माह की कवियत्रीः पुष्पिता अवस्थी

कविता-आकांक्षा ।।
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कविताएं
चेतना के एकांत प्रवास में
गलबहियां डाल
बतियाती हैं
आदमी के डरावने सच
मोहक फरेब
सुंदर संत्रास।
कविताएं
हृदय की सुकोमल हथेली में
खींच, जोड़ देती हैं
चिंता की कुछ गहरी रेखाएं
चाकू से बनी हो जैसे।
कविताओं को
पढते हुए
कवि की हथेली
नहीं बचती वैसी
जैसी कविता लिखने से पहले थी।
कविताएं बदल देती हैं—
कवि की आंखें
देखने का नजरिया
दुनिया को,
खुद को,
समय को।
 चुपचाप अंधेरा पीने के लिए ।।
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तुम्हारी
आवाज के वक्ष से
लगकर रोई है
मेरी सिसकियों की आवाज
अक्सर
विदा लेते समय
अपनी सुबकियाँ
छोड़ आते हैं होंठ
तुम्हारे भीतर
तुम्हारी
हथेली के स्पर्श में
महसूस होता है
दिलासा और विश्वास का
मीठा और गहरा
नया अर्थ
मन गढ़ता है
मौन के लिए
नए शब्द
जिसे
समय-समय पर
सुनती है
मेरे सूने मन की
मुलायम गुहार
अपने थके कन्धों पर
महसूस करती हूँ
तुम्हारे कन्धे
जिस पर
चिड़िया की तरह
अपने सपनों के तिनके
और आँसू की नदी
छोड़ आती हूँ चलते समय
हर बार
(कैसे बहने से बचाओगे
मेरे सपने
मेरे ही आँसुओं की नदी से)
तुम्हारी दोनों
आँखों में
एक साथ है
सुबह का तारा
और सान्ध्य तारा
जिसे
मेरी आँखों की स्तब्ध अंजुलि में
सौंपकर
मुझे विदा करते हो तुम
अकेले
चुपचाप अँधेरा पीने के लिए ।
आत्‍मा की अँजुलि में ।।
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आत्मा की
अंजुलि में
तुम्हारी स्मृतियों की
परछाईं है
जो घुलती है
आत्मा की आँखों में
और आँसू बनकर
ठहर जाती है
कभी आँखों के बाहर
कभी आँखों के भीतर
तुम्हारी आत्मा के
अधरों में धरा है प्रणयामृत
शब्द बनकर
कभी होंठों के बाहर
कभी होंठों के भीतर
तुम्हें लखते हुए
आँखें खींचती हैं तुम्हें
सघनतम प्राण-ऊर्जा से
आँखों के भीतर
कि तुम्हारी अनुपस्थिति के क्षण को
जी सके एकाकी आत्मा
जैसे चाँद सारी रात
उजलता हुआ भटकता है
बस भटकता है सारी रात
दिन के उजाले में
खोकर भी खोजता है
तुम्हें और तुम्हारा बजूद
चाँद के साथ
तारों-सितारों की
घनी बस्ती है
सप्तर्षि से लेकर
ध्रुव तारा तक
आकाश-गंगा
और मंगल-ग्रह तक
पर चाँद के लिए
कोई प्रणय गंगा नहीं
कोई सहचर-सरिता नहीं
चाँद ऐसे में
जनता है अपने ही अस्तित्व में
अपनी ज्योत्स्ना
अपने लिए अपनी चाँदनी
चाँद उसमें खोता है
और चाँदनी उसमें
कहीं ऐसे ही
तुम मुझमें
और
मैं तुममें तो नहीं ।
अनुपस्‍थिति के घर में ।।
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तुम्हारी उपस्थिति का सुख
तुम्हारी अनुपस्थिति में
बनता है मेरे भीतर
सूनेपन का
एकांत अकेलापन
अपने प्रवास के कारण
अतिथि नहीं रहता है
डर
दिशाओं का अँधेरा
समेटकर
गठरी बनाकर
सिरहाने रखकर
सुस्ताता है
लोकव्यथा के शब्द बुदबुदाता
सन्नाटे का
भयानक शोर
हदस की धुंध
बनकर घुस आता है
आँखों में
अनुपस्थिति का
सिर्फ कसैला कोहरा होता है
जिसमें डर का
घर नहीं दिखता है
पर डर का घर होता है
जिसमें घुटन बसती है
तुम्हारी अनुपस्थिति में
मन की पृथ्वी पर
कोई सृष्टि नहीं होती है
दृष्टि में सिर्फ
पक्षियों की फड़फड़ाहट
नदी का दुःख
पेड़ का मौन
सागर की बेचैनी
तूफान की आग
ऋतुएँ के मन की
बंजर होने की खबर
सिर्फ फैली-उड़ती दिखती हैं
तुम्हारे जाने के बाद
सुख में तब्दील
हवा की हथेलियों के
झोंके की अंजुलि में
भरकर
पहुँच जाना चाहती हूँ
तुम्हारी साँसों में
एक ऋतु के रूप में
आकार लेकर
एक ऋतु की तरह फैल जाना चाहती हूँ
तुम्हारे भीतर
अपना पुनर्जन्म पाकर
फिर से
जीना चाहती हूँ तुममें
जैसे पृथ्वी पर ऋतु
पुनः पुनः
प्रतिवर्ष ।
जहॉं न पाखी पहुंचते हैं न पंख ।।
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तुम्हारे साथ
प्रणय की परिक्रमा
कि जैसे पृथ्वी की प्रदक्षिणा
सूर्य के चतुर्दिक
तुम्हारे साथ
सौर-मंडल के सारे नक्षत्र
दृष्टि और स्पर्श की परिधि में सिमटे
दीप्ति-आलिंगन में हम दोनों को
समेटते हुए जैसे चमकते
तुम्हारे साथ
नक्षत्रों की मुस्कुराहट की चमक का रहस्य
तुम्हारी साँसों में
प्रणय-शब्द सा अर्थ-सुख
अमूर्त पर मूर्त
प्रणय-शिल्पी की अनुभूतियों की प्रतिमूर्ति-मूर्तित
सजग और सजल
तुम्हारे साथ
घूम आती हूँ कभी
मछली-सी
सागर की अतल गहराइयों को जीती-छूती
उड़ आती हूँ कभी
पक्षी-सी
अनाम ऊँचाइयों के सहृदय रंगीन आकाश में
तुम्हारे साथ
प्रणय की परिक्रमा
हाथ थाम ले जाती है मुझे वहाँ
जहाँ न पाखी पहुँचते हैं, न पंख
न मछली पहुँचती है, न जल
न शब्द पहुँचते हैं, न अर्थ
न शोर पहुँचता है, न मौन
तुम्हारे साथ से
प्रणय-सौरमंडल
सरस इंद्रधनुषी नक्षत्र-लोक
जिसे
तुम्हारे नाम से जानती हूँ मैं
जिसकी ऊर्जा

तुम्हारे ऊष्म स्पर्श से पहचानती हूँ मैं ।

 आत्‍मा के समुद्र की व्‍याकुल आहटें ।।
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मन मछली को
देह नदी से निकालकर
डुबा देना चाहती है वह
आत्मा के समुद्र में
क्योंकि
रेत नदी है   देह
सूखी और प्यासी
मन के उजाले को
देह के अन्ध-अँधेरे कोटर से निकाल
सूर्य-रश्मि बन
लौट जाना चाहती है वह
सूर्य-उर में
अन्तहीन अँधेरी सुरंग है देह
पथहीन
मन की धड़कनों की
ध्वनियों में
रचना चाहती है
तुम्हारे नाम के पर्यायवाची शब्द
उन शब्दों में रमाकर
अपनी धड़कनों को
भूल जाना चाहती है ‘स्व’ को
और महसूस करना चाहती है
ऋचा की पवित्र अनुगूँज की तरह तुम्हें
मिथ्या-शब्दों के छल से दग्ध आत्मा को
निकाल लेना चाहती है
तुम्हारे नाम से
तुम्हारी साँसों से
अपनी संतप्त धड़कनों के बाहर
मन की साँसों से
ऋतुओं के प्राण को
खिला देना चाहती है
देह-पृथ्वी के अनन्य कोनों में
तुम्हारी कोमलता की हथेली में
लिख देना चाहती है वह
अपने अधरों से
कुछ प्रणय-सूक्त
तुम्हारे नाम की
पवन-धारा में
नहा आई साँसों को
लगा देना चाहती है
प्रणय-देह-शंख में
जीवन-जय-घोष के लिए
मन-देह को
प्रणय-शब्द-देह में
घिस-घुला देना चाहती है
चन्दन की तरह
वह
चुपचाप
स्वर्ण शहद में तब्दील हो जाना चाहती है
सुख के शहद को जानने के लिए ।
समय की असलियत ।।
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समय
चिड़ियों की तरह
उड़ता है–
हम सबके ऊपर और सामने
समय
बनाता है—घोंसले
घर
शहर
देश
सेता है—सर्वस्‍व
चिड़ियों की तरह
समय
चिड़ियों सरीखा
उड़ता और मँडराता है–
महाराजाओं की मूर्तियों की शीश पर
बैठता है अपनी उजली स्‍याह बीट के लिए
समय की सच्‍चाई का प्रतीक
समय तथाकथित खंडहरों
किलों
संग्रहालयों
और ऐतिहासिक मूर्तियों पर
जमाता है—काई
उड़ाता है धूल गर्द
और बनाता है –दरारें
समय
धीरे धीरे
सब कुछ मिटाता है
बचाने की लाख कोशिशों के बावजूद।
अधरों पर झरी हुई हँसी की स्मृति में ।।
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तुम्हारी आँखों के सामने
मेरा उदास अँधेरा होगा
काई ढके मौत के काले तालाब से
निकला हुआ
ठिठकी हुई
ओस में
मेरे आँसू की
सिसकियों को घुलते हुए
देखती होंगी तुम्हारी आँखें
हरी दूब पर
झर रही
सुबह की धूप में
तुम्हारे होने की खुशी में
झरी हुई मेरी हँसी की स्मृति में
चुनते होंगे सूर्य-रश्मि
झरे हुए हरश्रृंगार के फूल की तरह
जैसे मैं अकेले में
तने पीपल के पेड़ की
एक शाख पर लटके
मधुमक्खी के मौन शहदीले छत्ते को
देख तुम्हारी स्मृतियों में से
कुछ बूँद शहद की
गिर-टपकी होंगी
तुम्हारे सूखे अधरों पर
जो याद में
प्रायः हलक तक को
सुखा देती हैं
तुम्हारी हथेलियों की चाह की
कोमल विकलता में
कितना भरोसा देता है चाँद
गहरी आधी रात में
अकेलेपन की ठिठुरन में
जब सारी उम्मीदें
बनावटी कागज का घर लगती हैं ।

पुष्पिता अवस्थी

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