लेखनी/Lekhni- अप्रैल-2014-1

 सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर


April 14

 

”     रोटी-सा चांद
सपनों का आकाश
भूखों का नहीं।

-शैल अग्रवाल

( भिखारी)

(वर्ष 8- अंक 86)

इस अंक में:कविता धरोहरः जयशंकर प्रसाद। गीत और ग़ज़लः निदा फाजली, शैल अग्रवाल। माह विशेषः हायकूः हरिहर झा। दोहेः संत कबीर। कविता आज और अभीः गुलजार, दीक्षित दनकौरी, राज पाटनी, संजय आटेड़िया, मुकेश ठन्ना, किशोर दिवासे, सुनील पारित, दामोदर लाल जांगि़ड़, शैल अग्रवाल।   माह के कविः पवन करण। बाल कविताः शैल अग्रवाल।

कविता में इन दिनों: ओम निश्चल।  मंथनः शैल अग्रवाल। कहानी धरोहरः पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’।  कहानी समकालीनः किशोर दिवासे। कहानी समकालीनः अंद्रे कुमार। धारावाहिकः शैल अग्रवाल। लघुकथाः शैल अग्रवाल, प्राण शर्मा। परिदृश्यः खबरें । हास्य व्यंग्यः संजीव निगम। चांद परियाँ और तितलीः नीतिकथा।

 

( समकालीन और समानान्तर सोच के लेखक, कवि और विचारकों के इस साहित्यिक मंच से आप भी जुड़ सकते हैं, अपनी रचनाओं, विचार और सकारात्मक सुझावों द्वारा। )

संपर्क सूत्र: editor@lekhni.net; shailagrawal@hotmail.com

 

संरचना व संपादनः शैल अग्रवाल

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                                                                                                                                                   अपनी बात

ashok_stambh_jpgसात वर्ष पूरे करके लेखनी इस मार्च से आठवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। प्रार्थना है कि भगवान इतनी शक्ति दे कि यह सफर जारी रह पाए और कारवाँ सोद्देश्य नई-नई मंजिलें पार करता रहे। अस्वस्थता और वेवसाइट में तकनीकी अवांछित समस्या के कारण एक बार फिर लेखनी विलंब से ( एक–दो दिन नहीं पूरे तेरह दिन के विलंब से, वह भी आधी-अधूरी-सी) आप तक पहुँच रही है। मानती हूँ विषय भी इस बार चुनाव के माहौल की तरह ही इहापोह से भरा व शुष्क है, कहीं मन नहीं ठहर रहा था। कहीं हृदय है तो हाथ पैर नहीं और यदि हाथ पैर हैं तो हृदय नहीं। परन्तु गरीबी और भूख कैसे रसमय हों, यह एक कठिन प्रयास ही है। विवश हूँ सोचने पर कि आज जब सभ्यता इतनी आगे बढ़ चुकी है, दौलत का अकूत भंडार है, मंगल और शुक्र पर अरबों खर्च हो रहे हैं तो इस धरती पर ही दीन-हीनों के लिए कुछ क्यों नहीं, उनकी स्थिति में कोई सुधार क्यों नहीं ! शायद भिखारियों की आह और दुत्कार उपेक्षा का विषय हैं, समाज व उसको प्रतिलक्षित करते साहित्य का नहीं और लेखनी है कि आए दिन सामाजिक सरोकारों पर ही आकर अड़ जाती है।…

कई कई मुद्दे उठाए हैं लेखनी ने, जिनमें कुछ समाज की मूलभूत और उपेक्षित समस्याएं हैं जैसे शिक्षा, निर्बलों और अभागों व नारी के प्रति समाज का भेदभाव व दोयम दर्जे का रवैया, टूटती शादी की प्रथा. गरीबी और भ्रष्टाचार , विछोह व मृत्यु, पैसावादी संस्कृति की मानसिक विक्षिप्तता आदि, तो कई विशुद्ध संस्कृति और कला पर केन्द्रित अंक भी आए हैं जिनमें हमने कला सिर्फ कला के लिए वाली मनःस्थिति के साथ बस ललित और मनोहारी सृजन का आनंद लिया है। छहों ऋतुओं पर. त्योहारों पर, पर्यटन पर, रामायण पर, लोक संस्कृति पर, सूरज पर, फूलों पर, बादल पर, माँ पर, प्रेम के शाश्वत रूप और बेवफाई पर, बाल विशेषांक, हास्य विशेषांक, अनुवाद विशेषांक आदि ऐसे ही विशेषांक रहे हैं, जिन्हें पाठकों ने खूब खूब सराहा है। सामग्री के साथ-साथ लेखनी का प्रस्तुतिकरण व रूप सज्जा भी पाठकों को पसंद आ रही है और यह हमारी मेहनत का एक बड़ा इनाम है। लेखनी का यह अप्रैल अंक भी लीक से हटते हुए भिखारियों पर है…भीख मांगना जो अब जरूरत नहीं व्यवसाय बन चुका है। वैसे भी आजकी और और की इस उपभोक्ता वादी संस्कृति को ईमानदारी से टटोला जाए तो अमीर गरीब , सशक्त दुर्बल सभी अपनी अपनी जरूरतों के आगे भिखारी ही नजर आएंगे हमें। ध्यान से देखें और सोचें तो मंदिर के बाहर तो भिखारी होते ही हैं क्या अंदर भी भगवान के आगे हाथ पसारे भी उतने ही नहीं खड़े।

अपनी छोटी छोटी सजग और कर्मठ चेष्टाओं से गागर में सागर भरने का लघु प्रयास है लेखनी पत्रिका। अधिक न कहकर इतना ही कहूंगी कि सदा सत्य शिव और सुन्दर की स्याही में डूबकर ही उकेरा है लेखनी ने खुद को।

रचनाएँ इसबार अपेक्षाकृत कम मिलीं। कई कालम के लिए अपनी ही लेखनी का सहारा लेना पड़ा। उम्मीद है अंक आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा। चुनौतियों से लड़ने, इनसे निपटने में भी तो लेखनी की अजस्र उर्जा और सार्थकता है। हाँ , यह ख्याल अवश्य आता है कि-‘ क्या लेखनी को मासिक से द्विमासीय कर दूँ?’ अस्वस्थता के कारण यदि नहीं अंक दे पाई, तो ऐसा करना ही पड़ेगा। परन्तु जबतक निभा पाई, मासिक ही रहेगी आपकी लेखनी।  आप जानते हैं, लेखनी पूर्णतः अव्यवसायिक और साहित्य, कला, व सामाजिक सरोकारों को समर्पित, हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाली अकेली ई. पत्रिका है, जो मार्च 2007 से अबतक 85 अंक और पाँचसौ से अधिक समकालीन कवि व लेखक और करीब-करीब इतनी ही संख्या में धरोहर और कीर्ति स्तंभ में भारत और विश्व के कई दिवंगत् व यादगार लेखक व कवियों को आपके समक्ष ला चुकी है।  यह भगीरथी काम आप सभी के सहयोग के बिना असंभव था। पाठकों का भी भरपूर स्नेह मिला है लेखनी को। विद्यार्थी अब इसे संदर्भ कोष की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं और साहित्य-रसिक विश्राम स्थली की तरह। उनके आभार प्रकट करते पत्र प्रायः मन को असीम सुख और संतोष से भर देते हैं। सारी थकान मिट जाती है। शांति निकेतन के प्रौफेसर रामचन्द्र रॉय ने लेखनी के संपादकीय की हजारी प्रसाद द्विवेदी के संपादकीयों से तुलना कर डाली और किताब के रूप में मांग की, व आस्ट्रेलिया निवासी व जाने माने लेखक रवीन्द्र अग्निहोत्री जी ने लेखनी को धर्मवीर भारती के समय के धर्मयुग व दिनमान के समकक्ष रखा। ऐसे गंभीर और विद्वान नामों से तुलना क्या समकक्ष उल्लेख भी कम गौरव की बात नहीं हमारे लिए और किसी भी बड़े से बड़े सम्मान से कम नहीं। परन्तु यह भी ध्यान रखना होगा कि सफलता और तारीफों का सिराहना लगाने से फिसलन और नींद का भी भय रहता है और अभी तो हमें अपना सफर जारी रखना है। ईमानदारी और विवेक से नियमित काम होता रहे, इतना ही काफी है हमारे लिए।

हर माह 27 विभिन्न शीर्षकों के तहत लेखनी ने हर उम्र और विविध रुचि के पाठकों के लिए सामग्री प्रस्तुत की है। साहित्य और संस्कारों में रुचि पैदा करना तो उद्देश्य रहा ही है, ध्येय भारत और ब्रिटेन की संस्कृति के बीच सेतु का काम करना भी है। यही वजह है कि न सिर्फ विश्व का उत्कृष्ट साहित्य पाठकों तक लाए हैं हम, अपितु भारतीय संस्कृति की अमूल्य विरासत को भी पाठकों, विशेशतः भावी पीढ़ी तक पहुँचाने का प्रयास किया है। हम चाहते हैं कि आप सभी के सहयोग के साथ साहित्य प्रेमी ही नहीं युवा पीढ़ी भी जुड़ें, ताकि यह विरासत अक्षुण्ण रखी जा सके।

हम प्रवासियों की समस्याएं जटिल हैं, क्योंकि इसमें अस्मिता और आत्म सम्मान की लड़ाई भी शामिल रही है, नए और पुराने में संतुलित व सही के सामंजस्य का संघर्ष रहा है। सारी आधुनिक त्वरित जीवनशैली की सोच और बहस के बावजूद आज भी भाषा, संस्कार और शिक्षा तीनों का ही जीवन में अहम योगदान और महत्व है । यही हमारे व्यवहार और व्यक्तित्व की रचयिता हैं और दर्पण भी। चरित्र निर्माण की शुरुआत प्रायः घर और विशेषतः माँ से ही होती है। यही वे प्रार्थमिक यादें हैं जो चरित्र की आधारशिला हैं, और आजीवन निर्देशक भी। ऐसे में व्यस्तताओं के बावजूद, आजकी कामकाजी स्त्री की जिम्मेदारी दुगनी हो जाती है, परिवार, समाज और देश क्या , विश्व के चरित्र निर्माण में भी। एक और मुद्दा जो अक्सर परेशान करता है, वह है सशक्त और एक दूसरे से जोड़ने वाली राष्ट्रभाषा का। जिसकी जरूरत आज विश्व के आगे भारत की प्रभावशाली छवि के लिए ही नहीं, हमारी अपनी एक आन्तरिक जरूरत भी बनती जा रही है । कैसे निबाहे हमारी, आपकी लेखनी अपने इस दायित्व को? सोचना और देखना यह है कि देश की राष्ट्र-भाषा हिन्दी को हम गौरव देते हैं या पुनः पुरानी गलतियों  को ही दोहराते हैं? आन्तरिक भेदभावों से त्रसित और भ्रमित होकर प्रायः ‘विदेशियों’ (अंग्रेजी) को ही सत्ता सौंप देते हैं? विश्वीकरण के युग में कन्धे-से कन्धे मिलाकर चलना और बात है, और पैरों में लेट जाना.. अपनी हस्ती को मिटा देना कुछ और ! जानती हूँ, भावी पीढ़ी की सही शिक्षा का चुनाव, तेजी से बदलते रुझान और जरूरतें…अर्थ व्यवस्था से ही संचालित इस समय में सही सोच और यह चुनाव आसान नहीं , परन्तु  कम-से-कम सोच-समझकर सही दिशा चुनना , सही व संतुलित निर्णय…यह तो आजभी हमारे अपने हाथों में ही रखना चाहिए हमें ! अपनी भाषा, अपने संस्कार, अपने देश, खुद में गौरव लेना इतना तो हम कर ही सकते है। कोई कुछ भी कहे, कितना भी बहकाए या ललकारे, भविष्य को सुधारने की, आज को बनाने की कुंजी आज भी हमारे अपने ही  हाथों में  है  और सृजन सुख के साथ-साथ इसी आत्म-चेतना को जगाने का प्रयास है लेखनी पत्रिका।

लेखनी-सोच और संस्कारों की साँझी धरोहर — एक ऐसी त्रिवेणी, जिसमें डुबकी मारते ही सारे गिले शिकवे भूलकर  हम एक दूसरे के पास आ जाते हैं – कुछ पल के लिए ही सही सुख-सानिध्य पा लेते हैं। कोई बड़बोला दावा नही है यह कि पूरी तरह से ऐसा ही हुआ है या हो ही पाएगा, परन्तु एक प्रयास…एक इच्छा हमेशा से अवश्य रही है। फिर यदि इरादे नेक हों और अपनों का साथ हो तो रास्ते भी तो खुद ब खुद निकल ही आते हैं।

मुड़कर देखती हूँ तो 17 मार्च 2007, जो नारी दिवस भी था, वह तारीख है जब सपने आँखों से किलककर ‘लेखनी ‘ में आ छुपे  थे और उस दिन से आजतक  अनगिनित पन्नों और कई-कई देशों के पाठकों के साथ सफर तय करती लेखनी 7 वर्ष पूरे भी कर चुकी है ; विश्वास ही नहीं होता, वह भी पाठकों के भरपूर स्नेह से सिंची- लहलहाती…पहले साल जो महीने में दस हजार हिट मिलते थे आज प्रतिदिन दस हजार से अधिक हिट हैं। सोचती और देखती हूं तो आँखें आभार से छलक आती हैं ! आभार उन सभी मित्र व पाठकों का , जिन्होंने बड़ी ईमानदारी व लगन से साथ निभाया, अपना विश्वास हमारे साथ रखा। रचनाएं भेजते रहे और लगातार लेखनी के पन्ने पलटते रहे। न सिर्फ इसके हर रूप को चाहा व सराहा, अपितु विषयों और भावों को भी परखा और जाना। इरादों की, मेहनत की, इस आन्दोलन की कद्र की। इस सफर के दौरान न सिर्फ हमें कई अच्छे दोस्त व सहयात्री मिले, अपितु बहुत कुछ सीखा और जाना भी है हमने आपसे। वाकई में आभारी हूँ  इस स्नेह और सहयोग की। विशेष आभार उन अपनों का जिन्होने लेखनी को नियमित स्तंभ दिए ।

भविष्य में भी इसी सद्भाव व सहयोग की अपेक्षा के साथ प्रस्तुत है विविध और रोचक सामग्री के साथ  लेखनी का अप्रैल अंक। कैसा लगा, बताएंगे तो दिशाभान रहेगा।

140314-152609-शैल अग्रवाल            

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                                                                                                                                                                कविता धरोहर
-जयशंकर प्रसाद

 

Diye

उस दिन जब जीवन के पथ में,

 

उस दिन जब जीवन के पथ में,
छिन्न पात्र ले कम्पित कर में ,
मधु-भिक्षा की रटन अधर में ,
इस अनजाने निकट नगर में ,
आ पँहुचा था एक अकिंचन .
उस दिन जब जीवन के पथ में,
लोगों की आँखे ललचाईं ,
स्वयं मानने को कुछ आईं ,
मधु सरिता उफनी अकुलाई ,
देने को अपना संचित धन .
उस दिन जब जीवन के पथ में,
फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं ,
आँखें करने लगी ठिठोली ;
हृदयों ने न सम्भाली झोली ,
लुटने लगे विकल पगन मन .
उस दिन जब जीवन के पथ में,
छिन्न पात्र में था भर आता –
वह रस बरबस था न समाता;
स्वयं चकित सा समझ न पाता
कहाँ छिपा था ऐसा मधुवन !
उस दिन जब जीवन के पथ में,
मधु-मंगल की वर्षा होती,
काँटों ने भी पहना मोती
जिसे बटोर रही थी रोती-
आशा, समझ मिला अपना धन .

ले चल वहाँ भुलावा देकर

 

ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।’
जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे !

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                                                                                                                                                                                    गीत और ग़ज़ल

 

              boating हर घड़ी…

 

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा ‘

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा ‘…

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा ‘

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा ‘

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा !!

~ निदा फ़ाज़ली

           

 

 

 

उड़ने को…

 

boatingउड़ने को आकाश ठहरने को टहनी नहीं
समंदर सी गहराई पीने को पानी नहीं

दरिंदों के साये हैं यहाँ  दरख्त नहीं
खुदा की दुनिया में अब  रहमत नहीं

नादानी है  हमने बात हंस कर उड़ा दी
पर मन ने वो बात हरगिज मानी नहीं

चलो घोंसले बनाए खुशियाँ  उम्मीद से हैं
रूह का सफर ये सुख-दुख की कहानी नहीं।

-शैल अग्रवाल

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दोहेः संत कबीर

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दाता दिए कुटुम समाए, भूखनहु तोष पाए ।
एक टूक स्वान खवाए, एक खाई गौ माए ।।

अंतर मति अँधियार किए, बाहिर उजरी चाम ।
सुथरे कापर पहिर लिए सेवा चौगुन दाम  ।।

कहत साधौ ऐसन को, मांगे दौ ना भीख ।
देख दुआरि भेड़ लौ, गाँठन बाँधे सीख ।।

बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख।
मांगन ते मरनो भलो, यह सधुअन की सीख।।

साई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय॥

पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख ।
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥

मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥

उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥

अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥

माँगन गै सो भर रहै, मरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥

माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥

उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥

आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥

सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥

अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर घर धरना देय ॥

अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥

माँगन मरण समान है, मित माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हिर खड़े जब भोगे तब देय ॥

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भिखारीः चन्द हायकू
-हरिहर झा

 

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कटोरा लिये
भीख मांगते देश
अमेरिका से

 

टुच्चे भिखारी
शऊर नहीं कुछ
फैलाये हाथ

 

दिखे भिखारी
हाट में, बाजार में
नुक्कड़ पर

 

पैसे गड़प
बहाना छुट्टा नहीं
भीख का रूप

 

मांगू कुछ भी
ईश्वर परेशान
कैसा भिखारी!

 

शब्द छिलते
भीख में अभिनय
घाव गहरे

 

क्यू में खड़े
भीख दो, रसीद लो
चलते बनो !

 

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                                                                                                                                                                   कविता आज और अभी

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१.
मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे

२.
सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें

सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।

-गुलजार

 

 

दर्द भिखारी का भला,
क्या  जाने संसार
आटा तो थोडा मिले,
घनी मिले दुत्कार

दीक्षित दनकौरी

 

 

पापी पेट का सवाल है…

 

कोढ़ी अंधे लंगड़े लूले
पैदा नहीं हुए
ना ही  किस्मत के मारे है
मेकअप ये रोटी रोजी का
ठगई का व्यापार है

पापी पेट का सवाल है

सलाखों से फोड़ दी आँखें
कहीं कर दिए जाते अंगभंग
अपने नहीं औरों के चुराए बच्चे
दर्द से इनके किसे सरोकार है

पापी पेट का सवाल है

चोर उचक्के, जासूस , सभी मिल जाते इस भेष
गली नुक्कड़ तीरथ मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे
जितने मंदिर के बाहर उतने ही अंदर
भीख देना पुण्य की बात है

पापी पेट का सवाल है

स्वर्ग के द्वार खुल जाते
रुपए दो रुपये चन्द सिक्कों में
मंहगाई से अपना क्या लेना देना
जीना तो वैसे ही बेहाल है

पापी पेट का सवाल है

दाता और भिखारी पर
सभी हम बारी बारी
जरूरत और लालच में
हाथ फैलाते रोज रोज
भगवान कभी बेईमान के आगे
सच झूठ तो बस एक अनुमान है

पापी पेट का सवाल है

दुतकारना नहीं
अगली बार जब तुम देखो
किसी जरूरत मंद को
कब लाइन में लगना पड़ जाए
जिन्दगी एक इम्तहान है

पापी पेट का सवाल है

शैल अग्रवाल

 

 

 

लिये कटोरे

 

लिये कटोरे हाथ में फिर से
मांग रहे है वोट
चेहरे बनाये भोलेभाले
दिल में लेकिन खोट
मोतीचूर उड़ायेंगे खुद
जनता को बस बासी रोट
तारे गिनेगी भूखी जनता
नेता गिनगें नोट

~राज पाटनी

 

 

 

लिखता हूँ कविता

 

मैं लिखता हूँ कविता
उन भिखारियों पर
जो भरते हैं पेट
गलियों में अक्सर ।

मैं लिखता हूँ
उनकी बेबसियों पर
जो गंदगी उठाकर
मुस्कुरा दिया करते है अक्सर।

मैं लिखता हूँ कविता
उन भिखारियों पर
जिनको देखा जाता है अक्सर
हेय दृष्टि से
चढ़ती भौंहों से
सिकुड़ती सी नाक से
बक देते है लोग
गंदी जबान से
उनको गंदी बात।

मैं लिखता हूँ
उन भिखारियों पर भी
जो लोगों की भावनाओं से
खेलते हैं खेल
रचते हैं स्वांग हर रोज।

मैं लिखता हूँ कविता
उन भिखारियों पर
जिनका बचपन गुजर जाता है
नंगें पैरों तले
रुपया, दो रुपया मांगने में।

मैं लिखता हूँ
उन अल्हड़ जवान भिखारियों पर
जो अपना जीवन समर्पित कर देते हैं
मंदिर, मसजिद, गिरिजाघर और
गुरुद्वारे की चौखटों पर।

मैं लिखता हूँ कविता
उन बूढ़े भिखारियों की लाचारियों पर
जिनको चंद रुपए मिल जाते हैं
पर, नहीं मिलता वो काम-मुकाम
जिनसे वे आत्मनिर्भर बन सकें
और पा सकें अपना आत्मसम्मान।

संजय आटेड़िया

107/2, अरिहंत परिसर,
रतलाम- 457001 मोबाइल.- 9827800145

 

 

 

भिखारिन

 

चौबारे के द्वारे से ठक्-ठक् की कुछ आवाजें आई,
घर में है बासी रोटी के कुछ टुकडे़, वो दे दो माई।

सांसों का स्पंदन विचित्र है, क्यों रोटी से ये चलता है,
कच्ची मिट्टी का शरीर ये, बस अनाज से ही बनता है।

गोद में है जो फूल खिला, वो है मेरे जीने का मकसद,
वरना ये जिजीविषा छोड़, दुनिया से मैं हो जाती रूखसत।

मेरे बच्चे का भोजन भी, भोजन से ही बनता है,
इसलिए बासी टुकड़ों पर ,मेरा भी हक बनता है।

-मुकेष ठन्ना
वरिश्ठ अध्यापक
84 गुलमोहर कालोनी रतलाम (म.प्र.)
मोबाईल:- 09827267259

 

 

 

भूख हूँ मैं..

 

भीड़ से छिटककर आता हूँ मैं
किसी परछाई की तरह /और
बैठ जाता हूँ हर इंसान की बाजू में
कोई भी नहीं देखता मुझे/पर
सभी देखते हैं एक-दूसरे का चेहरा
वे जानते हैं की मैं वहां पर हूँ
मेरा मौन है किसी लहर की ख़ामोशी
जो लील लेता है बच्चों का खेल मैदान
धीमी रात्रि में गहराते कुहासे की तरह
आक्रान्ता सेनाएं रौंदती,मचाती हैं तबाही
धरती और आसमान में गरजती बंदूकों से
लेकिन मैं उन फौजों से भी दुर्दांत
गोले बरसाती तोपों से भी प्राणान्तक
राजा और शासनाध्यक्ष देते हैं आदेश
पर मैं किसी को नहीं देता हुक्म
सुनाता हूँ मैं राजाओं से अधिक
और भावपूर्ण वक्ताओं से भी
निः  शपथ करता हूँ शब्दों  को
सारे उसूल हो जाते हैं असरहीन
नग्न सत्य अवगत हैं मुझसे
जीवितों को महसूस होने वाला
प्रथम और अंतिम शाश्वत हूँ मैं
भूख हूँ मैं… भूख हूँ मैं!

-किशोर दिवासे

 

 

 

बंदा भी गुलाम है

 

हे भगवान
अब बस भी करो
बरसात बरस रहा है
सुख दुख का मिश्रण है
कहते है सब यही
मानकर ऐसे जीना है
सुख तो जैसा मृगजल
दुख तो जैसे पहाड
मृगजल को हासिल न कर सका
पहाड को झेल न सका
जीने की चाह तो है
और जीना यानि
मृगजल को कम पीना
शायद पहाड को ही झेलना
अब और कोई ख्वाहिश
दिल में न हो बेहतर है
कोई समझौता नहीं
तुम्हीं ने भेजा है
बंदा गुलाम है तुम्हारा
इसका मतलब भी है
कुछ भी पीना
कुछ भी झेलना

 -सुनील पारित

 

 

 

मैंने अपना पहला पहला गीत लिखा है

 

मैंने अपना पहला पहला गीत लिखा है
इस गीत की गदराई देह आधार नहीं हैं।
या उन्मादित योवन इसका सार नही हैं।।
मेरे गीत की महा पात्र एक मजदूरिन हैं,
सतत संधर्षों के गिरवी उसका जीवन हैं।
फटी ओढ़नी में भी सौ पैबंद लगे हैं।
नहीं केंचुली की थिगली के तार सगे हैं।
सूखे होठों पर पपड़ी की परत जमीं हैं।
धूल सने हैं बाल महकती जुल्फ नहीं हैं।
नहीं कहीं श्रृगार न रस जैसा कुछ इसमें,
घूप,परिश्रम,गंघ पसीने की है जिसमें।।
बस थोड़ा सा ढ़र्रे के विपरीत लिखा हैं।
मैंने अपना पहला पहला गीत लिखा है।।
यह गीत महफिलों में गाने जैसा ना होगा,
जिस पे थिरके पांव स्वत वैसा ना होगा।
ना यहां विरह की हूक मिलन पीर जगाती,
अक्सर  सपनों भी डायन भूख सताती।
मिल जाए भर पेट वही दिन पर्व यहां हैं,
श्रम के बदले पा लेना ही गर्व जहां हैं।
सदा भूख से लड़ने का प्रयास हुआ हैं,

बस दो जून की रोटी सबसे बड़ी दुआ हैं।
दुबली पतली चंद हड्डियों को भी तौड़ी,
मगर अभावों से लड़ने की जिद न छौड़ी।

नहीं कल्पना तनिक, यथातथनीत लिखा हैं,
मैंने अपना पहला पहला गीत लिखा है

– दामोदर लाल जांगिड़
किरच किरच

 

तिरक गया है आइना
और बिखर गई हूँ मैं
किरच-किरच  खुद को संभालती
तो कभी अपने परिवेश को
पर संवरता ही नहीं कुछ
बदलता ही नहीं कुछ।

वातानुकूलित कार के बन्द शीशे
और उन के इर्दगिर्द
सामान बेचते, भीख मांगते
ट्रैफिक लाइटों पर खड़े
ये भूख की दुहाई देते चेहरे
दिखाई तो देते हैं मगर…
छू नहीं पाते हमें,

जरूरत ही नहीं शायद अब इनकी
ना ही इनके द्वारा बेचे सामान की
अखबारों का काम कर देते हैं
अब टी.वी. और कम्प्यूटर
और धूपबत्तियों के लिए
शेष ही नहीं भगवान
ना ही टिशू पेपर के लिए
सूखी आंखों में एक भी आँसू

काजल-सा ही  तो
घुल-मिट जाता है
दूसरे का दुख-दर्द
बगैर मन या चेहरा बिगाड़े
भटक-भटक कर जीने को
अभिशप्त ये आवारा बादल-से
और हम-
अपनी ही उगाई मरीचिकाओं में !

 शैल अग्रवाल

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                                                                                                                                                      माह के कवि -पवन करण

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कहना

 

तुम्हें कहना नहीं  आता
कहने क्यों चले आये
पहले कहना सीखो
फिर अपनी बात कहना

जिनके पास कहने को है
जो कहना चाहते हैं
जिन्हें कहना नहीं आता
मैं उनमें से एक हूं

 

 

 

कोट में बाजू पर बटन

 

ऐसा मैने भी करने की कोशिश की
जाड़े के दिनों में दो चार बार
मगर हर बार ऐसा हुआ
कोट में बाजू पर बटन आ गये आड़े
उन्होंने नाक पर अपनी रगड़ बना दी

जब मैंने जहाज पर काम करते
उन बच्चों के बारे में पढ़ा मुझे लगा
में भी उन बच्चों में से बच्चा
कोई एक सफाई करता वहां अब भी

जिनके कोट के बाजुओं पर
लार्ड नेल्शन ने लगवा दिये बटन
बस इसलिये काम करते करते
न पौंछ सकें वे नाक
कोट के बाजुओं से अपने

तब से अब तक कोट के दोनों तरफ
बाजुओं पर यह बटन उनकी स्मृति में
कभी नाक से पानी आने पर अपनी
नजरें बचाकर सबकी या कर सकें तो
सामने सबके बटनों की
रूकावट के बावजूद पौंछकर कर अपनी नाक करें उन बच्चों को याद

 

 

 

पीठें

 

भागती हुईं पीठें
अपना पीछा करने वालों के
चेहरे देख रही हैं

उन्हें छेद कर रख देने वाले
अंतर का कम होना
तेजी से कर रही हैं वे महसूस

अपना पीछा करने वालों के आगे
वे कतई भागना नहीं चाहतीं
इस वजह से बहुत बदनाम
हो लीं वे अब तक

भागता कोई और है बदनाम वे होती हैं

सवारा

 

तेरी ये कैसी वीरता मेरे वीरन
अपने नाम के लिये
ले लेता तू किसी की जान
और जान बचाने के लिये अपनी
सवारा में मुझे सौंप देता
जिंदगी भर दुश्मन के यहां खपने

मेरे वीरन हाट बाजार से बिना झगड़े
लौट आना, लौट आना ओरे बापू
बिना मरे मारे चौक चौबार से घर वापस
वीरन तेरी उंगली पकड़कर चली मैं
बापू तेरे कंधे चढ़कर खेली में

देख हो न जाये तेरे हाथों कहीं अनर्थ
कि गुस्से में तू एक नही दो-दो
हत्याएं कर बैठे जिसमें एक मेरी भी

पता नहीं फिर सुलह के बदले
जो तुझसे ले जाये मुझे अपने यहां
वो मुझे अपने घर कैसे रखे
सबके आगे क्या कहकर पुकारे
क्या कहकर दिखाये मुझे सबको
मैं वहां कैसे जियूं और कब मरूं

अपने जूतों की चरर मरर करता
वह जब भी उतरे मेरे भीतर
अपनी मूंछे मरोड़ता हुआ ही उतरे

सवारा: पाकिस्तान के कबाइली समाज का एक रिवाज जिसमे बाप भाई चचा किसी का कत्ल कर दे तो उसको माफ कराने के लिये कातिल के घर की बेटी बहन या भतीजी मकतूल के किसी करीबी रिष्तेदार कोब्याह दी जाती है

छिनाल

 

उसकी भीतरी संरचना ही ऐसी थी
कि वह चाहती थी एक पुरूष
जो उसे प्यार करे भरपूर
रखे हरदम उसका खयाल
रहे उसके साथ, उसके करीब हमेशा

पति हो तो बेहतर, प्रेमी हो
न हो तो बस पुरूष ही हो, मगर हो
इस गफलत में उसने
खाये लगातार ठेवे पर ठेवे
छिनाल कहकर पुकारा गया उसे

उसके भीतर से एक-एक कर
बाहर आते पुरूषों नें ही नहीं
अपने को भीतर ही भीतर मारतीं
औरतों ने भी नहीं बख्शा उसे
उन्होंने भी उसे इसी शब्द से तांसा

और तो और खुद उसने भी
इसे अपनी ही जैसी औरत के
सिर पर खीचकर दे मारा

झूठ

 

यह झूठ है तो भी मेरी गति में
इसने अपनी जगह बना ली है
ऐसा झूठ जो दुनिया में जुबान से अधिक
लोगों की आंखो से बोला गया है

दुनिया सबकी हो सब इसे सबकी माने
यह झूठ है तो मेरी तरह इसे
कौन नहीं बोलना चाहेगा

वह तो इसे बार-बार दोहराना चाहेंगे
जिन्हें यह लगता है कि यह दुनिया
उतनी उनकी नहीं
जितना इसे होना चाहिये उनका

झूठ ही तो था जो ढह गया
जो ढह गया वह झूठ रहा होगा
मगर यह झूठ तो लगातार
अपने बोले जाने को अभिशप्त है

वाकिंग दि प्लैंक

 

जगह-जगह अपना लंगर डालता
अमरीका से चला है जहाज
जहाज में भरे है दाम अपार

जगह-जगह अपना रूआब गांठता
जगह -जगह अपने कद बराबर
छाया छोड़ता बढ़ देता आगे

कोई जो इसकी छोड़ी कालिमा का
करता प्रतिरोध, ओढ़ने से
करता उसे इंकार
देश, देह या फिर दिमाग कोई

बांधकर उसके ही जिस्म से
उसका ही देश या फिर दिमाग
करता जाता उसे यह विवश
करने के लिये वाकिंग दि प्लैंक

मगर पीछे देखें तो ऐसा भी एक देश
जिसने अपनी ही तरफ खींच लिया प्लैंक
जो नही डूबा जो ठीक बगल में इसके
कहलाते हुए चे कास्त्रो का क्यूबा

वाकिंग दि प्लैंकः एक मुहाबरा – जहाज पर विद्रोह करने वाले व्यक्ति को कप्तान समुद्र में डूब कर मरने की सजा देता था जहाज पर लकड़ी का पट्टा प्लैंक लगाया जाता उस पर चलते हुए दोषी  को छलांग लगानी पड़ती उसके हाथ बंधे होते उनसे वजन लटका होता ताकि वह तैर कर बच न सके

बाजार

 

तुम किसी का हक क्यों नहीं मारते
किसी को लूटते क्यों नहीं
किसी का गला काटने का कमाल
क्यों नहीं करते तुम, मेरी दुनिया में
तुम्हारी कोई जरूरत नहीं

चलो भागो यहां से तुम्हारे शरीर से
पसीने की गंध आती है
तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती
तुम बासी रोटी खाना कब छोड़ोगे

तुम फर्श साफ कर सकते हो
तुम थूक साफ कर सकते हो
तुम सामान उठा सकते हो
तुम सलाम ठोक सकते हो
तब भी मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं

आना जब तुम्हारी जेबें भरी हों
भले ही नोट खून से लिथड़े हों

नब्बे लाख

 

मैं और वे जो रोटी खाते हैं
उसमें नब्बे लाख गुना अंतर है
क्या मेरी और उनकी रोटी
नस्ल में अंततः रोटी ही है

गणना में उनसे नब्बे लाख गुना कम
मैं अपने मेहनत की गंध से परिचित हूं
उनके पसीने का कोई स्वाद होगा ?

मैं उनसे नब्बे लाख गुना कमतर
बिस्तर पर सोता हूं नब्बे लाख गुना
कमजोर घर में बिताता हूं अपना जीवन
मेरे बच्चों की तुलना में उनके बच्चे
नब्बे लाख सीढ़ीयां ऊपर खड़े हैं

चांद मेरी तुलना में उनके
नब्बे लाख गुना करीब है
वे जब चाहें उसे चूम सकते हैं

भारत के सबसे गरीब और सबसे अमीर आदमी के बीच नब्बे लाख गुना अंतर है

भूलना

 

किसी के लिये कितना आसान होता है भूलना
किसी के लिये कितना कठिन
तब जब कोई कहता है

हमने भी कुछ तोड़ा है भूल जाओ
भूल जाओ कि हमने भी किये है संहार
हमने भी बलात्कार किये है भूल जाओ

बस यह मत भूलो कि हमने
अब तक बहुत सहा है
बहुत नष्ट किया गया है हमें अब तक
बहुत किया गया है हमें दूषित

भूल जाओ कि अब तो हमारे भी चेहरे
विध्ंवसकारियों जैसे हैं भूल जाओ कि
हमने भी कोई अवसर नहीं चूका है
भूल जाओ कि अब हम भी कुछ अलग नही बचे हैं

छाती पर शूल की त्रयि गढ़ाकर
कहा जा रहा है तुम भूलते हो या ………

गरीब देश (1)

 

आपके दिये इस नाम ने मुझे
अपना असली नाम भुला दिया है

आप मेरे लिये सहायता भेजते हैं
डालर मंजूर करते है पीछे-पीछे
आपकी कंपनियां चली आती हैं

मुझे जबरदस्ती हथियार बेचकर
भाग जाती हैं आपके भेजे डालर
में रोटियो में नहीं बदल पाता हूं
मेरा खाली पेट मेरी पहचान है
और मेरी भू़ख मेरी गाथा

मैंने बरसों से भर पेट नहीं खाया
बहुत कमजोर हूं मैं, जो आपकी कंपनियां
मेरे हाथों में थमा जाती है
उन बंदूको को पकड़कर
मैं खड़ा तक नहीं हो पाता हूं

गरीब देश (2)

 

आप मेरी भूख से ज्यादा
मेरी बीमारी पर बात करते हैं

मुझे कौन सी बीमारी है
यह भी आप ढूंढ लेते हैं
बीमारी में मेरी जरूरतें
क्या होगीं ये आपकी
कंपनियां तय कर लेती हैं

हवाई जहाजों में भरकर दवाइयां
आती हैं और मेरे मुंह में
ठूंस दी जाती हैं मैं उनमें रोटियां
और मेरे बच्चे दूध बिस्कुट ढूंढते हैं

मैदान ओैर गलियां गर्भ निरोधकों की
एक्सपायरी से भरे पड़े हैं मेरे

हथियारों की जगह जो
रोटियों से हल हो सकती है
मेरे भीतर फैली वह लड़ाई
तुम्हें नजर ही नहीं आती

आस्था

 

अंगूठे और बीच की उंगली से बजती हुई
चुटकी मुझसे पूछती है बताओ
तुम्हारी आस्था किसमें है मैं कहता हूं खुद में

चुटकी बजाना बंदकर अंगूठे के सहारे
बंदूक की तरह मुझ पर
तनते हूए उंगली कहती है
कैसे आदमी हो तुम तुम्हारी आस्था
राष्ट्र में नहीं है संस्कृति में नहीं है
धर्म में भी नहीं है अच्छा फिर
ऐसे तुम क्या हो जो तुम्हारी आस्था
इन सबमें न होकर  खुद में है

कलाई के सहारे उंगलियां
सबके आगे घूमते हुए कहती हैं
बताओ साला कैसा चूतिया आदमी है
कहता है मेरी आस्था खुद में है

विश्वपला

 

नास्तिक की तरह घूमते हुए वेदो की गलियां
तुम मिली मुझे विश्वपला

ऋगवेद में संपन्न हो चुके यज्ञ की
वेदी की राख को बैसाखी से कुरेदते देख
मैने तुमसे पूछा अरे विश्वपला
तुम्हारे पास अब भी बैसाखी कैसे

तुम्हारे लगडे़पन को तो, लोहे का पैर लगा, दूर करके
अश्विनी कुमार ने बजा दिया था जहां में अपना डंका

फिर तुम यह बैसाखी क्यों पकडे बैठी हो विश्वपला
क्यो इससे कुरेदने में लगी हो वेदी की राख
चलो उठो मुझे भी दौड़कर दिखाओ
यजुर्वेद का यह चमत्कार मैं भी तो देखूं

विश्वपला तुम मेरी तरफ नजर उठाकर
क्यों नहीं देखती यह वेदी कुरेदना
क्यों नहीं रोकती वैसाखी दूर क्यों नहीं फैकती

विश्वपला यह इक्कीसवी सदी है
और तुम यहां तब से बैठी इस बैसाखी से
यज्ञ की राख ही कुरेद रही हो अपना हाथ बढ़ाओ
और मेरे साथ इस सदी में अपने कदम चलो

क्या तुम चलने लायक नहीं हुई विश्वपला
क्या तुम अब भी लगडी हो
अपनी चुप्पी तोड़ो, मुंह खोलो अपना विश्वपला
सच सच बताओं मुझ कवि को बताओ
क्या तुम्हारे भी साथ तब भी वही हुआ
जो अब तक इस सदी में भी जारी है

विश्वपला़: वेद कालीन लगडी स़्त्री जिसे लोहे का पैर लगाकर अश्विनी कुमार नामक दो वै़द्यों ने दौड़ने लायक कर दिया जिनके लिये यज्ञ में ऋचाएं गायी जाती हैं।

भाई

 

मेरे भाई की नाक एवरेस्ट से ऊंची
और चांद से ज्यादा चमकीली
किसी से प्यार करूंगी तो कट जायेगी
अपनी कटी हुई नाक के साथ मेरा भाई
कैसे जियेगा वह तो मर जायेगा जीते जी

उसकी आंख दूरबीन से तेज
निशाना गुलेल सा सटीक
मैं घने झुरमुट में भी किसी से मिलूंगी
वह देख लेगा, वह वहीं से खीचकर
मारेगा पत्थर जो ठीक माथे पर
लगेगा मेरे उसके लगते ही
मेरे भाई का माथा हो जायेगा ऊंचा

कोई हाथ, हाथ में लेकर चलंूगी
गुस्से में उसके हाथ मेरी और उसकी
गर्दन मरोड़ देंगे फैक देंगे किसी
नाले में, कई दिन तक वह अपने
हाथ नहीं धोयेगा, दिखायेगा सबूत
खाप उसके हाथों को चूमेगी जहां तक
घूम सकता वह घूमेगा छाती फुलाकर

कलदार सा खनकदार भाई का नाम
मगर वह कब तक काम आयेगा मेरे
प्रेम तो फिर भी रहेगा साथ
प्रेम के बिना मैं कैसे जियुंगी
प्रेम करूंगी तो जाउंगी मारी

सूर्या सावित्री

 

विवाह की वेदी तक पहुंचने से पहले
और उसके बाद भी उन्हें कभी
बताया ही नहीं गया उसके बारे में

उन्हें तो बस उस सावित्री के बारे में
बताया गया जो यमराज से
वापस ले आयी सत्यवान के प्राण

क्यों छुपाई गई स्त्रियों से हमेशा
सूर्या सावित्री की पहचान
क्यों नहीं बताया गया उन्हें,
तब से उसकी लिखी ऋचाएं अब तक
विवाह मंडप में गाई जातीं लगातार

जिसने तब पिता द्वारा चयनित
सोम को अपनाने से कर दिया इंकार
और अपने सहपाठी पूषा को चुना
साथ बिताने के लिये अपना जीवन

क्या बस इसीलिये विवाह की वेदी के आगे
वचन हारतीं स्त्रियों को नहीं बताया गया
उसके बारे में कि कहीं उनमें से कोई
या कई पिता द्वारा चयनित वर से
न कर दें विवाह करने से इंकार
और कहें नहीं पिता पसंद भी मेरी होगी
और सूर्या सावित्री की तरह शर्तें भी मेरी

विवाह सू़त्र ऋगवेद के दसवें मंडल की सूक्त संख्या जिसमें 47 मंत्र हैं, इन मंत्रों की रचना सूर्या सावित्री नामक एक किशोरी ने अपनी शादी के लिये की । सूर्या नाम की यह कन्या सविता मुनी की बेटी होने की वजह से सूर्या सावित्री कहलाई ।

इससे पहले कि वो

 

इससे पहले कि वो
मुझे कत्ल कर दे

मैं उसे उन उड़ानों के बारे में
बतलाना चाहता हूँ
मेरे भीतर जिन्होंने
अपने ठिये बना रखे हैं

मैं उससे उन थकानों की
बात करना चाहता हूँ
जो मेरी छॉंव में अपने
जिस्म बिछाए लेटी हैं

मैं उन यात्राओं को लेकर
उसके सामने अपनी चिंता
रखना चाहता हूँ
जिनकी राह में
मैं निशान की तरह लगा हूँ

मैं उसे उन सॉंसों से
मिलवाना चाहता हूँ
जिन्होंने अपनी जरूरतों में
मुझे बसा रखा है

वो धारदार निगाह
जो लगातार मेरा
पीछा कर रही है
चाहता हॅूं कुछ देर
मेरे पास आकर बैठे

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                                                                                                                                                                कविता में इन दिनो: पवन करण
-ओम निश्चल

pawan karan photographपवन करण को पहली बार हिंदी संसार ने उनके कविता संग्रह ‘स्‍त्री मेरे भीतर’ से जाना-पहचाना। स्‍त्री  विमर्श के वातावरण को अपनी कविताओं में एक नया वैचारिक आधार देने वाले पवन करण ने स्‍त्री और पुरुष के आपसी मनोविज्ञान को बखूबी कविता में उतारा तथा एक नई उभरती हुई आजाद खयाल की स्‍त्री और सौंदर्य के चालू प्रतिमानो से परिचालित पुरुष की एक नई दुनिया की जिस तरह से उनकी कविताएं शल्‍य क्रिया करती दीख पड़ती थीं वह कविता के वातावरण में नवाचार जैसा था। आजाद होकर भी स्‍त्री कितनी आजाद है और आधुनिकता की आबोहवा में सांस लेने के बावजूद आदमी किस तरह दुहरे तिहरे किरदार को जीता है, पवन करण ने स्‍त्री और पुरुष के इस मनोविज्ञान की भीतरी तहों तक घुस कर कविता में उसकी नई तरह से व्‍याख्‍या की। अब तक जो दबा ढँका था, वह भाभी का प्रेमी, बहन का प्रेमी जैसी कविताओं से उजागर होता गया।

पवन करण के इस साहस की हिंदी कविता में खासा प्रशंसा भी हुई कि उन्‍होंने एक नई और अलक्षित दुनिया खँगाली है। पर यहीं उनके टाइप्‍ड हो जाने का खतरा भी दीखता था जिसके अवशिष्‍ट बाद की कृतियों में स्‍पष्‍ट दीख भी पड़ते थे। उनके बिल्‍कुल नए संग्रह कोट के बाजू पर बटन में कई कविताओं में उनकी सुपरिचित चित्‍त्‍वृत्‍ति स्‍त्री-पुरुष की उन्‍हीं पहचानी सरणियों में विचरण करने में सुख का अनुभव करती है जिसके लिए वे काफी ख्‍याति और चर्चा अर्जित कर चुके हैं। पर यह कहीं कवि का सेचुरेशन पाइंट तो नहीं, जहां वह घूम फिर कर अपने उन्‍हीं आजमाए नुस्‍खों की और लौट लौट आता है।

पवन करण की कविताओं की रासायनिकी को परखते हुए हम उनके अनेक अलक्षित बिम्‍बों अदायगी पर मुग्‍ध होते हैं तो यह सवाल भी कहीं न कहीं हमारा पीछा करता दीखता है।

‘लेखनी’ की इस लेखमाला के अंतर्गत नंद किशोर आचार्य, अरुण कमल, वर्तिका नंदा, भगवत रावत, विनोद कुमार शुक्‍ल, ओम भारती, प्रतापराव कदम, संजय कुंदन, तजिन्‍दर सिंह लूथरा, पुष्‍पिता अवस्‍थी, ज्ञानेन्‍द्रपति, नरेश सक्‍सेना, अशोक वाजपेयी, एकांत श्रीवास्‍तव,सवाईसिंह शेखावत, सविता भार्गव व लीलाधर जगूड़ी,प्रभात त्रिपाठी,अरुण देव, सविता सिंह एवं ज्‍योति चावला के बाद हाल ही में प्रकाशित पवन करण के कविता संग्रह कोट के बाजू पर बटन”’ पर डॉ.ओम निश्‍चल का आलेख।
वृत्‍तांतमयता के चाकचिक्‍य में

समाज की नब्‍ज टटोलता हुआ एक कवि

स्‍त्री मेरे भीतर के ख्‍यात कवि पवन करण ने भूमंडलीकरण के बाद उभरती स्‍त्री और समाज का जो चेहरा उपस्‍थित किया था, उसने भले ही कविता के सुसंस्‍कृत समाज को कुछ मुश्‍किलों में डाला हो, पर आज वे स्‍त्री पुरुष के जटिल संबंधों और समाज के मनोविज्ञान को अपनी कविता के केंद्र में बिठा लेने वाले कवियों में हैं। कोट के बाज़ू पर बटन उनके इस कौशल की गवाही देता है। आज कविता अपनी संक्षिप्‍ति, सारग्राहिता और उद्धरणीयता के उलट जिस आख्‍यानकता या वृत्‍तांतमयता में घटित हो रही है, उसे अंजाम देने वाले कवियों में पवन करण अग्रणी हैं। ऐसी कविताऍं भाषा या शिल्‍प में नहीं, घटना की विश्‍लेषणतात्‍मक किस्‍सागोई में घटित होती हैं जैसे कि वे समाज की नब्‍ज टटोल रहे हों। पवन करण की कविताएं बताती हैं कि समाज किस दिशा में जा रहा है, लड़के-लड़कियां प्रेम के कौन से नुस्‍खे आजमा रहे हैं, किन किन धोखादेह स्‍थितियों से आज की स्‍त्रियां गुजर रही हैं या संबंधों से संवदेना की सचाई आज कैसे मुँह मोड़ चुकी है।

पवन करण की कविता ने ‘स्‍त्री मेरे भीतर’ के बाद यानी ‘अस्‍पताल के बाहर टेलीफोन’ और ‘कहना नहीं आता’ संग्रहों की रचनाओं में अपनी सुपरिचित राह से कुछ अलग राह अपनाने का यत्‍न किया था, पर जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै, पवन करण इस संग्रह में फिर अपनी सुपरिचित सरणि पर चलते दिखाई देते हैं। स्‍त्री की चेतना को लगभग आधिकारिक समझ और संवेदना के साथ कविताओं में उपस्‍थित करने वाले पवन करण की एक कविता पर स्‍त्रीविरोधी संवेदना का अभियोग भी लगाया गया है तथा तमाम बहसों में निंदा और प्रत्‍याख्‍यान के अभियान चलाए गए हैं। किन्‍तु कविता की अपनी आचारसंहिता कुछ अलग होती है। उसके पाठ भी अलग अलग हो सकते हैं। आज के उभरते स्‍त्रीवादी समाजों में जहॉं स्‍त्री अपने अधिकारों को लेकर सजग हुई है, वह उपभोग के किसी भी पुरुषवादी आशय का विरोध करती है। लिहाजा यह वर्जनाओं से घिरे समाज में कविता के लिए निहित आचारसंहिताओं से पार जाने का दुस्‍साहस भी है। इन कविताओं के बारे में कहा गया है कि ‘भले ही तकनॉलाजी और मैनेजमेंट के प्रशिक्षण ने बहुत जगहों पर आदमी को ही हाशिये पर सरका दिया हो, किंतु मध्‍यवर्गीय भद्रलोक की वर्जनाओं से भिड़ंत की धमक वाली ये कविताएं पाठक के संवेदनतंत्र में कुछ अलग ही प्रकार से हलचल पैदा करती हैं, क्‍योंकि भारतीय समाज अभी अपना नग्‍न फोटो सेशन कराने को उत्‍सुक प्रेमिका तथा बेटी और प्रेमिका के बीच पिता के प्‍यार के अंतर तथा विवाह की तैयारी करती प्रेमिका से पति की आंतरिकता को जानने को उत्‍सुक आहत प्रेमी को अपने संस्‍कारों के बीच जगह नहीं दे पाया है।’ कहना यह कि पवन करण की कविता पहली ही मुठभेड़ में हमारे जड़ीभूत संस्‍कारों को झटका देती है कि यह क्‍या? किन्‍तु वह समाज की नग्‍नता से अधिक कविता की ही नग्‍नता प्रतीत होती है।

जैसा कि मैंने कहा, पवन करण भाषा और शिल्‍प के कवि नहीं हैं। वे कथ्‍य के कवि हैं। उनकी कविताओं का अपना समाजशास्‍त्र और मनोविज्ञान है। इस अर्थ में उनकी कविताओं में समाजशास्‍त्र और मनोविज्ञान की घुसपैठ दिखती है। वे स्‍त्री और पुरुष के संबंधों को एक सामाजिक परिघटना के रूप में देखते हैं बेशक इस प्रक्रिया में वे ऐसे समाज की प्रवृत्तियों को अपनी कविता के दर्पण में उतारने का दावा करते प्रतीत होते हैं जो अभी या तो अत्‍यंत विरल हैं या वे कल्‍पनानीत हैं। ‘स्‍त्री मेरे भीतर’ की अप्रत्‍याशित सफलता से अभिभूत उनका कवि स्‍त्री-विवेचन का दामन छोड़ना नहीं चाहता। वह अभी तक उनके यहां अपने उसी फार्म में मौजूद है—कभी प्रेमिका, कभी बेटी, कभी भाभी, कभी पत्‍नी कभी बुआ और कभी छिनाल के रूप में। जिस समाज में अभी भी प्रेम को एक समस्‍या या विकृति माना जाता हो, सेक्‍स या यौनिकता पर चर्चा को भद्रलोक की रुचियों के विरुद्ध, उस समाज की आदतों में दबी छुपी विकृतियों व्‍याधियों को चिह्नित करने का जोखिम कविता में सरल नही है। जैसा कभी मुक्‍तिबोध ने कहा था, ‘पूँजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता।’ यह समाज भी ऊपरी चाकचिक्‍य से परिचालित है। इसके अंत:करण में व्‍याप्‍त कचरे की अभी जैसे सदियों से सफाई नहीं हुई है। हमारी सभ्‍यता का एक बड़ा कवि यही करता है जैसा मुक्‍तिबोध ने किया था, निराला ने किया, धूमिल ने किया, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह कर रहे हैं, ज्ञानेंद्रपति और अरुण कमल कर रहे हैं। पवन करण अपनी क्षमताओं में कितना सफल होते हैं, यह बात दीगर है, परंतु ऐसा करने का एक बीड़ा तो वे उठाते ही हैं। कहीं कहीं उनमें असहज प्रयोग भी दिखते हैं जब वे पिटाई प्रसंग में पिता की पिटाई की ‘तिलमिलाहट’ को ‘पिटाई का स्‍वाद’ कह कर अभिहित करते हैं। पर ऐसे प्रसंग विरल ही हैं।

पवन करण की कविता की प्रकृति प्राय: लंबी कविताओं की है। वे एक आख्‍यान के सहारे कविता की रचना करते हैं। छोटी कविताओं में उनका जादू वैसा नहीं चलता जैसा लंबी कविताओं में। लंबी कविता के प्रारूप में ही उनकी कविताई का रंग खिलता है। इसी संग्रह में दो दर्जन से ज्‍यादा कविताएं हैं जो प्रदीर्घ कोटि की हैं। उनमें भी वे कविताएं जहॉं वे इस समाज में स्‍त्री और पुरुष संबंधों की स्‍कैनिंग करते हैं। वे इसी समाज से एक पिता की खोज करते हैं जो अपनी बिटिया जैसी उम्र की स्‍त्री के प्रेम में गिरफ्तार है जिसकी वजह से बेटी को अपने पिता में एक पुरुष नजर आता है तो उसकी मॉं के चेहरे पर तनाव का एक स्‍थायी भाव।(वह अब मुझसे भी डरने लगी है) । एक दूसरी कविता ‘क्‍या मैं तुम्‍हें बदला हुआ सा नहीं लगा’ में प्रेमिका से पत्‍नी बनी स्‍त्री से स्‍वगत संवाद है। इसमें कविता कहां है, यह तो नहीं कहा जा सकता पर हॉं, एक ऐसा साधारणीकरण जरूर दिख सकता है कि जिसमें तमाम पतियों की सूरतें दिखें। ‘बड़ी बुआ’ भी लगभग वैसी ही कविता है जैसी ऐसी बुआओं पर आम तौर पर कहानियां मिल जाती हैं। प्रेम किया। छली गयीं। ब्‍याही गयीं, विधवा हुईं और जीवन निरर्थ गुजर गया। पवन करण की कविताओं में संवेदना की जामा तलाशी लेने पर अक्‍सर खाली हाथ लौटना होता है। पर कभी कभी उनकी आंखों की कोर गीली भी दिखती है जैसे ‘छिनाल’, ‘जिसे वह अपने विस्‍तार की तरह आई देखती’ ‘अपने विवाह की तैयारी करती प्रेमिका, ‘उस भले आदमी के पास मैं अपना समय छोड़ आई हूँ’, जैसी कविताओं में— जहॉं लगता है कवि खुद ऐसी स्‍थितियों से गुजरा-सा है। पर ऐसी कविताएं भी यहां हैं जैसे ‘मैं जानती हूँ वह मुझसे क्‍या जानना चाहता है’ –में पुरुष के सहज कौतूहल का चित्र खींचा गया है जो अपनी प्रेमिका के विवाह के बाद उसके दाम्‍पत्‍य के बारे में सुनना जानना चाहता है अपने पौरुषेय भाव को जीते हुए। ऐसी कविताओं में पवन करण को महारत है। वे एक संशयी पुरुष का मनोविज्ञान पढते हैं जिसके बारे में कभी ओशो ने कहा था प्रेम में होकर भी अक्‍सर प्रेमी इसी संशय में वक्‍त गुजार देता है कि उसकी प्रेमिका किसी और से तो प्‍यार नहीं करती?

ऐसी कविताओं से अलग भी कुछ कविताएं हैं जो पवन करण के वैविध्‍य का परिचय देती हैं। जैसे ‘बाजार’। बाजार लूट के लिए गला काटने के लिए उकसाता है, वह उस शख्‍स़ का स्‍वागत करता है जिसकी जेबें भरी हों, चाहे नोट खून से लिथड़े ही क्‍यों न हों। इसी तरह ‘सीवर लाइन’ कविता उस आदमी का कातर चित्र खींचती है जो सीवर लाइन में काम करने उतरता तो है पर वापस नहीं लौटता है। हालांकि इसकी भाषा एक हद तक गू से लिथड़ी नज़र आती है। अंतर्जातीय विवाह के लिए अभी भी समाज अग्रसर नहीं हुआ है। उसकी चेतना पर आज भी नफरत और निषेध की धूल अँटी पड़ी है। पवन समाज के इस संकरे विवेक पर अपनी कविता से एक तमाचा मारते हैं और उस मां से अपनी उस कोखजायी बेटी के बारे में चंद सवालात करते हैं जिसने अपनी पसंद से एक विजातीय दलित से शादी रचा ली है; फलस्‍वरूप, समाज के तानों से अपमानित होकर जिसके बेटे ने अपनी इहलीला ही समाप्‍त कर ली है। कवि हाशिए में ठिठके उस आदमी की आवाज को अनदेखा नही करता जो अभी भी यही बुदबुदा रहा है:

पिछली सदी की तरह
नहीं होगी मेरी कोई आवाज़
अगली सदी में भी
हाथों में कुछ जूते
और मुँहों पर कई गालियां
मेरे लिए वहां भी होंगी तैयार। (अगली सदी में)

coat ke baaju par button‘कोट के बाज़ू पर बटन’ में कुछ और भी कविताएं हैं जो पवन करण के कवित-विवेक पर अपनी मुहर दर्ज करती हैं। जैसे, ‘पेशी से वापस लौटते हुए कैदी’, ‘गाय हमारी माता है’, ‘प्रधान मंत्री के कमांडो’ और ‘अमेरिका के राष्‍ट्रपति होने के मजे’ कविताओं में उनके कुछ प्रेक्षण(आब्‍जर्वेशन्‍स); पर उन्‍हें पढते हुए अब लगने लगा है कि वे अपने ही कथ्‍य और अंदाजेबयां के ‘सेचुरेशन पाइंट पर पहुंच चुके हैं। अन्‍यथा ‘प्रधान मंत्री के कमांडो’ कविता में प्रधानमंत्री के नाड़े खोलने और कमांडो की पेशाब के ज़मीन पर नाचने’ जैसे चित्रण की भला क्‍या जरूरत ? कुछ मिलते जुलते नुस्‍खे उनकी कविताओं में बार बार आते हैं जिन्‍हें वे पहले ही ‘स्‍त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’ और ‘कहना नहीं आता’ में आजमा चुके हैं।

कोट के बाज़ू पर बटन/ पवन करण, राधाकृष्‍ण प्रकाशन, 7/31 अंसारी रोड, दरियांगज, नई दिल्‍ली, मूल्‍य 250/-

                                                                                                                                          omnishchal@gmail.com

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