काव्य मंथनः जल पर कविताएँ-सुशील कुमार शर्मा/ लेखनी मई-जून 16

Juloos

दहकता बुंदेलखंड
जीवन की बूंदों को तरसा भारत का एक खण्ड।
सूरज जैसा दहक रहा हैं हमारा बुंदेलखंड।
गाँव गली सुनसान है पनघट भी वीरान।
टूटी पड़ी है नाव भी कुदरत खुद हैरान।
वृक्ष नहीं हैं दूर तक सूखे पड़े हैं खेत।
कुआँ सूख गढ्ढा बने पम्प उगलते रेत।
कभी लहलहाते खेत थे आज लगे श्मशान।
बिन पानी सूखे पड़े नदी नहर खलियान।
मानव ,पशु प्यासे फिरें प्यासा सारा गांव।
पक्षी प्यासे जंगल प्यासा झुलसे गाय के पांव।

 

 

 

 

Juloos

 

 

 

 

कल का जल
जल ही जीवन जल सा जीवन जल्दी ही जल जाओगे।
अगर न बची जल की बूंदें कैसे प्यास बुझाओगे।
नाती पोते खड़े रहेंगे जल राशन की कतारों में।
पानी पर से बिछेंगी लाशें लाखों और हज़ारों में।
रिश्ते नाते पीछे होंगे जल की होगी मारामारी।
रुपयों में भी जल न मिलेगा जल की होगी पहरेदारी।
हनन करेंगे शक्तिशाली नदियों के अधिकारों का।
सारे जल पर कब्ज़ा होगा बाहुबली मक्कारों का।

 

 

 

 

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पानी बचाना चाहिए
फेंका बहुत पानी अब उसको बचाना चाहिए।
सूखे जर्द पौधों को अब जवानी चाहिए।
वर्षा जल के संग्रहण का अब कोई उपाय करो।
प्यासी सुर्ख धरती को अब रवानी चाहिए।
लगाओ पेड़ पौधे अब हज़ारों की संख्या में।
बादलों को अब मचल कर बरसना चाहिए।
समय का बोझ ढोती शहर की सिसकती नदी है।
इस बरस अब बाढ़ में इसको उफनना चाहिए।
न बर्बाद करो कीमती पानी को सड़कों पर।
पानी बचाने की अब एक आदत होनी चाहिए।
रास्तों पर यदि पानी बहाते लोग मिलें।
प्यार से पुचकार कर उन्हें समझाना चाहिए।
“पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून ”
हर जुबां पर आज ये कहावत होनी चाहिए।

 

 

 

 

Juloos

बड़े खुश हैं हम
बादल गुजर गया लेकिन बरसा नहीं।
सूखी नदी हुआ अभी अरसा नहीं।
धरती झुलस रही है लेकिन बड़े खुश हैं हम।
नदी बिक रही है बा रास्ते सियासत के।
गूंगे बहरों के शहर में बड़े खुश हैं हम।
न गोरैया न दादर न तीतर बोलता है अब।
काट कर परिंदों के पर बड़े खुश हैं हम।
नदी की धार सूख गई सूखे शहर के कुँए।
तालाब शहर के सुखा कर बड़े खुश हैं हम।
पेड़ों का दर्द सुनना हमने नहीं सीखा।
काट कर जिस्म पेड़ों के बड़े खुश हैं हम।
ईमान पर अपने कब तलक कायम रहोगे तुम।
बेंच कर ईमान अपना आज बड़े खुश हैं हम।

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