कहानी समकालीनः कल हम कहाँ और तुम कहाँ-सुधा ओम ढींगरा

उम्र के एक पड़ाव में आकर व्यक्ति का मन अतीत की गलियों में बार-बार घूमने जाना चाहता है। समय ऐसा होता है कि ज़िन्दगी का हर दिन घट रहा होता है और इच्छाएँ अपना रूप बदल-बदल कर सामने आ कर चुनौती दे रही होती हैं। ऐसे क्षणों में किशोरावस्था और युवावस्था की बेपरवाहियाँ, अलमस्तियाँ, शरारतें कभी चेहरे पर मुस्कराहट दे जाती हैं तो कभी बदन में गुदगुदाहट।
पूजा भी उम्र के उसी पड़ाव में आ गई है, जहाँ अतीत उसके आस-पास अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता रहता है और दूर-दराज़ अकेली बैठी वह यादों में कितने अपनों के साथ घिरी रहती है। कॉलेज के दिन तो अक्सर उसके आसपास मंडराने चले आ ही जाते हैं; क्योंकि उनमें बेपनाह सुखद अनुभूतियाँ छिपी होती हैं। कॉलेज का वह मैदान जिसमें एक बड़ा गहरा और पानी का नाला था, जो कॉलेज के चारों ओर घूमता था। जिसे वे सहेलियाँ ‘शीश नहर’ कहती थीं। उसका पानी बहुत साफ़ होता और धूप में चमकता था। ‘शीश नहर’ अक्सर याद आती है उसे और उसके साथ ही दबे पाँव ढेर सारी यादें भी चली आती हैं।
उस ‘शीश नहर’ में हर रोज़ सुबह सवेरे पानी छोड़ दिया जाता था जो बहता रहता था, शायद फूलों, क्यारियों और पौधों को जाता होगा या वह ‘शीश नहर’ कॉलेज के चारों ओर कॉलेज की सुरक्षा के लिए बनाई गई थी। तीनों सहेलियों ने उसके बारे में कभी जानकारी लेने की कोशिश नहीं की। तीन सहेलियाँ वह यानी पूजा, सुमन और सुलोचना, जब भी फुर्सत के क्षण मिलते या कोई पीरियड ख़ाली मिलता तो बस उसमें अपने पाँव डाल कर वे बैठ जातीं और बातचीत शुरू हो जाती। कभी कोई नई किताब इस बातचीत का विषय होती या कभी जालंधर दूरदर्शन के प्रोग्राम को पछाड़कर कराची से आता कोई पाकिस्तानी नाटक उनकी बातचीत का केंद्र होता। राहत काज़मी का नाटक ‘धूप किनारे’ पहली बार उन्होंने कराची से ही देखा था। वह इतना पसंद आया था तीनों को कि अमेरिका आकर पूजा ने उसे कई बार देखा। जालंधर दूरदर्शन का सिग्नल बहुत कमज़ोर होता था जिससे अक्सर वे कराची और लाहौर के नाटक ही देखती थीं। उनकी बातचीत के लिए मसाला काफी होता था। राहत काज़मी, रूही बानों, ओज़मा गिलानी के अभिनय पर खूब चर्चा होती। इन विषयों के अतिरिक्त साप्ताहिक पत्र ‘ब्लिट्ज़’ भी उनकी बातचीत का हिस्सा होता। उसके संपादक आर के करंजिया का संपादकीय भी चर्चा का विषय बनता।
पूजा भाषण प्रतियोगिता और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में बहुत हिस्सा लेती थी। हमेशा जीतने वाली स्पीकर और डिबेटर थी। कई बार एक-दो दिन के लिए शहर से बाहर चली जाती तो कॉलेज आते ही उस शीश नहर में पैर डालकर सारी बातें सुना करती; जो उसके वहाँ न रहने पर दोनों सखियों ने की होतीं। कभी पानी के भीतर पैर होते और कभी पानी से बाहर, पर वे बैठती वहीं पर थीं।
मैदान में कई गतिविधियाँ चलती रहतीं। विद्यार्थियों की, प्रोफ़ेसरों की आवाजाही रहती; अगर दो तीन पीरियड्स एक साथ ख़ाली होते, तो वे तीनों वहीँ जमी रहतीं। पूरे कॉलेज में वे मशहूर हो गई थी; क्योंकि नाले के पास बैठने वाली वहीं तीन सहेलियाँ थीं।
कॉलेज का वह हिस्सा अलग-थलग था और वे नहीं चाहती थीं कि उनकी बातचीत में विघ्न पड़े। वे बातें उनके लिए बेहद महत्त्वपूर्ण थीं, अगर नहीं करतीं तो दुनिया की समस्याओं का हल कैसे निकलता! उन बातों को सोच कर पूजा को हँसी आ गई। तीनों सहेलियों में पूजा चुलबुली थी पर स्वभाव सरल-सादा था, आज भी वैसा ही है। घर में दो पीढ़ियों के बाद लड़की हुई थी, परिवार की बेहद लाडली थी वह।
उस अल्हड़ और नादान उम्र में वह उसे उसी ‘शीश नहर’ पर आकर मिला। अचानक उसे उसकी बहन प्रतिभा दीवान के साथ देखकर वे तीनों सहेलियाँ चौंक गई थीं। प्रतिभा उनकी ही क्लास में थी पर दोस्ती जैसी कोई बात नहीं थी।
प्रतिभा ने जब कहा -‘मेरा भाई दीपक दिवान, जिसे तुम जानती हो, तुमसे बात करना चाहता है।’ पूजा को अजीब लगा और दीपक ने उसके साथ जो किया था, उसके बाद तो उसका उससे बात करने का बिल्कुल मन नहीं था। शिष्टाचार के नाते और जिज्ञासा वश, पूजा ने उससे बात की।
नमस्ते में हाथ जोड़ कर दीपक ने एकदम पूजा को प्रश्न दाग़ दिया – ‘तुम नॉलेज के लिये कौन सी किताबें पढ़ती हो?’
‘कोई भी नहीं।’ उसका बड़ा सरल-सा उत्तर था। यह प्रश्न उसने क्यों पूछा वह समझ नहीं पाई थी…
‘झूठ बोलती हो।’ उसकी आवाज़ में बहुत अक्खड़पन था। वही रूखापन, जिससे मंच पर वह सामने वाले को वाद-विवाद में कुतर्कों से नीचा दिखाता था । पूजा ने सच बोला हो और उसे कोई झूठा कह दे तो बस समझिए, शिव जी का तीसरा नेत्र उसके भीतर खुल जाता है, जो उसके व्यवहार से खुल गया। उसके शिष्टाचार को ताक पर रखा, वहाँ से मुड़ी, किताबें उठाई और सहेलियों की ओर देखा। वे तो पहले ही अपना सामान उठाकर खड़ी हो गई थीं। बिना दीपक की ओर देखे, उत्तर दिए वे वहाँ से चल दीं। पीछे से उसकी बहन की आवाज़ सुनाई दी- ‘भाई, मुझे नहीं पता था, यह इतनी बदतमीज़ है।’ उसने सुनकर भी अनसुना कर दिया। पर सुमन को कौन रोक सकता था! वह पलटी और उनके सामने जा खड़ी हुई।
‘किसी और को बदतमीज़ कहने से पहले, अपने भाई को तमीज़ सिखा। लड़कियों से ऐसे बात की जाती है। पहली बार मिला और कह दिया झूठ बोलती है। सत्यवान हरिश्चंद्र की औलादों उसका सच ढूँढ़ते रहो, ठेंगे पर रखेगी अब तुम्हें (उनको अंगूठा दिखाते हुए बोली)। इससे पहले कि वे कोई प्रतिक्रिया देते, वह तेज़ी से चलते हुए अपनी सहेलियों के पास आ गई। सुमन से कोई पंगा नहीं लेना चाहता था। वह बड़ी बिंदास और दबंग लड़की थी। पूजा और सुलोचना की तरफ से वह लड़कियों से लड़ -लड़ा लेती थी।
दरअसल एक वाद -विवाद प्रतियोगिता में पूजा और दीपक का आमना-सामना हुआ था। वह हमेशा अपने ज़ोन से विजेता रहता था और पूजा अपने ज़ोन से। उस दिन दो ज़ोन आमने-सामने थे। पंजाब यूनिवर्सिटी में बहुत बड़ी प्रतियोगिता थी। वह दिन पूजा का था या उसके भाग्य ने साथ दिया, वह जीत गई। हालाँकि दीपक को हराना कठिन माना जाता था। उसकी याददाश्त बहुत तेज़ थी और वह पढ़ता बहुत था। ज्ञान का भण्डार माना जाता था। वह मुस्करा पड़ी-गूगल गुरु तब होते तो उससे मदद ज़रूर लेते।
वाद-विवाद प्रतियोगिता का परिणाम सुनकर पूजा स्वयं हैरान थी। दीपक का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसके खेमें में हलचल मच गई। उसका खेमा इसलिए कहा जाता था, वह जब भी कहीं किसी प्रतियोगिता के लिए जाता, आसपास खूब साथी होते। पूजा के साथ हमेशा उसकी बस एक साथी और एक प्रोफ़ेसर, और कभी कोई भी नहीं होता था।
हार दीपक से बर्दाश्त नहीं हुई और उसके खेमे से पूजा पर दोष लगाया गया कि वह कॉलेज की विद्यार्थी नहीं, पतली-दुबली छोटी सी स्कूल की लड़की को खड़ा किया गया था। उसका बर्थ सर्टिफ़िकेट माँगा गया। उसके कॉलेज को यह बात बहुत तकलीफ दे गई। समय मांग कर दीपक का खेमा निर्णय बदलवाना चाहता था। इसमें तीन दिन लग गए। पूजा को चंडीगढ़ में रहना पड़ा। जब घर में बताया गया तो उसी वक़्त उसके दो भाई चंडीगढ़ उसके पास पहुँच गए थे । तीन दिनों में उसने बहुत कुछ सीखा। बर्थ सर्टिफिकेट जमा कराया गया और वह जीत गई। ट्रॉफी लेकर जब वह कॉलेज वापस आई, उसने अपनी सहेलियों को सारा किस्सा बताया। जीत की ख़ुशी होने की बजाय उसका मन दुखी था। जिस तरह से तीन दिनों में तरह-तरह के एतराज़ उठाए गए, और उसे उनका खंडन करना पड़ा, ऐसे में उसके मन को कष्ट पहूँचना स्वाभाविक था। पहली बार उसे महसूस हुआ कि क्या जीतना इतनी बड़ी बात होती है कि लोग इंसानियत का दामन छोड़ देते हैं। दीपक में झूठा अहंकार और पुरुष होने का दंभ था; हालाँकि आज भी वह यह सोचती है कि उसे हर विषय की बेहद नॉलेज थी। बहुत विद्वान था। जीनियस था। बुद्धिमत्ता और प्रतिभा से भरपूर व्यक्तित्व था। बस स्त्री पुरुष से आगे कैसे निकल जाए, इस मानसिकता का शिकार था।
इस जीत ने पूजा की सोच ही बदल दी। उस दिन के बाद वह कभी भी जीतने के लिए भाषण प्रतियोगिता या वाद-विवाद प्रतियोगिता में नहीं जाती थी। बस अपना बेहतरीन देने के लिए जाती, और हर बार जीत कर आती । दीपक जैसे पुरुषों के लिए उसके मन में एक ख़लिश सी पैदा हो गई थी। क्या लाभ इतने ज्ञान का अगर उससे मस्तिष्क की खिड़कियाँ नहीं खुलतीं। दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता। जब मंच पर उसे बड़ी-बड़ी बातें करते देखती, सुनती। वह अंदर ही अंदर कुढ़ती, क्या लाभ इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने का ? अगर अपनी ही पुरातन मानसिकता की बेड़ियाँ वह नहीं तोड़ सकता। यह ख़लिश पूजा के भीतर और भी पक्की होती गई।
बीए ऑनर्स करने के बाद एमए ऑनर्स करने के लिए उसे डी ए वी कॉलेज ने बुला लिया। उसे भी अच्छा लगा। वह वहाँ जाना भी चाहती थी। उसे बहुत सुविधाएँ दी गईं; क्योंकि वह रंगमंच के नाटक भी करती थी।
एक दिन पता चला कि दीपक भी उसी कॉलेज में आ गया था। पूजा ने सोचा , उसे उससे क्या फर्क पड़ता है, उसने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। प्रतियोगिताएँ शुरू होने वाली थीं। टीमों की लिस्ट आ गई। लिस्ट उसने देखी तो हैरान रह गई। उसकी और दीपक की टीम बना दी गई थी। उन दोनों को तय करना था, कौन हक़ में बोलेगा और कौन विरोध में। उसे दीपक के साथ टीम नहीं बनानी थी। उसने किसी प्रोफ़ेसर से बात करने की बजाय, सीधे प्रिंसिपल साहब से मिलना उचित समझा। वह उन्हें मिली और पूरी बात बताई। वहीं पहली बार उसके ज्ञान नेत्र खुले, कुछ कॉलेज जीतने के लिए अंत तक ऐसे हथकंडे अपनाते हैं, दीपक ने जो किया वह नई बात नहीं थी। वह कुछ कॉलेजों की रणनीति होती है।
उस दिन पहली बार उसे महसूस हुआ था, वह बेवकूफ है और स्मार्ट तो बिल्कुल भी नहीं। यह सोच कर वह मुस्करा पड़ी, आज भी वह वैसी ही है। इतने समय से प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले रही थी, उसके इर्द-गिर्द क्या हो रहा था, उसे पता ही नहीं चला। अपनी नादानी पर उसे अफ़सोस हुआ था। पर दीपक के साथ टीम बनाने को फिर भी वह तैयार नहीं हुई थी। अच्छी यादें कितनी खूबसूरत होती हैं, वर्षों बाद भी चेहरे पर मुस्कराहट ले आती हैं।
एक सप्ताह निकल गया वह अपनी ज़िद पर अड़ी रही। उम्र का एक दौर ऐसा होता है जब आदर्शवाद पूरे जीवन पर हावी होता है, और व्यावहारिकता का कोई ज्ञान नहीं होता। उसे याद है वह भी उम्र के उसी दौर से गुज़र रही थी। बेहद आदर्शवादी थी।
तभी एक दिन अचानक घर पर दीपक अपने मम्मी-पापा को लेकर आया। उनके साथ दो पुलिस वाले और एक सादे कपड़ों में व्यक्ति था। उसी ने परिचय करवाया तो पता चला दीपक के पिता जी जालंधर के डिप्टी कमिश्नर थे,उस समय डीसी कहा जाता था। संयोग से उसके पापा उस दिन घर पर थे। भाई भी एक-एक करके आ गए। दीपक और उसके पापा ने उसके परिवार से बहुत अदब और विनम्रता से बात की। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था, दीपक की अकड़-अक्खड़पन कहाँ खो गया था!
दीपक के पापा ने उसके पापा से निवेदन किया कि वे अपनी बेटी पूजा को समझाएँ, दीपक के साथ वह सुरक्षित रहेगी। इसकी गारंटी वह लेते हैं। दीपक की अपनी भी तीन बहने हैं। लड़कियों की इज़्ज़त करना वह जानता है।
पूजा को लगा अब तो पापा उसकी टीम बनवा देंगे, वह झटपट खड़ी हो गई और उसने पापा से शिकायत की-‘मैं दीपक के साथ कभी टीम नहीं बनाऊँगी, इसने मुझे झूठा कहा था।’ इस पर कमरे में बैठे सभी हँस पड़े। वह सकपका गई। सोच में पड़ गई थी, उसने ऐसा क्या कह दिया जो सभी हँसने लगे।
तभी दीपक के पापा ने गंभीर होते हुए कहा- ‘अच्छा दीपक ने तुझे झूठा कहा है।’
दीपक ने त्वरित कहा,’पापा मेरी गलती है, मैंने इसे झूठा कहा। अफ़सोस है मुझे, पर मैं कारण भी बताना चाहता हूँ। इसने कहा कि यह नॉलेज के लिए कोई किताब नहीं पढ़ती, तब मेरे मुँह से निकला कि तुम झूठ बोलती हो।’
वह उसी समय बोल पड़ी थी,’हाँ, मैं नॉलेज की किताबें नहीं पड़ती, पर किताबें बहुत पढ़ती हूँ और हमारे घर में तो हर रोज़ शाम को दो से तीन घंटे की महफ़िल जमती है; जिसमें तरह-तरह के विषयों पर ख़ूब बहस होती है। कई बार बाहर के लोग भी आते हैं। मैं वहीं से बहुत कुछ जान पाई हूँ। मुझसे पूछते तो मैं बताती। तुमने तो पहले ही मुझे झूठा कह दिया।’ दीपक एकदम खड़ा हुआ। उसने झुक कर कहा,’ सॉरी मैंने तुम्हारी भावनाओं को चोट पहुँचाई फिर उसने कान पकड़ लिए।’ वह क्या कहती बस उसकी दीपक के साथ टीम बन गई।
अगले पलों की याद ने पूजा की हँसी निकलवा दी। सहेलियाँ उससे बहुत लड़ी थी, कहने लगीं- ‘वह सच में बेवकूफ़ है। टीम न बनाने के लिए कोई सॉलिड पॉइंट नहीं था उसके पास। बच्चों जैसी हरकत कर दी। उन्होंने सच में उसे डाँटा था। उसे ईश्वर ने दिमाग तो दिया है पर वह उसे सँभाल कर रखना चाहती है, खर्च करना ही नहीं चाहती। सँभाल कर रखना तिजोरी में। ढेर सारी नादानियाँ करती है और फिर अपने आप को अक्लमंद समझती है। एक नम्बर की झल्ली हो, अब भुगतो, हमारे पास मत रोना।’ इतना कुछ कह कर भी वे कई दिन उससे रूठी रहीं थी। बड़ी मुश्किल से उसने उन्हें मनाया था। अब उसके पास तो कोई विकल्प था नहीं। दीपक के साथ उसकी टीम बन गई।
प्रतियोगिताओं का दौर शुरू हुआ। कॉलेज का यात्रा, गतिविधियों और कार्यक्रमों का विभाग उनकी यात्रा के सारे इंतज़ाम कर देता। वह, दीपक और एक प्रोफ़ेसर के साथ प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए जाने लगी। पूरी यात्राओं में उसने एक बात महसूस की, दीपक एक परफ़ेक्ट जेंटलमैन था। सभ्य और सुसंस्कृत। उसकी छोटी-छोटी बात की ओर ध्यान देता। किसी की क्या मजाल थी कि कोई उसे कुछ कह जाता। उससे भी बढ़कर उसने पाया कि उसमें टीमवर्क की भावना बहुत मज़बूत थी। कभी किसी राउंड में वह कमज़ोर पड़ती तो वह उसे कुछ टिप्स देता और कई बार बहुत से पॉइंट जो उससे छूट जाते, समझा देता। वह अगले राउंड में सँभल जाती। और कभी वह कमज़ोर पड़ता किसी राउंड में तो पूजा उसे बहुत सी बातें बताती। इस तरह प्रिंसिपल साहब का कमरा ट्रॉफियों से भरने लगा। उनकी टीम इंटर कॉलेज, इंटर यूनिवर्सिटीज़ की सब ट्रॉफियाँ जीत लाई। कॉलेज में उनका बहुत सम्मान था। वे दोनों बहुत अच्छे मित्र बन गए थे। यात्रा में वे आपस में खूब बातें करते। बातों में ही उसे पता चला, इकोनॉमिक्स में एमए करने के बाद वह अब पॉलिटिकल साइंस में एमए कर रहा था और वह अपने पिताजी की तरह आई ए एस ऑफ़िसर बनना चाहता था। तभी उसने कहा था, ‘मैं जानता हूँ तुम पत्रकारिता में बहुत सक्रिय हो, टीवी, रेडियो और स्टेज की कलाकार हो, क्या इसी में आगे बढ़ना चाहती हो?’
‘पहले पीऍच.डी कर लूँ , फिर सोचूँगी।’
‘ठीक है जब तक तुम पीऍच.डी करोगी, मैं आई ए एस को पार चुका हूँगा। अगर कहीं ट्रेनिंग पर हुआ तो शहर छोड़ कर भाग मत जाना, इंतज़ार करना।’
उसने बहुत सादगी में कह दिया था, ‘अरे कहाँ जाऊँगी, यहीं रहूँगी। आई ए एस की परीक्षा पूरी करके, इंटरव्यू देकर, ट्रेनिंग लेकर आओ तो सही। बहुत बड़ी पार्टी दूँगी, सारे मित्रों को बुलाऊँगी। देखना सबके कॉलर खड़े होंगे, खासकर मेरे, आख़िर दोस्त किसके हो।’ उसने नाटकीय अंदाज़ में कहा था, वह खिलखिला कर हँस पड़ा था। मासूम सी याद पूजा के चेहरे को चमका गई।
यूथ फेस्टिवल का समय शुरू हो गया। वह नाटकों में भी हिस्सा लेती थी तो यूथ फेस्टिवल के लिए अक्सर शाम को नाटक की रिहर्सल में जाती। दीपक उसके घर आने-जाने लगा था, शाम की महफ़िल में ख़ूब हिस्सा लेता। उसके भाइयों का दोस्त बन गया था। वह घर पर नहीं होती थी, तब भी वह उसके घर आता। उसका परिवार प्रगतिशील विचारों वाला परिवार था। बहुत उदार मन का था; जिसको भी स्वीकारते दिल से स्वीकारते और वह व्यक्ति कभी भी घर आ-जा सकता था। किसका दोस्त है, कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह व्यक्ति सबका दोस्त बन जाता। सभी ने यह महसूस किया कि उसमें डिप्टी कमिश्नर का बेटा होने का कोई घमंड नहीं था। बातचीत करते हुए वह ज़मीनी प्राणी लगता। पहले पहल उसने दीपक के बारे में जो सोचा था, लगातार की यात्राओं और उसका उनके घर में आने-जाने से उसकी सोच में परिवर्तन आया, पूजा ने उसमें बहुत अंतर महसूस किया।
कॉलेज में उसकी एक मित्र बनी थी अर्चना शर्मा। जालंधर के बहुत बड़े बिज़नेसमैन की बेटी थी। वह दीपक के सरकारी बंगले के साथ वाली कोठी में रहती थी। अर्चना शर्मा का परिवार जालंधर में पड़ा मशहूर परिवार था। एक दिन उसने उसे कोहनी मारकर मज़ाक किया, ‘दीपक में बहुत एटीट्यूड होता था और उसकी बहनें बड़ी दबी-घुटी रहती थीं। अब तो उसकी बहनें बहुत खिली-खिली रहती हैं और दीपक का एटीट्यूट सारा हवा हो गया है। क्या सिखाया है तुमने उसे ?’ उसे उसकी बात समझ नहीं आई, वह उसकी शक्ल देखती रह गई थी।
बसंत का मौसम शुरू ही हुआ था। तीनों सहेलियों के दो पीरियड्स ख़ाली थे। इस कॉलेज में कोई शीश नहर तो नहीं थी पर तीनों सहेलियों ने एक प्ले ग्राउंड का ऐसा कोना ढूँढ लिया था, जहाँ बैठने का उन्हें वही आनंद आता था, जो शीश नहर दिया करती थी।
सुमन और सुलोचना उसे घेर कर बैठ गईं। उसे ख़तरे का अंदेशा हुआ; क्योंकि दोनों के चेहरे बहुत गंभीर थे। सुमन ने बात शुरू की,’क्या कल फगवाड़ा में तुम्हारी कोई भाषण प्रतियोगिता थी?’ उसने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।
सुलोचना बोली-‘भाषण प्रतियोगिता में तो तुम्हारा साथी अनिल शर्मा तुम्हारा छोटा भाई होता है। तो दीपक वहाँ क्या कर रहा था?’
‘मैं नहीं जानती।’ उसने बड़ी सादगी से कहा-‘मैं भी उसे वहाँ बैठे देख कर हैरान रह गई थी। जब हमने ट्रॉफी जीती तो एक मिनट के लिए वह हमारे पास आया और कहा -‘ट्रॉफ़ी तो तुमने जीत ली पर तैयारी अच्छी नहीं थी। मज़ा नहीं आया।’ कह कर वह चला गया।
उसने सुमन और सुलोचना की आँखों में देखा, कोई बात उन्हें तंग कर रही थी।
‘बोलो क्या परेशानी है?’ उसने उनकी आँखों में देखते हुए पूछा।
‘क्या तुम दीपक को पसंद करती हो?’ सुमन ने पूछा।
‘हाँ, एक दोस्त की तरह।’ सरलता से उसने जवाब दिया।
‘और कुछ नहीं।’ सुलोचना का सवाल था।
‘और कुछ भी नहीं, तुम दोनों ऐसा क्यों पूछ रही हो?’ उसे गुस्सा आ गया था।
‘इसलिए कि फगवाड़ा से कई स्टूडेंट्स यहाँ पढ़ने आते हैं और वे सब तुम्हारी भाषण प्रतियोगिता में थे। वहीं से बात बाहर आई है।’
पहली बार जीवन में वह गंभीर हुई थी। सोचने वाली बात थी।
घर जाकर, पापा और मम्मी को सारी बात बताई। पापा ने छूटते ही प्रश्न किया- ‘क्या तुम्हें दीपक पसंद है?’
‘हाँ, एक अच्छे दोस्त के रूप में और कुछ नहीं।’ उसका बड़ा स्पॉट-सा उत्तर था।
‘तब सोच मत, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो और यूथ फेस्टिवल की तैयारी कर।’ पापा ने पीठ थपथपा कर कहा। वह निश्चिन्त होकर अपने कामों में लग गई।
इसके बाद दीपक उसे कॉलेज में कभी दिखाई नहीं दिया। इससे पहले वे दोनों अपने-अपने विभाग में जाते हुए एक दूसरे को देख लेते। दोनों के विभाग आस-पास थे।
सुमन ने भी उसे इस ओर इंगित किया। दीपक उसका अच्छा दोस्त था। क्या हो गया उसको?
पूजा से रहा नहीं गया। उसने उसके घर पर फ़ोन किया। उस समय लैंडलाइन ही होती थी। उसकी छोटी बहन ने फ़ोन उठाया। वह उसकी आवाज़ और नाम सुन कर चहक उठी।
‘दीदी, जब से भैया आपके और आपके परिवार के संपर्क में आए हैं, हमारा तो जीवन बदल गया। हमारे दादा-दादी जी बहुत तंग ख़यालों के हैं। लड़के-लड़की में बेहद भेदभाव करते हैं और भैया में भी वह बात आ गई थी। पर अब भैया में ज़मीन आसमान का अंतर आ गया है। दो सालों में पूरे परिवार से झगड़ कर हमें हक़ दिलवाए हैं। भैया हमें बहुत प्यार करने लगे हैं। हमें एक नया भाई मिला है।’ तभी दीपक फ़ोन पर आ गया,’सॉरी, छुटकी बहुत बोलती है। कैसे फ़ोन किया।?’
‘तुम ठीक तो हो?’
‘हाँ, क्यों पूछ रही हो?’
‘तुम कॉलेज में दिखाई नहीं देते।’
‘एमए के साथ-साथ कंपीटीशन की तैयारी भी कर रहा हूँ, लाइब्रेरी में अधिक बैठने लगा हूँ। इसलिए कॉलेज में तुम मुझे नहीं देख पाती।’
‘फिर ठीक है, मैंने सोचा कहीं तबीयत तो नहीं बिगड़ गई।’
‘नहीं सब ठीक है।’
ओके बाय… कहते हुए उसने फ़ोन बंद कर दिया।
सब परीक्षाओं की तैयारी में जुट गए थे।
उस वर्ष यूथ फेस्टिवल आनंदपुर साहब में था। वह उसका नाटक देखने वहाँ आया। उसे उसमें गोल्ड मेडल मिला था। वह इतना ही कह पाया, ‘तुम बहुत प्रतिभाशाली हो। याद रखना हमने इकट्ठे पार्टी देनी है।’ वह हँस पड़ी थी, हाँ मुझे याद रहेगा और वह चला गया।
दीपक के पिताजी का तबादला हो गया। फिर किसी को उसका समाचार नहीं मिला। उसने भी किसी से कोई संपर्क नहीं रखा।
समय के पंछी ने अपनी उड़ान भरी। पत्रकारिता, टीवी, रेडियो और रंगमंच के नाटकों ने पूजा को बहुत शोहरत दी। वह बुलंदियों पर थी, जब उसके पापा ने एक लड़के से उसे मिलवाया। अमेरिका में रहने वाले डॉक्टर की सादगी ने सीधे उसके दिल में जगह बना ली। दो तीन मुलाकातों के बाद उसने शादी के लिए ‘हाँ’ कह दी। उसके आदर्शों, उसकी सोच, उसके जीवन मूल्यों के अनुरूप वह डॉक्टर उसे लगा। दस दिनों के अंदर शादी तय हो गई। बाहर से आए लड़कों के पास छुट्टी कम होती है। शादी दिल्ली में होनी तय हुई।
कार्ड छपवाने का भी समय नहीं था। सब दोस्तों मित्रों को सूचना देने का काम सौंपा गया।
सब मित्रगण दिल्ली पहूँच गए। दो कमरों में ठिकाना जमा लिया।
शादी से एक दिन पहले सुमन ने उसके कान में आकर कहा-‘दीपक आया है, तुमसे बात करना चाहता है। हमारे कमरे में आ जाओ। वह अपने पापा की तरह बन गया है।’
वह गई। उसके व्यक्तित्व का निखार ही अलग नज़र आ रहा था।
मित्र सारे दूसरे कमरे में चले गए।
दीपक को देखते ही उसने कहा -‘देखो, मैं दहेज और उपहारों के बिना, कन्यादान के बिना, दोनों परिवारों के सदस्यों और गिने-चुने मित्रों के साथ शादी करवा रही हूँ। तुम कहा करते थे,यह सब लड़की के हाथ में नहीं होता, परिवार और समाज के हाथ में होता है। दीपक फिर कहूँगी, परिवार हमारा होता है और समाज हमीं से बनता है। दोनों की सोच को बदलना भी हमारी ज़िम्मेदारी है। पर तुम्हें मेरी शादी का पता कैसे चला ?’
‘तुम्हारी पूरी खबर रख रहा था।’
‘क्या खबर रख रहे थे? दोस्ती क्या इस तरह निभाई जाती है? एक फ़ोन तक करना ज़रूरी नहीं समझा। तो फिर कैसा इंतज़ार!’
उसकी आँखों में पानी लहरा गया, ‘परिवार और समाज की सोच ही बदलने की कोशिश कर रहा था।’
‘क्या मतलब?’
‘कुछ नहीं, तुम नहीं समझोगी। कुछ बातें तुम्हारी पहुँच से परे हैं। बस इतना कहना चाहता हूँ, तुम मुझे जीवन के हर कदम पर याद आओगी, बहुत दूर जा रही हो। तुम जैसी लड़की मिलना मुश्किल है।’
‘दीपक, कमाल है यार, दोस्त से मैं लड़की हो गई!’
‘तुम्हारी सहेलियाँ तुम्हें ‘झल्ली’ सही में कहती हैं। दोस्त को मिस करूँगा, सही।’ उसने भन्ना कर कहा।
‘दीपक, चिढ़ते क्यों हों ? अरे हर साल मिलने आऊँगी, अगर बता दोगे कहाँ हो?’
वह बस मुस्करा दिया था…
‘पार्टी का वादा तो याद है या भूल गए।’ वह बस मुस्कराता रहा…और उस शाम दोनों ने दोस्तों को पार्टी दी , जिसमें सभी ने मिलकर गाना गाया था-
‘यम्मा यम्मा, यह खूबसूरत समां, बस आज की रात है ज़िंदगी ,कल हम कहाँ, तुम कहाँ…
पूरा समय उसकी ऑंखें भरी रहीं। वह यही सोचती रही, उससे दूर जाने से दुखी है; क्योंकि और मित्र भी रोए थे। सुमन और सुलोचना का तो रोना थमता ही नहीं था। वे उससे बहुत नाराज़ थीं कि इतनी दूर क्यों जा रही है । उसकी शादी के बाद सभी मित्र आपस में जुड़े रहे, सिर्फ उसने किसी से संबंध नहीं रखा।
पूजा की शादी के कुछ वर्षों बाद सुमन ने उसे बताया, कि शादी से पहले वह सुमन से सारी खोज खबर लेता था।
उसकी विदाई के बाद उसने सुमन से कहा,’जिस लड़की ने मुझे जीवन जीने का नया दृष्टिकोण और सोच दी। जिसके परिवार से मैंने रिश्तों को दोस्तों की तरह निभाना सीखा। महिलाओं को इंसान समझना और उसके घर से आज़ाद, उदार और खुली हवा ली, उस लड़की को भूलना बेहद मुश्किल है।’
‘अगर वह झल्ली है तो तुम भी कम नहीं। अपनी भावनाएँ उस तक पहुँचाई क्यों नहीं?’ सुमन ने उसे बड़े अधिकार से कहा था।
उदासी भरे स्वर में उसने कहा, ‘कमी कहीं मेरी भावनाओं में रही होगी, जो उस तक पहुँचीं नहीं। जहाँ जा रही है, वहाँ खुश रहेगी।’
‘पर एक बार कोशिश तो करते। ‘
‘सुमन, ईश्वर जो करता है, ठीक करता है। जिस रोशनी में उसने ऑंखें खोली हैं, वह मेरे घर तक अभी नहीं पहूँचीं। मना भी लेता तो उसे जीते जी मार देता।’ सुमन के कहे ये शब्द उसके कानों में गूँज गए। सुमन ने ही उसे बताया था कि दीपक की आँखों ने इतना खारा पानी बहाया कि सुमन को उसे सँभालना पड़ा।
सुमन की बात सुनकर अपने दोस्त के लिए ऑंखें उसकी भी नम हुई थीं। दिल को फिर से टटोला। पापा के पूछने पर कुछ महसूस नहीं किया था, और सुमन के बताने पर भी वहाँ शांति थी। पर दोस्त के दर्द का एहसास हो गया था उसे।
यम्मा…यम्मा, जब भी गाना वह सुनती है, दीपक की आँखों का पानी उसके सामने चमक जाता है।
भारत यात्रा के दौरान वह सब मित्रों को मिलती है, उसने और उसके किसी भी दोस्त ने उसकी शादी के बाद फिर दीपक को नहीं देखा, जैसे वह कहीं खो गया है… उसने तो उसे ढूँढ़ने की भी बहुत कोशिश की।
प्यार के भी तो भिन्न-भिन्न रंग और रूप के पुष्प होते हैं। अलग-अलग परिभाषा और अर्थ लिए, तरह-तरह से खिलते और महकते हैं। विभिन्न नज़रिए से देखे और परखे जाते हैं। वह नहीं समझ पाई दीपक के भीतर कौन-सा पुष्प खिला! शायद कोई नया और अपनी तरह का अलग और पहला…
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सुधा ओम धींगरा
उपन्यासकार, कहानीकार, कवि और संपादक हैं।
प्रकाशित कृतियाँ- दो उपन्यास, दस कहानी संग्रह, दो कविता संग्रह, एक निबंध संग्रह, बारह संपादित पुस्तकें। 150 पुस्तकों में साहित्यिक सहयोग। दो कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह पंजाबी में, एक कहानी संग्रह असामी में, एक मलयालम में अनूदित। भारत और विदेशों की तकरीबन 1000 पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ और आलेख प्रकाशित। साहित्य पर आठ आलोचना ग्रन्थ, छह शोध ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं।
सम्मान एवं पुरस्कार-केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा द्वारा 2014 का पद्मभूषण डॉ.मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार माननीय राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति भवन में दिया गया। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा 2013 का ‘हिन्दी विदेश प्रसार सम्मान’। स्पंदन संस्था, भोपाल की ओर से 2013 का स्पंदन प्रवासी कथा सम्मान, अन्य अनेकों पुरस्कार।
संप्रति: प्रमुख संपादक- ‘विभोम-स्वर’त्रैमासिक पत्रिका।
संरक्षक एवं सलाहकार संपादक-‘शिवना साहित्यिकी’।
ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन की उपाध्यक्ष और सचिव हैं।
संपर्क:101Guymon Ct. Morriisville, NC-27560, USA
ईमेल:SudhaDrishti@gmail.com
मोबाइल: 919-801-0672

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