रागरंगः ग़ज़ल की दस्तक-शैल अग्रवाल

गीत और ग़ज़ल का फरक बस गुल और फूल तक ही सीमित नहीं,अपनी-अपनी पहचान और अपना-अपना मिज़ाज है दोनों का जैसे कि नदी और झरना, जबकि दोनों ही पानी हैं और दोनों ही का स्वभाव बहना और बहाना है। हिन्दी और उर्दू दोनों ही हमारी कौम की दो भाषाएँ हैं और सदियों से दोनों ही जुबां सांझी धरोहर रही हैं और विभाजन के साठ साल बाद भी,दोनों देशों की बोलचाल की भाषा आज भी गंगा-जमनी ही है, पर दोनों की ही पकड़, नफ़ासत और नज़ाकत अपनी-अपनी है!

कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक भारत के हर प्रान्तीय भाषा-भाषियों ने ग़ज़ल गायकी को अपनी जुबां और पहचान दी है। सरहद के दूसरी ओर भी यही हाल है। आज भी लाहौर, पेशावर या ढाका, या फिर कलकत्ता मुम्बई, दिल्ली, सभी जगह एक-से-एक उम्दा गायक सुर और सोज़ की साधना में तल्लीन हैं और गीत और ग़ज़ल की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गालिब और मीर के सुरों में गूंजते हैं ।

कहीं पढ़ा था कि गजल का शाब्दिक अर्थ है प्रिय से मन की बात कहना। शायद यही वज़ह है कि- जैसे बातों का (वह भी प्रिय से) अंत नहीं, वैसे ही गीत और ग़ज़ल के विषय भी विविध और अनंत रहे हैं। बेबाक मन जो अल्हड़ बच्चे सा खेलता है, आसानी से बहलता भी तो नहीं; हां, दुःख और सुख से बिंधी बांसुरी-सा हल्की सी फूंक पर भी गूँज उठना जरूर स्वभाव है इसका। तो क्या हम यह मान लें कि ये सुख-दुख या विविध अनुभव ही सृजन की प्रेरणा बनते हैं।

‘ वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान
उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।’

-सुमित्रानन्दन पंत

मुस्कान और आंसू ही नहीं, भावातिरेक में शब्द भी तो झरते हैं आंखों से… होठों से। भारतीय जन-जीवन में तो वैसे भी गीत-संगीत ताने-बाने-सा ही बुना है। शादी-ब्याह, जन्म, मत्यु, दुःख-सुख; सच कहूँ तो आज भी हर अवसर पर गीत-संगीत ही सामाजिक अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सरल, सशक्त और प्रिय माध्यम है। प्यार, नफरत सब समेटे ये गीत और ग़ज़ल कभी जाने-अनजाने की आस …तो कभी मनचाहे की तलाश हैं। एक अबूझ प्यास, तो कभी एक उलझी भटकन हैं। चुटकी ले-लेकर हँसाती-रुलाती भावों की इस सुरीली छेड़छाड़ को कुछ और ज्यादा ही शह दी है पिछले सात दशक से दिन-प्रति- दिन और-और प्रचलित होते और हरेक के सर चढ़कर बोलते फिल्मी गीतों ने। पिछले साठ सालों में एक-से-एक अच्छे गीतकार और गजलकारों का नाम जुड़ा है इनसे और ये इन्हें एक दूसरे ही धरातल पर ले गए हैं। सफर जो कभी शैलेन्द्र, गोपालसिंह नेपाली, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी और हसरत जयपुरी आदि से शुरु हुआ था, आज इसमें नीरज, अनजान, कतील शफाई, नासिर, गुलज़ार, जावेद अख्तर जैसे कई-कई बेहद संवेदनशील और काबिल नाम जुड़ गये हैं और जगजीत सिंह, अनूप जलोटा, तलत अजीज, चंदन दास, भूपेन्द्र, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, मुन्नी बेगम, बेगम अख्तर, नूरजहां, तलत महमूद, मुकेश, लता, (आशा भोंसले) कविता कृष्णमूर्ति, सोनू निगम, अलका यागनिक, शान जैसी मधुर और सोजभरी और सुरीली आवाजों ने इनके असर और लोकप्रियता में चार चांद लगाए हैं(नामों की फहरिश्त वक्त के साथ लम्बी ही होती जा रही है)।

इसी लोकप्रियता का असर है कि आज यह काव्य-रस घर-घर स्वर लहरियों के संग बह रहा है…बच्चे-बूढ़े सभी के दिलो-दिमाग पर हावी है। काफी लचर सामग्री भी परोसी जाती है, पर अपवाद कहां नहीं होते?

सूर, तुलसी, कबीर के साथ जब नरेन्द्र शर्मा और प्रदीप भी घर घर गूंजे तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इन स्वर लहरियों के साथ साहित्य जन-जीवन में भी रच-बस गया और सुबह की किरणें, किरणें नहीं ‘ज्योति कलश’ बन गयीं। रोटी की जोड़-तोड़ में जो मीर और गालिब का नाम तक नहीं जान पाए थे उन्हें भी सुरैया और तलत ने ‘ दिले नादां ‘ से परिचित कराया और इन गीत और ग़ज़लों की लोकप्रियता बताती है कि पल भर को ही सही, गरीब-से-गरीब का जीवन भी आज एक गीतों भरी कहानी है… यथार्थ की कठोरता इनके दम पर मिटी भले ही न हो, कम-से-कम कम अवश्य हुई है।

कब हम बचपन से यौवन और यौवन से बुढ़ापे की तरफ चल पड़ते हैं और कब अपने आप से भी बेगाने से होने लगते हैं, सूखे पत्ते सा उड़ता… यथार्थ की जमीं और सपनों के आकाश की दुर्लभ दूरियां नापता यह जीवन, इन बातों का लेखा-जोखा तक रखने की फुरसत नहीं देता। और तब बेबस और ‘ नुक्तांचीं गमे दिल’ ही तो है जो कभी बात न कह पाने के गम में तो कभी ‘बात बनाए न बने’ की उलझन में डूबा, न जाने कैसे-कैसे करतब दिखलाता है। कितना-कितना हंसाता और रुलाता है। और यहीं से शुरु होता है हमारा शब्द और भावों में रचा बसा एक कल्पना का संसार… गीत-संगीत का साथ।

पर यह जूझ… यह भटकन, यह मज़बूरी ही तो इश्क या शग़ल है…जीवन है!

हज़ार ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान मगर कम निकले ।

आज भी तो हाँ पर ना और ना पर हाँ ही तो इस मन का स्वभाव है।

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और

-शौकत जयपुरी

और ‘उम्रे दराज़’ से उधार मांग कर लाए गये ये पल, दिन, महीने, साल…देखते-देखते ही पीछे भी छूट जाते हैं, पहुंच से परे, इन्ही सपने देखती आंखों के आगे ही। … आरजू में तो कभी इन्तज़ार में खुशियों के सातवें आसमान बैठे तो कभी उदास और उन्मन, बस उड़ते रहते है हम इनके साथ। वैसे भी चलचित्र-सा देखने के अलावा और कुछ बस में भी तो नहीं हमारे। खुद ही तमाशबीन और खुद ही करतबबाज़, फिर भी जीते जी कब छोड़ पाए हैं हम यह अद्भुत नाटिका!

जिधर है उधर के हम है…!
वक्त के हाथ है मिट्टी का सफर सदियों से
किसको मालूम कहां के हैं, किधर के हम हैं।

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब
सोचते रहते हैं किस रहगुजर के हम हैं।

-निदा फाज़ली

हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं नहीं मिलती तो कहीं आसमां नहीं मिलता।

जाते-जाते एक ऐसा संसार भी छोड़ गया शायर हमारे लिए, जहां आज भी हम न सिर्फ जमीं और आसमां दोनों को ही बांहों में भरने की गुस्ताख़ी करते हैं बल्कि रमते भी हैं … लब्ज़ों के कांधे सिर टिकाए अपना एकांत और कोलाहल जी भर-भरकर बांटते हैं।हँसते -रोते हैं।

कभी चांदनी के साथ छत पर टहलती, तो कभी लहरों-सी सागर की बांहों में सिमटने को बेचैन, कल्पना-सुन्दरी भावों के नए-नए लिबास पहने जब ग़ज़ल की तैयारी में सज उठती है, तब होठों पर एक उत्सुक मुस्कान और आँखों में हल्की-सी नमी … बिल्कुल नयी-नवेली दुल्हन-सा ही तो होता है इसका हाल। एक तरफ तो विदाई और विछोह… दूसरी तरफ नए के स्वागत की प्रतीक्षा और प्रिय से मिलन का रोमांच। ऐसे रूमानी पलों में ही तो तैयार होता है गीत और ग़ज़लों का एक महकता गमकता गुलदस्ता। गीत व ग़ज़ल की उत्पत्ति, प्रचलन और तकनीकी आदि जानकारी के बारे में कई-कई तथ्य हैं जिन्हें जानना और समझने की ज़रूरत पड़ती है ग़ज़लकार को एक ग़ज़ल या नज़्म लिखने से पहले।

फिक्र मोमिन की, जबां द़ाग की, गालिब की बयां
मीर का रंगे सुख़न हो तो ग़ज़ल होती है।

सिर्फ अल्फ़ाज़ ही माने नहीं पैदा करते
जज़्बा-ए-खिदमते-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।

गीत और ग़ज़ल की बहस अधिकांशतः हिन्दी और उर्दू की बहस बनकर रह जाती है जबकि हिन्दी और उर्दू दोनों ही एक ही कौम की दो भाषाएँ हैं और सदियों से हमारी सांझी और सांस्कृतिक धरोहर रही हैं। विभाजन के साठ साल बाद भी, दोनों देशों की बोलचाल की भाषा आज भी गंगा-जमनी ही है। कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक हर प्रान्तीय भाषा-भाषियों ने ग़ज़ल गायकी को अपनी जुबां और पहचान दी है। सरहद के दूसरी ओर भी यही हाल है। आज भी लाहौर, पेशावर या ढाका, या फिर कलकत्ता मुम्बई, दिल्ली, सभी जगह एक-से-एक उम्दा गायक सुर और सोज़ की साधना में समर्पित हैं और गीत और ग़ज़ल की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गालिब और मीर के सुरों में ही गूंज रहे हैं । वैसे भी एक ख़याल, एक सोज़ का कैसा वतन और कैसी सीमा, ये अहसास तो शाश्वत हैं,

मैं हवा हूँ, कहां वतन मेरा
दश्त मेरा न ये चमन मेरा।

अमीक हनफ़ी

भाषा का काम मुख्यतः अभिव्यक्ति है और कविता हो या गीत व गजल, सभी का माध्यम भाषा ही है। मन जो कहे…दूसरा सुन-समझ ले, आनंदित और पुलकित हो ले, भावों और सोच के धरातल पर एक दूसरे से मिल लें, क्या बस इतना ही काफी नहीं …

‘तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब ,

मैं थका रुका । ‘

निराला ‘

ओस की बूदों के कंपन में, झरनों की कलकल में, खुशबू की मादकता और पवन की सिहरन मे… दुखियों के आँसू और बच्चों की मुस्कान में …कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा और पाया है शायरों ने इसे। अनगिनित वे पल जिन्हें हम बेहद शिद्दत और अहसास के साथ जीना चाहते हैं, अक्सर इज़ाजत ही नहीं देता जीवन कि उन खूबसूरत पलों के बारे में सोचा तक जाए, उन्ही भागते-दौड़ते पलों की थमी अनुगूँज का नाम है कविता…जैसे सितार पर झाले के बाद एक सुरीली और कंपित मीड … देर तक गूंजती हुई।

मुस्कान और आंसू ही नहीं, भावातिरेक में शब्द भी तो झरते हैं आंखों से… होठों से। भारतीय जन-जीवन में तो वैसे भी गीत-संगीत ताने-बाने-सा ही बुना है। शादी-ब्याह, जन्म, मत्यु, दुःख-सुख; सच कहूँ तो आज भी हर अवसर पर गीत-संगीत ही सामाजिक अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सरल, सशक्त और प्रिय माध्यम है। प्यार, नफरत सब समेटे ये गीत और ग़ज़ल कभी जाने-अनजाने की आस …तो कभी मनचाहे की तलाश हैं। एक अबूझ प्यास, तो कभी एक उलझी भटकन हैं। चुटकी ले-लेकर हँसाती-रुलाती भावों की इस सुरीली छेड़छाड़ को कुछ और ज्यादा ही शह दी है पिछले सात दशक से दिन-प्रति- दिन और-और प्रचलित होते और हरेक के सर चढ़कर बोलते फिल्मी गीतों ने। पिछले साठ सालों में एक-से-एक अच्छे गीतकार और गजलकारों का नाम जुड़ा है इनसे और ये इन्हें एक दूसरे ही धरातल पर ले गए हैं। सफर जो कभी शैलेन्द्र, गोपालसिंह नेपाली, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी और हसरत जयपुरी आदि से शुरु हुआ था, आज इसमें नीरज, अनजान, कतील शफाई, नासिर, गुलज़ार, जावेद अख्तर जैसे कई-कई बेहद संवेदनशील और काबिल नाम जुड़ गये हैं और जगजीत सिंह, अनूप जलोटा, तलत अजीज, चंदन दास, भूपेन्द्र, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, मुन्नी बेगम, बेगम अख्तर, नूरजहां, तलत महमूद, मुकेश, लता, (आशा भोंसले) कविता कृष्णमूर्ति, सोनू निगम, अलका यागनिक, शान जैसी मधुर और सोजभरी और सुरीली आवाजों ने इनके असर और लोकप्रियता में चार चांद लगाए हैं(नामों की फहरिश्त वक्त के साथ लम्बी ही होती जा रही है)।

इसी लोकप्रियता का असर है कि आज यह काव्य-रस घर-घर स्वर लहरियों के संग बह रहा है…बच्चे-बूढ़े सभी के दिलो-दिमाग पर हावी है। काफी लचर सामग्री भी परोसी जाती है, पर अपवाद कहां नहीं होते?

सूर, तुलसी, कबीर के साथ जब नरेन्द्र शर्मा और प्रदीप भी घर घर गूंजे तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इन स्वर लहरियों के साथ साहित्य जन-जीवन में भी रच-बस गया और सुबह की किरणें, किरणें नहीं ‘ज्योति कलश’ बन गयीं। रोटी की जोड़-तोड़ में जो मीर और गालिब का नाम तक नहीं जान पाए थे उन्हें भी सुरैया और तलत ने ‘ दिले नादां ‘ से परिचित कराया और इन गीत और ग़ज़लों की लोकप्रियता बताती है कि पल भर को ही सही, गरीब-से-गरीब का जीवन भी आज एक गीतों भरी कहानी है… यथार्थ की कठोरता इनके दम पर मिटी भले ही न हो, कम-से-कम कम अवश्य हुई है।

कब हम बचपन से यौवन और यौवन से बुढ़ापे की तरफ चल पड़ते हैं और कब अपने आप से भी बेगाने से होने लगते हैं, सूखे पत्ते सा उड़ता… यथार्थ की जमीं और सपनों के आकाश की दुर्लभ दूरियां नापता यह जीवन, इन बातों का लेखा-जोखा तक रखने की फुरसत नहीं देता। और तब बेबस और ‘ नुक्तांचीं गमे दिल’ ही तो है जो कभी बात न कह पाने के गम में तो कभी ‘बात बनाए न बने’ की उलझन में डूबा, न जाने कैसे-कैसे करतब दिखलाता है। कितना-कितना हंसाता और रुलाता है। और यहीं से शुरु होता है हमारा शब्द और भावों में रचा बसा एक कल्पना का संसार… गीत-संगीत का साथ।

पर यह जूझ… यह भटकन, यह मज़बूरी ही तो हमारा इश्क या शग़ल है…जीवन है!

हज़ार ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पर दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान मगर कम निकले ।

आज भी तो हाँ पर ना और ना पर हाँ ही तो इस मन का स्वभाव है।

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं

मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और

-शौकत जयपुरी

और ‘उम्रे दराज़’ से उधार मांग कर लाए गये ये पल, दिन, महीने, साल…देखते-देखते ही पीछे भी छूट जाते हैं, पहुंच से परे, इन्ही सपने देखती आंखों के आगे ही। … आरजू में तो कभी इन्तज़ार में खुशियों के सातवें आसमान बैठे तो कभी उदास और उन्मन, बस उड़ते रहते है हम इनके साथ। वैसे भी चलचित्र-सा देखने के अलावा और कुछ बस में भी तो नहीं हमारे। खुद ही तमाशबीन और खुद ही करतबबाज़, फिर भी जीते जी कब छोड़ पाए हैं हम यह अद्भुत नाटिका!

जिधर है उधर के हम है…! वक्त के हाथ है मिट्टी का सफर सदियों से

किसको मालूम कहां के हैं, किधर के हम हैं।

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब

सोचते रहते हैं किस रहगुजर के हम हैं।

-निदा फाज़ली

ऐ ज़जबाए दिल ग़र तू चाहे हर चीज़ मुनासिब हो जाए

मंजिल के लिए दो पैर चलूँ और मंजिल सामने हो जाए।

किसने लिखा, याद नहीं। कॉलेज के उन्मादी और बेफिक्र दिनों में एक दूसरे को सुना-सुनाकर बस खुश हो लिया करते थे हम और एक नयी स्फूर्ति से भर जाते थे। आज तो बस इतना ही याद है … अब ना वो जोश और ना ही वे साथी।

भोलापन…सहेलियां ही नहीं, शायद वक्त की भीड़ में सही शब्द तक खो जाते हैं …पर आजभी तो मुश्किल से मुश्किल पल में यही समझाया है खुद को, कि सब यह मन का ही खेल है…चाहो तो जीत लो, चाहे तो हार। वैसे भी असलियत किसे पता नहीं!

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन एक बार फिर वक्त का मुसाफिर गुजरे वर्ष को अतीत की संदूकची में सजाये तैयार बैठा है। एकबार फिर पीछे छूटी यादें … मिलन और विछोह की, उपलब्धि और असफलताओं की…सुख-दुख की, मन के एलबम में तस्बीरों सी सजने लगी हैं…हंसाती, रुलाती, उलझाती…कभी-कभी तो बेमतलब ही थकाती। पर मनचाहा सब पूरा ही हो जाए, तो फिर जीने को ही क्या रह जाए… हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं नहीं मिलती तो कहीं आसमां नहीं मिलता।

मियां गालिब यह कह तो गये, पर जाते-जाते एक ऐसा संसार भी छोड़ गए हमारे लिए, जहां आज भी हम न सिर्फ जमीं और आसमां दोनों को ही बांहों में भरने की गुस्ताख़ी करते हैं बल्कि रमते भी हैं … लब्ज़ों के कांधे सिर टिकाए अपना एकांत और कोलाहल जी भर-भरकर बांटते हैं… हँसते और रोते हैं।

कभी चांदनी के साथ छत पर टहलती, तो कभी लहरों-सी सागर की बांहों में सिमटने को बेचैन, कल्पना-सुन्दरी भावों के नए-नए लिबास पहने नए वर्ष के स्वागत की तैयारी में सज उठी है। होठों पर एक उत्सुक मुस्कान और आँखों में हल्की-सी नमी … बिल्कुल नयी-नवेली दुल्हन-सा ही तो हाल है इसका। एक तरफ तो विदाई जाते वर्ष 2007 की… पीछे छूटे कई-कई महीने, घंटों और पलों की, तो दूसरी तरफ नए के स्वागत की प्रतीक्षा और रोमांच…। ऐसे रूमानी पल में हमने भी गीत और ग़ज़लों का एक महकता गमकता गुलदस्ता तैयार किया है आपके लिए और गीत व ग़ज़ल की उत्पत्ति, प्रचलन और तकनीकी आदि जानकारी के बारे में कई-कई तथ्य एकत्रित करने की कोशिश भी की है।

सोच की गहराई और सुरों में रियाज़ हो तो ग़ज़ल आज भी श्रोताओं को बांधने की बेजोड़ विधा है। आज भारत में जगजीत सिंह, पंकज उधास और सरहद के दूसरी तरफ मेंहदी हसन और गुलाम अली वगैरह जैसे नायाब गायक इसे मखमली और सोजभरी आवाजों में घोलकर पसंदगी के बेजोड़ आयामों तक लिए जा रहे हैं। कभी बेगम अख्तर, मलका पुखराज और नूरजहां व सुरैया की गाई गजल सुनने वाला एक खास तबका होता था और एक खास उम्र के ही इसके प्रशंसक हुआ करते थे, परन्तु अब ऐसा नहीं है। नई गजलों की शब्दावली और तेवर दोनों ही बदल चुके हैं और इसमें आजके गीत और गजलकारों( जावेद अख्तर, गुलजार, नीरज, कतील शफाई, बशीर बद्र…आदि) का बड़ा हाथ है। अब विषय और शब्दावली दोनों में ही गीत और ग़ज़ल के फासले कम होते नजर आते हैं। पहले जो सिर्फ गायकी पर ध्यान दिया जाता था और भारी आवाज में एकाध साज के साथ गजल पक्की रागों में ही गायी जाती थी, आज यह तस्बीर पूरी तरह से बदल चुकी है और अब गजल गायकों के साथ भी पूरा और्क्रेष्ट्रा व आधुनिकतम तकनीकियां होती हैं।

विषय की रूमानियत, सादगी और कभी-कभी एक सोजभरी उदासी या दार्शनिकता की वजह से ग़ज़ल ने हमेशा से ही श्रोताओं के बीच अपनी एक खास जगह बनाई है… रेशमी सलवटों सी सहजतः ही मन की तहों में बैठी रही है। कहते हैं पं बैजनाथ, जो कि बैजू बाबरा के नाम से विख्यात थे और जिन्होंने ध्रुपद और धमाल की गायकी को एक नयी दिशा और नया आयाम दिया था, ग़ज़ल के भी कंठसिद्ध गायक थे और उन्होंने अपनी ग़ज़ल गायकी से मुगल सम्राट हुमायूं को इतना अधिक प्रसन्न व प्रभावित किया कि उनके अनुरोध पर इनाम स्वरूप शहंशाह हुमायूँ ने एक लाख गुजराती युद्धबंदियों को जीवनदान दे दिया था जबकि हुमायूँ उनके कत्ल का आदेश तक दे चुके थे। रूह तक में हलचल पैदा करने वाली ये ग़ज़लें सिर्फ लफ़्जों की तोड़-मरोड़ और नाप तौल से ही नहीं बनतीं। बयानगी की बेमिसाल अदा और बेहतरीन सोच भी एक नायाब ग़ज़ल में उतनी ही दमखम रखती है जितनी कि विषय की सम-सामयिकिता। बात वही असर करेगी, जो सही संदर्भ में, सही ढंग से और सही वक्त पर की गई होगी। और अगर कहने का लहज़ा भी अनूठा और सुरीला हो, तब तो और भी अच्छा…सोने में सुहागा। यही वजह है कि मियां गालिब इतने आराम और विश्वास के साथ कह गये कि ‘सुखनबर कई और देखे मगर है गालिब का अन्दाजे बयां कुछ और ‘।

ग़ज़ल का अर्थ है महबूब से बातचीत करना और इसी अर्थ की तंगदिली तहत शुरुवात में ग़ज़ल राजा महाराजाओं के दरबार या कोठों तक ही कैद रही और कभी तबले की ठेक पर तो कभी नयनों की कटारी से दिल के छिलने की, तो कभी मखमली कालीन से पैरों के छिलने की बातें करती रही।

ग़ज़ल शब्द का अर्थ अरबी भाषा में कातना बुनना भी होता है; एक ऐसा सूत जिससे कि (ख्वाबों का) पूरा का पूरा कालीन बुना जा सके…(जाल भी)। कुछ लोग ग़ज़ल शब्द की उत्पत्ति गज़ाल से भी मानते हैं। ग़ज़ाल यानी कि हिरण… और ग़ज़ल भी तो हिरण की सी ही लम्बी-लम्बी चौकड़ी मारती है…अभिव्यक्ति की कुलाचें लेती है। गालिब ने तो कहीं ग़ज़ल को एक ऐसी घायल हिरणी भी कहा है, जिसका शिकारी पीछा कर रहे हों। लम्बे समय तक ग़ज़लों में अभिव्यक्ति बस प्रेम की ही होती थीं और ग़ज़ल के सभी विषय प्रेमी-प्रेमिकाओं के इर्दगिर्द ही मंडराते रहते थे। यह प्रेमी या प्रेमिका स्त्री-पुरुष या सर्व शक्तिमान ईश्वर और अल्लाह कुछ भी हो सकते थे और इसी दुहरे संदर्भ के तहत सूफी नज्मों में एक-से-एक बढ़कर श्रंगार-रस की प्रेमपगी अभिव्यक्तियां हुयीं और साथ-साथ वह अलौकिक रहस्यमयता भी बरकरार रही। सूफियों ने अपनी सांगीतिक प्रार्थना के लिए फारसी ग़ज़ल को अपनाया और उसे भारतीय संगीत के रागों और तालों में बांधकर पेश किया। फ़िराक गोरखपुरी के अनुसार

‘ ग़ज़ल मूलतः प्रेम को काव्यात्मक शैली में अभिव्यक्त करने वाली विधा है।’

यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि अरबी भाषा में ‘क़सीदा’ नाम की एक काव्य-विधा हुआ करती थी जो कि तारीफ या प्रशंसा से जुड़ी थी (आज भी ‘नाम के क़सीदे पढ़ना’ एक प्रचलित मुहावरा है)। क़सीदे के आरंभ में चार-पांच शेर कहे जाते थे, जिन्हे नसीब या तशबीब कहते थे। कसीदे की यही तशबीब या नसीब ग़ज़ल कहलाती थी। अरबी साहित्य में ग़ज़ल का कोई स्वतंत्र स्थान नहीं था। अरबी साहित्य से फारसी साहित्य में आने पर ही इस काव्य विधा ने अपना स्वतंत्र रूप, गुण और स्थान पाया।

तुर्क सुलतानों का जब बारहवीं शताब्दी में शासन आरंभ हुआ तो वे भाषा के नाम पर फारसी और काव्य के नाम पर कसीदा, मसनवी और ग़ज़ल लेकर भारत आए। अरबी फारसी और हिंदवी के इस सांस्कृतिक समन्वय के साथ-साथ एक नयी भाषा का जन्म हुआ जिसे ‘ उर्दू’ नाम दिया गया जो स्थानीय बोली के साथ अरबी, फारसी और तुर्की भाषा का समन्वय थी।

यूँ तो ग़ज़ल की विधा भारत में अमीर खुसरो से तीन सौ साल पहले से ही प्रचलित थी परन्तु ग़ज़ल को अपनी असली पहचान अमीर खुसरो( 1253-1325) से ही मिली, जिन्होंने अरबी फारसी के साथ-साथ सादी और खड़ी बोली में अपने मन की बात कहनी शुरू की जो अवाम को भी समझ में आयी।

जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिंता उतर

ऐसा नहीं कोई अजब, राखे उसे समझाय कर।

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया,

हक्का इलाही क्या किया, आंसू चले भर लाय कर।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है,

तुझ दोस्ती बिसियार है, एक शब मिलो तुम आय कर!

तुमने जो मेरा मन लिया, तुमने उठा ग़म को दिया,

तुमने मुझे ऐसा किया, जैसे पतंगा आग पर।

खुसरो कहें बातें गज़ब, दिल में न लाबें अजब,

कुदरत है खुदा की अजब, जब जिव दिया लाय कर।

(बहरे रजज सालिम-2122)

अमीर खुसरो की ‘यह ग़ज़ल महमूद शीरानी को तेरहवीं सदी हिजरी के आरंभ में लिखी गई थी और इसकी एक पांडुलीपि अभी भी सलामत है ( लाहौर के प्रो. सिराज्जुद्दीन आजार के संग्रहालय में मिली थी।’) डॉ. भोलानाथ तिवारीः अमीर खुसरो और उऩका साहित्य।

अमीर खुसरो की यह खांटी हिंदुस्तानी ग़ज़ल न केवल भारतीय साहित्य की पहली ग़ज़ल है बल्कि हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की वह पहली मुख्यधारा या परंपरा है जिसे आज ‘हिन्दी ग़ज़ल’ के नाम से जाना जाता है। (उनकी ग़ज़ल, कव्वाली और ख्याल आज 700 साल बाद भी गायकों की चुनिंदा पसंद हैं। हाल ही में उनकी एक रचना ‘ छाप तिलक सब भूली, तोसे नैना मिलाय के’ तो दो तीन हिन्दी फिल्मों में ली गयी और आज भी खूब पसंद की गयी)।’

अमीर खुसरो की इसी ग़ज़ल परंपरा को कबीर से लेकर कुंवर बेचैन तक, आज के ग़ज़लकारों ने आगे बढ़ाया है।

यूँ तो केकुबाद के युग में ही (1187-1290) गली-गली में ग़ज़ल के गायक पैदा हो चुके थे और काज़ी कमीदुद्दीन नागौरी के कव्वाल महमूद ने सुलतान शमशुद्दीन इल्तुमिश (कार्यकाल 1210-1235) को ग़ज़ल सुनाकर मुग्ध भी कर दिया था, ऐसा उल्लेख भी मिलता है, परन्तु भारत का पहला ग़ज़लकार कुली कुतुब शाह को ही माना जाता है जो कि गोलकुंडा के शासक थे और उनकी ये पंक्तियां काफी मशहूर भी हुईं।

पिया बाज प्याला पिया जाए ना

पिया बाज यक तल जिया जाए ना।

अपनी सरस और मिलीजुली भाषा में तेरहवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने हिंदी ग़ज़ल कहने का एक नया ही अंदाज पैदा किया जिसे खास और आम दोनों में पसंद किया गया।

ज़े हाले मिसकीं मकुन तग़ाफुल,

दुराय नैना बनाय बतियां।

के ताबे-हिजरां न दारम ए जां,

ना लेहू काहे लगाय छतियां।

शबाने-हिजरां न दराज़ चूं

जुल्फ-ओ-रोज़े वसलत चूं उम्र कोताह,

सखी पिया को जो मैं न देखूं, तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।

ब-हक्के रोज़े विसाल दिलवर, के दादे मारो फ़रेब ‘खुसरो’

समीप मन के दराये राखूं, जो जान पावूं पिया की खतियां।

इस शेर में उन्होंने फारसी और खड़ी बोली को ऐसे सुन्दर और सटीक तरीके से जोड़ा है मानो सोने की अंगूठी में हीरा और उनकी यही वह ग़ज़ल है जिसने उस जमीं को तैयार किया जहां से वली दकनी (1705) ने हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की दूसरी धारा आरंभ की जो आज उर्दू ग़ज़ल के नाम से जानी जाती है और इस परंपरा को आगे बढ़ाया दर्द, मीर, मज़हर और गालिब से लेकर जिगर, फिराक और आजतक उर्दू में लिखते आ रहे सभी शायरों ने। अमीर खुसरो की इस पहली हिंदी ग़ज़ल में छंद(बहर) जरूर फारसी भाषा का है, परन्तु इसका काफिया (तुकांत) पूर्णतया हिन्दी का है। खुसरो अपभ्रंश और भारतीय भाषाओँ के संधिकाल में लिख रहे थे। उस समय प्राकृत तत्सम शब्दों का प्रयोग ज्यादा होता था जबकि उन्होंने तद्भव शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल किया। इस परिप्रेक्ष में उनकी पहेलियों और मुकरियों को उद्धत किया जा सकता है।

देखन में है बड़ उजियारी।

है सागर से आती प्यारी।

सगरी रैन संग ले सोती

ऐ सखी साजन, ना सखी मोती।

(मुकरियां)

विभिन्न भाषा के समन्वय पर आगे भी प्रयोग हुए हैं और होते ही रहेंगे ( आजकी आधुनिक कविता में तो यह बहुत ही आम सी बात है) जैसे कि अवध के अन्तिम नवाब, शायर और नर्तक वाजिद अली शाह ने अंग्रेजी और उर्दू का मिलाजुला प्रयोग करते हुए लिखा (ग़ज़ल नहीं) ,

माई डियर बुलाओ

कित बसे

माई डियर बुलाओ

हबसन करो/ जश्न करो

बंगला में ले जाओ।

यहां तक आते-आते ग़ज़ल प्यार-मोहब्बत और प्रेमी-प्रेमिकाओं से मुक्त हो आगे बढ़ चुकी थी और अब तो हर तरह के सामाजिक संदर्भ, चिंताएं व दर्शन इसमें आ मिले हैं,

आ के पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे,

जितने उस पेड़ के फल थे, पसे दीवार गिरे।

-शकेब जलाली

दिन भर तो बच्चों की खातिर मैं मजदूरी करता हूँ,

शब को अपनी गैर मुकम्मल ग़ज़लें पूरी करता हूँ।

-तनवीर सुपरा

यूँ तो सब के सब अंधेरों से बहुत बेजार हैं

रोशनी के बास्ते फिर भी नहीं तैयार हैं।

-कमलेश भट्ट कमल

दोस्ती, नेकी, मुहब्बत, आदमियत और वफ़ा

अपनी छोटी नाव में इतना भी मत सामान रख।

-आलम खुरशीद

ग़ज़ल में मिसरों पर किसी मात्रा या मीटर की रोक नहीं, बस तुक मिलाना जरूरी है। तुक की यह बंदिश जहां ग़ज़ल की शर्त और ताकत है वहीं कमजोरी भी। मिर्जा गालिब ने इसीलिए ग़ज़ल को तंग दामन भी कहा है। ‘मत्ला ‘ और ‘ मक्ता ‘ कहते हैं। गजल की एक शर्त यह भी है कि इसका हर शेर खुद अपने आप में भी पूरा होना चाहिए।

बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे़ तंगना-ए-ग़ज़ल,
कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाँ के लिये।

ग़ज़ल में कम-से-कम पांच शेर होते हैं और अंतिम शेर में शायर का नाम आता है। गजल में मिसरे (पंक्तियां) होती हैं और दो मिसरों का एक शेर बनता है। पहले दोनों मिसरे सानुप्रास होते हैं। पहले और अंतिम शेरों को

पर आजकी समकालीन ग़ज़ल का रूप बदल चुका है। अब मीटर की पाबंदी (वजन)पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता पर काफिया और रदीफ़ का ध्यान रखा जाता है (रदीफ़ शेर का वह आखिरी शब्द है जो हर शेर के अंत में आता है और काफ़िया रदीफ से पहले आने वाले मिलते जुलते शब्द ‘अनुप्रास’ को कहते हैं); जिससे कि इसका गत्वर तत्व न बिखरे, क्योंकि ग़ज़ल आज भी तबले की ठोक पर ही सजती है। आज की इस ग़ज़ल के बारे में लिखते हुए रतीलाल शाहीन अपने एक लेख में लिखते हैः

‘ आज की ग़ज़ल जदीद ग़ज़ल है। उसमें मत्ले और मक्ते की पाबंदी भी उतनी सख्ती से नहीं बरती जाती। आज की ग़ज़ल फूल, खुशबू, चादर और इत्र लिहाफ से निकलकर सड़क पर आ गई है। दरअसल कोठे से ग़ज़ल को निकालकर आम जिन्दगी का स्वर बनाने का काम मिर्जा असदुल्ला खां ग़ालिब का है। इसमें दार्शनिकता का पुट भरने का काम किया इकबाल ने। जिन्दगी से जोड़ने का काम किया फिराक जी ने। पृष्ठभूमि में अनेकानेक शायरों की ज़मात है जिनके नामों की सूची बनाई जाए तो कई पृष्ठ भर जाएँगे। मगर उनकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।’

सूफी मिलन से विरह पक्ष को अधिक महत्व देते थे और पुराने ग़ज़लकार फारसी की इन्ही ग़ज़लों के आधार पर अपनी ग़ज़लें लिखा करते थे, यही वजह है कि इनमें बिछुड़ने या दूर होने का गम या रोना धोना अधिक मिलता था। इन गजलों में मात्रा की पाबंदी को बहुत कड़ाई से ध्यान में रखा जाता था परन्तु नई गजलों में जीवन की विसंगतियां, विद्रूपताएं और सहजता सभी तरह के विषय आए है। देश के बटवारे ने नक्शे में तो भारत के दो टुकड़े किए मगर दिलों को बांटने का काम न कर पाया। सबूत पाकिस्तान की गजलें हैं। उनमें गंगा जमना, हिमालय, राम, श्याम और राधा, सभी का जिक्र बहुतायत से मिलता है। ‘

प्रस्तुत हैं पाकिस्तान की कुछ ग़ज़लें अपनी गंगा जमुनी बानगी के साथ, जिनमें हिंदू कथाओं के पारंपरिक संदर्भ ही नहीं, बटवारे से पहले का भारत भी बोलता है,

हर लिया है किसी ने सीता को

जिंदगी है कि राम का बनवास।

-फ़िराक़ गोरखपुरी.

या फिर,

हर क़दम, हर जगह पे साथ रही

ज़िंदगी है कि सती-सावित्री !

– फुज़ैल जाफरी.

अब न वो गीत, न चौपाल, न पनघट, न अलाव,

खो गए शहर के हंगामे में देहात मेरे।

-फुज़ैल जाफरी.

उलझे-उलझे धागे-धागे से ख्यालों की तरह

हो गया हूँ इन दिनों तेरे सवालों की तरह।

-खातिर गजनवी

पेड़ यों तो शाख कट जानेसे भी जिन्दा रहा,

लेकिन अपने साए से भी सख्त शर्मिंदा रहा।

-खाबिर एजाज़

इस नई ग़ज़ल के प्रचलित होने की एक वजह यह भी है कि पिछली शताब्दी के सातवें दशक के आने तक अतुकांत कविताएँ काफी जोर पकड़ चुकी थीं जो कि न छन्दबद्ध थीं और ना ही गेय, इससे इनकी सरसता मिटती जा रही थी। ऐसे में यह गेय विधा एक नयी सरसता लेकर आयी। हिन्दी ग़ज़लें आज एक नए तेवर के साथ लिखी जा रही हैं जिसमें जीवन के सारे इन्द्रधनुषी रंग खिल आए हैं;

ये वही गांव हैं, फसलें वतन को जो देते

भूख ले आई है इनको तो शहर में रख लो।

-प्रेम भंडारी

मैने बच्चों को यूं बातों में लगा रक्खा है

सोचता हूँ चला जाए खिलौने वाला।

-मुनव्वर राणा

दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की,

लोगों ने मेरी सहन में रास्ते बना लिए।

-अली शमीम

मिले जो दीवार, खिड़कियां गुम,कहीं मिले छत तो दर नहीं है

भटक-भटककर हुआ यक़ीं ये, हमारे हिस्से में घर नहीं है।

-सुल्तान अहमद

नारियां अब वक्त की हस्ताक्षर हैं

कथ्य तुलसीदास झूठा हो गया।

श्याम प्रकाश अग्रवाल

दूसरों की जेब में जब हाथ जाता है,

आस्तीनों की सिलाई टूट जाती है।

श्याम प्रकाश अग्रवाल

गीता हूँ कुरान हूँ मैं,

मुझे पढ़, इन्सान हूँ मैं।

राजेश रेड्डी

ये सारे शहर में दहशत-सी क्यों है

यक़ीनन कल कोई त्योहार होगा।

राजेश रेड्डी

मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा

बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है।

राजेश रेड्डी

हम तो कातिल खुद अपने हैं साहब

तीन सौ दो दफा है खामोशी !

चन्द्रभानु गुप्त

सिर्फ शायर वही हुए, जिनकी

जिन्दगी से नहीं पटी साहब।

चन्द्रभानु गुप्त

सूरज को चोंच में लिए मुरगा खड़ा रहा

खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई।

निदा फाजली

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

और अन्त में आज की सपने देखती आंखों की आत्मविश्वास भरी दुस्साही पंक्तियां जो मेरी समझ से इस इक्कीसवीं सदी की हस्ताक्षर पंक्तियां हैं।

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता?
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।

-दुष्यंत कुमार

बात खतम करते हुए यही कहना चाहूँगी कि हम हों या ना हों, चाहें न चाहें, हवाओं में बिखरे ये ग़ज़ल और मिसरे…इनकी ये घुसपैठिया दस्तकें तो होती ही रहेंगी। और दिल के खुले दरवाज़े हम गाहे-बगाहे इनका स्वागत भी ऐसे ही हंस-रोकर करेंगे… बिना थके और बिना रुके। ये बात और है कि बदलते वक्त के साथ-साथ सुनने और सुनाने वाले, दोनों नये होंगे और एक और नए अन्दाज़ से किसी और के आगे यही बातें एकबार फिर से किसी नए अन्दाज़ से सुनी और सुनाई जाएँगी…

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई-नई-सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी।…

-फ़िराक़ गोरखपुरी।

error: Content is protected !!