कहानी समकालीनः माया-शैल अग्रवाल

मिथ्या है यह जग । बस, माया है और ‘माया महा ठगनी हम जानी’- संत कह तो गए, पर उसने कब सुनी-समझी हैं ये बातें ! सुनी भी हों तो, पचा कब पाई हैं-‘ जाने कैसे तज देते हैं लोग घर-बार और बसी-बसाई दुनिया? उसके सीने में तो हूक-सी उठने लगती है, दूर होते ही! वैराग लेना या वैरागी होना भी तो आसान नहीं, चाहे आदमी पच्चीस का हो या पचहत्तर का! फिर जीवन नहीं, पलायन है यह तो…शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुँह छुपाकर बैठ जाने जैसा।’

थिर नहीं था चित्त । कृपण साहूकार-सा बेवजह ही जाने क्या-क्या अगला-पिछला नाप-तौल रहा था। विचार चंचल तितली से भटका रहे थे ।

‘माया मोहती है। भटकाती और बांधती है, जोड़ती और तोड़ती है। सब बात मानी, पर इसके बिना कहीं कुछ शेष भी तो नहीं रह जाता। न प्रेरणा न कोई उत्साह। न कोई सुख-दुख, न आंसू या मुस्कान। रचयिता ने सृष्टि ही इसी माया से उत्पन्न की है। माया साथ चलती है…चाहे शिव और पार्वती हों, सीता और राम हों…कौन है इसके बिना… बात मृत्यु नहीं, जीवन की ही तो है सारी। खुली आँख तो संसार, बन्द तो बस अंधकार ही अंधकार!’

माया एक स्त्री थी और औरतें कुछ ज़्यादा ही पड़ जाती हैं इस मोह-माया में । कुछ भी कर सकती है ये घर-परिवार के लिए। भूलना भी आसान नहीं, और तज पाना तो और भी मुश्किल इनके लिए।

‘कहां जा पाती हैं छोड़कर। आँखों की राह से मन की बस्ती में जो उतरा, वहीं का तो होकर रह गया ।’

भरपूर जीवन से प्यार था माया को। और जी भरकर जीती भी थी अपनों के साथ, फिर इस खल-नायिका मौत को कैसे स्वीकारती…चैन से सोती सहेली पर दो मुठ्ठी धूल डालकर जब से लौटी है, बहुत उद्विग्न है माया।

‘जीने के लिए पैदा करके यह मौत की तलवार क्यों सटका दी भगवान ने पहली साँस के साथ ही? पर्दा गिरते ही तो वैसे भी सब खतम है ही! खुली आँख तो संसार, वरना तो अंधकार ही अंधकार!…निर्मम वैराग ही तो है यह मौत भी, न सुख की खबर और ना ही दुख की। ना अपनी सुध और ना ही अपनों की ही। ज़रूर वही-वही यब कुछ देखकर ऊब न जाए, इसीलिए भगवान ने यह जीने-मरने का खेल रचा होगा! खिलौने बदलने की ज़रूरत तो बच्चों को भी पडती ही है !’

एक नटखट मुस्कान तैर गई भिंचे होठों पर। पर वह नहीं जान पाई कि असली खलनायक कौन है-मौत या फिर ख़ुद भगवान, जिसने यह सारा जाल बुना!

माया नाम था और पूरी तरह से मोह-माया में ही तो डूबी रह जाती थी, माया। घर परिवार ही नहीं, अड़ोस-पड़ोस और यार-मित्रों के लिए भी सदैव ही तत्पर और तैयार। प्यार जो था सबसे…जिन्दगी की बगिया के सारे फूल…संग चुभते कांटों तक से।

सब कुछ ही सँवारना और सहेजना चाहती थी वह। जी भरकर महसूस करना चाहती थी फलते-फूलते बाग-बगीचे को भी और झरते वीरानों को भी।

‘पगली’ कहते थे संगी-साथी।

‘ उदासी से कौन प्यार करता है?’ कोई पूछता तो हँसकर कहती.

‘ ख़ुशियों की तरह उदासी का भी तो एक अलग ही मोहक रंग होता है। राग-रागनियाँ हैं ये भी इस जीवन की। बस, साधना आना चाहिए हमें। एक ही तो जिन्दगी मिलती है, आधी-अधूरी क्यों जिएँ!…बस एक नियम ध्यान रहे कि इस मनमानी में किसी का मन न दुखे।’

पर यह भी तो आसान नहीं था। माया ने यह गुर भी बड़े होकर ही जाना-जिन्दगी इतना वक्त नहीं देती कि सारा भला-बुरा ठीक से सोच या सीख तक पाए कोई। कभी फूलों को सहलाते-सहलाते काँटे भी तो चुभ ही जाते हैं।’

अब कैथरीन को ही ले लो, माया की पड़ोसन, कितनी आराम से चल रही थी उसकी जिन्दगी…सदा मुस्कुराती गुलाब के फूल-सी महकती, खूबसूरत और समझदार कैथरीन और अचानक ही…

कैथरीन की याद आते ही एक चमक थी माया की आँखों में, पानी-सी बहती सहज और तरल कैथरीन, स्वभाव से भी और आत्मा से भी, आसपास का सब सोखती, सब सींचती, अपनी परवाह न करती एक आम माँ और गृहिणी कैथरीन, बिल्कुल उसके जैसी ही जिज्ञासु ।

फिर मित्रता कब ख़ास और आम की पड़ताल करती है! और एक औरत कब अपने बारे में इतना सोचती या सोच पाती है! कई देखी हैं माया ने ज़िन्दगी के गोरख-धंधे में दिन-रात ही मकड़ी-सी उलटी लटकी पड़ी। माँ और दादी…काफ़ी हद तक वह खुद भी तो… एक माँ और पत्नी तो चाहे भारत की हो या फिर विदेश की, कोई फर्क नहीं होता इनके स्वभाव में, व्यवहार में…दर्पण में देखते -देखते , परछांइयों को परखते-परखते, इनसे परे देखना आ जाता हैं इन्हें। मान लेती हैं कि मोहब्बत की हिना का रंग भले ही फीका पड़ जाए, निशान तो रह ही जाते हैं।

कितने रूप भी तो हैं इस जिन्दगी के लुभाने और भरमाने को । कहीं फूलों के रूप में हजार रंग लिए लहकती है, तो कहीं झरने और नदियों-सी कल-कल बहती दिखती है। पर सावन के अंधे-सा चारों तरफ़ हरा ही हरा नहीं रहता हमेशा। मरु-सी सूखकर पसरते भी तो देर नहीं लगती इसे। जाने कितनी नदियों-सी खिलखिलाती औरतों को रेत का ढेर होते देखा है उसने। पर यही तो असली माया है । पलपल रूप बदलती।…हाड़-मांस की देह के भीतर हर दिन सूखता-मरता कंकाल जिन्दगी…फिर भी प्रकृति-सी भोली-भाली, स्वार्थ हीन, निरंतर और नियमित, जैसे बदलती ऋतुएँ , जैसे आती-जाती श्वास।

काश् उसे भी इतनी ही सहजता से जीना और सब स्वीकारना आ जाता…ये सारे दाव-पेंच भी तो हम खुद ही डालते हैं अपने और बेगाने बनाने और ढूंढने में । फिर ऊपरवाले को क्या दोष देना?’…

माया एक बार फिर अपने ही खयालों में पूरी तरह से उलझ चुकी थी-‘ कहीं यह भी इस माया नाम का ही तो असर नहीं, जो वह इतना सोचती है। उपयुक्त नही यह नाम उसके लिए । कितने गुर हैं माया के पास और कितने दाव पेंच भी। और वह खुद कितनी निरीह और बेचारी-सी, बात-बात पर उदास हो जाने वाली , बात-बात पर रोने बैठ जाने वाली।
जो आया है, जाएगा ही। हरेक के लिए यूँ उदास होकर जी पाना असंभव ही समझो । जाने क्यों बेकार में रख दिया गया माया नाम, उसे तो अपने आंसू और हंसी तक रोकने नहीं आते। माया तो बादलों सा पल-पल नया रंग और रूप लेकर तितलियों-सी उड़ती फिरती है, सुबह-शाम नए-नए अंदाज की रंग-बिरंगी चूनर ओढ़े दुल्हन-सी सज आती है। सलमा-सितारे नहीं, असंख्य झिलमिल सितारों से लप-दप चंदा व सूरज की टिकुली लगए। चाहे कितने भी रोज़ मर रहे हों कजरारी आँखों में शोक नहीं।…स्वर्ग-नरक की तो सोचना ही क्या, चाहे कितने भी बिलखते रह जायें! निर्मम वैराग सिद्ध कर रखा है इसने भी पत्थर की है माया। ईश्वर होना भी तो बस पत्थर होना ही होता है!’

तुरंत हाथ जोड़ दिए माया ने ख़ुद अपनी ही निर्मम सोच के आगे।

कितनी सुंदर , कितनी अलबेली है पर उसकी बनाई यह दुनिया और इसकी मोहक सतरंगी माया। बचपन से ही तो मोहती आई हैं यह माया को।

‘ जब मैं बड़ी हो जाऊंगी तो पूरी दुनिया की सैर करूँगी।‘ नन्ही माया चिड़ियों-सी चहका करती थी तब भी।

‘इतने रंग, इतनी खुशबू जब यहाँ हमारे अपने बगीचे में हैं तो पूरी दुनिया में तो जाने क्या-क्या होगा! जाने कितने अजूबे होंगे!’- कौतूहल और विस्मय समेटे न सिमटते-‘ सब देखूँगी मैं।’ क्या पता था तब कि इस सब’ का विस्तार तो किसी की बाँहों में नहीं समाया। उड़ान आकाश को तो बाँहों में ले लेती है, पर जमीन से, अपनों से दूर भी ले जा सकती है।

ज़िद्दी और जिज्ञासु मन व आँखें नित नया अनुभव करती रहीं। खोजती, जीती और सीखती रहीं सब।

सिलसिला बचपन से ही जारी था यह हर दृश्य में डूबती माया के लिए।

‘सुबह आधे लॉन पर धूप थी और आधे पर बारिश हो रही थी। क्या आपने भी देखा था ? ‘
‘ देखा है सब देखा है।‘. माली काका गुड़ाई का काम रोककर हँसने लग जाते- ‘कहीं धूप कहीं छाया, अजब तेरी माया। प्रभु की माया है सारी।‘

‘यह प्रभु कौन ?’

‘जिसने यह पूरा संसार रचा है।’

‘ आप और मैं भी..! ‘

‘हाँ मेरी लाडो। तू तो जरूर ही, तभी तो नन्ही-सी होकर भी इतनी बड़ी-बड़ी बातें करती है और उतनी ही मोहिनी भी है । माया नाम मिला तुझे। हर चीज जो मोहती है, वह माया ही तो है।‘

‘मतलब…?’

यह प्रभु से पहला साक्षात्कार था माया का। फिर तो प्रभु सारी समस्याओं और सवालों का पिटारा बन गया था माया के लिए…और आधा-अधूरा समाधान भी।

छटपटा कर माली काका की गोदी से नीचे उतर गई थी। इतनी भी छोटी नहीं थी कि कुछ समझ में न आए… अन्य सभी बच्चे की तरह ही माया को भी अपना यह रहस्यमय अर्थों वाला नाम पहली बार अखरा था तब।

‘कौन थी माया, अच्छी थी या बुरी? बताओ न काका।’

‘आज नहीं मेरी लाडो, कल इतवार को फुरसत से सब बताउँगा। पूरी विष्णुप्रिया की कहानी सुनाऊँगा।‘

‘ यह विष्णुप्रिया कौन ? उनकी नहीं सुननी, बस माया की।‘

कमर पर दोनों हाथ रखकर पैर पटकती माया रूठ चुकी थी- ‘बस माया की कहानी, काका। दूसरी कोई और कहानी नहीं, प्रौमिस।‘

‘हाँ-हाँ। माया की कहानी…एक ही बात हैं वैसे दोनों।‘

‘एक ही बात’…माया के लिए रहस्य और गहराता चला गया।

हताश् माया चुपचाप बस्ता उठा ड्राइवर के साथ स्कूल चली गई ची- शायद टीचर ही बेहतर समझा पाए इन बातों को!

पर वहाँ तो वही अ से आम और क से कबूतर ही थे, जिन्हें सुन-सुनकर वह खीज चुकी थी। उसे तो माया के बारे में जानना था अब। विष्णु-प्रिया और माया में क्या संबंध था, समझना था। माया और जीवन का क्या संबंध है जानना था। शायद बड़ी हो तब समझ में आए।

इससे तो स्वीटी पिंकी मुनमुन या चुनमुन नाम ही ठीक रहता। कम-से-कम लोग कहानियाँ तो न सुनाने लग जाते। पर कहानियों से कौन बच पाया है…बड़ी होकर ही जान पाई थी माया। साथ में यह भी कि समझ भी तो ज़िन्दगी की तरह ही होती है। जितना भी सुलझाओ और-और उलझती ही चली जाती है।

समुद्र मंथन और लक्ष्मी का जन्म, विष्णु संग क्षीरसागर में रहना। नारद का मोहभंग सब सुनकर भी कुछ नहीं सुलझा। दादी के रामायण की सीता भी राम और लक्ष्मण के बीच माया सी ही चलती रही। न थमी, ना रुकी। अंत में रामायण के खतम होते ही अंतर्ध्यान हो गई, बस। जैसे कि कल कैथरीन भी।

पर इतना आसान भी तो नहीं, इस जिंदगी को समझ पाना। मन-माफिक जी पाना। देखते-देखते, सवाल बदले । माया खुद भी बदली पर पूरी तरह से समझ में आए ऐसे उत्तर नहीं ही मिले उसे। जिन्दगी ने खूब दुलार किया, तो चकर-घिन्नी की तरह नचाया भी। और वह भी अकेले-अकेले ही खुद में ही उलझी-सुलझी माया को ।
कुछ सवाल सुलझे भी तो कुछ उलझे ही रह गए।

पर माया तो ठहरी माया… सात समंदर पार भी अपना एक मोहक संसार रचा ही लिया उसने।

अब सब उसके थे और वह सबकी। पर बाहर का दरवाजा बन्द करते ही बिल्कुल अकेली। किसी की भी नहीं। फिर भी कोशिश पूरी जारी ही रहती उसकी। माँ की याद आती बगल के घर में रहती मैरी की हँसी उसे बिल्कुल माँ की तरह ही लगने लग जाती और वह तुरंत जाकर उसके हालचाल ले आती।

कुछ पल के लिए तो दोनों का ही मन हल्का हो जाता था। पर मुश्किल से मुश्किल वक्त में भी किसी से मदद मांगना या लेना न सीख पाई थी खुद में सिकुडी- सिमटी माया।

अब तो चार पांच दशक बीत गए सात समंदर पार यूँ ही अजनबियों के बीच रहते हुए। बीरबल की खिचड़ी की तरह उसकी भी खिचड़ी पकी तो, पर बस दूर से ही …कोई मुस्कुरा भर देता तो अपना लगने लग जाता, बात कर लेता तो जी-जान न्योछावर करने को तैयार हो जाती ।

ऐसे ही पहचान हुई थी सामने वाली कैथरीन से भी। दिन में चार-पांच बार तो दिख ही जाती थी । जब भी दरवाजा खोलती , तभी। चिठ्ठियाँ उठाते हुए, ड्राइव साफ करते हुए, घर से बाहर आते-जाते।

हंसमुख इतनी कि देखते ही मुस्कराने लग जाती। कभी-कभी तो हाथ हिलाकर अभिवादन भी कर देती। और तब वह भी मुस्कुरा देती। उसी गर्मजोशी से वापस हाथ उठाकर वेब भी कर देती थी। फिर तो- कैसे हैं आप, और मौसम कितना ठंड़ा है- जैसी औपचारिक बातें भी होने लगी थीं उन दोनों के बीच। एक दिन जब उसने कौफी पर बुलाया तो पति-पत्नी तुरंत आ भी गए, मानो इँतजार ही कर रहे थे आमंत्रण का । यही नहीं , उसे भी वापस बुलाया उन्होंने। वरना कम ही अंग्रेज बुलाते हैं वापस । बगीचे और घर का एक-एक कोना घुमाया था उसे , जैसे कोई अपने मेहमान को अपने लाड़ली औलाद से मिलवाता है। प्यार और लगन से सजाया-सँवारा था दंपत्ति ने अपने घरौंदे को।

बगीचा तो वाक़ई में बेहद सुंदर था। रंग-बिरंगे फूल अपनी सारी गंध और रूप लिए उसकी आत्मा तक को तरोताजा कर गए थे, बिल्कुल कैथरीन की आत्मीय मुस्कान की तरह ही।

तुम्हें अगर कोई पसंद आ जाए तो कटिंग माँग लेना। देर नहीं लगती इन्हें उगने और फलने-फूलने में। चलते वक़्त माइक ने कहा था।

देर तो उसे और कैथरीन को मित्र होने में भी नहीं लगी थी। इधर-उधर की बातें भी होने लगी थीं उनके बीच, जैसे कि बचपन की सहेलियों से होती थी…निश्छल और साफ।

बातों-बातों में ही एक दिन कैथरीन ने बताया कि माइक उससे पन्द्रह साल बड़ा है, उसका शिक्षक था यूनी में। वहीं पढ़ते समय ही दिल दे बैठी थी. पर शादी पढ़ाई पूरी करने के बाद ही की थी। और माइक ने भी इंतजार किया था उसका। इसी सच्चे समर्पण के भाव और निष्ठा से ही आजतक मुरीद है वह अपने पति की। एक सच्ची ईमानदारी और लगन है उसके स्वभाव में। सच्चा प्यार था हमारा। आज भी है।

फिर उसने पूछा था कि वह कैसे मिली थी अपने पति से? और जब माया ने बताया कि अभिभावकों ने ही चुना था उसका जीवन साथी, उसने नहीं। तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं था कैथरीन का…मुँह खुला-का-खुला ही रह गया था’ क्या बिना प्यार के ही,’ पूछे बिना न रह सकी थी कैथरीन।

‘हाँ, यही रिवाज है हमारे यहाँ। प्यार भी हो ही जाता है, जब साथ रहो तो। प्यार का एक नाम कर्तव्य और परवाह भी तो है। पति से ही नहीं, उसके पूरे परिवार और परिवेश से भी।‘

चुप थी फिर माया। मंत्रमुग्ध-सी सुनती ही रही थी। कहानी किस्सों में पढ़ी-सुनी वे सच्चे प्यार की बातें आधी समझ में आई थीं और आधी नहीं भी।

फिर एक दिन अचानक ही कैथरीन ने बताया कि कैंसर है उसे, बिल्कुल उसी सहजता से जैसे अपने और माइक के संबंधों के बारे में बताया था। शायद अपना मानने लगी थी । पर कुछ दिन बाद जब बाँया स्तन कटवाकर आई तो बहुत अजनबी , बेहद नाजुक और झरते फूल-सी लगी थी सहेली उसे। डरी थी माया बगल में बैठने तक से, ‘कहीँ तकलीफ न बढ़ जाए…कैसे राहत दे , क्या सेवा करे?’ नहीं जानती थी वह।

आदतन बस सेव की फांकें काट-काटकर चुपचाप उसे देती रही थी। घटों दोनों ही कुछ नहीं बोली थीं। हाँ, दोनों ने ही कई बार अपनी सूखी आँखें पोंछी ज़रूर थीं।

धीरे-धीरे फिर सब सामान्य और सहज होता चला गया था। चार-पाँच साल कैसे निकल गए पता ही नहीं चला दोनों को। माया को लगा सहेली के सिर पर मंडरा रहे संकट के बादल टल गए हैं। कुछ-कुछ निश्चित हो चली थीं दोनों। साथ बैठकर हंसने-मुस्कुराने भी लगी थीं।

तभी अचानक एकदिन फोन की घंटी फिर बजी, डरावनी और कर्कश बेचैनी के साथ ।

उठाया तो , ‘ आन्टी मैं जैना हूँ। जैनिफर, कैथरीन की बेटी। मम्मी की तबियत बहुत खराब है। कुछ भी नहीं पच रहा। कैंसर पूरे पेट में फैल चुका है। सादा चावल बिना मसाले के खाना चाहती हैं। जो पच जाएँ और स्वाद भी आए। मैंने सुबह से तीन बार बनाए और फेंके हैं। क्या आप मेरी मदद कर सकती हो, प्लीज ।‘

सुन्न थी वह। यह कैसे, इतनी बीमार तो नहीं लगी कभी। कल ही तो कितनी देर बात की थी। वैसे ही हमेशा की तरह ही हँस-हँसकर।

माया तुरंत चौके में गई और एक कटोरी बासमती चावल साफ करके भीगने को ऱख दिए। बीस मिनट में पक कर तैयार भी हो गए। फिर बस थोड़ी -सी इलायची और केसर मक्खन के साथ मिला दी उसने, वैसे ही और उतने ही प्यार से, जैसे बचपन में माँ उसके लिए बनाया करती थीं, जब वह बीमार होती थी और भूख रूठ जाती थी । मीठा नमकीन कुछ नहीं अच्छा लगता था ।

महकते-गमकते स्वादिष्ट चावल लेकर पहुँची तो मानो कैथरीन की सारी रूठी भूख लौट आई। मन से खाया उसने चावल का आखिरी दाना तक। चाहकर भी दो-तीन हफ्ते तक, हफ़्ते में एक-दो बार ही बनाकर ही ले जा पाई थी वह। बोझ नहीं डालना चाहती थी कैथरीन के संकोची मन पर। संकोच-वश कैथरीन ना-नुकुर करती, तो संभाल लेती ।

खा लेती थी कैथरीन माया के हाथ के बने चावल पूरे मन और स्वाद से। माया को भी अच्छा लगता था कि थोड़ा ही सही, कुछ तो कर पा रही है, चैन दे पा रही है बीमार सहेली को। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि पच रहे थे चावल उसे।

जैना और माया दोनों गद्गद हो जातीं कैथरीन को खाने के बाद चैन से सोता देख कर।

मोहल्ला अब वाकई में उसे अपना लगने लगा था, जहाँ वह अपनों के काम आ सकती थी। बे रोकटोक आ और जा सकती थी।

कहते हैं ख़ुशी भी तो लक्ष्मी-सी ही होती है। एक जगह ज़्यादा नहीं ठहरती।

एक दिन फिर सुबह-सुबह ही कैथरीन का फोन आ गया।

‘ माया, क्या तुम तुरंत पाँच मिनट को मुझसे मिलने आ सकती हो?’

‘हाँ-हाँ क्यों नहीं। बताओ तो सही, क्या बात है? कोई मदद चाहिए क्या !’

सुनते ही कैथरीन हँस पड़ी।

‘ हाँ अब तो मदद ही मदद चाहिए। आओ तो सब बताती हूँ। ‘

हँसी के पीछे का दर्द पिघले शीशे-सा लगा माया को – हर शब्द फफोलता चला गया।

डरी-सहमी पहुँची तो कैथरीन स्वस्थ और संयत ही दिखी उसे, जैसी हमेशा दिखती थी। कोई न बताए तो पता ही न चले कि कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी है इसे।

अचानक माया को चमकीले कंधारी अनार याद आ गए जो देखने में तो कई बार बड़े चमकीले और सुंदर दिखते थे, पर अंदर-ही-अंदर पूरी तरह से कीड़ों केखाए और खोखले। बाहर से देखकर ही तो नहीं बताए और जाने जाते ये सारे सुख- दुख !

सोच में डूबी माया की तंद्रा भी तब कैथरीन के गरम कौफी के खनकते प्यालों ने ही तोड़ी थी। कब उठकर कौफी बना लाई, माया को पता ही नहीं चला।

और यही तो खासियत थी कैथरीन की। चुप-चुप , बिना किसी दिखावे या शोर-शराबे के अपनी जिम्मेदारियों को निभाती थी।

‘क्या सोच रही हो?’ कैथरीन अब उसकी तरफ़ देख रही थी एक उदास मुस्कराहट के साथ।

‘ मैने अपनी वसीयत लिखी है। तुम्हें इस पर चश्मदीद गवाह की तरह दस्तक करने हैं। ऐतराज तो नहीं? आज रात ही हौस्पिस में रहने जा रही हूँ। आज अंतिम विदा भी ले रही हूँ तुमसे और धन्यवाद भी देना चाहती हूँ। इतना ही साथ था हमारा। अब ज्यादा वक्त नहीं है मेरे पास । ज़रूरी सारे काम निपटा लेना चाहती हूँ। जितने याद आए, उतनी व्यवस्था कर दी है मैंने माइक और जैना के लिए।उम्मीद है मेरे जाने के बाद इतनी तकलीफ़ नहीं होगी इन्हें।‘

माया स्तब्ध थी- ‘ऐसे कैसे जा सकती है यह…अपरिचितों की भीड़ में जैसे-तैसे तो कोई अपना मिला था उसे!’

तसल्ली भी तब कैथरीन ने ही दी थी उसे।

गले लगाकर बोली थी , ‘ एक काम और सौंपना चाहती हूँ तुम्हें। बहुत लापरवाह हैं दोनों। बीच-बीच में देखती रहना कि दोनों एक दूसरे का ध्यान रख रहे हैं और ठीक हैं। पता नहीं ऊपर से यह सब देखने की सुविधा है भी या नहीं!’ उसकी हंसी रोने से भी बदतर लगी थी माया को।

और तब रुँधे गले से इतना ही कह पाई थी माया, ‘ जरूर। वादा करती हूँ कैथरीन तुम जबतक लौटोगी नहीं, मैं ध्यान रखूंगी इन दोनों का ।‘

पर अगली सुबह ही जब कैथरीन का हालचाल लेने के लिए , उसे चीयर अप करने को माया ने फोन किया , तो नर्स ने बताया कि कैथरीन अब इस दुनिया में नहीं रही। अभी दस मिनट पहले ही बहुत शांति के साथ, सोते हुए ही कैथरीन ने इस दुनिया से विदा ले ली है।

माया स्तब्ध थी । माया उदास थी। माया जानती थी कि विदा तो उसने कल ही ले ली थी जब अपने घर से हौस्पिस जाने के लिए सामान बांधा था।

पर इतनी भी क्या जल्दी थी कैथरीन? क्या ऐसे भी कोई इतना चुपचाप, आख़िरी पल तक अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए जाता है, जैसे राम लखन के साथ सीता चल पड़ी थीं नंगे पैर ही! …

‘पर सच्ची लगन ही तो असली ताकत थी कैथरीन की।’ ठंडी सांस सब कह गई।

पता नहीं माया का सिर भगवान के आगे श्रद्धा से नत हुआ था या अपनी बहादुर सहेली के आगे… आखिरी सांस तक लड़ी थी कैथरीन अपनों के लिए अपनी असाध्य बीमारी से।

रिसीवर ऱखते ही बार-बार ठंडे पानी से मुँह धो डाला था माया ने, पर बेचैनी एक क़तरा कम नहीं हुई थी।

जरा तटस्थ होते ही, जाने कैसा नया भ्रम या मायाजाल था अब आँखों के आगे- सामने शीशे में कैथरीन खड़ी मुस्कुरा रही थी। अविश्वास में सिर झटका तो, हाँ कैथरीन ही तो थी सामने शीशे में। वैसे ही प्यार-भरी आँखों से उसकी तरफ़ देखती, उसे तसल्ली देती,

‘ कहीं नहीं जाते हम। मौत में इतनी ताकत नहीं, जो अपनों से अलग कर सके!खेल ही तो है जीवन-मरण, इच्छाओं का खेल। रेल की पटरियों सी समानान्तर चलती हैं मौत और जिन्दगी, जैसे ईश्वर और संसार के बीच परछांई-सी चलती आधी-अधूरी हमारी इच्छाएँ।‘…


शैल अग्रवाल

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