अपनी बातः लगन, तपन और चुभन…शैल अग्रवाल

लगन, तपन, मिलन और फिर विरह की चुभन, वह भी कइयों के लिए तो दर्द में दवा-सी, कितने अहसास हैं इस एक ही शब्द प्रेम में कितने रूप और रंग समोए हुए है यह, फिर भी कैसे पलपल दृश्य बदलता है! कभी-कभी तो ईर्षा, नफ़रत और अपराध तक जैसे घृणित और नकारात्मक भाव- अपराध व हिंसा तक आ मिलती है इस उद्दात्त भाव और त्याग के उच्चतम प्रतिमान में। इन्सान ही नहीं, जानवर तक उसी तीव्रता से महसूस करते हैं प्रेम को। प्रत्युत्तर देते हैं, प्रतिकार लेते हैं। गुर्राते और हमला करते हैं, ज़रूरत हो तो हत्या भी कर देते हैं। क्योंकि प्रेम तो प्रेम, चाहे वह किसी व्यक्ति विशेष के प्रति प्रेम हो , या राष्ट्र या फिर मात्र एक ख़्वाब या आकांक्षा के प्रति, ध्येय की प्राप्ति, पाना और जीतना ही तो एकमात्र लक्ष रह जाता है इसमें, दाव पर चाहे कुछ भी लगा हो !
कहावत है- Every thing is fair in love and war-कहा जाता है।
सुख और दुख की समानान्तर पटरियों पर चलता यह प्रेम सब को छूता है। जड़-चेतन, प्रकृति-पुरुष सभी को। अगर कहूँ की सृष्टि में सृजन, इसके संरक्षण और निरंतरता का एकमात्र आधार प्रेम ही है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यही तो है जो सब कुछ बचाए रखता है, माँ के आँचल की तरह, बहन की राखी की तरह, प्यार में पागल प्रेमिका के इंतजार की तरह और देश पर खड़े सैनिक के समर्पण और चौकसी की तरह। एक जुनून, एक पूजा और कुछ हद तक जीने की एक लत है प्रेम , जिसके बिना सब नीरस और महत्वहीन हो जाता है। यदि तपस्या-सी परवाह है इसमें तो मरु की तिश्नगी भी है इसमें और सरित-जल सी कल-कल करती तृप्त मिठास भी। अगर कहीं कुछ छूट या टूट भी जाए, तो स्मृतियों के सहारे ही अनंत अमृत कलश बन सकता है अनूठा।

पर जीवन-सा, प्रकृति-सा, प्रेयसी-सा अस्थिर और चंचल भी है यह। कई बार जब आप डूब रहे हो तभी हाथ छोड़कर आगे बढ़ सकता है यह। धोखे और बेवफ़ाई के भी तो छोटे-बड़े कई रूप हैं और फिर यह बेचारा मन भी तो जितना फेंकूँ, उतना ही चंचल भी तो, बिल्कुल हमारी प्रकृति की तरह ही…उड़ता आवारा बादल। कब बरसे और कब तरसाए पूरी उसकी अपनी ही मर्ज़ी तो है।
गर्मी और बरसात की उमस भरी रातों में तारों भरी रात के अप्रतिम रूप को डूबकर सराहते वक़्त ही तो, सारा श्रंगार फेंक , सियाह चूनर में लिपटी हाहाकारी लहरों-सी विलाप करती रात को किसने नहीं देखा है। प्रचंड बवंडर के रूप में सिर धुनने लग जाती है मन्थर चलती हवाएँ। तो क्या बदलाव ही प्रकृति है आदमी की भी और उसको लपेटे-समेटे इस सृष्टि की भी। इस सबसे समझौता ही जिन्दगी है? क्या ये अतृप्त इच्छाएँ ही हैं जो चारो तरफ से हमें घेरे बैठी हैं, एक ही जनम में कई-कई रिश्ते जोड़ती हैं। हँसाती और रुलाती हैं, उसे ही हम प्रेम मानते हैं, पर समझो, जानो, इससे पहले ही रूप भी तो बदल देता है यह! जो है नहीं, उसे ढूँढते रह जाते हैं, सामने बिखरे को अनदेखा और अनजाना करके। तो क्या माया या भ्रम है प्रेम?
नहीं। अगर हम महसूस न करें तो कहीं कुछ भी तो नहीं। सारी बात चेतना, या मन की ही तो है। घड़े में जल या जल में घड़े की तरह एक दूसरे के सहारे या मोह में पड़ने की ही तो है। इसके वश ही तो कांटों को भी दुलराने और सराहने लग जाते हैं हम। ललायित और मदहोश यह अवस्था चाह की है तो आह और आँसुओं की भी तो। जो विवेक को अंधा कर दे , वह कैसे और किसके हित में है, चाहे प्रेम हो या फिर नफ़रत। ताक़त के भूखों ने अपनी सामंती सोच के बूते पर कैसे बसी बसाई बस्तियाँ ही क्या, पूरे-के-पूरे देश उजाड़ दिए हैं, हम सभी जानते हैं। तो क्या यह सारी मोह-माया जीव के खुद अपने अंदर है। हमारा मन , हमारी चेतना ही है, जो आकर्षण या सारे घर्षण और विकर्षण पैदा करती है?
क्यों नहीं, हो सकता है यही सच हो इस क्षण-भंगुर ज़िन्दगी का। पत्थरों को तो वैसे भी मोह-माया नहीं सताती। पर कैसे रखे आदमी वश में अपनी इच्छाओं को जो सदा ही उसे गुलाम बना कर रखती हैं?
एक लोककथा याद आ रही है, जिसमें एक राजा जिसके पास सब कुछ था पर उसे अपना जीवन अधूरा महसूस होता था, क्योंकि उसने अलौकिक प्यार महसूस नहीं किया था। भगवान उसकी बेचैनी से द्रवित हो गए और उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया कि सुबह आँख खुलते ही तुम्हारी नजर जिस पर पड़ेगी, वही तुम्हारा अलौकिक प्यार होगा। सुबह-सुबह जब राजा की आँख खुली तो सामने खेत में एक गधी घास चर रही थी। देखते ही राजा उसी पर जी जान से मोहित हो गया। आगे क्या हुआ, कहने की जरूरत नहीं…शायद तभी से यह कहावत प्रचलित हुई होगी कि जब प्यार हुआ गधी से तो परी क्या चीज है! प्यार में विवेक खो देने की लोककथाएँ करीब-करीब हर संस्कृति में मौजूद हैं। जैसे नारद मुनि को समुद्र मंथन से निकली सुंदरी से प्यार हो गया था तो उन्होंने उसका स्वयंबर जीतना चाहा, और विष्णु भगवान से मदद माँगी। परन्तु विष्णु ने बंदर का चेहरा दे दिया उन्हें और लक्ष्मी ने वरमाला विष्णु के ही गले में डाली। यह बात दूसरी है कि विष्णु को इसका भुगतान देना पड़ा -अगले जनम में राम के रूप में अपनी लक्ष्मी यानी सीता को खोकर, उनका वियोग सहकर।

यहाँ ब्रिटेन में मार्च का महीना शीत और बसंत का संधि काल है, जब बर्फ़ भी गिर सकती है, हड्डी कँपातीं ठंड भी पड़ जाती है और साथ-साथ डैफोडिल्स और ट्यूलिप भी सिर उठाकर झांकना शुरु कर देते हैं। कहावत है कि मार्च का महीना आता तो शेर की तरह दहाड़ता हुआ है, सारे तूफान और बवंडर लिेए हुए, पर जाता है बिल्कुल नवजात मेमने की तरह है, बड़ी ही नज़ाकत के साथ, हंसते-किलकते…आहिस्ता-आहिस्ता, जब खेत तक सरसों की पीली चूनर ओढ़ लेते हैं। असली रंगों का विष्फोट तो यहाँ मई-जून से ही होता है, जो फिर सितंबर तक ब्रिटेन को रंग और रूप के जादू में नहलाए रखता है।

भारत के बसंत से अलग है यहाँ का बसंत। भारत में बसंत की घोषणा बसंत पंचमी से होती है और फिर राग-रंग का मेला-सा लग जाता है सृजन और मदन की इस ऋतु में जब हम शिवरात्रि और होली जैसे दो-दो रंगोत्सव मनाते हैं। यहाँ वसंत का आगमन पर्यटन की शुरुवात है। लेखनी भी इस बार उल्लास और विछोह इस सतरंगी प्रेम के उजाले और अंधेरे दोनों का ही जश्न मना रही है इस अंक के साथ।

पर दिन के बिना रात कैसी और रात के बिना दिन कैसा…हो भी क्यों? 17 वर्ष पूरे करके अठ्ठारहवें में प्रवेश कर रही है इस अंक से लेखनी। आप सभी पाठक और लेखक व कवि मित्रों की प्रेरणा और सहयोग से ही यह संभव हुआ। आश्चर्य और एक संजोग ही है कि संकलित चारो कहानियाँ और लघुकथा सभी विछोह पर हैं। विछोह जो पीड़ा दायक है प्रेम में , चाहे वह अस्थायी हो या स्थायी। जबकि अधिकांश कविताएँ रागरंग में डूबी पीतवर्णा या चटक गुलाबी हैं।

प्रेम जैसा जटिल भाव, क्या है हमारी समझ में आए या नहीं, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया तो होती ही है। यही नियम है जीवन का भी और जीवन के रेशे-रेशे में रचे-बसे प्रेम का भी। ऐसी ही कुछ पलों को अपने-अपने शब्दों में लपेटकर एक लेखक या कवि खूबसूरत और मन भावन कहानी कविताओं का रूप दे देता है।

लेखनी का यह १८ वें वर्ष का प्रवेशांक एक बम्पर विशेषांक है , प्रेममय रचनाओं पर। मेहनत और मनोयोग से संजोया है हमने अँक। उम्मीद है आपको भी उतना ही पसंद आएगा, जितना कि इसने मुझे संजोते हुए आनंद दिया है इसने। पुनः पुनः आभार देना चाहूँगी, १७ वर्ष के निरंतर और स्नेहिल साथ के लिए आप सभी सहयोगी रचनाकारों की, और नियमित पाठकों की भी।

अंक कैसा लगा, बतायेंगे तो अच्छा लगेगा। आपकी प्रतिक्रिया ही हमारी प्रेरणा भी है और बेहतर करने के लिए जोश भरा मार्गदर्शन भी।

पुनश्चः हाल ही में ब्रिटेन और यूरोप के कई देशों ने इच्छा-मृत्यु का क़ानून घोषित किया है जिसमें इसे नैतिक मान लिया गया है। क्या आप की नज़र में यह नैतिक है …क्या यह वक़्त की माँग है, पीड़ा से मुक्ति है या ज़िम्मेदारियों से छुटकारा पाने का एक आसान तरीक़ा…और कहीं-कहीं तो हत्या का लाइसेंस भी? यदि आप भी इस विषय पर कुछ कहना चाहते हैं तो अपने विचार हमें पक्ष या विपक्ष में कहानी, कविता, आलेख आदि के रूप में २० अप्रैल तक निम्नांकित ई मेल पर अवश्य भेजें।
shailagrawal@hotmail.com
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शैल अग्रवाल

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