये प्यास जीते जी तो बुझने से रही। शायद मर के ही मिलना हो उस बुद्धिमान अभिकल्पक से। किसी से मिलेगी अवश्य माया और हरीश का पता ठिकाना भी मालूम करके रहेगी।
श्रादों में माया की दादी स्वर्गीय दादा और परिवार के अन्य मृतकों की शांति के लिए पंडितो को दान देतीं और भोजन कराती थीं। पिता की बात याद कर माया मुस्करा अनायास उठी। जब भी माँ श्राद्ध के भोजन का प्रबंध करतीं, वह कहते कि उनके पिता और दादा की आत्मा को शांति पहुँचानी है तो कोफ़्ते पकाओ, मुर्ग मुसल्लम बनवाओ। पति की मृत्यु के उपरांत, माँ, जो अपनी सास को दकियानूसी करार देतीं आई थीं, स्वयं अंधविद्यालयों में कंबल और भोजन आदि बाँटने लगीं ये कहकर कि उनकी आत्मा को शांति मिले न मिले, किसी गरीब का कल्याण तो हो ही जाएगा। जब शरीर ही नहीं रहा तो कैसी शांति और कैसा क्लांत, पर वही बात कि दिल को समझाने को गालिब ख़याल अच्छा है। हालाँकि पंडितों को जजमानों की क्या कमी, बहुत से बेवक़ूफ़ हैं दुनिया में, यहाँ लंदन में भी। हरीश की प्रत्येक बरसी पर माया स्वयं पूजा करवाती है, अंधविद्यालयों और अन्य संस्थाओं को दान देती है। जहाँ तक हरीश का प्रश्न है, वह कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहती। क्या पता किस दान से और क्योंकर पति को चैन मिल जाए। अगर ये सब करने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो भी पैसा किसी अच्छे काम में ही तो लगा। पूजा पाठ एवं दान करने का शायद यही औचित्य हो।
बनारस से लाई हुई गंगाजल की बोतल को माया ने अपने सिरहाने रख लिया है। डायरी में उसने झटपट एक और टिप्पणी जोड़ दी कि यदि किसी कारणवश वह स्वयं गंगाजल नहीं पी पाए तो जो भी उसे मरणोपरांत देखे, उसके मुँह में गंगाजल की कुछ बूँदे टपका दे। और हाँ ये भी कि उसकी अस्थियाँ गंगा की बजाय रिवर थेम्स में भी डाली जा सकतीं हैं। एक कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। फिर भी, अंदर या बाहर, गंगा तो उसके संग होगी ही।
बरसों पहले किसी वैज्ञानिक ने विष का स्वाद जानने के लिए अपने ऊपर एक प्रयोग किया था। जीभ पर ज़हर रखते ही वह मर गया और उसका प्रयोग सफ़ल नहीं हो पाया। माया ने सोचा कि यदि सभी मरणासन्न लोग कोई एक प्रयोग करके मरें, तो शायद कई गुत्थियाँ सुलझ जाएँ। जैसे कि वह जानना चाहती है कि मरते समय व्यक्ति को कैसा अनुभव होता है। शांति का या अशांति का। उसने निर्णय लिया कि वह अपनी तर्जनी पर लाल रंग यानि अशांति और बीच की उँगली पर हरा रंग यानी कि शांति का रंग लगा के इंतज़ार करेगी मरने का। पलंग पर एक नोट लिख कर छोड़ जाएगी बच्चों के लिए कि चादर पर जो भी रंग रगड़ा हुआ मिले, उसके प्रयोग का निष्कर्ष वही होगा। मन में ढेरों दुविधाएँ उठीं किंतु माया ने उन्हें एक ही वार में दबा दिया कि प्रयत्न करने में क्या जाता है। इस विषय पर शायद उसे किसी की सहायता की आवश्यकता पड़े। पारस होता तो वे दोनों बैठकर इस प्रयोग की बारीकियों में उतरते किंतु इस बारे में सोच कर माया और समय व्यर्थ नहीं करना चाहती।
माया की नज़र फिर पर्दों पर जा ठहरी। घर के धुले पर्दों में मज़ा नहीं आता। ड्राईक्लीनर्स के धुले और भारी इस्त्री किए पर्दे गंदे भी कम होते हैं। ममता इस शनिवार को आए कि न आए। पिछले हफ्ते ही वह बता रही थी कि नारायण ने जब गिरोह के सरदार से माँ के पास जाने की अनुमति माँगी तो उसने न केवल साफ़ मना कर दिया, परंतु उसे जान से मार देने की धमकी भी दे डाली। माया ने सोचा कि शाम को फ़ोन करके ममता को बुला लेगी और पैसे देकर कहेगी कि जाके अपने बेटे को छुड़ा ले। कितनी खुश हो जाएगी ममता। अपने इस निर्णय पर माया सचमुच बेहद प्रसन्न थी।
माया पर्दे उतारने को अभी स्टूल पर चढ़ी ही थी कि घंटी बजी। इस समय कौन हो सकता है उसने तो किसी को बुलाया नहीं था। कहीं वह किसी को बुलाकर भूल न गईं हो। दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर ममता खड़ी थी। 'तू हज़ार बरस जिएगी ममता, अभी मैं तुझे ही याद कर रही थी।' वह चहकती हुई बोली। 'मैडम जी, वो नारायण है न, वो. . .' बदहवासी में वह ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी। 'हाँ हाँ, क्या हुआ उसे।' 'उसका एक्सीडेंट,' माया यदि उसे सँभाल न लेती तो ममता वहीं ढेर हो जाती। आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और हिचकियों के मारे उसका बोलना मुहाल था। उसके आधे अधूरे वाक्यों से माया इस नतीजे पर पहुँची कि नारायण के साथ हुए इस हादसे के पीछे उन गुंडों का ही हाथ है। कहीं से उन्हें पता चल गया था कि वह चुपचाप लंदन जा रहा है कि बस, उन्होंने उसे कार के नीचे कुचलने की कोशिश की और फिर अस्पताल में आकर उसे धमकी दी कि इस बार तो टाँगे ही तोड़ी हैं, अगली बार वे उसे जान से मरवा सकते हैं। माया ने ममता के हाथ से निचुड़ पुचड़ा काग़ज़ लिया जिस पर उसके भाई सर्वेश का नंबर लिखा हुआ था। नंबर मिलाया तो सर्वेश ने भी वही सब दोहरा दिया जो ममता बता रही थी, इस अनुरोध के साथ कि, 'मैडम, आप तो जी बस बहन को प्लेन में बैठा दें, नारायण की हालत ठीक नहीं है मैडम जी।' वह भी बहुत घबराया हुआ लग रहा था जैसे कि उसकी अपनी जान पर बनी हो। भाई से बात करके तो ममता के सब्र का बाँध मानो टूट ही गया।
'अब मैं जी कर क्या करूँगी, मैडम, मैं उसी के तो लिए इकट्ठा कर रही थी पैसा। इससे तो मैं उसके साथ ही जीती मरती, अब इस पैसे क्या फ़ायदा।', कहकर उसने अपनी सारी जमा पूँजी माया के कदमों में डाल दी। माया ने उसे सीने से लगा के तसल्ली देनी चाही किंतु वह तो यों रोए चली जा रही थी जैसे दुनिया में उसका कुछ न बचा हो। माया ने झटपट अपने ट्रैवल एजेंट को फ़ोन किया और जब वह ममता के लिए टिकट आरक्षित करवा रही थी तो उसने सोचा क्यों न उसके साथ वह स्वयं भी पटना चली जाए। पटना जैसी जगह में किसी को पटाना होगा, किसी से पटना होगा, किसी को मनाना होगा तो किसी को हटाना होगा। ममता अभी इस हालत में नहीं है कि नारायण की कोई मदद कर सके। कहीं इन गुंडों के चक्कर में आकर वह न केवल अपना मेहनत से कमाया सारा धन ही न गँवा दे, बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठे। ऐसे समय में धैर्य, नियंत्रण और कूटनीति से काम लेना होगा। सीधी सादी ममता को तो शायद इन शब्दों का अर्थ भी नहीं पता होगा।
ममता ने जब सुना कि मैडम उसके साथ पटना चल रही हैं तो उसके चेहरे पर आश्चर्य, कुतूहल और अनुग्रह के भावों की छटा बस देखते ही बनती थी। स्पष्टत: माया के दिमाग़ में एक योजना बन रही थी। ममता को रसोई में व्यस्त करके वह स्वयं कंप्यूटर खोल कर बैठ गई। उसने वेबसाइट्स पर एक पाँच सितारा होटल में दो कमरे, एक बड़ी जीप और ड्राईवर का इंतज़ाम कर लिया। फ़ोन पर पारस को उसने एक अच्छे वकील और सुरक्षा संबंधित प्रहरियों का प्रबंध करने की हिदायत भी दे दी, जो इन्हें एअरपोर्ट पर उतरते ही मिल जाएँ ताकि बिना समय गँवाए रास्ते में ही बात की जा सके। माया ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बच्चे यहाँ नहीं हैं। वे उसे कभी ये जोखिम नहीं उठाने देते। पारस को भी रहस्यपूर्ण कारनामों में दिलचस्पी है इसीलिए उसने अधिक चूँ-चपड़ नहीं की। पटना के नाम पर वह हिचका अवश्य था किंतु जब माया ने कहा, 'मैं पटना जा ही रहीं हूँ, कोई प्रश्न नहीं पूछना।' उसके पास कोई चारा नहीं था सिवाय माया के कथानुसार प्रबंध करने के। वह बोला, 'ठीक है मैं भी पटना आ रहा हूँ और तुम भी अब कोई प्रश्न नहीं पूछना।'
माया चिंतित थी कि दो महिलाएँ गुंडों के गिरोह का सामना कैसे कर पाएँगी। किंतु पारस के आ मिलने से वह आश्वस्त हो गई। बचपन में इस जोड़ी ने परिवार की नाक में दम कर रखा था। एक बार दोनों ने आटा फ़र्श पर बिछा कर पाँव के निशान से चोर पकड़ के माँ के सम्मुख खड़ा कर दिया था। हाँ, यह अलग बात थी कि माँ को पता था कि चोर घर का नौकर ही था, जो रात को छिप-छिप कर मिठाई खाता था और शक इन दोनों पर किया जाता था।
'शर्लौक होम्स', 'मर्डर शी रोट' और 'कोलंबा' जैसे रहस्यपूर्ण टी.वी. धारावाहिकों की दीवानी माया को जीवन में पहली बार जोखिम उठाने का मौका मिला है, जिसे वह आसानी से नहीं गँवाने वाली। कहाँ वह मृत्यु से उबर नहीं पा रही थी और कहाँ अब उसे कुछ याद न था सिवाय इसके कि नारायण को कैसे बचाया जा सकता है। पटना और पटना के गुंडों से निडर वह सुबह की फ़्लाइट का इंतज़ार कर रही है, ममता से अधिक बेचैनी उसे है। सख्त पहरे में वह नारायण को दिल्ली ले जाएगी और जब वह ठीक हो जाएगा तो पारस की फैक्टरी में ही कोई काम पर लग जाएगा।
कहाँ ममता आत्महत्या करने की सोच रही थी और कहाँ अब उसे विश्वास हो चला था कि नारायण की बाल मज़दूरी के दिन अब पूरे हो गए थे। कर्मठ ममता को काम की भला क्या कमी। वैसे भी जब तक माया जीवित है, तब तक तो ममता उसके साथ रहेगी।
तीन दिन में मृत्यु वाला सपना इतना सजीव था कि माया अपनी मृत्यु के लिए पूरी तरह तैयार थी। किंतु इस वास्तविक घटना ने उसे पूरी तरह जिला दिया था। वह कितनी भाग्यशाली है कि जीवन के उद्देश्य के साथ-साथ, उसे दिशा भी मिल गई। उसके शरीर का रोम-रोम स्पंदित है और अंग प्रत्यंग फड़क रहा है। उसे लगा कि इतनी ज़िंदा तो वह जीवन में पहले कभी नहीं रही।
शताब्दियों की बूढ़ी,लाचार व मजबूर आँखें गवाह हैं कि पुरुषसत्तात्मक समाज ने नारी को मानवी नहीं, एक वस्तु की दृष्टि से देखा और उसके साथ मन-माना व्यवहार किया.शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से उसे छला गया.शिक्षा के अधिकार से भी उसे वंचित रखा गया.आर्थिक रूप से भी उसे पंगु बना दिया गया. उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को नकारा गया. साफ़ ज़ाहिर है कि भारत में नारियों का जीवन चौतरफ़ा शोषण का शिकार रहा है. सिर्फ भारत में ही नहीं लगभग सारी दुनिया में ही नारियों का जीवन शोषण का पर्याय रहा है.
सिमोनदाबोउवार ने महसूस किया कि स्त्री समाज में पैदा नहीं होती, बना दी जाती है. इसका सीधा मतलब यह है कि बचपन से ही लड़की और लड़के में भेदभाव की नीति शुरू हो जाती है. शुरू से ही लड़के को अच्छा खाना-पीना मिलता है.लाड-प्यार का अधिकारी भी वही बनता है.शिक्षा का भी खूब ख्याल रखा जाता है और बेचारी लड़की वह तो पत्थर है . मोटा-झोटा पहन कर और बचाकुचा खाकर भी फटकार सुनती रहती है. अनपढ़ ही नहीं शिक्षित परिवारों में लड़के और लड़की के प्रति व्यवहार में भेदभाव किया जाता रहा है. ‘सीमन्तनी उपदेश’ पुस्तक एक अज्ञात महिला द्वारा लिखी गई है इसमें औरतों के साथ जो अन्याय होता रहा है उस पर आक्रोश व्यक्त किया है.यह पुस्तक उन्नीसवीं शताब्दी की है जो पंजाब की किसी पढ़ी-लिखी महिला द्वारा लिखी गई है
मनुस्मृति में लिखा है------ “शील से रहित हो,या दूसरी औरत से प्रीति रखता हो,या गुणहीन हो तो भी सदा नेक स्त्री को देवता की मानिंद पति की सेवा करनी चाहिए.” वहा रे मनु ! स्त्री बेचारी बेदाम की गुलाम जो ठहरी.मनुस्मृति लिखने वाला कौन था? एक पुरुष ही ना ! अत्याचार का इस से बदतर उदाहरण और क्या हो सकता है ? इसी तरह की पोथियाँ पढ़कर औरतों के साथ मनमाना व्यवहार किया गया. मनु ने ही स्त्री की राह में कांटे बोये हैं.एक और स्थान पर मनु फरमाते हैं....... “ पति लोक की इच्छा रखने वाली स्त्री पति के मरे बाद पति के बरखिलाफ़ न करे. एक के मरने से दूसरे का नाम भी ना ले. थोड़ा आहार खा कर वख्त को तमाम करे. ब्रह्मचर्य धारण करे. जो स्त्री दूसरे से प्रीत रखती है,उसकी इस लोक में निंदा होती है और दो पति वाली खलती है, और परलोक में पति लोक को नहीं पाती.”
सीमन्तनी उपदेश में एक विधवा का हाल दर्ज है बाप तो तीन शादियाँ करता है. और अपनी सात साला बेटी की शादी एक अमीर लड़के से कर देता है. शादी को दो ही महीने हुए कि लड़का चेचक से मर गया. जवान हुई तो एक नौकर से प्रीति हुई. पिता को पता चला तो उसने ज़हर खाने पर मजबूर किया.लड़की गिरगिड़ाई कि उसे जंगल में छोड़ दो, वहाँ खुद ही मर जाएगी पर बाप नहीं माना.तब लड़की ने एक दिन की मोहलत मांगी कि ज़हर कल पिऊंगी सुबह हर सहेली के घर जाकर रोती और कहती-----
“हो चुका आज जो कि था होना कल बसावेंगे कब्र का कोना
देख लो आज हम को जी भरके कोई आता नहीं है फिर मरके
बेगुनाह जाती हूँ मैं दुनिया से जाके आती नहीं मैं दुनिया से.”१
शाम को ज़ालिम बाप से ज़िंदगी की भीख मांगी, पर दुष्ट ने उसे ज़हर पिला कर ही दम लिया. यह एक बड़े खानदान की लड़की का हाल है.आम स्त्रियों का तो पूछना ही किया. सीमन्तनी उपदेश में अज्ञात महिला ने लिखा है कि कायस्तों में पति के मरने पर कोई रिश्तेदार नज़दीक नहीं आता.बच्ची चाहे सात वर्ष की हो बड़ी बेदर्दी से पत्थर से उसकी चूडियाँ तोड़ दी जाती हैं. सारे ज़ेवर खींच-खांच कर उतार लिए जाते हैं और दो नायनें उसे घसीटती हुई नदी या दरया पर ले जाती हैं.कितने ही कड़ाके की सर्दी हो उसे गीले कपड़ों में ही घर लातीं और वह एक कोने या कोठरी में धकेल दी जाती.ऐसी स्थिति में सन्निपात हो जाता और वह बेमौत मर जाती. लेखिका ने एक और किस्सा लिखा है एक औरत बीमार थी तभी पति का देहांत हो गया. नदी पर जा नहीं सकती थी.उसकी सास ने उसकी खाट अलग डलवा दी और भिश्तियों से उसपर पानी डलवाया.बेचारी मर गई तो कहा सती थी पति के साथ ही गई.
सगी माँ बहन तक नज़दीक नहीं आतीं. जिस समय लड़की को सबसे अधिक हमदर्दी की ज़रूरतहै उसी समय सब उसे छोड़ देते हैं.सास कहती है ---- “मेरे सामने सांपनी ने मेरे बेटे को डस लिया.अब लहरा रही है. रोती है तो ताने मारे जाते हैं क्या यह अनोखी रांड हुई है.खसम को रोते शर्म भी नहीं आती. लेखिका ने बहुत तुर्श होकर कुरीतियों का भंडाफोड किया है. उनका कहना है कि ----- “हिंदुस्तान की औरतें पैदा होने से लेकर मरने तक सिवा ग़म खाने और दिल जलाने के किसी तरह का आराम किसी उम्र में नहीं पातीं”. विधवा का सिर भी मुंडवाया जाता है. उसे नौकरानी की तरह जिंदगी गुज़ारनीपड़ती है.भौजाईयां उस पर हुकूमत चलाती हैं. मैं पूछती हूँ क्या हक़ पहुँचता है समाज को एक जीती-जागती ज़िदगी बर्बाद करने का ? नारी को हमेशा पाँव की जूती समझा गया. उसे कोख समझा गया. रूस में १७०१ ई. से लेकर १७८२ ई. जीवित रहने वाली एक रुसी महिला ने अपनी ८१ साल की उम्र तक ६९ बच्चे पैदा किए. बालिका वधुओं के तन और मन दोनों से खिलवाड़ किया गया. वैदिक काल से ही हमारे देश में अबालिग़ कन्याओं के विवाह का रिवाज आरम्भ हो चुका था. छोटी –छोटी भूलों पर वह पुरुष के हाथों पिटती थी,घर से निकाल दी जाती थी.गाँवों में औरतों को डायन, पिशाचिनी, चुड़ेल घोषित करने में भी पुरुष का स्वार्थ था, उसे घर से निकाल कर मुक्त हो जाते और मार-मार कर गाँव के लोग अच्छी भली औरत को पागल बना डालते. नारी के साथ हिंसा के कितने रूप थे .
राजा-महाराजा, बादशाह, ज़मीदार सामंत आदि तो जिस औरत को चाहे उठवा लेते थे. उनके हरममें ढेर की ढेर पत्नियाँ होती थीं. देह शुचिता केवल नारी के साथ जुड़ी थी.कलंक का हर टीका उसके माथे ही मढ़ दिया गया. बूढ़ों के साथ कच्ची कलियों का विवाह आम बात थी.
बेटी को पिता की सम्पत्ति से कौड़ी भी नहीं मिलती.पति के धन में भी उसका कोई हिस्सा नहींस्त्री की बदकिस्मती यह कि उसके आँचल में कर्तव्यों की एक लंबी लिस्ट तो बांध दी गई, लेकिन अधिकारों की गठरी बलपूर्वक उसके हाथ से छीन ली गई. शिक्षा, पोषण,आत्मनिर्भरता हर चीज़ से उसे महरूम रखा गया.उसे केवल देह की कोटि में शामिल किया गया.लेकिन देह मानने के बावजूद स्त्री को उसकी देह नहीं सौंपी गई. सुरक्षा और संरक्षण के नाम पर उसका मलिक पुरूष ही रहा.शादी से पूर्व लड़की के जीवन पर पिता का पहरा और शादी के बाद पति का. लड़की की शादी कब हो? किससे हो?
कहाँ हो ?इस बात का अधिकार बाप को था. लम्बे समय तक स्त्री भौतिक,आर्थिक, भवनात्मक रूप से शोषित होती रही.बेटी की विदाई के बहुत से गीत ऐसे हैं जिन में स्त्री के जीवन की व्यथाएँ और पीड़ाएँव्यक्त होती रही हैं. पति सौतन लाकर पत्नी की छाती पर बिठा देता है. बेचारी क्या करे ? कहाँ जाए ?
कोई ठिकाना नहीं. अपने पति से शिकायत करती है.....
“ मैं तो छैल छबीली ना, राजा क्यूँ लाए सौतिनिया जो मैं होती लंगड़ी लूली, तो लाते सौतिनिया मेरी हिरनी जैसी चाल, राजा क्यूँ लाए सौतिनिया जो मैं होती बाँझ बझौटी, तो लाते सौतिनिया मेरे खेलें दो-दो लाल, राजा क्यूँ लाए सौतिनिया!”
नारी उत्पीड़न के कितने रंग, कितने रूप हैं ? अगर बहू ने बेटे को जन्म नहीं दिया तो इस में उसका क्या कुसूर ?लेकिन उसकी सज़ा तो हमेशा से नारी के हिस्से में ही आई है ...
“ बहार बिछा दो खटिया, बिछा दो खटिया हाए राम जच्चा के हो गई बिटिया बिटिया होने की सुसर जी ने सुन ली हाथ से छूट गई लुटिया !”३
क्या बेटी का जन्म लेना अभिशाप है ? क्यों बेटी को बोझ समझा जाता है ? लड़के और लड़की के लिए अलग तुला क्यों बनाई गई है ? लड़का पैदा हो तो थाल बजे, लड्डू बटें और लड़की जन्म ले तो सोग मनाया जाए, सबके मुँह लटक जाएँ. आज के सभ्य समाज में भी ऐसे बहुत कम परिवार हैं जहाँ बेटी के जन्म पर खुशी मनाई जाती है. बालिका-भ्रूण-हत्या आज भी चोरी छिपे जारी है. क्यों उसे जन्म लेने का भी अधिकार नहीं है ?
“बेटी ने जन्म लिया है जच्चा अकेली अस्पताल में पड़ी है बाप बच्ची का मुँह देखने नहीं आया है, पूरे पांच दिन बीत गए हैं दर्द के आहों के सिलसिले भी अब उसकी आँखों में थक गए हैं ...... मासूम चहेरे पर बच्ची के लिखा एक ही सवाल है माँ ! क्या मेरा जन्म लेना इतना बड़ा बवाल है.”४
कितने ही परिवारों में बच्ची पैदा होने पर दाई ही उसका गला घोंट देती थी या दूध की बाल्टी में डुबा कर उसे मार दिया जाता. बेरहमी की इससे बढ़कर मिसाल और क्या हो सकती है कि चारपाई के पाए के नीचे दबा उससे छुटकारा पा लिया जाता. नुकीले धान बच्ची के गले में भरकर उसे तड़प-तड़प कर मरने के लिए मजबूर किया जाता था. कभी उसे ज़मीन में ज़िंदा गाढ़ दिया जाता था.कुरान में लड़कियों के क़त्ल को रोका गया है. क़यामत के दिन खुदा ज़िंदा गाढ़ी हुई लड़की से सवाल करेगा कि तुझे किस जुर्म की सज़ा में ज़िंदा गाढ़ दिया गया ? साफ़ ज़ाहिर है कि गाढ़ने वाले को सख्त सज़ा दी जाएगी. कितना क्रूर है पुरुष प्रधान समाज का रवैया लड़की के प्रति ? उसके वजूद को मिटाने की साज़िश सुदूरपूर्व अतीत में भी होती रही आज मुहज़्ज़ब, सभ्य और शिक्षित कहे जाने वाले समाज में भी हो रही है. कात्यायनी की कविता ‘सात भाइयों के बीच चम्पा’ में समाज में लड़की की हैसियत को व्यंग्यात्मक और प्रतीकात्मक ढंग से पेश किया है ....
“ओखली में धान के साथ कूट दी गई भूंसे के साथ कूड़े पर फेंक दी गयी
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देवता पर चढ़ा दी गयी मुरझाने पर मसलकर फेंक दी गयी !”
परिवार में लड़की को न पढ़ाया जाता है न लिखाया. औसत परिवारों में वह घर के कामों में ही उलझी रहती है,उसकी हैसियत मात्र नौकरानी की –सी होती है.....
“टाट के परदे के पीछे से एक बारह-तेरह साला चेहरा झाँका वह चेहरा बहार के फूल की तरह ताज़ा था और आँखें पहली मुहब्बत की तरह शफ्फाफ लेकिन उसके हाथों में तरकारी काटते रहने की लकीरें थीं और उन लकीरों में बर्तन मांजने वाली राख जमी थी उसके हाथ उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे.”६
कमल कुमार को शिकायत है कि प्रतिबंधों के दायरे में कैद लड़की मुक्त होकर साँस भी नहीं ले सकती.दबी,सुकड़ी,धमकायी गयी मासूम बच्ची कितनी यातना सहती है ----
“धमकियों से सुखाई गई लड़की कैसे देखेगी सपना भीगे आसमान से उतरती सुनहरी धूप का बेआवाज़ लतियाई जा रही लड़की सपनों से डरी खुली आँखों में सोती है.”७
किश्वर नाहीद ने पत्नी की लाचारी को व्यंग्यात्मक लहजे में व्यंजित किया है ----
“मेरे मुँह पर नीले-नीले दाग़ डालकर ये जताना चहता है कि उसे मेरे जिस्म को ........ हर तरह इस्तमाल करने का ह्क़ है!”८
लड़की को बेहद दुःख होता है कि घर के सब लोग भाई से प्यार करते हैं और उसे फालतू और कबाड़ समझते हैं.
“छोटे- छोटे हाथों से
मसाला पीसते हुए
वह अक्सर सोचती है
विधाता ने
क्यों बनाया उसे लड़की ?
काम करने पर भी
हरदम
उसपर पड़ती है
फटकार . . .
क्यों आया है
हिस्से में भैया के ---?
माँ का दुलार
पिता का प्यार !”९
देवदासी की प्रथा क्या है ? सरासर नारी-गरिमा का का अपमान. सदियों से वह देवता के नाम पर पुरुष की वासना का शिकार होती चली आ रही है. नारी को ही सौ-सौ नरख भोगने पड़े हैं. कभी पांच पतियों की पत्नी बनकर उसे स्त्री होने की कीमत चुकानी पड़ी, कभी अहिल्या बनकर पाषाण होने की पीड़ा भोगनी पड़ी, कभी सीता बनकर अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ा. फिर भी उसका सतीत्व शक के दायरे में ही झुलस गया. किसने नारी को न्याय दिलाया ? कौन उसकी पीड़ा को समझ पाया ?
कोठो पर उसे नचाया गया. रखैल बनाकर उससे दिल बहलाया गया.पर सम्मानित जीवन जीने के लिए उसकी आत्मा तड़पती रही.
“ मैं कि एक औरत हूँ
बेहिसों की गैरत हूँ
मैं ज़मीन जैसी हूँ
फल भी दूँ तो मिट्टी हूँ
पाकबाज़ होकर भी
दिलनवाज़ होकर भी
आज़मायी जाती हूँ
मैं जलाई जाती हूँ
साँस-साँस खटती हूँ
भाइयों में बटती हूँ
दाँव पर भी लगती हूँ
दिन-रात सुलगती हूँ !” १०
माँ कोल्हू के बैल की तरह दिन भर काम में जुटी रहती है.ज्योत्स्ना मिलन ने नारी-जीवन की त्रासद स्थिति तो बड़ी ही मार्मिकता से व्यंजित किया है------
“सबसे पहले
शुरू होता है माँ का दिन
और सबके बाद तक
चलता है
----------
पैर फ़ैलाने लायक
लंबी नहीं होती
माँ की रात !”११
इंदु जैन का कहना है कि स्त्री के हाथों में हर समय कामों की लंबी सूची रहती है. लेकिन घर वाले यह भी भूल जाते हैं कि यह भी इंसान है,इसकी अपनी भी ज़रूरतें हैं. यह अपना दुःख किसी से नहीं बाँट सकती....
“हर सदस्य के माथे की,शिकन
पैरों के दर्द को घूँट-घूँट पिया
औरों के कष्ट में
अपनी शक्ति मापती
घिरी-घिरी
चढ़ते हुए दिन की छाया की तरह
बराबर घट रही है ....” १२
पुरुष कितना स्वार्थी है कभी नारी की भावनाओं को जानने की कोशिश नहीं करता. साजिदा जैदी ने बड़ी मार्मिकता से समाज व्यवस्था को आईना दिखलाया है ----
“मैं यूँ ही घुटती,सुकड़ती रही लम्हा-लम्हा
और लोगों की “अना” बढ़ती रही
फलती,फूलती रही .....”१३
ज्योत्स्ना मिलन को शिकायत है समाज ने नारी को इतना दबाया है कि वह अपनी पहचान तक भूल गयी है अपना नाम तक उसने बिसरा दिया है----
“परमा
पुकारे जाने पर
याद दिलाना पड़ता था उसे
अपने आपको
कि परमा यानी “मैं”
कि कोई मुझे बुला रहा है
कि मैं यानी कि मैं यानी
लच्छी की माँ नहीं
कि देबू की घर वाली नहीं
कि मैं यानी “परमा”….१४
सुनीता जैन की कविता भी द्रष्टव्य है. बूढ़े लोगों का आज जो अपमान किया जाता है वह तो इंसानियत के माथे पर कलंक है जो मा-बाप अपना जीवन होम करके बच्चों को हर सुख सुविधा
उपलब्ध कराते हैं, वही बच्चे बड़े होने पर उनको क़तई नकार देते हैं.....
“कितनी बूढी हो गई है माँ
कितनी अवश
पैर एक उठता है तो जैसे
दूसरे को नहीं होती खबर
हाथ उठता है कुछ कहने
उठा ही रह जाता है
माँ देखती है टुकर- टुकर,
हाँ ! मैं क्या कह रही थी.”१५
आज बेटे और बहू माँ को बोझ समझते हैं. जिन बेटियों को बोझ समझा जाता है वही माँ-बाप की सेवा करती हैं.पारिवारिक रिश्तों की संगदिली को कवयित्री ने मुखरित किया है,माँ बच्चों के लिए स्वयं को घुला देती है लेकिन बेटों को माँ की क्या परवाह ?...कवयित्रियों ने वृद्धाओं की दयनीय स्थिति को भी वाणी दी है. अनामिका ने ‘वृद्धाएँ’ कविता में आज की उपयोगितावादी मानसिकता पर तमाचा मारा है.....
“रहती हैं वृद्धाएँ, घर में रहती हैं
लेकिन ऐसे जैसे अपने होने के लिए होँ क्षमाप्रार्थी
----लोगों के आते ही बैठक से उठ जातीं,
छुप-छुप कर रहती हैं छाया-सी माया-सी !”१६
आज बेटे और बहू माँ को बोझ समझते हैं. जिन बेटियों को बोझ समझा जाता है वही माँ-बाप की सेवा करती हैं.पारिवारिक रिश्तों की संगदिली को कवयित्री ने मुखरित किया है,माँ बच्चों के लिए स्वयं को घुला देती है लेकिन बेटों को माँ की क्या परवाह ?...
“जिस पेट में पसरने
जगह मिल गई जिन सात को
वक्त नहीं किसी एक को
नोट भिजवा देते हैं सारे
जैसे नोट चबा लूँ.....
जगह अनाज के.”१७
नारी को हमेशा पाँव की जूती समझा गया. उसे कोख समझा गया. रूस में १७०१ ई. से लेकर १७८२ ई. जीवित रहने वाली एक रुसी महिला ने अपनी ८१ साल की उम्र तक ६९ बच्चे पैदा किए. बालिका वधुओं के तन और मन दोनों से खिलवाड़ किया गया. वैदिक काल से ही हमारे देश में अबालिग़ कन्याओं के विवाह का रिवाज आरम्भ हो चुका था. छोटी –छोटी भूलों पर वह पुरुष के हाथों पिटती थी,घर से निकाल दी जाती थी.गाँवों में औरतों को डायन, पिशाचिनी, चुड़ेल घोषित करने में भी पुरुष का स्वार्थ था, उसे घर से निकाल कर मुक्त हो जाते और मार-मार कर गाँव के लोग अच्छी भली औरत को पागल बना डालते. नारी के साथ हिंसा के कितने रूप थे .राजा-महाराजा, बादशाह, ज़मीदार सामंत आदि तो जिस औरत को चाहे उठवा लेते थे. उनके हरममें ढेर की ढेर पत्नियाँ होती थीं. देह शुचिता केवल नारी के साथ जुड़ी थी.कलंक का हर टीका उसके माथे ही मढ़ दिया गया. बूढ़ों के साथ कच्ची कलियों का विवाह आम बात थी.
“मैं
अपने गुमशुदा
अस्तित्व को
तलाश रही हूँ
उस अस्तित्व को
जिसे तुमने सदियों
पहले क़त्ल कर दिया था
और
घर की कब्र में
दफना दी थी
उसकी लाश !”१८
औरत अपना तन-मन गला कर अपना घर बनाती है लेकिन उस घर में उसकी अपनी हैसियत क्या होती है ? किसको उसकी परवाह है ? माँ या पत्नी घर की सूली पर जीवन भर लटकी रहती है.घर के लोग कभी उसके दुःख-सुख के बारे में नहीं सोचते. पुष्पिता को अपने पति से शिकायत है .....
“गिलास भर पानी की देरी पर
तमकता है हिंसक जानवर-सा
नहीं धुलते कपड़े, या थाली में
नहीं जुटा पाती, उसकी रूचि
उलट देता है थाली चेहरे पर.”१९
औरत हर रूप में शोषण का शिकार रही है. उसके अस्तित्व को खत्म करने कर लिए हिंसा और उत्पीड़न के सारे औज़ार आज़माए जाते रहे हैं. पम्परागत समाज में तो नारी शोषित थी ही, पर सबसे दुःखद पहलू यह है कि आज भी वह हर उम्र में बलात्कार का भी शिकार हो रही है, दहेज के लिए जलाई, सताई व रूलाई भी जा रही है.उसकी देह को बाज़ारवाद और पूंजीवाद की नई साज़िश ने फिर से ‘वस्तु’ बना दिया है. अपनी ‘देह’ को सुन्दर,स्वस्थ,चमकदार रखने के लिए वह पगलाई जा रही है. क्या नारी सिर्फ ‘देह’ है ? उसकी यात्रा कहाँ से शुरू हुई थी ? ‘देह’ की परिधि से निकलने के लिए--- एक इंसान,एक मानवी के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए .... पर ‘देह’ की राजनीति में फँसकर वह फिर से उसी संकुचित दायरे में क़ैद होती जा रही है.भ्रूणहत्या के द्वारा आज भी उसके वजूद को मिटाया जा रहा है.बाल विवाह अभी भी खत्म नहीं हुए हैं.परिवार में दोहरे मानदंड आज भी हैं. यह कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि तमामतर जद्दोजहद के बावजूद-नारी जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं आया है. आखिर कब तक यह सिलसिला जारी रहेगा ?
‘‘सर मैं वरिष्ठ पत्रकार श्री जे.के. सिंग का भाई हूँ। उन्होंने मुझे आपके पास कलाकार के रिक्त पद के सिलसिले में भेजा है।
सर मैं कला के सभी क्षेत्रो में दखल रखता हूँ। सर ये कुछ बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं के अंक हैं, जिनमें मेरी रचनाएँ छपी हैं। सर ये फोटो-ग्राफी का डिप्लोमा और उससे सम्बन्धित पुरस्कार और सर ये रही मेरी संगीत विशारद की डिग्री और सर ये मेरी मूर्तिकला के नमूने और सर ये...’’
‘देखो मिस्टर तुम्हारे इस ताम-झाम से हमें कोई मतलब नहीं है। तुम्हारी सबसे बड़ी योग्यता यह हैं कि तुम उस वरिष्ठ पत्रकार जे.के. सिग के भाई हो, जिसके पास हमारी कई सारी पोल हैं। तुम अपना आवेदन दो और निकल लो।’
सेवकपुर
उसे देश में राजशाही की परम्परा थी, और राजा बड़ा ही अलोकप्रिय हो चला था। आस-पास के दूसरे देशों में लोकतंत्र की बयार बह रही थी। उस देश के लोग भी अपने यहां लोकतंत्र लागू करवाना चाह रहे थे, और इस हेतु क्रान्ति के लिये माहौल बनाने में जुटे हुए थे। परेशान राजा ने राजगुरू से सलाह ली। राजगुरू की सलाह पर राजा ने खुद को प्रजा का सेवक घोषित कर दिया। राजदरबारी अब शासकीय सेवक हो गये। कुछ समाजसेवक तो पहले ही थे । अब एन.जी.ओ. भी समाज की सेवा की दुकान लगाने लगे । और तो और, प्रजा का खून चूसने वाले व्यापारी भी खुद को सेवक कहने लगे। आम जनता में भी कई तरह के सेवक पैदा हो गये। राज्य में जो जितना अधिक सम्पन्न था वो उतना ही बड़ा सेवक माना जाने लगा। इस तरह उस राज्य में लोकतंत्रात्मक राजशाही कायम हो गयी, और जन-भावना के मद्देनजर उस देश का नाम सेवकपुर रख दिया गया।
‘क्या?’ रमेश बिदका।‘आई लव यू। आई लव मुनमुन। आई लव बांसगांव। आल आफ़ बांसगाव। लव-लव-लव!’
‘क्या बक रहे हो?’ रमेश फिर बिदका।
‘चोप्प साले!’ राधेश्याम लड़खड़ाई आवाज़ में मां बहन की गालियां भी उच्चारने लगा। और बोला, ‘लव यू आल मादर..।’
‘लीजिए घनश्याम जी अब आप ही बात कीजिए!’ कह कर रमेश ने मोबाइल घनश्याम राय को देते हुए हाथ जोड़ लिया।
राधेश्याम उधर से लगातार लड़खड़ाती आवाज़ में गालियों और लव यू का प्रलाप जारी रखे था। घनश्याम राय ने हड़बड़ा कर फ़ोन काट दिया। और माथे पर हाथ रख कर बैठ गए।
‘कुछ और बाक़ी रह गया हो तो बताएं घनश्याम जी!’ रमेश ने तल्ख़ी और नफ़रत से पूछा।
‘कुछ नहीं जज साहब।’ घनश्याम राय ने अपने माथे पर हाथ फेरा और बोले, ‘जब अपना ही सिक्का खोटा है तो क्या करूं?’
‘तो फिर?’
‘अब आज्ञा दीजिए!’ घनश्याम राय हाथ जोड़ कर बोले, ‘अब जब उस को पूरी तरह सुधार लूंगा तब ही बात करूंगा।’ कह कर घनश्याम राय घर से बाहर आ गए। पर घर का एक भी सदस्य उन्हें सी आफ़ करने घर से बाहर नहीं आया। न ही चलते समय किसी ने उन्हें नमस्कार किया। अपमानित घनश्याम राय मुनक्का राय के घर से बाहर निकल कर अपनी जीप में बैठे और ड्राइवर को चलने को कह कर अपने घर फ़ोन मिलाया। उधर से उन की पत्नी थीं। पत्नी की पहले तो उन्हों ने मां बहन की। फिर कहा कि, ‘इतना समझा कर आया था। बात पटरी पर आ कर गुड़ गोबर हो गई।’
‘अब मैं क्या बताऊं?’
‘इस ने कब शराब पी ली दिन दहाड़े?
‘पता नहीं।’ पत्नी बोलीं, ‘मैं ने देखा नहीं।’
‘तो जब शराब पी कर अनाप शनाप बक रहा था तभी फ़ोन काट नहीं सकती थी?’
‘वह बिलकुल बहका हुआ था, मैं मना करती तो हमारे ऊपर हाथ उठा देता तो?’
‘मना क्या करना था, चुपचाप फोन काट दी होती।’
‘वह तो आप भी काट सकते थे।’
‘बेवकूफ़ औरत फ़ोन मेरे हाथ में नहीं जज साहब के हाथ में था।’ वह बोले, ‘और फिर स्पीकर आन था। सभी लोग उस की ऊटपटांग बात सुन रहे थे। इतनी बेइज़्ज़ती हुई कि अब क्या बताएं।?’
पत्नी कुछ बोलने के बजाय चुप रहीं।
‘अभी कहां है?’ घनश्याम राय ने भड़क कर पूछा।
‘कौन?’
‘नालायक़ अभागा राधेश्याम और कौन?’
‘मोटरसाइकिल ले कर कहीं निकला है?’
‘कहां?’
‘पता नहीं।’
‘इस तरह वह पिए था।’ घनश्याम राय तड़के, ‘ऐसे में मोटरसाइकिल ले कर जाने क्यों दिया उसे?’
‘हमारे मान का था रोकना उस को?’ पत्नी भी बिलबिलायी।
‘चलो आता हूं तो देखता हूं।’ कह कर घनश्याम राय ने फ़ोन काट दिया। इधर रमेश और घनश्याम राय की बातचीत के बीच मोबाइल के स्पीकर पर राधेश्याम की बातचीत दरवाज़े की आड़ से मुनमुन और उस की अम्मा ने भी सुनी। मुनमुन का रो-रो कर बुरा हाल था। घनश्याम राय के जाने के बाद रमेश मुनमुन के पास गया। उसे चुप कराते हुए दुखी मन से बोला, ‘माफ़ करना मुनमुन हम लोगों के रहते हुए भी तुम्हारे साथ भारी अन्याय हो गया। शायद क़िस्मत में यही बदा था।’ रमेश बोला, ‘फिर भी घबराओ नहीं। कुछ सोचते हैं और देखते हैं।’ मुनमुन और ज़्यादा रोने लगी। और मुनमुन की अम्मा भी। इतना कि रुलाई सुन कर अड़ोस-पड़ोस की औरतें इकट्ठी हो गईं। इधर मुनक्का राय भी रो रहे थे। पर निःशब्द। औरतों को आता देख उन्हों ने अपनी आंखें पोछीं और चादर ओढ़ कर, मुंह ढंक कर लेट गए।
तरुण और तरुण की बीवी कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें? तरुण की बीवी ने मुनमुन के पति और ससुर के लिए बढ़िया सा नाश्ता बनाया था, भोजन की भी तैयारी थी। पर सब धरा का धरा रह गया। तरुण की बीवी अब आ कर पछता रही थी। और आंखों ही आंखों में तरुण को इशारा कर रही थी कि अब बांसगांव से निकला जाए। बहुत हो गया। लेकिन तरुण ने उस से खुसफुसा कर कह दिया, ‘आज नहीं। माहौल नहीं देख रही हो?’
‘मगर माहौल तो कल भी यही रहेगा?’ तरुण की बीवी भी खुसफुसाई।
‘तो भी आज नहीं।’ तरुण ने पूरी सख़्ती से कहा। लेकिन रमेश ने जाने की तैयारी कर ली। पर अम्मा ने कहा कि, ‘बाबू खाना खा लेते तब जाते!’
‘अब अम्मा खाना अच्छा नहीं लगेगा।’
‘तो भी बिना खाए हम नहीं जाने देंगे।’ अम्मा बोलीं, ‘ख़ाली पेट जाना ठीक नहीं है।’
‘चलो ठीक है।’ कह कर रमेश थोड़ी देर के लिए रुक गया। फिर धीरज को फ़ोन कर रमेश ने सारा डिटेल बताया और कहा कि, ‘मेरी अक़ल तो काम नहीं कर रही। तुम्हीं कुछ सोचो।’ यही बात उस ने राहुल को भी फ़ोन कर कही। तरुण को भी बुला कर पूछा, ‘तुम क्या सोचते हो? क्या किया जाए आखि़र?’
‘क्या बताऊं भइया कुछ समझ नहीं आ रहा।’ तरुण हताश हो कर बोला।
‘फिर भी कुछ सोचो।’ रमेश बोला, ‘अक़ल तो मेरी भी काम नहीं कर रही है।’ कह कर रमेश सोफे़ पर ही बैठे-बैठे लेट गया। थोड़ी देर में खाना बन गया तो तरुण ने आ कर बताया कि, ‘भइया खाना बन गया है ले आऊं?’
‘हां, बस थोड़ा ही ले आना।’ रमेश बोला, ‘नाम मात्र का।’
खाना खा कर रमेश चलने लगा तो फिर मुनमुन को समझाया, ‘घबराओ नहीं, कुछ न कुछ उपाय सोचते हैं।’ मुनमुन फिर रो पड़ी। अम्मा भी। बाबू जी और अम्मा के पांव छूते हुए रमेश की भी आंखें भर आईं। पर बिना कुछ बोले वह घर से बाहर आ गया। पीछे-पीछे तरुण भी आ गया। पैर छू कर घर में लौट गया। कार बांसगांव पार कर ही रही थी कि रमेश के ड्राइवर ने गाना लगा दिया, ‘मेरे घर आई एक नन्हीं परी!’ रमेश को सुन कर अच्छा लगा। इस गाने से जुड़ी मीठी यादों में वह खो सा गया। उसे याद आया कि जब मुनमुन छोटी सी थी, तब वह उसे गोद में ले कर खिलाता था और गाता था, ‘मेरे घर आई एक नन्हीं परी, चांदनी के हसीन रथ पे सवार.....।’ और वही क्यों घर के लगभग सारे लोग मुनमुन को खिलाते और यह गाना गाते। पर चांदनी के रथ पे सवार इस नन्हीं परी के इतने बुरे दिन आएंगे तब यह कोई नहीं जानता था। अब यह गाना अचानक उसे ख़राब लगने लगा। उस ने ड्राइवर से ज़रा तल्ख़ी से कहा,‘गाना बंद करो।’
ड्राइवर ने सकपका कर गाना बंद कर दिया। वह समझ ही नहीं पाया कि ग़लती क्या हुई है? दूसरे दिन तरुण और उस की पत्नी भी चले गए। अम्मा ने हालां कि तरुण की पत्नी से कहा था कि, ‘हो सके तो कुछ दिन के लिए मुनमुन को अपने साथ लेती जाती। थोड़ा सा उस का मन बदल जाता। यहां बांसगांव में तानेबाज़ी से उस का दिल टूट जाएगा।’
‘कहां अम्मा जी, आप तो जानती हैं कि मकान हमारा छोटा है। दूसरे, बच्चों की पढ़ाई। तीसरे, इन के ट्रांसफर का भी टाइम हो गया है। पता नहीं कहां जाना पड़े।’ तरुण की पत्नी बोली, ‘न हो तो बड़े भइया या छोटे भइया के यहां भेज दीजिए।’
‘ठीक है देखती हूं।’ अम्मा ने बात ख़त्म कर दी।
जब तरुण और उस की पत्नी चले गए तो मुनमुन ने अम्मा से कहा, ‘अम्मा एक बात कहूं?’
‘कहो?’
‘आगे से कभी भी किसी भइया या भाभी से मुझे साथ ले जाने के लिए मत कहिएगा। क्यों कि मुनमुन के लिए सब का घर छोटा है। उस के लिए किसी के पास जगह नहीं है। और तुम जानती हो कि मुझे टी.बी. है फिर कोई क्यों अपने घर ले जाएगा?’ मुनमुन बोली, ‘जिन भाइयों ने पट्टीदारी और अहंकार में, अपने पद और पैसे के मद में चूर हो कर एक बहन की शादी ढूंढना गवारा नहीं किया, उन का बहनोई कैसा है, शादी के पहले जानने की कोशिश नहीं की उन भाइयों से तुम उम्मीद करती हो कि वह मुझे ले जाएंगे अपने साथ और अपने घर में रखेंगे?’
‘तो बेटी आखि़र किस से उम्मीद करें?’ अम्मा बोलीं।
‘किसी से नहीं। सिर्फ़ अपने आप से उम्मीद रखिए।’ मुनमुन ज़रा कसक के साथ बोली, ‘सोचो अम्मा जो मैं भइया लोगों की बहन नहीं बेटी होती तो क्या तब भी ऐसे ही मेरी शादी ये लोग किए होते? ऐसे ही लापरवाही से पेश आए होते?’
अम्मा चुप रहीं।
‘नहीं न?’ मुनमुन बोली, ‘फिर ऐसे जल्लाद और कसाई भाइयों से फिर कभी मदद या भीख का कटोरा मत फैलाना।’
‘अब मैं क्या करूं फिर?’
‘चलो मैं तो बहन हूं। तुम और बाबू जी भी क्या भइया लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं हो? इतने बड़े जज हैं, अफ़सर हैं, बैंक मैनेजर हैं। एन.आर.आई. हैं। थाईलैंड में हैं; चार-चार खाते कमाते ऐश करते बेटे हैं। क्या मां बाप के लिए एक-एक या दो-दो हज़ार रुपए भी हर महीने लोग रुटीन ख़र्च के लिए नहीं भेज सकते? या फिर साथ रख सकते? तो फिर मैं तो वैसे भी अभागी हूं। मेरा क्या?’
अम्मा रोने लगीं। चुपचाप। पर मुनमुन नहीं रोई। उस ने अम्मा से भी कहा, ‘अम्मा अब मत रोओ। मैं भी नहीं रोऊंगी अब। अपने हालात अब हम ख़ुद बदलेंगे। ख़ुद के भरोसे, दूसरे के भरोसे नहीं।’
लेकिन अम्मा फिर भी रोती रहीं। उन की देह पहले ही हैंगर पर टंगे कपड़े जैसी कृशकाय हो चली थी पर अब वह मन से भी टूट गई थीं। बेटी के दुख ने इस बुढ़ापे में उन पर जैसे वज्रपात कर दिया था। मुनमुन फिर से अपने गांव के स्कूल में शिक्षामित्र की नौकरी पर जाने लगी। मुनक्का राय कचहरी जाने लगे। दोनों का दिन कट जाता था। पर अम्मा क्या करें? उन का दिन कटना मुश्किल पड़ गया। दूसरे, आस पड़ोस की औरतें दुपहरिया में आतीं। बात ही बात में पहले तो सहानुभूति जतातीं मुनमुन के हालात पर। फिर कटाक्ष करतीं और पूछतीं कि, ‘ऐसे कब तक जवान जहान बेटी को घर पर बिठाए रखेंगी बहन जी?’
अब बहन जी क्या जवाब देतीं सो चुप ही रहतीं। एक दिन एक पड़ोसन दूसरी पड़ोसन से खड़ी बतिया रही थी। मुनमुन की अम्मा को सुनाती हुई बोली, ‘लड़के तो कुछ भेजते नहीं, वकील साहब की प्रैक्टिस चलती नहीं हां, बेटी का रोज़गार ज़रूर चल रहा है सो घर का ख़र्चा चल रहा है।’ ‘रोज़गार’ शब्द पर उस पड़ोसन का ज़ोर ज़रा ज़्यादा था। ऐसे जैसे मुनमुन नौकरी कर के नहीं देह का धंधा कर के घर चला रही हो। तिस पर दूसरी पड़ोसन बोली, ‘हमारे यहां तो बहन जी बेटी की कमाई खाना हराम होता है, पाप पड़ता है। हम तो बेटी की कमाई का पानी भी न छुएं।’
मुनमुन की अम्मा का कलेजा छलनी हो गया। मुनमुन की अम्मा का कलेजा भले छलनी हो रहा था पर मुनमुन का कलेजा मज़बूत हो रहा था। वह जान गई थी कि अब उसे ज़माने से लड़ना है। और इस लड़ने के लिए पहले अपने को मज़बूत बनाना होगा। तभी इस पुरुष प्रधान समाज से, इस के बनाए पाखंड से वह लड़ सकेगी। जिस चुटकी भर सिंदूर से उस की चाल, उस की बाडी लैंगवेज बदल गई थी, सब से पहले उस ने इसी सिंदूर को तिलांजलि दी। चूड़ी छोड़ कंगन पहनने लगी। बिछिया छोड़ी। इस पर सब से पहले अम्मा ने टोका, ‘बेटी सुहाग के चिन्ह ऐसे मत छोड़ो। लोग क्या कहेंगे?’ और उस का हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं, ‘ये डंडा जैसा हाथ अच्छा नहीं लगता। चलो पहले चूड़ी पहनो, सिंदूर लगाओ।’
‘नहीं अम्मा नहीं!’ कह कर मुनमुन पूरी सख़्ती से बोली, ‘जब हमारा सुहाग ही हमारा नहीं रहा तो यह सुहाग-फुहाग का चिन्ह और सिंदूर-चूड़ी हमारे किस काम का? मैं अब नहीं पहनने वाली यह बेव़कूफ़ी की चीज़ें।’
‘नहीं बेटी! राम-राम!’ मुनमुन की अम्मा मुंह बा कर, मुंह पर हाथ रखती हुई बोलीं, ‘ऐसी अशुभ बातें मत बोलो अपने मुंह से।’
‘अच्छा अम्मा यह बताओ वह गांव वाला घर गिर गया न?’ वह बेधड़क बोली, ‘पर वह जगह तो है न? हम लोग क्यों नहीं चल कर वहां रहते हैं? आखि़र हमारे पुरखों का घर था वहां?’
‘अब वहां कैसे रह सकते हैं?’ मुनमुन की अम्मा बोलीं, ‘न छांह, न सुरक्षा। न दीवार, न छत।’
‘बिलकुल अम्मा!’ मुनमुन बोली, ‘यही बात, बिलकुल यही बात मैं भी कह रही हूं कि इस चूड़ी, इस सिंदूर की न तो छत है, न दीवार है, न छांह है, न सुरक्षा तो मैं कैसे लगाऊं इसे? कैसे पहनूं इसे? जब सुहाग ही हमारा हमारे लायक़ या हमारे लिए नहीं रहा तो ये सुहाग चिन्ह हमारा कैसे रहा? हमारे किस काम का रहा?’
‘इन सब बातों में इस तरह के तर्क या मनमानी नहीं चलती।’
‘मत चलती हो पर मैं जानती हूं कि अब मेरे लिए इन सब बातों का न तो कोई अर्थ है न कोई मायने?’
‘पर लोग क्या कहेंगे?’
‘मैं ने लोगों का कोई ठेका नहीं लिया है। लोग अपनी जानें, मैं अपनी जानती हूं।’
‘बाद में पछताओगी बेटी।’
‘बाद में?’ मुनमुन बोली, ‘अरे अम्मा मैं तो अभी ही से पछता रही हूं। कि क्यों नहीं शादी के पहले ही मैं ने बिगुल बजाया। जो शादी के पहले ही भइया लोगों से तन कर बोल दी होती कि पहले मेरे दुल्हे की जांच पड़ताल ठीक से कर लीजिए तब शादी कीजिए। पर मैं तो लोक लाज की मारी राहुल भइया से मनुहार करती रही। और वह मेरी शादी में अपने पैसे ख़र्च कर के ही अपने आप पर इतना मुग्ध था कि उसे मेरा कुछ कहा सुनाई ही नहीं दिया। मेरा मर्म उसे समझ में ही नहीं आया। वह तो पैसा ख़र्च कर ऐसे ख़ुश था जैसे बहन की शादी नहीं कर रहा हो, भिखारी के कटोरे में पैसे डाल रहा हो। भले बुरे की परवाह किए बिना। बस यह सोचता रहा कि इस पुण्य का उसे अगले जनम में लाभ मिलेगा। और इस जनम में उस की वाहवाही होगी कि देखो तो अकेले दम पर बहन के लिए कितना पैसा ख़र्च कर रहा है। और नाते-रिश्तेदारों, पट्टीदारों में उस की वाहवाही हुई। मैं ख़ुद धन्य-धन्य हो गई थी। पर राहुल भइया ने यह नहीं देखा कि भिखारी के कटोरे में जो पैसा वह पुण्य के लिए डाल रहा था, वह पैसा नाबदान में बहता जा रहा था, भिखारी के कटोरे में तो वह रुका ही नहीं। अंधा था राहुल और उस की भिखारी बहन भी, जो नहीं देख पाए कि कटोरे में छेद है और कटोरा नाबदान के ऊपर है!’
‘तुम्हारा भाषण मेरे समझ में तो आ नहीं रहा मुनमुन और तुम्हें मेरी बात नहीं समझ में आ रही। हे राम मैं क्या करूं?’ अम्मा दोनों हाथ से अपना माथा पकड़ कर बोलीं।
मुनमुन अब बांसगांव में मशहूर हो रही थी। बात-बात में सब को चुनौती देने के लिए। वह लोगों से तर्क पर तर्क करती। लोग कहते यह बांसगांव की विद्योत्तमा है। विद्योत्तमा की विद्वता और हेकड़ी जिस डाल पर बैठा था, उसी डाल को काटने वाले मूर्ख कालिदास ने शास्त्रार्थ में हरा कर शादी कर के उतारी थी। उसी तरह यह बांसगांव की विद्योत्तमा अपने लुक्कड़ और पियक्कड़ पति के प्रतिरोध में शादी के बाद ऐसे खड़ी थी गोया राधेश्याम और घनश्याम ही नहीं समूचा पुरुष समाज ही उस की जिंदगी नष्ट कर गया हो, सारा पुरुष समाज ही उस का दुश्मन हो। वह अब लगभग पुरुष विरोधी हो चली थी। पुरुषों की तरह पुरुषों को वह बस मां बहन की गालियां भर नहीं बकती थी, बाक़ी सब करती थी।
उस का साथी भी अब बदल गया था। विवेक की जगह प्रकाश मिश्रा अब उस का नया साथी था। विवेक अपने मुक़दमे में पैसा-वैसा ख़र्च-वर्च कर के फ़ाइनल रिपोर्ट लगवा कर पासपोर्ट वीजा बनवा कर अपने बडे़ भाई के पास थाईलैंड चला गया था। बल्कि कहें तो एक तरह से उस के बड़े भाई ने ही उसे योजना बना कर थाईलैंड बुला लिया था। एक तो मुनमुन के साथ उस के संबंध, दूसरे, आर्म्स एक्ट में उस की गिऱफ्तारी, तीसरे बांसगांव की आबोहवा। उस के भाई ने सोचा कि कहीं उस की ज़िंदगी न नष्ट हो जाए सो उसे बांसगांव से हटाना ही श्रेयस्कर लगा और उस ने विवेक को थाईलैंड बुलवा लिया।
प्रकाश मिश्रा बांसगांव के पास ही एक गांव का रहने वाला था। वह भी शिक्षा मित्र था। शिक्षा मित्र की एक ट्रेनिंग में ही मुनमुन से उस का परिचय हुआ था। फिर परिचय दोस्ती में और दोस्ती प्रगाढ़ता में तब्दील हो गई। प्रकाश मिश्रा हालां कि शादीशुदा था और दो बच्चों का पिता भी था फिर भी उम्र उस की मुनमुन के आस पास की ही थी। विवेक की तरह प्रकाश-मुनमुन कथा भी बांसगांव में लोग जान गए और फ़ोन के मार्फ़त मुनमुन के भाइयों को भी इस प्रकाश-मुनमुन कथा का ज्ञान हुआ। सब कसमसा कर रह गए। पर मुनक्का राय और उन की पत्नी ने इस प्रकाश-मुनमुन कथा का संज्ञान नहीं लिया। लोगों द्वारा लाख ज्ञान कारवाने के बावजूद। लेकिन घनश्याम राय ने इस प्रकाश-मुनमुन कथा का संज्ञान लिया। और गंभीरता से लिया। उन्हों ने बारी-बारी मुनक्का राय और मुनमुन राय को फ़ोन कर के बाक़ायदा इस पर प्रतिरोध जताया और कहा कि, ‘मुनमुन हमारे घर की इज्ज़त है, इस पर इस तरह आंच नहीं आने देंगे!’
मुनक्का राय तो चुप रहे। प्रतिवाद में कुछ भी नहीं बोले। तो घनश्याम राय ने उन्हें दुत्कारते हुए कहा भी कि, ‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्।’ फिर भी मुनक्का राय चुप रहे। पर जब घनश्याम राय ने मुनमुन से भी वही बात दुहराई कि, ‘तुम हमारे घर की इज़्ज़त हो और हम अपने घर की इज़्ज़त पर आंच नहीं आने देंगे।’ तो मुनमुन राय चुप नहीं रही। उस ने बेलाग कहा, ‘तो आइए इस आंच में झुलसिए। क्यों कि आंच तो आ गई है।’
घनश्याम राय को मुनमुन से ऐसे जवाब की उम्मीद हरगिज़ नहीं थी। वह हड़बड़ा गए और रमेश को फ़ोन किया। सारा हाल बताया और मुनमुन का जवाब भी। रमेश भी यह सब सुन कर सन्न रह गया। पर बोला, ‘घनश्याम जी अब मैं क्या कहूं। सिर शर्म से झुक गया है यह सब सुन कर। पर अब किया ही क्या जा सकता है?’ रमेश बोला, ‘कुछ हो सकता है तो बस यही कि आप अपने बेटे को सुधारिए और हमारी बहन को अपने घर ले जाइए। यही एक रास्ता है। बाक़ी तो मुझे कुछ सूझता नहीं।’
‘इलाज तो हम करवा रहे हैं बेटे का। डाक्टर का कहना है कि बहू आ जाए तो इस का सुधार जल्दी हो जाएगा।’
‘देखिए अब इस में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।’
‘पर विचार तो कर ही सकते हैं।’
‘बिलकुल। ज़रूर।’ रमेश ने कहा।
फिर घनश्याम राय का फ़ोन काट कर रमेश ने धीरज को फ़ोन मिलाया। सारा हाल बताया तो धीरज ने कहा कि हां, उसे भी बांसगांव से फलां ने फ़ोन कर के बताया था। फिर जब रमेश ने धीरज को घनश्याम राय और मुनमुन की बातचीत ख़ास कर मुनमुन के जवाब को बताया कि, ‘तो आइए इस आंच में झुलसिए। क्यों कि आंच तो आ गई है।’ तो धीरज बौखला गया। बोला, ‘तो भइया अब मेरा तो बांसगांव से संबंध अब ख़त्म समझिए और यह भी समझिए कि मुनमुन अब मेरे लिए मर गई है। आप को जो करना हो करिए मैं कुछ नहीं जानता। आखि़र इसी समाज में रहना है। सार्वजनिक जीवन जीना है। किस-किस को क्या-क्या सफ़ाई दूंगा?’ वह बोला, ‘घनश्याम आप का पुराना मुवक्किल है, आप ही जानिए। और भइया हम को इस मामले में क़तई क्षमा कीजिए!’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया।
मुनमुन और उस की आंच लेकिन बढ़ती ही जा रही थी। उसे इस बात की बिलकुल परवाह नहीं थी कि कौन इस आंच में झुलस रहा है और कि कौन इस आंच को ताप रहा है या इस आंच में अपनी रोटी सेंक रहा है। वह तो किसी बढ़ियाई नदी की तरह चल रही थी, जी रही थी जिस को आना हो उस के बहाव में आए, किनारे लग जाए या डूब जाए। इस सब की उसे परवाह नहीं थी। इसी बीच एक घटना घट गई। मुनमुन के आंगन में गेहूं धो कर सूखने के लिए पसारा गया था। दुपहरिया में पड़ोसी का बछड़ा आया और काफ़ी गेहूं चट कर गया। मुनमुन की अम्मा हमेशा की तरह तब अकेली थीं। जब उन्हों ने देखा तो बछड़े को हांक कर आंगन से बाहर किया और पड़ोसन से जा कर बछड़े की शिकायत भी की। पर पड़ोसन शिकायत सुनने की बजाय मुनमुन की अम्मा से उलझ गई। और ताने देने लग गई। बात बेटों की उपेक्षा से होती हुई मुनमुन के चरित्र तक आ गई। मुनमुन की अम्मा ने इस का कड़ा प्रतिरोध किया। भला-बुरा कहते हुए कहा कि, ‘आइंदा ऐसा कहा तो राख लगा कर जीभ खींच लूंगी। फिर बोलने लायक़ नहीं रहोगी।’ ऐसा कहते ही पड़ोसन न सिर्फ़ भड़क गई बल्कि मुनमुन की अम्मा की तरफ़ झपटी, ‘देखूं कैसे ज़बान खींचती हो?’ कह कर उस ने मुनमुन की अम्मा के बाल पकड़ कर खींचा और उन्हें ज़मीन पर गिरा कर मारने लगी। कहने लगी, ‘बड़का भारी कलक्टर और जज की महतारी बनी घूमती हैं। बेटी क्या गुल खिला रही है। आंख पर पट्टी बांधे बैठी हैं जैसे कुछ पता ही नहीं। आई हैं हमारा बछड़ा बंधवाने। अपनी बेटी बांध नहीं पा रहीं, बछड़ा बंधवाएंगी!’
इस मार पीट में मुनमुन की अम्मा का मुंह फूट गया। हाथ पांव में भी चोट आ गई। सारी देह छिल गई थी। देह में वैसे ही दम नहीं था, बुढ़ापा अलग से! तिस पर ताना और ये मारपीट। अपमान और लांछन से लदी मुनमुन की अम्मा ने बिस्तर पकड़ लिया। शाम को जब मुनमुन घर लौटी तो कोहराम मच गया। मुनमुन से मां का घाव और तकलीफ़ देखी नहीं गई। तमतमाई हुई वह पड़ोसन के घर गई। और पड़ोसन को देखते ही आव देखा न ताव, न कोई सवाल न कोई जवाब तड़ातड़ चप्पल निकाल कर मारना शुरू कर दिया। बाल खींच कर पड़ोसन को ज़मीन पर पटका और घसीटती हुई अपने घर खींच लाई। कहा कि, ‘मेरी मां के पैर छू कर माफ़ी मांग डायन नहीं तो अभी मार डालूंगी तूम्हें।’ घबराई पड़ोसन ने झट से मुनमुन की अम्मा के पांव छू कर माफ़ी मांगी और कहा कि, ‘माफ़ कर दीजिए बहन जी!’ फिर मुनमुन ने एक लात उसे और मारी और कहा, ‘भाग जा डायन और फिर कभी मेरे घर की तरफ़ आंख भी उठा कर देखा तो आंखें नोच लूंगी।’
मुनक्का राय इसी बीच घर आए और पूरा वाक़या सुना तो घबरा गए। बोले, ‘अभी जब उस के घर के लड़के और मर्द आएंगे तो वह भी मार पीट करेंगे। क्या ज़रूरत थी इस मार पीट की?’
‘कुछ नहीं बाबू जी आप घवबराइए मत अभी मैं उस का इंतज़ाम भी करती हूं।’ कह कर उस ने एस.डी.एम. बांसगांव को फ़ोन मिलाया और रमेश भइया तथा धीरज भइया का रेफरेंस दे कर पड़ोस से झगड़े का डिटेल दिया और कहा कि, ‘जैसे रमेश भइया, धीरज भइया हमारे भइया, वैसे ही आप भी हमारे भइया, मैं आप की छोटी बहन हुई। हमारी इज़्ज़त बचाना और हमारी सुरक्षा करना आप का धर्म हुआ। फिर मेरे घर में सिर्फ़ मैं और मेरे वृद्ध माता पिता भर ही हैं। काइंडली हमें सुरक्षा दीजिए और हमें सेव कीजिए। हमारे सम्मान का यह सवाल है।’ उस ने जोड़ा, ‘आखि़र आप के भी माता पिता आप के होम टाउन या विलेज में होंगे। उन पर कुछ गुज़रेगी तो क्या आप उन की मदद नहीं करेंगे?’
एस.डी.एम. मुनमुन की बातों से कनविंस हुआ और कहा कि, ‘घबराओ नहीं मैं अभी थाने से कहता हूं। फ़ोर्स पहुंच जाएगी।’
और सचमुच थोड़ी देर में बांसगांव का थानेदार मय फ़ोर्स के आ गया। मुनमुन से पूरी बात सुनी और पड़ोसी के घर जा कर उन की मां बहन कर पूरे परिवार को ‘टाइट’ कर दिया और कहा कि ज़रा भी दुबारा शिकायत मिली तो पूरे घर को उठा कर बंद कर दूंगा।’
पड़ोसी का परिवार सकते में आ गया। पड़ोसन ने जवाब में कुछ कहना चाहा पर थानेदार ने, ‘चौप्प!’ कह के भद्दी गाली बकी और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ। बोला, ‘कलक्टर और जज का परिवार है तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई उधर आंख उठाने की?’
‘पर सर....!’ पड़ोसन का लड़का कुछ बोलना चाहा लेकिन थानेदार ने उस को भी, ‘चौप्प!’ कह कर भद्दी सी गाली दी और डपट दिया।
मुनमुन ने थानेदार से कहा कि, ‘कहीं रात में सब ख़ुराफ़ात करें?’
‘कुछ नहीं करेंगे। आप निश्चिंत रहिए।’ थानेदार बोला, ‘रात में दो सिपाहियों की यहां एहतियातन गश्त लगा देता हूं। थोड़ी-थोड़ी देर में आते-जाते रहेंगे। घबराने की ज़रूरत नहीं है।’
फिर मुनमुन ने सोचा कि अम्मा को किसी डाक्टर को ले जा कर दिखा दे। लेकिन सोचा कि जो नहीं देखे होगा वह भी अम्मा के घाव देखेगा, बात फैलेगी और बदनामी होगी। सो उस ने लगे हाथ थानेदार से कहा कि, ‘भइया एक फ़ेवर आप और कर देते तो अच्छा होता।’
‘हां-हां बोलिए।’
‘ज़रा कोई एक डाक्टर अपनी जीप से बुलवा लेते तो अम्मा का चेक-अप कर लेता। वैसे ले जाने, ले आने में दिक्क़त होगी।’ मुनमुन की यह बात सुन कर थानेदार थोड़ा बिदका तो लेकिन चूंकि एस.डी.एम. साहब का सीधा आदेश था, जज और कलक्टर का परिवार था सो विवशता में ही सही वह, ‘बिलकुल-बिलकुल’ कहते हुए जीप में बैठ गया और बोला, ‘अभी ले आता हूं।’
फिर थोड़ी देर में वह सचमुच एक डाक्टर को लेकर आया। डाक्टर ने मुनमुन की अम्मा को देखा। घाव पर दवाई लगाई, पट्टी किया। ए.टी.एस. की सुई लगाई। पेन किलर दिए। और बिना पैसा या फ़ीस लिए हाथ जोड़ कर थानेदार के साथ ही जाने लगा। मुनक्का राय से बोला, ‘और यह भी अपना ही परिवार है। क्या पैसा लेना? भइया लोगों से कह कर कभी मेरा भी कोई काम करवा दीजिएगा। बस!’
और सचमुच फिर उस पड़ोसी परिवार ने मुनक्का राय के परिवार की ओर आंख उठा कर नहीं देखा। उन का बछड़ा भी बंधा रहने लगा। मुनमुन को इस से बड़ी ताक़त मिली। वह समझ गई कि प्रशासन में ताक़त बहुत है। सो वह भी क्यों न किसी प्रशासनिक नौकरी के लिए तैयारी करे। भइया लोग तैयारी कर सकते हैं, सेलेक्ट हो सकते हैं तो वह भी क्यों नहीं हो सकती? उस ने बाबू जी से एक रात खाना खाने के बाद उन के सिर पर तेल लगाते समय यह बात कही भी। और जोड़ा भी कि, ‘आखि़र आप का ही खून हूं।’
‘वो तो ठीक है बेटी पर भइया लोगों की पढ़ाई और तुम्हारी पढ़ाई में थोड़ा फ़र्क़ है।’
‘क्या फ़र्क़ है?’ वह उखड़ती हुई बोली।
‘एक तो वह सब साइंस स्टूडेंट थे। दूसरे इंगलिश भी उन की ठीक थी। पर तम्हारे पास न तो साइंस है न इंगलिश। हाई स्कूल से ही बिना मैथ, इंगलिश और साइंस से तुम्हारी पढ़ाई हुई है। दूसरे, तुम्हारा पढ़ाई का अभ्यास भी छूट गया है। और फिर प्रशासनिक नौकरी कोई हलवा पूरी नहीं है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है।’
‘वो तो मैं करूंगी बाबू जी।’ मुनमुन बोली, ‘इंगलिश, साइंस कोई बपौती नहीं है प्रशासनिक सेवा की। हिंदी मीडियम से भी उस की तैयारी हो सकती है। मैं ने पता कर लिया है। रही बात इंगलिश की तो उस की भी पढ़ाई फिर से करूंगी। बस आप अब की जब अनाज बेचिएगा तो थोड़ा पैसा उस में से हमारे लिए भी निकाल लीजिएगा।’
‘वह किस लिए?’
‘वही कोचिंग और किताबों के लिए।’ मुनमुन बोली, ‘जब रमेश भैया इतने लंबे गैप के बाद कंपटीशन कंपलीट कर सकते हैं तो मैं भी कर सकती हूं।’
‘अगर बेटी ऐसी बात है तो तुम तैयारी करो। अनाज क्या है मैं इस के लिए खेत बेच दूंगा, अपने आप को बेच दूंगा। पैसे की कमी नहीं होने दूंगा। अगर तुम में जज़्बा है तो कुछ भी कर सकती हो। करो मैं तुम्हारे साथ हूं।’ कहते-कहते मुनक्का राय लेटे-लेटे उठ कर बैठ गए। उठ कर बेटी का माथा चूम लिया, ‘तुम कुछ बन जाओ तो सारी चिंता मेरी दूर हो जाए!’ कह कर वह अनायास रोने लगे। सिसक-सिसक कर।
‘मत रोइए बाबू जी।’ मुनमुन बोली, ‘अब सो जाइए। सब ठीक हो जाएगा।’
मुनक्का राय फिर से लेट गए। लेटे-लेटे रोते रहे। पर मुनमुन नहीं रोई। पहले बात बे बात रोने वाली मुनमुन ने अब रोना छोड़ दिया था।
गिरधारी राय का निधन हो गया है।
अंतिम समय में उन की बड़ी दुर्दशा हुई। बेटों ने दवाई, भोजन तक नहीं पूछा। बिस्तर साफ़ करने वाला भी कोई नहीं था। कोई नात-रिश्तेदार ग़लती से उन्हें देखने जाता तो फ़ौरन भागता। देह में उन के कीड़े पड़ गए थे। दूर से ही बदबू मारते थे। कोई नाक दबा कर बैठ भी जाता तो उस से वह दस-पांच रुपए भी मांगने लगते। रुपए मांगने की आदत उन की पहले भी थी। बिना संकोच वह किसी से भी पैसा मांग लेते। पट्टीदार, रिश्तेदार, परिचित, अपरिचित जो भी हो। कोई दे देता, कोई नहीं भी देता। फिर भी उन का मांगना नहीं रुकता। अब वह जब चले ही गए तो शव यात्रा में भी उन की ज़्यादा लोग नहीं गए। पर मुनक्का राय गए हैं। लाश उन की जला दी गई है पर ठीक से जल नहीं पा रही है। बीमारी वाली देह है, तिस पर लकड़ी भी गीली है। श्मशान घाट पर बैठे लोग उन की अच्छाइयां-बुराइयां बतिया रहे हैं। और उन की लाश है कि लाख यत्न के बावजूद ठीक से जल नहीं पा रही है। डोम, पंडित, परिजन सभी परेशान हैं। परेशान हैं मुनक्का राय भी। एक पट्टीदार से बतिया रहे हैं, ‘चले गए गिरधारी भाई पर मुझ को लाचार कर के। मुझे बरबाद करने में उन्हों ने अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।’
‘तो भुगत भी तो रहे हैं।’ पट्टीदार बोला, ‘देखिए मरने के बाद भी जल नहीं पा रहे हैं। देह में कीड़े पड़ गए थे सो अलग। दाने-दाने के लिए तरस कर मरे हैं। भगवान सारा स्वर्ग नरक यहीं दिखा देते हैं। जस करनी तस भोगहू ताता, नरक जात फिर क्यों पछताता! क्या वइसे ही कहा गया है?’
‘सो तो है!’ मुनक्का राय कहते हुए जम्हाई लेने लगते हैं। वह कहना चाहते हैं कि गिरधारी भाई के साथ एक युग समाप्त हुआ की तर्ज पर गिरधारी भाई के साथ एक दुष्ट समाप्त हुआ। पर सोच कर ही रह जाते हैं। यह मौक़ा नहीं है यह सब कुछ कहने का। पर अपने मन की चुभन और टीस का वह क्या करें? इन को कहां दफ़न करें? किस चिता में जलाएं इसे? और मुनमुन? मुनमुन की चिंता उन्हें चिता से भी ज़्यादा जलाए दे रही है। वह क्या करें?
एक लेखक,निर्माता और निर्देशक ने मिलकर महाभारत पर फिल्म बनाने की सोची, उन्होंने फिल्म के लिए फाइनेंस जुटाने के इरादे से स्क्रिप्ट भारत सरकार के पास भेजी, बाद में तीनों ने ही सुसाइड कर लिया और उसका कारण था...
विषयः महाभारत
सेवा में,
लेखक, फिल्म निर्देशक व फिल्म निर्माता मुंबई
संदर्भः आपके द्वारा फाइनेंस के लिए भारत सरकार के पास भेजी गई फिल्म की कहानी, पत्रांक संख्या...
अघोहस्ताक्षरी उपर्युक्त पत्र के संदर्भ में सूचित करना चाहता है कि सरकार ने महाभारत पर फिल्म बनाने के आपके प्रस्ताव पर वितार किया है, इसके लिए गठित उच्च स्तरीय समिति, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग और लेबर कमीशन से मंत्रणा व विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों के साथ विचार-विमर्श के बाद स्क्रिप्ट के बारे में निम्न निष्कर्ष पर पहुँची है...
1. स्क्रिप्ट में कौरव और पाण्डवों का जिक्र आय है, जिसमें से कौरव सौ भाई हैं, पाणडव पांच। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इंगित किया है कि यह संख्या बहुत अधिक है जो कि उनके द्वारा परिवार के लिए तय सीमा से अधिक है। ऐसे समय में जब सरकार फैमिली प्लानिंग को बढ़ावा देने के लिए अत्यधिक व्यय कर रही है, इससे लोगों में गलत संदेश जाएगा। इसलिए फिल्म में सिर्फ तीन कौरव व एक पाण्डव ही हो सकते हैं।
2. संसदीय कार्य मंत्रालय ने इस पर आपत्ति जताई है कि लोकतंत्र में राजाओं-महाराजाओं को दिखाना कितना उचित है, इसलिए सुझाया जाता है कि कौरवों को संसद के सम्मानित सदस्य लोकसभा और पाण्डवों को संसद के सम्मानित सदस्य राज्यसभा के तौर पर दिखाया जा सकता है। फिल्म के अंत में कौरवों पर पाण्डवों की विजय दिखाई जाती है, इसमें भी परिवर्तन होना चाहिए ताकि किसी सदन के सदस्य की भावनाएँ आहत न हों।
3. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अनुसार कौरवों के जन्म का तरीका मानव क्लोनिंग की ओर इशारा करता है, जिस पर भारत में प्रतिबंध है, ऐसे में उसे सामान्य जन्म की तरह दिखाया जाना चाहिए।
4. महिला आयोग की आपत्ति है कि पाण्डवों के पिता श्री पाण्डु जहाँ बहुपत्नीधारी हैं, वहाँ पांच पाण्डवों की सिर्फ एक पत्नी है, इसलिए स्क्रिप्ट में आवश्यक संशोधन किए जाने चाहिए। श्री पाण्डु को बहुपत्नीधारी नहीं दिखाया जाए। पाण्डवों की संख्या कम करने के लिए पहले ही सुझाव दिया जा चुका है।
5. विकलांग आयोग के अनुसार नेत्रहीन धृतराष्ट्र का प्रस्तुतिकरण असम्मानजनक है, इसलिए उसे ने6हीन न दिकाया जाए।
6. महिला एवं बाल विकास विभाग ने इंगित किया है कि एक स्त्री पात्र द्रोपदी का भरी सभा में चीरहरण आपत्तिजनक व महिलाओं का अनादर है। वहीं गृह मंत्रालय का मानना है कि ऐसे किसी भी दृश्य से कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा होने के अलावा विभिन्न महिला संगठनों से कड़े विरोध का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे दृश्यों पर संप्रेशन ऑफ इमॉरल ट्रैफिक एक्ट के तहत दंडात्मक कार्यवाई भी हो सकती है, इसलिए इसे फिल्म से हटा दिया जाना चाहिए।
7. पाण्डवों और कौरवों को जुआरी दिखाना असामाजिक और नुकसानदायक साबित हो सकता है, जिससे जुए को भी बढ़ावा मिलने की आशंका है, इसलिए पाम्डवों और कौरवों के बीच हॉर्स रेसिंग दिखाई जा सकती है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी माना है कि हॉर्स रेसिंग जुआ नहीं है।
8. पाण्डवों को महाराज विराट के पास बिना किसी वेतन के काम करते दिखाया गया है। मानवाधिकार आयोग के अनुसार यह बंधुआ मजदूरी है, जो कि बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 के प्रावधानों के तहत आ सकती है। स्क्रिप्ट में यह कमी ठीक की जानी चाहिए।
9. लड़ाई में अभिमन्यु नाम के पात्र को युद्ध करते दिखाया गया है। राष्ट्रीय श्रम आयोग के अनुसार युद्ध खतरनाक पेशा है। उपर्युक्त पात्र की उम्र 16 वर्ष है, जिसे बाल श्रम का मामला माना जाएगा। उसे किसी तरह के भुगतान का भी उल्लेख नहीं है। जिसे बाल श्रम निषेध और नियंत्रण अधिनियम , 1986 व न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के प्रावधानों का उल्लंघन माना जाएगा। ऐसे किसी भी संदर्भ को फिल्म से हटा दिया जाना चाहिए।
10. पात्र श्री कृष्ण के मोरपंख धारण करने का उल्लेख है, और मोर राष्ट्रीय पक्षी है। इसके पंख से बनी किसी भी वस्तु को धारण करना वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 का उल्लंघन है।
11. श्रीमती मेनका गांधी ने युद्ध के दृश्यों के लिए हाथियों और घोड़ों के उपयोग पर आपत्ति जताई है। इस स्थिति में पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1890 और पशु क्रूरता निवारण अधिनियम संशोधित 1960 के प्रावधान लागू होंगे। आपत्तियों के निवारण के लिए स्क्रिप्ट में आवश्यक संशोधन किए जाने चाहिए।
12. वित्त मंत्रालय के सादगी संबंधी उपायों के संबंध में जारी मेमो का संदर्भ ग्रहण करते हुए सूचित किया जाता है कि युद्ध के दृश्यों के लिए प्रत्येक की सेना में दस ही सैनिक हो सकते हैं। आपसे उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए स्क्रिप्ट में आवश्यक संशोधन कर अघोहस्ताक्षरी के पास पुनः जमा करने का निर्देश दिया जाता है। भवदीय-
धर्म के मामले में ब्लादिमीर पुतिन का रूस ब्लादिमीर लेनिन के रूस से कम नहीं है। सोवियत-काल में ईसाइयों और यहूदियों के मुंह पर ताले जड़ दिए गए थे। सरकार इन धर्म-ध्वजियों की धुनाई भी करती थी और इन्हें रोने भी नहीं देती थी। कार्ल मार्क्स के इस कथन पर सोवियत सरकारें अमल करके दिखाती थीं कि धर्म जनता की अफीम है। चर्च, साइनेगॉग और मस्जिदें उस दौरान वीरान पड़ी रहती थीं। सिर्फ कार्ल मार्क्स के धर्म, साम्यवाद की तूती बोलती थी।
रूस में अब भी वही ढर्रा चल रहा है। पहले सरकारी दादागीरी चलती थी। अब ईसाई कट्टरपंथियों की दादागीरी चल पड़ी है। धर्म के मामले में वही कट्टरवाद दोबारा बीमारी की तरह फैलने लगा है। रूस के कट्टर आर्थोडॉक्स ईसाई मांग कर रहे हैं कि भगवदगीता पर प्रतिबंध लगाओ। साइबेरिया के शहर तोम्स की अदालत में गीता के खिलाफ मुकदमा चल रहा है। यह विवाद खड़ा हुआ है, ‘एस्कॉन’ के प्रभुपाद की गीता के रूसी अनुवाद के कारण। यदि मुकदमेबाजों का तर्क यह है कि एक ईसाई देश में हिन्दू धर्म ग्रंथ पर प्रतिबंध होना चाहिए तो उनसे कोई पूछे कि फिर बाइबिल का क्या होगा? वह कितने देशों में चल पाएगी? भारत में तो उस पर एकदम प्रतिबंध लग जाएगा। दुनिया में 200 देशों में से वह 50 देशों में नहीं पढ़ी जा सकेगी। इसके अलावा रूस में इस समय लगभग 15 हजार भारतीय रहते हैं। उनसे भी ज्यादा आग्रह के साथ गीता पढ़ने वाले ‘एस्कॉन’ के वे हजारों भक्त हैं जो ठेठ रूसी ही हैं। इन रूसियों के गीता-प्रेम ने ही उत्साही पादरियों के पेट का पानी हिला दिया है। इन पादरियों को यह पता नहीं कि गीता उस तरह का धर्मग्रंथ नहीं है, जैसे कि बाइबिल या कुरान है। वह भारत में लिखी गई है और भारत में हिन्दू ज्यादा रहते हैं। इसलिए लोग उसे हिन्दू धर्मग्रंथ कह देते हैं। गीता में तो हिन्दू शब्द एक बार भी नहीं आया है। गीता तो अनास्कत कर्मयोग सिखाने वाला एक वैज्ञानिक विश्वग्रंथ है। इसलिए महान यूरोपीय दार्शनिक शॉपनहावर कहा करते थे कि गीता मेरे जीवन का सबसे बड़ा सहारा है। गीता का किसी भी धर्मग्रंथ से कुछ लेना-देना नहीं है। वे पृथ्वी पर आए, उसके बहुत पहले ही वह आ गई थी।
रूस के पादरियों का बर्ताव कम्युनिस्ट पार्टी के कॉमरेडो जैसा क्यों हो रहा है? वे जरा ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन से कुछ सीखें। केमरन ने किंग जेम्स की बाइबिल के 400वें जन्मोत्सव पर कहा कि ब्रिटेन ईसाई देश है और मैं खुद ईसाई हूं, लेकिन अनेक धार्मिक मामलों में मेरे दिमाग में शक बना रहता है। इन शकों को दूर करने का एक तरीका यह भी है कि सभी धर्मो और (अ) धर्मों के ग्रंथ भी पढ़े जाएं। जहां तक गीता का सवाल है, वह तो इन ग्रंथों से अलग है और ऊपर है। वह एक साहित्यिक और आध्यात्मिक रचना है। उसे तो सभी पढ़ सकते हैं। शायद इसीलिए मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने उसे पाठशालाओं में पढ़ाने की घोषणा की है। दिल्ली मेट्रो के जनक श्रीधरन जी कहा कहना था कि उनकी सफलता के मूल में गीता ही है। उन्होंने अपने सभी साथी कर्मचारियों को गीता भेंट की थी और उन्होंने यह भी कहा कि सेवानिवृत्त होने के बाद उनका सबसे बड़ा शौक यह होगा कि वे रोज घंटे-दो घंटे गीता पढ़ सकेंगे। रूसी पादरी श्रीधर की न सुनें तो न सही, अपने शॉपनहावर की तो सुनें।
पसीने से तरबतर रामेश्वर ने अपने टूटे-फूटे घर में दरवाज़े के नाम पर लटक रहे मैले कपड़े को हटाया और अन्दर प्रवेश किया। कंधे पर लटक रहे झोले को एक तरफ रख दिया। उसका पूरा शरीर दर्द से कराह रहा था। पूरे दिन गलियों-सड़कों पर घूमने से क्या मिला? चंद सिक्के और कुछ आटा। इन सबके लिए भी उसको न जाने कितने लोगों के सामने हाथ फैलाने पड़े और अनगिनत दुआएं देनी पड़ी, तब जाकर जो कुछ भी मिला, उसे लोग 'भीख ही तो कहते हैं और तरस खाकर उसकी झोली में डाल देते हैं। यही सब सोचता हुआ रामेश्वर जमीन पर पसर गया।
रामेश्वर ने अपनी पत्नी को आवाज लगार्इ, ''भागू जल्दी से पानी का लोटा तो लाना। बहुत प्यास लगी हुर्इ है।
थोड़ी ही देर में भागू पानी का लोटा लेकर आर्इ और रामेश्वर को पानी पिलाया और भागू रामेश्वर के पास ही बैठ गर्इ। भागू रामेश्वर से बातें करते-करते रामेश्वर का झोला संभालने लगी। झोले में हाथ डालने पर एक कि़ताब उसके हाथ आर्इ। वह कि़ताब हाथ में लिए रामेश्वर को ग़ौर से देखने लगी।
''अरे भागू यह कि़ताब रास्ते में पड़ी मिली। काफी देर तक वहीं बैठा रहा। सोचा जिसकी होगी वह आयेगा, लेकिन कोर्इ नहीं आया। रामेश्वर ने कहा।
''हमारे किस काम की यह कि़ताब? भागू बोली।
''हाँ बात तो सही है।'' काश हम भी हमारे बच्चों को पढ़ा सकते। भीख मांगते-मांगते मुझे भी शर्म आने लगी है और अपने बच्चों को भी मैंने इस भीख के धंधे में डाल दिया है। बच्चों का जि़क्र आते ही तुरन्त रामेश्वर बोला, ''गोमन्द और मीरा कहाँ है? क्या वे अभी तक नहीं आए?
''भटक रहे होंगे दोनों गलियों में। कुछ मिलेगा तो आ जायेंगे। भागू कह ही रही थी तभी गोमन्द और मीरा दोनों ने घर में प्रवेश किया और माँ-बापू के पास आकर बैठ गए। गोमन्द की निगाह कि़ताब पर पड़ी। वह कि़ताब उठाकर पन्ने पलटने लगा।
भागू ने गोमन्द की ओर देखते हुए कहा, ''बेटा! तू बता आज तेरा दिन कैसा बीता? तेरे थैले में क्या है?
गोमन्द ने अपना थैला बिना खोले ही अम्मा की तरफ सरका दिया। भागू को आश्चर्य हुआ जो अपना थैला किसी को भी नहीं खोलने देता। आज एकबार कहते ही उसने अपना थैला मुझे सौंप दिया। जरूर कुछ बात है।
''गोमन्द क्या हुआ? आज तू उदास लग रहा है। भागू ने पूछा।
''नहीं अम्मा, कुछ भी तो नहीं। हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए गोमन्द बोला।
''फिर तेरा चेहरा क्यों उतरा हुआ है? और एकबार कहते ही तूने थैला मुझे सौंप दिया। क्या बात है? भागू ने गोमन्द के सिर पर हाथ सहलाते हुए कहा।
रामेश्वर और मीरा तो झोली में से रोटी निकालकर खाने में ही व्यस्त थे। उनका ध्यान गोमन्द की तरफ नहीं था।
भागू ने गोमन्द को दुलारते हुए कहा, ''आखिर क्या बात है बेटे?
इतना सुनते ही गोमन्द सुबक-सुबक कर रोने लगा और अम्मा की गोद में सिर रखकर सो गया।
रोते-राते कहने लगा, ''माँ आज मैं सुबह जब थैला लेकर निकला तब रास्ते में एक जबरदस्त एक्सीडेंट हो गया और सड़क पर बापू जैसा दिखने वाला एक आदमी तड़पता रहा। कोर्इ भी उसकी मदद के लिए नहीं रूका। मैं भी दूर खड़ा देखता रहा। मेरी भी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हुर्इ। उसका थैला सड़क पर पड़ा रहा। उसके सिर से बहुत सारा खून बह चुका था। वह काफी देर तक तड़पता रहा। फिर पुलिस वहाँ आ पहुँची। पुलिस ने जाँच पड़ताल करके पता लगाया कि बिल्लू नाम का यह एक भिखारी था जो भीख माँगकर अपना गुजारा करता था। उसका पूरा परिवार तो पहले ही चल बसा था। भूखमरी के कारण पूरा परिवार धीरे-धीरे मौत की आगोश में समा चुका था। केवल बिल्लू ही बचा था। उसके पीछे रोने वाला कोर्इ नहीं था और ना ही कोर्इ चिता को अगिन देने वाला।
''मैं पूरा दिन सड़के के किनारे बैठा सोचता रहा कि ऐसा हमारे साथ भी तो हो सकता है। कल जब लोग हमें भी भीख नहीं देंगे तो हमारा क्या होगा?हम क्या खायेंगे, क्या करेंगे? यही बात मुझे पूरे दिन से परेशान कर रही है।
भागू गोमन्द की बात सुनकर सोच में पड़ गयी। उसे भी कल की चिन्ता सताने लगी। सोचने लगी आज तो है खाने के लिए, लेकिन कल क्या होगा?
भागू गोमन्द को सहलाते हुए कहने लगी, ''बेटा सब किस्मत का खेल है। भगवान भूखा उठाता जरूर है, लेकिन भूखा सुलाता नहीं। तू घबरा मत। कल से तू भीख के लिए मत जाना। मैं और तेरे बापू ही जायेंगे। बेटे अभी तो तेरे खेलने-कूदने के दिन हैं। कहते-कहते भागू की आँखों से आँसू गिरने लगे।
एक आंसू की बूंद गोमन्द के चेहरे पर गिरी। माँ को रोता देखकर गोमन्द का भी गला भर आया। रूआंसे गले से कहने लगा, ''अम्मा तू रो मत। मैं कुछ काम करूँगा और फिर देखना हम लोगों को कभी भीख मांगनी नहीं पड़ेगी।
भागू ने गोमन्द को उठाकर गले से लगा लिया और अपने हाथ से रोटी खिलाने लगी।
''देख तो मीरा कितना प्यार है माँ-बेटे में? जैसे इस घर में सिर्फ ये दोनों ही रहते हों और दूसरा कोर्इ नहीं। मेरी मीरा को मैं प्यार करूंगा। ''आजा बेटी कहकर रामेश्वर ने मीरा को अपनी गोद में बिठा लिया।
आधी रात बीत चुकी थी। सब लोग गहरी नींद में थे। लेकिन गोमन्द अब तक केवल करवटें ही बदल रहा था। लाख कोशिश के बावजूद भी वह सो नहीं पा रहा था। उसने मन ही मन पक्का निर्णय कर लिया कि अब मैं भीख माँगने नहीं जाऊँगा। सुबह होते ही कोर्इ न कोर्इ काम सीखने जाऊँगा।
पूरी रात मन में बेचैनी रही। बेचैन आँखों में नींद कहाँ रहती है? इसका एहसास गोमन्द को अब हुआ था। पूरी रात कर्इ वर्षों के समान लग रही थी जो बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी।
चिडि़यों की चहचहाट सुनकर गोमन्द उठा। मुँह पर पानी के छींटे मारे और निकल पड़ा काम की तलाश में।
बाजार में जाकर एक दुकान के आगे बैठ गया। ये दुकान श्यामलाल मिस्त्री की थी जो मोटर साइकिलों के नामी-गिरामी मिस्त्री थे। लोग दूर-दराज से उनके पास अपनी गाडि़याँ रिपेयरिंग के लिए लेकर आते थे। गोमन्द कर्इ बार इस दुकान से एक-एक रूपये के सिक्के भीख में ले चुका था। श्यामजी कर्इ बार गोमन्द को टोकते थे कि कोर्इ काम-वाम क्यों नहीं करता। लेकिन फिर बच्चा जानकर एक रूपया दे ही देते थे।
गोमन्द को पक्का यकीन था कि श्यामजी उसे काम पर जरूर रख लेंगे। सवेरे से ही वह दुकान के बाहर श्यामजी की प्रतीक्षा कर रहा था। धीरे-धीरे सारी दुकानें खुलने लगी। बाजार सजने लगा। सभी अपनी-अपनी दुकानें जचा रहे थे।
तभी रास्ते से आते हुए श्यामजी दिखार्इ दिये। पास आते ही वह उठ खड़ा हुआ और उसके कुछ कहने से पहले ही श्यामजी बोल पड़े, ''अरे नालायक तू इतनी सुबह यहाँ क्या लेने आया है? सुबह-सुबह मैं कुछ नहीं दूँगा। दोपहर में आना। कहकर श्यामजी अपनी दुकान खोलने में व्यस्त हो गये।
''श्याम बाबा, मेरी बात तो सुनो! गोमन्द के इतना कहते ही वो उस पर झल्ला उठे, ''सुनार्इ नहीं देता? कहा न दोपहर में आना। गाँव बसा नहीं और भीखमंगे पहले ही आ गये। चल निकल यहाँ से। एक तो स्साला कामचोर राजू नहीं आया। सारा काम मुझे ही करना पड़ेगा और ऊपर से तू?
''श्याम बाबा मैं भीख माँगने नहीं आया हूँ। मैं तो काम की तलाश में आपके पास आया हूँ। आप कोर्इ काम दिला दो। अब मैंने भीख माँगना छोड़ दिया है। गोमन्द ने कहा।
''ले पकड़ झाड़ू और लग जा सफार्इ में। श्याम जी ने झाड़ू गोमन्द के हाथ में थमाते हुए कहा।
गोमन्द बहुत खुश हुआ। उसकी खुशी का कोर्इ ठिकाना नहीं रहा। बिना पगार पूछे ही झाड़ू थाम लिया और लग गया दुकान की साफ-सफार्इ में।
पूरा दिन काम करते-करते कैसे बीत गया। पता ही नहीं चला।
रात को दुकान मंगल करते समय श्यामजी बोले, ''मन लगाकर काम करेगा तो मैं तेरी जिन्दगी बना दूँगा। तुझे गाडि़यों का बेहतरीन मिस्त्री बना दूँगा। अभी तो मैं तुझे पाँच सौ रूपये महीना ही दे पाऊँगा। लेकिन धीरे-धीरे पगार बढ़ा दूँगा। क्या बोलता है?
गोमन्द ने तुरन्त हाँ कर दी। मन में बार-बार ख्याल आ रहा था कि भीख माँगने से तो यह काम लाख गुना अच्छा है। श्यामजी कितने भले इन्सान हैं। पूरा रास्ता इन्हीं विचारों में गुजरा।
घर पहुँचते ही अम्मा-बापू दोनों गोमन्द को देखकर रोने लगे।
''कहाँ गया था? पूरा दिन तुझे ढूंढते रहे। हमें बताकर तो जाता। क्या हमने कभी तुझे कहीं जाने से रोका है? सवालों की झडि़यों के साथ आँसुओं की बौछारें भी चल रही थी।
''बापू मैं श्यामजी की दुकान में काम पर लग गया हुआ हूँ। श्याम जी मुझे पाँच सौ रूपये महीना देंगे और काम सिखाने का भी वादा किया है। वो कह रहे थे कि तुझे गाडि़यों का बेहतरीन मिस्त्री बना दूँगा।
''तेरी यही इच्छा है, तो तू कर, हम तुझे नहीं रोकेंगे। कहकर रामेश्वर ने गोमन्द को सीने से लगा लिया।
भागू ने कल की बची हुर्इ रोटी परोस कर गोमन्द के सामने रख दी और बोली, ''ले गोमन्द, अब तो कुछ खा ले। तेरे बाबा और मैंने पूरे दिन से कुछ नहीं खाया है। तेरी ही राह देख रहे थे।
गोमन्द ने पूरी तरह से सूख चुकी रोटी का टुकड़ा उठाया और रामेश्वर को खिलाने लगा। रामेश्वर की आँखों से अश्रु धारा बहने लगी।
''बापू अब रो मत। आज के बाद आप लोगों को बिना बताये कहीं नहीं जाऊँगा। गोमन्द ने बापू की आँखों से आँसू पोंछते हुए कहा।
''बेटा तुम बहुत समझदार हो। हमने भी समय रहते कोर्इ हाथ का काम सीखा होता तो हमें भी ये दिन ना देखने पड़ते। कहकर रामेश्वर जार-जार रोने लगा।
''बापू जो बीत गया उसे भूल जाओ। श्यामजी कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा। आप कहें तो मैं आपके लिए भी श्यामजी से बात करूं। वह बहुत ही भले इंसान हैं।
''ठीक है। ले अब तू भी खा। कहकर रामेश्वर ने गोमन्द को एक कौर खिलाया।
''और हाँ बापू श्यामजी मुझे एक स्कूल में भी भर्ती करवायेंगे। गोमन्द की बात सुनकर रामेश्वर को लगा कि नया सवेरा हो चुका है।
-संजय जगनाल
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- धूप की चादर
घना कोहरा छा जाता है ,ढकते धरती अम्बर । ठण्डी-ठण्डी चलें हवाएँ , सैनिक -जैसी तनकर । भालू जी के बहुत मज़े हैं-ओढ़ लिया है कम्बल । सर्दी के दिन बीतें कैसे ठण्डा सारा जंगल ।
खरगोश दुबक एक झाड़ में काँप रहा था थर-थर । ठण्ड बहुत लगती कानों को मिले कहीं से मफ़लर । उतर गया आँगन में सूरज बिछा धूप की चादर । भगा कोहरा पल भर में ही तनिक न देखा मुड़कर ।