कविता आज और अभीः मई-जून 23


किसी पर्वत से भिड़ जाने की, बादल बन के उड़ जाने की
सूरज संग पेंच लड़ाने की मेरी अभिलाषा बाकी है।

सपने जिंदा हैं मरें नहीं, अरमां अभी पूरे करे नहीं
ऊँचे अभी पेंग बढ़ाने की मेरी अभिलाषा बाकी है.

सौ मील चला और सिफ़र रहा, पर तेज़ हवा में निडर रहा.
अभी आंधी से टकराने की मेरी अभिलाषा बाकी है.

कितना भी बिकट सितम होगा हौसला कभी न कम होगा
तकदीरों से लड़ जाने की मेरी अभिलाषा बाकी है.

सुमित त्रिपाठी, कानपुर

इमारतों से मेरा वादा था

उन इमारतों से मेरा वादा था,
मुझे बचा लेंगी वो,
या कि उनका मुझसे वादा था,
बारिशों के दिनों का,
उससे भी ज्यादा सर्दियों का,
कांपती हुई हमारी आत्माओं को,
ठिठुरती हुई रूहों को हमारी,
दौड़कर आती, आतुर निगाहों को,
थाम लेंगी इमारतें ये,
यहाँ किताबों की पढाई होती है,
बांचे और बेचे भी जाते हैं,
सपने यहाँ,
पन्ना दर पन्ना,
पढ़कर आना,
फिर वादा खिलाफी हुई यहाँ,
किताबो में घुसाई गयीं,
बाहर की बातें,
इनके, उनके, प्यार की बातें,
इज़हार की बातें,
इनकार की बातें,
बातें यहाँ, वहां होने ही,
खोने की,
सब डाली गयीं,
किताबो में,
बहकाया गया,
झुठलाया गया,
दगाबाजी की इन इमारतों ने।
पंखुरी सिन्हा

क्लास अथवा शिक्षा सभागार
क्यूँ मेरी किताबों से दूर किये हैं,
दूर किये दे रहे हैं,
सवाल उनके, बवाल उनके,
प्रपंच उनके,
प्रहार उनके,
पहले दिन क्लास के,
स्कूल के,
जब एक बेहद खूबसूरत संगीत तिरता था,
धरती पर,
अम्बर में,
क्यूँ दूर किये देते हैं,
किताबों से मेरी,
लिखावट से उसकी,
खूबसूरत, लिखावट से उसकी,
छपाई से,
मेरी पेंसिल की रेखाओं से,
दुनिया की उस सबसे खूबसूरत लकीर से,
खीची गयी इन बेहद खूबसूरत अक्षरों के नीचे,
अक्षरों की बातों को उकेरती लकीर से,
या लाँघकर उसे,
प्रवेश कर इन अक्षरों में,
देकर मेरी ज़िन्दगी में दखल,
लेकर मेरे प्रेमी की आज्ञा,
होकर मेरे प्रेमी के साथ,
पूरी तरह निजी में मेरे,
कि निजी पर हक है उनका,
वो जो मेरे शिक्षक हैं,
पहले निजी पर करेंगे सवाल,
कि निजी है प्राथमिक,
शिक्षा द्वितीय।
है,
पर निजी उनके लिए नहीं।

पंखुरी सिन्हा

न जाने बचपन किधर गया…..

अभी अभी तो हाथ पकड़कर
साथ साथ ही चलता था
आगे बढ़ने की चाहों में वो
सबको हँसमुख दिखता था

जीवन की इन बाधाओं ने
कब मुझसे उसको छीन लिया
पीछे मुड़कर कितना ढूंढा
न जाने बचपन किधर गया…..

चँदा मामा को छूने की
आशाएँ सारी रखता था
उड़न खटोले की परवाज़ें
सपनों में भी भरता था
हर मज़हब उसको प्यारा था
बस देश ही उसका न्यारा था

पीछे मुड़कर कितना ढूंढा
न जाने बचपन किधर गया…..

खेल खिलौने ईद दीवाली
सबमें अपना दिखता था
दादी नानी ख़ाला मौसी
वो सबको अपना कहता था
कब माँ की लोरी छूट गयी
कब रिश्तों का धमाल हुआ

पीछे मुड़कर कितना ढूंढा
ना जाने बचपन किधर गया
अब्बास अली रिजवी, आस्ट्रेलिया

ममता की मूरत नारी
माँ बेटी बहू बहना,
किसी की जीवन संगिनी,
सावित्री अहिल्या दुर्गा लक्ष्मी,
जंग लडने वाली मर्दानी।
**
ममता की मूरत नारी,
दो कुलों का मान बढ़ाया,
सुख दुःखों की सारथी,
सुनहरा संसार बसाया ।
**
भूल गए सारी मर्यादा,
पग पग पर तांकता दुर्योधन,
सीता अब तक महफूज नहीं,
पुष्पक लेकर खडा है रावण।
**
निचोड कर सारा बदन,
लाचार उसे कौन बनाता है?
खुद हवस का पाप कर,
पापी उसे कौन कहता है?
**
प्रथा पाखंड की बोझ सहती,
कब होगी चूल्हा चौखट से बिदाई?
दर्शन कराती इस जगत का,
कब होगी भेदभाव से रिहाई?
**
एस.आर.शेंडे, सौंसर( छिंदवाड़ा),मध्यप्रदेश,भारत
दूरभाष- 8103681228


शहर में अब न संभावना है।

प्रभात का समय था, अरविंद वाटिका का किनारा।
चन्दौली शहर में वह , करती थी गुजारा ।।

बीती रात हुई थी उस वाटिका में किसी की शादी।
सुबह के समय तक सोई थी शहर की आबादी ।।

बाईपास के किनारे फेंके गए थे उच्छिष्ट।
थी वह खोजती उसमें अपने क्षुधार्थ अभीष्ट।।

देखकर ये दृश्य द्रवित हुई मेरी आँखें।
उस बेचारी की चल रही थीं धीमी सांसें।।

वृद्धा भिखारिन ने दृष्टि ऊपर की बड़ी सदमे में
और…
फिर से जुट गयी रात के भूखे पेट को भरने में।

कुछ शहरी रईस व हुक्काम अपने ‘कुत्तों’ के साथ
‘मॉर्निंग वॉक’ हेतु निकले थे और
सीधे चले जा रहे थे।

शायद उनके लिए वह बेमतलब की चीज थी।

फिर मैंने सोचा- “चलो भैया! शहर में अब न सम्भावना है।”

जितेन्द्र कुमार,चन्दौली (एम.ए, बीएड,जेआरएफ हिन्दी,नेट संस्कृत,शोधार्थी)।
कलम सृजक सम्मान 2020,साहित्य प्रतिभा सम्मान, साहित्य सारथी सम्मान 2022,साहित्य-ए-हिन्द सेवा रत्न।

हम भारतीय

सुनो ऐ दुनिया वालों
लाख जतन कर ले कोई,
शमशीर हम उठा लेंगे

हौंसलो की तो ऐ दुश्मन बात न करना
पर्वत को भी पठार बना देंगे (मिट्टी इसलिए नहीं की धूल बनाना आसान है, पठार मुश्किल से बनते हैं )
पर जोश में होश नहीं खोते
भारतीय हैं, भारतीयता दिखा देंगे

पिता हिमालय
जीवनदायनी मां गंगे
भाई तुल्य पठार हुंकारे
जरूरत पर बहन झील पुकारे
है कोई जो भारत की ओर
आंख तरेरे!

वसुधैव कुटुंबकम सिध्दांत हमारा
जनगणमन ईमान हमारा
विश्वगुरू थे ही हम,
आश्रम की परंपरा निभाएंगे
मीलों चल कर यहां आए हैं
धूनी विश्वभर में रमाएंगे।

सच कहें तो
शांत हैं हम
पर कायर मत समझ लेना
राणा की भूमि में
सावरकर की ललकार भुला न देना
इस धरा पर
स्वतंत्रता की खातिर
कई करोड़ों शहीद हुए
इस शहादत को
यों ही गवा न देना।

और तरक्की करे देश,
यही दुआ सब मिलकर करना।
वीरों की शहादत यही पुकारे
गुलामी की जंजीरे फ़िर न सजा लेना

झेल चुके बहुत हम परतंत्र

अब ये स्वतंत्रता गंवा न देना।

अरुणा घवाना, देहली


आशा की किरण

वह कौन है जो।
कर रहा है कोशिश
जाने की वहाँ जहाँ घनघोर अंधेरा है
दे रहा है दस्तक वह फिर भी
निरंतर बंद द्वार को
कोई तो खोले और लेले उसे
अपनी आग़ोश में
एहसास कराए सुरक्षा का

वह सोचती है
घनघोर अंधेरा सुरक्षित रखेगा उसे
आसमाँ में घिरे गिद्धों से
उनके ख़तरनाक पंजों से
जो नोचता है खसोटता है
मांस क्या
खून का एक कतरा तक नहीं छोड़ता ।
कोशिशों के बाद आख़िर
खुलता है वह द्वार
नज़र आती है रोशनी की चंद किरणें
जिसकी प्रतीक्षा थी उसे
कोशिश करती है पहचानने की
उन आशा की किरणों को
जो बचाएगा उसे अंधेरों से

पर दुविधा में है
अंधेरों से तो बच जाएगी वह किसी तरह
पर क्या उन किरणों से बच पाएगी ?
जिन पर है यक़ीं उसे ?

आशा मिश्रा,

फिर से बचपन के वो खेल बुलाते हैं मुझको।
आज सब-के-सब आवाज लगाते हैं मुझको।।

बोरी में दोनों पाँव उचककर चलने की कोशिश,
दोस्त के पाँव में पाँव फँसा दौडने की कोशिश।

खो-खो, पीटो, कबड्डी में पकड़ पाने की दौड़,
लूडो कैरम बोर्ड, शतरंज में जीत जाने की होड़।

चम्मच के नीम्बू, वो लुका-छिपी बुलाते है मुझको,
आज सब-के-सब, आवाज लगाते हैं मुझको।

फिर से बचपन के वो खेल बुलाते हैं मुझको।
जाग के भी, सोए रहने का बहाना करना,

काम से जी चुरा, पढ़ने का बहाना करना।
नींद ना आए पर नींद का बहाना करना,

होमवर्क ना हो, सिरदर्द का बहाना करना।
वो खट्टे-मीठ्ठे, मासूम बहाने बुलाते हैं मुझको।

आज सब-के-सब आवाज लगाते हैं मुझको।
फिर से बचपन के खेल बुलाते हैं मुझको।

पल में रूठना, वो पल में मान भी जाना,
रोते हुए हँसना, कभी हँसते हुए भी रोना।

बेबात खिलखिलाना भी, हँसना-हँसाना।
हर बात पर सबको चिढ़ाने का मजा लेना।

बेबाक हँसी, वो साजो-संगीत बुलाते हैं मुझको,
आज सब-के-सब आवाज लगाते हैं मुझको।

फिर से बचपन के खेल बुलाते हैं मुझको।

किवाड़ के पीछे से थप्पा करने का मजा,
थाल में पत्थर सजा मिठाई बताने का मजा ।

माँ की साड़ी लपेट माँ बनने का मजा,
हथेली से आँखों को छुपा, छुप जाने का मजा।

हल्की शरारतों के गहरे अक्स बुलाते हैं मुझको,
आज सब -के-सब आवाज लगाते हैं मुझको।

फिर से बचपन के सारे खेल बुलाते हैं मुझको।

वो उछलकर चाँद-तारों को छूने की कोशिश,
वो लहरों पे बिखरा सोना बटोरने की कोशिश,

किनारों पर रेत के महल सजाने की ख़्वाहिश,
छत पर रातों को तारों संग खेलने की कोशिश।

आज वो चाँद-तारे-नदिया बुलाते हैं मुझको,
आज सब-के-सब आवाज लगाते हैं मुझको,

फिर से बचपन के वो खेल बुलाते हैं मुझको।

इंदु झुनझुनवाला, बंगलौर

शेर बना सरदार है
आया यह वार निराला, धाट धाट पर धार है,
शेर हिरन हो एक मुहाने, ऐसे स्वप्न हजार हैं।
भई, शेर बना सरदार है ।

खट्टे हैं अंगूर या देखो, बिल्ली से तकरार है ,
खीसियानी हो खम्भा नोचे, तीखे -तीखे वार हैं ।
शेर बना सरदार है ।

चूहे बिल्ली ब्याह रचाऐ , किन्तु सब बेकार है ।
भौंक भौंककर कुते थक गए, हाथी चले बाजार है ।
शेर बना सरदार है ।

बंदर बाँट बाटती बिल्ली , चटकर गई आहार है ।
भाग से उसके छींका टूटे, नखरे करे हजार है ।
शेर बना सरदार है ।

साँप छछुंदर खेल खेल रहे, मुँह मे टपके लार है ।
मोर पपीहा सभी बौराए , सबके सब लाचार है ।

राम राज की बात करे सब, जात-पात से प्यार है ,
कैसे हो साकार ये सपना, गिरगिट की भरमार है ।
भई शेर बना सरदार है ।

कैसे तान सुने बँसुरी की, सबके मन मे खार है ।
होली के मौसम में देखो, गाए गीत मल्हार है।
भई शेर बना सरदार है ।

जंगल में मंगल है देखो, कीचड़ की भरमार है ,
फूल खिल रहे “इन्दु” फिर भी , ये बासंती राग है।
भई शेर बना सरदार है ।
इंदु झुनझुनवाला, बैंगलौर


मुक्तक
1.
बााँटना यदि चाहते हो बााँटिये बस प्यार को
छााँटना यदि चाहते हो छााँटिये अँधियार को
कल रहें या ना रहें हम कौन है यह जानता
आइये प्यासी धरा को सीींचें हम प्यार से ।
2.
सत्य,सींयम,साधना,श्रम,शाींल की प्रतिमूर्ति हो
तप,समपिण,त्याग,धीरज,सौम्यता की मूरत हो
तुम हिय में हो विराजत,तुम हिय की शर्त हो
भावना तुम,कामना तुम,भजन हो,अनवरत हो।
3.
यहााँ जिस भी तरफ देखो वहााँ भगवान मिलते हैं
कहीं भगवान से रिश्ते, कहीं नाते निकलते हैं
यहााँ ढूाँढा किया मैंने जहााँ में हर जगह लेकिन
नहीं स्थान मिल पाया जहााँ इन्सान मिलते हैं।
4.
कहीं मंदिर,कहीं मस्जिद कहीं पर, गुरुद्वारा
भटकता ही रहा हूँ,बहकता फिर रहा मारा
नहीं झााँका कभी दिल में जहााँ निवास करता है
सत्याचरण, शुभकर्म से ही जो पिघलता है।

इधर खतरा, उधर खतरा, जिधर देखो, उधर खतरा
कहीं नसल, कहीं मजहब, कहीं आतींक है खतरा
कहााँ जाऊाँ ! किधर जाऊाँ ! जिधर जाऊाँ , इसे पाऊँ
बनाया रहनुमा जिनको, उन्हीं से बन गया खतरा ।

अनिल गुप्ता. देहरादून


“जानवर ”

अक्सर शहर के जंगलों में ;
मुझे जानवर नज़र आतें है !
इंसान की शक्ल में घूमते हुए ;
शिकार को ढूंढते हुए ;
और झपटते हुए..
फिर नोचते हुए..
और खाते हुए !

और फिर एक और शशकार के तलाश में,
भटकते हुए..!

और क्या कहूँ ,
जो जंगल के जानवर है ;
वो परेशान है !
हैरान है !
इंसान की भूख को देखकर !

मुझसे कह रहे थे..
तुम इंसानों से तो हम जानवर अच्छे !

उन जानवरों के सामने ; मैं निशब्द था ,
क्योंकि ; मैं भी एक इंसान था !

विजय सप्पत्ति

जब खेतों की हरियाली
सावन को साथ लाने की
जिद लिए जी रहे हो
जब उम्मीदों की घास
बच्चों के खाली हाथों में
खिलौनों की जगह
ताकत लिए उग रहे हों
हम आश्वस्त हैं
कि दरख्त अभी नहीं सूखेगा ।

साहस और विश्वास के अंतिम छोर तक
वह मौजूद रहता है सदा हमारे समय में
घड़ी की सूई बनकर
हमारी आंखों में
ज्योति की चमक बनकर
जो प्रत्येक खौफ के विरुद्ध
शपथ उठाने का हौसला रखता है
तब बची रहती है हमारे चूल्हे में आँच ।

बहुत संभव है कि वे बदतर समय में भी
शब्दों के साथ हों
और आसमान में टंगी दुनिया
कल को बदल जाए केचुओं में
इन सभी स्थितियों को हम
जितने कम समय में जान लें
मोहरे बनाने के उनके सारे उपाय
उनके टेबल पर ही धरे रह जाएंगें ।

मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ
कि मंगल की भाषा
कैसे पृथ्वी का किरण बनेगी
और हमारे पुरुषत्व का दंभ
कैसे व्यवस्ता के खिलाफ
कुदाल उठा पायेगा ।

हम महज देह नहीं हैं
ना ही धूलकण
हमारे हाथों में हैं
शब्दों की आवाजें
और सीने में है सूरज
तब कैसे
कोई समय बदतर होगा ।

* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271

मैं सोचता हूँ कि
मजदूरों को रोशनी चाहिए
रसोईयों को भोजन
स्त्रियों को मुकुट
और अंधेरे को सूरज ।

नदी में पत्थर की तरह
वसंत नहीं उतर आएगा
मेरे विचारों में ।

कितना मुश्किल हो गया है
आज मिट्टी का दीप जलाना
इंटरनेट की ओर भागती
इस दुनिया में ।

जब हर चीज के अस्तित्व में
विश्व बाजार खुल गया है
और हमें पहचानने में
मुश्किल हो रही है
उन कच्चे मकानों को
जहां आस्था का दीपक
स्वाद के ताबुत में
बंद हो गये हैं ।

निःसंदेह आदमी
घोड़े के रेस में शामिल है
और जमीन खोद रहा हल
आंसूओं के पानी के बीच नम
तब नीड़ के उस धुंधली परत में
इमारत के चौकोर चमक को
हम कैसे सही आकार दे पाएंगें ।

* मोतीलाल/राउरकेला

यह चुप्पियों का शहर है
निजाम बदल गये
तंजीमें बदल गयीं
पर इस शहर की तसवीर नहीं बदली
यह,
हादसों का एक शहर है
यहाँ धूल है, धुआँ है
राख की ढीहें हैं
और ढेर-सी चुप्पियाँ हैं।

इन चुप्पियों के बीच
इक्की-दुक्की जो आहटें हैं
अधजले शवों पर श्मशान में
कौवों, चीलों की
छीना-झपटी जैसे हैं
जो टूटता है जब-तब
उँघती सरकार की
नींद उचाटती नारों की फेहरिस्त से
गलियों में सड़कों पर इमारतों में
जिनकी बोलियाँ पहले ही लग चुकी होती है।

‘मंगलदायक-भाग्यविधाताओं’
की छतरियों के नीचे
मर-मर कर जीने
और अभिशप्त रहने की तमीज़
स्वशासन के इतने सालों में
लोगों ने शायद सीख लिया है,
तभी तो शहर में इतनी वहशत के बाद भी
न इनकी आँखें खुलती हैं
न जुबान हिलती हैं
पेट के संगत पर सिर्फ़
इनके हाथ और
इनकी जांघें चलती हैं।

इनकी ‘बोलती बंद’के पीछे
तरह-तरह की भूख की तफसीलें हैं
जो इंसानियत की सभी हदें फांदकर
इस शहर के जनतंत्र में
इन्हें पालतू र्ररा सी
बनाये रखती हैं
जहाँ अपनी आँखों के सामने
खून होता तो देखते हैं ये
चीखें भी सुनते हैं
मगर बोल नहीं पाते।
न कटघरे में
खड़े होकर अपने हलफ़नामे दे सकते।
इन पर बिफ़रना,
गुस्से से लाल होना
हमारे कायर चलन हैं,
क्योंकि हर लफ्ज़, हर सिफ़र पर
यहाँ कोई गुप्त पाबंदी है,
इसलिए खू़न को खून,
कह पाना यहाँ लगभग बेमानी है,
जैसे खू़न नहीं बहता पानी है।
डर के चूहों ने
हमारे मगज़ में घुसकर
इतनी कारसाजी से
होश की जड़ें कुतर दिये हैं कि
ड्राइंगरूम की सीमा लांघ
कभी हम भी सड़क पर
उतरने की ज़हमत
नहीं उठा पाते।
इतने जात, धर्म, झंडे
और सफेद होते सच हैं यहाँ
कि जन का स्वर
इस तंत्र में दब कर रह जाता है।
लपक लेता है कोई
अन्दर की सुगबुगाहटें
चंद शातिर चालों को खेलकर
अनगढ़े गढ़ देने का आश्वासन देकर
सुशासन के कई-कई वादों में।

हताश जनमन ठगा सा पाता है
शहर के हर मोड़ पर अपने को।
और हर बार यही होता है
कि क्रांतिबीज
अंकुरन की दशा में ही कुचक्रों का पाला
झेलकर मर जाता है,
शहर की नाक़ पर चढ़ा तापमान भी
गिर जाता है।

समझ नहीं पाते
इस शहर के बासिंदे
इतनी-सी सच
और ईहलोक-परलोक सुधारने
का सपना लिये
अपने सपनों की दुनिया में वापस
लौट आते हैं
जहां हाड़तोड़ कमाई को अपनी
ठेकेदारों की झोलियों में भरते रहते हैं
और खुद ‘फकीरचंद’ रहते हैं !

ज़ाहिर है,जायज़ सवालों को लेकर जब तक
लोगों की चुप्पियाँ नहीं टूटेंगी,
रीढ़ अपनी सीधी कर लोग
सख्त इरादों से तनी
अपनी मुट्ठियाँ
कुव्यवस्था के खिलाफ़
जनतंत्र के आकाश में
जब तक नहीं लहरायेंगे
मतपेटियों पर काबिज़ जिन्न
तब तक कानून की आड़ में
तंत्र के अक़्स बनकर
इस शहर पर क़हर
बरपाते रहेंगे
और लोग अपनी आँखें
मलते रहेंगे
लानतों के इस गर्द-गुबार शहर में!

-सुशील कुमार
दुमका, झारखंड

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