सुनील साहिल की कविताओं को पढ़ना एक सुखद एहसास है ! उनकी कलम में रवानगी है, भावो में दीवानगी है, दिल में वीरानगी है – इस सबने मिलकर साहिल से ऐसी कविताएँ पन्नों पे उतरवाई हैं, जो मन को भिगोती है, रूह को छूती हैं ! साहिल बड़ी सादगी और सहजता से अपनी संवेदनाओं को शब्दों के पैकर में समेट कर प्रस्तुत कर देते हैं !
ज़िंदगी में वे कभी फूलों से, तो कभी काँटो से, तो कभी महकते मधुमास से, तो कभी पीले पत्तों वाले पतझड से रू-बरू ज़रूर हुए हैं, तभी उनकी रचनाओं में एक गहरा समंदर, एक विशाल आकाश, तपती धरती और घुमडते बादल समाए हुए है ! कहा गया है कि अनुभव व्यक्ति का विस्तार कर देते हैं, उसके अंदर सोई पड़ी सम्वेदनाओं और भावनाओं के तंतुओं को खोल देते है ! तब उसकी सोच करवट लेती है, अंदर एक झंझावत सा महसूस होता है; कभी लेखक ऊर्जा से भरता है तो, कभी शिथिलता उसे जकड लेती है ! हर्ष, उल्लास, निराशा, अवसाद के पल उस पर हावी होते और गुज़र जाते हैं ! लेकिन उसे अंदर से ‘संपन्न’ बना जाते है ! उसके दिल में एक ऐसी बेशकीमती पूंजी छोड़ जाते हैं, जो उसके सृजन का स्रोत बन जाती है और तब स्रोत से फूटती है – चलते-चलते, मेरे आँगन से ओ चंदा, जाने कितने गम देखे, जिंदगी तू आ मुझसे मिलने, कुनबा, मासूम सी बेटियां, समसारा (मानवतावादी नजरिया), लाश का पत्र, लड़की बदलती है, झील सी, माँ, नानी – झुर्रियों वाली लड़की – जैसी अनूठी और मार्मिक कविताएं !
मैं साहिल की हर कविता पर देर तक ठहरी ! उनकी हर कविता ने मुझे गहराई से छुआ ! कुछ कविताओं – जैसे, माँ, कुनबा, आँगन से ओ चंदा, जाने कितने गम देखे, ने मेरी आँखे छलका दी ! साहिल ने सही तमन्ना की है कि काश हम भी माँ को कोख में रख कर, उसका कर्ज अदा कर पाते ! इसी तरह ‘मेरे आँगन से ओ चंदा’ कविता की ये पंक्तियाँ मन को अनमना सा कर गई –
मेरे आँगन से भी ओ चंदा सारे अंधियारे ले जा
नीर अभाव तुझको हो यदि बादल …..
मेरी आँखों से आंसू ये सारे ले जा
कभी-कभी मै सोचती हूँ कि संवेदनशील लोगो के अंदर आंसुओं का कितना बड़ा सैलाब भरा होता है…….!
मेरा रंग केसरिया, फरेबी परिंदे और नेताओं की टोपियाँ – आज के ज़माने की सच्ची तस्वीर खींचती हैं ! ‘मेरा रंग केसरिया’ – साम्प्रदायिकता पे सुन्दर तंज है!
साहिल की कविताओं में झील सी युवा लडकी है तो नानी के रूप में झुर्रियों वाली लड़की भी है ! वे दोनों पर शिद्दत के साथ कलम चलाते हैं ! यह उनकी सोच की, व्यापक नज़रिए की खूबी है ! उनकी सोच का संसार ‘असीमित’ है, किसी एक ही क्षितिज पर सिमटा हुआ नहीं है ! ‘कुनबा’ कविता तो मुझे मेरे अतीत में ले गई –
वो मीठी शरारतें बचपन तेरा मेरा कहाँ खो गया
भाई जब बड़ा हुआ तो जाने क्यूँ जुदा हो गया
अपने हिस्से के सिक्के भी दे देता था वो मेले में
दुनिया का मेला सजा तो पैसा खुदा हो गया…………………..वाह, वाह, बहुत दर्द भरा है !
‘चलते चलते’ कविता दार्शनिक सी मेरे साथ चलती रही…मेरे ज़ेह्न में! ज़िंदगी के राज़ खोलती रही, न जाने क्या-क्या समझाती रही ! इसी तरह ‘समसारा’ में साहिल का मानवतावादी चिंतन सोचने पे मजबूर करता है कि इस युवा उम्र में साहिल इतना परिपक्व ???
‘लाश का पत्र’ और ‘लडकियाँ बदलती है’ नारी विमर्श से जुडी अद्भुत रचनाएँ है! ‘लडकियाँ बदलती है’ तो कमाल की कविता है! मायके से लेकर ससुराल तक, खिलौनों से लेकर चिता तक औरत के बदलते, ढलते ‘विवश रूपों’ का लाजवाब चित्र खींचा है !
किस कविता की तारीफ़ करूँ – किसको नज़रंदाज़ करूँ ! सभी कविताएँ इतना कुछ कहती हैं, कभी हँसती हैं, मुस्कुराती हैं, कलपती हैं, किलकती है, तो कभी बेजान परिंदा सी खामोशी से पाठक के साथ बहुत कुछ संवाद करती हैं !
साहिल की कलम को सलाम…..!!!! ईश्वर करे कि वे इसी तरह संवेदनाओ से लबरेज कविताएँ लिखते रहें – उनसे पाठकों और श्रोताओं को आंदोलित करते रहे और साहित्य को संपन्न बनाते रहे !
डॉ. दीप्ति गुप्ता
(प्रख्यात लेखिका)
२/ए, ‘आकाशदूत’
१२ – एनॉर्थ एवेन्यू
कल्याणी नगर,
पूना, महाराष्ट्र
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