कहानी धरोहरः पेशावर एक्सप्रेस-कृशन चन्दर

जब मैं पिशावर से चली तो मैं ने छका छक इतमीनान का सांस लिआ। मेरे डबों में ज़िआदातर हिंदू लोग बैठे होए थे। ये लोग पिशावर से होती मरदान से, कोहाट से, चारसदा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बंनों नौशहिरा से, मानसहरा से आए थे और पाकिसतान में जान व माल को महिफ़ूज़ ना पा कर हिंदुसतान का रुख कर रहे थे, सटेशन पर ज़बरदसत पहिरा था और फ़ौज वाले बड़ी चौकसी से काम कर रहे थे। उन लोगों को जो पाकिसतान में पनाहगुज़ीन और हिंदुसतान में शरनारथी कहिलाते थे उस वकत तक चैन का सांस ना आइआ जब तक मैं ने पंजाब की रोमानख़ेज़ सरज़मीन की तरफ़ कदम ना बड़्हाए, ये लोग शकलो सूरत से बिलकुल पठाण मलूम होते थे, गोरे चिटे मज़बूत हाथ पाउं , सर पर कुलाह और लुंगी, और जिसम पर कमीज़ और शलवार, ये लोग पशतो में बात करते थे और कभी कभी निहाइत कुरख़त किसम की पंजाबी में बात चीत करते थे। उन की हिफ़ाज़त के लीए हर डबे मैं दो सिपाही बंदूकें ले कर खड़े थे। वजीह बलोची सिपाही आपणी पगड़िओं के अकब मोर के छतर की तर्हां ख़ूबसूरत तुरे लगाए होए हाथ मैं जदीद राइफ़लें लीए होए उन पठानों और उन के बीवी बचों की तरफ़ मुसकरा मुसकरा कर देख रहे थे जो इक तारीख़ी ख़ौफ़ और शर के ज़ेर-ए-असर उस सर ज़मीन से भागे जा रहे थे जहां वोह हज़ारों साल से रहिते चले आए थे जिस की संगलाख़ सर ज़मीन से उनहों ने तवानाई हासल की थी। जिस के बरफ़ाब चशमों से उनहों ने पाणी पिआ था। आज ये वतन यक लख़त बेगाना हो गिआ था और उस ने आपणे मिहरबान सीने के कवाड़ों पर बंद कर दीए थे और वोह इक नए देस के तपते होए मैदानों का तसवर दिल में लीए बा दिल नाख़वासता वहां से रुख़सत हो रहे थे। इस अमरा की मुसरत ज़रूर थी कि इन की जानें बच गई थीं। उन का बहुत सा मालो मताअ और उन की बहूओं, बेटीओं, माऊं और बीवीओं की आबरू महिफ़ूज़ थी लेकिन उन का दिल रो रहा था और आंखें सरहद के पथरीले सीने पर यूं गड़ी होई थीं गोइआ इसे चीर कर अंदर घुस जाणा चाहती हैं और उस के शफ़कत भरे मामता के फ़वारे से पूछणा चाहती हैं, ‘बोल मां आज किस जुरम की पादाश में तूने आपणे बेटों को घर से निकाल दिआ है। आपणी बहूओं को इस ख़ूबसूरत आंगण से महिरूम कर दिआ है जहां वोह कल्ह तक सुहाग की राणीआं बणी बैठी थीं। आपणी अलबेली कंवारिओं को जो अंगूर की बेल की तर्हां तेरी छाती से लिपट रही थीं झंजोड़ कर अलग कर दिआ है। किस लीए आज ये देस बदेस हो गिआ है। मैं चलती जा रही थी और डबों में बैठी होई मख़लूक आपणे वतन की सत्हा मरतफ़ा उस के बुलंद व बाला चटानों, इस के मरगज़ारों, उस की शादाब वादीओं, कुंजों और बाग़ों की तरफ़ यूं देख रही थी, जैसे हर जाणे पहिचाणे मंज़र को आपणे सीने में छुपा कर ले जाणा चाहती हो जैसे निगाह हर लख़ता रुक जाए, और मुझे ऐसा मलूम हुआ कि इस अज़ीम रंजो आलम के भार से मेरे कदम भारी होए जा रहे हैं। और रेल की पटरी मुझे जवाब दीए जा रही है। हसन अबदाल तक लोग यूं ही महिजों अफ़सुरदा यास व नकबत की तसवीर बणे रहे। हसन अबदाल के सटेशन पर बहुत से सिख आए होए थे। पंजा साहिब से लंबी लंबी करपानें लीए चिहरों पर हवाईआं उड़ी होई बाल बचे सहिमे सहिमे से, ऐसा मलूम होता था कि आपणी ही तलवार के घाउ से ये लोग ख़ुद मर जाएंगे। डबों मैं बैठ कर उन लोगों ने इतमीनान का सांस लिआ और फिर दूसरे सरहद के हिंदू और सिख पठानों से गुफ़तगू शुरू हो गई किसी का घर बार जळ गिआ था कोई सिरफ़ इक कमीज़ और शलवार में भागा था किसी के पाउं मैं जुती ना थी और कोई इतना हुशिआर था कि आपणे घर की टूटी चारपाई तक उठा लाइआ था जिन लोगों का वाकई बहुत नुकसान हुआ था वोह लोग गुंमसुंम बैठे होए थे। ख़ामोश ‘चुप चाप और जिस के पास कभी कुछ ना हुआ था वोह आपणी लाखों की जाइदाद खोने का ग़म कर रिहा था और दूसरों को आपणी फ़रज़ी इमारत के किसे सुणा सुणा कर मरऊब कर रिहा था और मुसलमानों को गालीआं दे रिहा था। बलोची सिपाही इक पुर वकार अंदाज़ में दरवाजों पर राइफ़लें थामें खड़े थे और कभी कभी इक दूसरे की तरफ़ कनखीओं से देख कर मुसकरा उठते। तकशला के सटेशन पर मुझे बहुत अरसे तक खड़्हा रहिणा पड़ा, ना जाणे किस का इंतज़ार था, शाइद आसपास के गाउं से हिंदू पनाहगज़ीं आ रहे थे, जब गारड ने सटेशन मासटर से बार बार पूछा तो उस ने किहा ये गाड़ी आगे ना जा सकेगी। इक घंटा और गुज़र गिआ। अब लोगों ने अपणा सामान ख़ोरदोनोश खोळा और खाणे लगे सहिमे सहिमे बचे कहिकहे लगाने लगे और मासूम कंवारीआं दरीचों से बाहर झांकने लगीं और बड़े बुड़्हे हुके गुड़गड़ाने लगे। थोड़ी देर के बाद दूर से शोर सुणाई दया और ढोलों के पिटणे की आवाजें सुणाई देणे लगीं ।
हिंदू पनाह गज़ीनों का जथा आ रिहा था शाइद लोगों ने सिर निकाल कर इधर इधर देखा। जथा दूर से आ रिहा था और नाअरे लगा रिहा था। वकत गुज़रता था जथा करीब आता गिआ, ढोलों की आवाज़ तेज़ होती गई। जिथे के करीब आते ही गोलिओं की आवाज़ कानों में आई और लोगों ने आपणे सिर खिड़कीओं से पिछे हटा लीए।ये हिंदूओं का जथा था जो आसपास के गाउं से आ रिहा था, गाउं के मुसलमान लोग इसे आपणी हिफ़ाज़त में ला रहे थे। चुनांचि हर इक मुसलमान ने इक काफ़र की लाश आपणे कंधे पर उठा रखी थी जिस ने जान बचा कर गाउं से भागने की कोशिश की थी। दो सो लाशें थीं। मजमा ने ये लाशें निहाइत इतमीनान से सटेशन पहुंच कर बलोची दसते के सपुरद की और किहा कि वोह उन महाजरीन को निहाइत हिफ़ाज़त से हिंदुसतान की सरहद पर ले जाए, चुनांचि बलोची सिपाहीओं ने निहाइत ख़ंदा पेशानी से इस बात का ज़िंमा लिआ और हर डबे में पंदरा बीस लाशें रखदी गई। इस के बाद मजमा ने हवा में फ़ाइर कीआ और गाड़ी चलाणे के लीए सटेशन मासटर को हुकम दिआ मैं चलणे लगी थी कि फिर मुझे रोक दीआ गिआ और मजमा के सरग़ने ने हिंदू पनाह गज़ीनों से किहा कि दो सौ आदमीओं के चले जाणे से उन के गाउं वीरान हो जाएंगे और उन की तजारत तबाह हो जाएगी इस लीए वोह गाड़ी मैं से दो सौ आदमी उतार कर आपणे गाउं ले जाएंगे। चाहे कुछ भी हो। वोह आपणे मुलक को यूं बरबाद होता हुआ नहीं देख सकते। इस पर बलोची सिपाहीओं ने इन के फ़हिम व ज़का और उन की फ़िरासत तबा की दाद दी। और उन की वतन दोसती को सराहा। चुनांचि इस पर बलोची सिपाहीओं ने हर डबे से कुछ आदमी निकाल कर मजमा के हवाले कीए। पूरे दो सौ आदमी निकाले गए। इक कम ना इक ज़िआदा। “लाईन लगाउ काफरो,” सरग़ने ने किहा। सरग़ना आपणे इलाका का सभ से बड़ा जागीरदार था।और आपणे लहू की रवानी में मुकदस जहाद की गूंज सुण रिहा था। काफ़र पथर के बुत बणे खड़े थे। मजमा के लोगों ने इनहें उठा उठा कर लाईन में खड़्हा किआ। दो सौ आदमी, दो सौ ज़िंदा लाशें, चिहरे सते होए। आंखें फ़ज़ा में तीरों की बारिश सी महिसूस करती होई। पहिल बलोची सिपाहीओं ने की। पंदरां आदमी फ़ाइर से गिर गए। ये तकशला का सटेशन था। बीस और आदमी गिर गए। यहां एशीआ की सभ से बड़ी यूनीवरसिटी थी और लाखों तालिब-ए-इलम इस तहिज़ीब ओ तमदन के गहु अरे से कसब फ़ैज़ करते थे। पचास और मारे गए। तकशला के अजाइब घर में इतने ख़ूबसूरत बुत थे इतने हुसन संग तराशी के नादर नमूने, कदीम तहिज़ीब के झलमाते होए चिराग़। पचास और मारे गए। पस-ए-मंज़र में सिर कप का महिल था और खेलों का असग़ी थेटर और मीलों तक फैले होए इक वसीअ शहिर के खंडर, तकशला की गुज़शता अज़मत के पुर शिकवा मज़हर। तीस और मारे गए। यहां कनिशक ने हकूमत की थी और लोगों को अमन व आशती और हुसन व दौलत से मालामाल कीआ था। पचीस और मारे गए। यहां बुध का नग़मा उरफ़ां गूंजा हह यहां भिकशूओं ने अमन व सुल्हा व आशती का दरस हयात दीआ था। अब आख़री गरोह की उजल आ गई थी। यहां पहिली बार हिंदुसतान की सरहद पर इसलाम का प्रचम लहिराइआ था। मुसावात और अख़वत और इनसानीअत का प्रचम। सभ मर गए। अल्हा अकबर। फ़रश ख़ून से लाळ था।
जब मैं पलेटफ़ारम से गुज़री तो मेरे पाउं रेल की पटरी से फिसले जाते थे जैसे मैं अभी गिर जाऊंगी और गिर कर बाकी माणदा मसाफिरों को भी ख़तम कर डालूंगी। हर डबे मैं मौत आ गई थी और लाशें दरमिआन में रखदी गई थीं और ज़िंदा लाशों का हजूम चारों तरफ़ था और बलोची सिपाही मुसकरा रहे थे कहीं कोई बचा रोणे लगा किसी बुड़्ही मां ने सिसकी ली। किसी के लुटे होए सुहाग ने आह की। और चीखती चलाती रावलपिंडी के फ़ारम पर आ खड़ी होई। यहां से कोई पनाहगुज़ीन गाड़ी में सवार ना हुआ। इक डबे मैं चंद मुसलमान नौजवान पंदरा बीस बुरका पोश औरतों को लै कर सवार होए। हर नौजवान राइफ़ल से मसला था।इक डबे मैं बहुत सा सामान जंग लादा गिआ मशीन गंनें , और कारतूस, पिसतौल और राइफ़लें। जिहलम और गुजर ख़ां के दरमिआनी इलाके में मुझे संगल खैंच कर खड़्हा कर दिआ गिआ। मैं रुक गई। मसला नौजवान गाड़ी से उतरने लगे। बुरका पोश ख़वातीन ने शोर मचाणा शुरू किआ। हम हिंदू हैं। हम सिख हैं। हमें ज़बरदसती लै जा रहे हैं। उनहों ने बुरके फाड़ डाले और चिलाणा शुरू किआ। नौजवान मुसलमान हंसते होए उनहें घसीट कर गाड़ी से निकाल लाए। हां ये हिंदू औरतें हैं, हम इनहें रावलपिंडी से उन के आराम दा घरों, इन के ख़ुशहाल घराणों, इन के इज़तदार मां बाप से छीन कर लाए हैं। अब ये हमारी हैं हम उन के साथ जो चाहे सलोक करेंगे। अगर किसी में हिंमत है तो इनहें हम से छीन कर लै जाए। सरहद के दो नौजवान हिंदू पठाण छलांग मार कर गाड़ी से उतर गए, बलोची सिपाहीओं ने निहाइत इतमीनान से फ़ाइर कर के इनहें ख़तम कर दिआ। पंदरा बीस नौजवान और निकले, इनहें मसला मुसलमानों के गरोह ने मिंटों में ख़तम कर दिआ । दरअसल गोशत की दीवार लोहे की गोली का मुकाबला नहीं कर सकती। नौजवान हिंदू औरतों को घसीट कर जंगळ में लै गए मैं और मूंह छुपा कर वहां से भागी। काळा, ख़ौफ़नाक सिआह धूंआं मेरे मूंह से निकल रिहा था। जैसे काइनात पर ख़बासत की सिआही छा गई थी और सांस मेरे सीने मैं यूं अलझने लगी जैसे ये आहनी छाती अभी फुट जाएगी और अंदर भिड़ कते होए लाळ लाळ शोअले इस जंगळ को ख़ाक सिआह कर डालेंगे जो इस वकत मेरे आगे पीछे फैला हुआ था और जिस ने उन पंदरा औरतों को चशम ज़दन मैं निगल लिआ था। लाला मूसा के करीब लाशों से इतनी मकरूह सड़ांद निकलणे लगी कि बलोची सिपाही इनहें बाहर फेंकने पर मजबूर हो गए। वोह हाथ के इशारे से इक आदमी को बुलाते और उस से कहिते, उस की लाश को उठा कर यहां लाओ, दरवाज़े पर । और जब वोह आदमी इक लाश उठा कर दरवाज़े पर लाता तो वोह उसे गाड़ी से बाहर धका दे दिते। थोड़ी देर में सभ लाशें इक इक हमराही के साथ बाहर फैंक दी गई और डबों में आदमी कम हो जाणे से टांगें फैलाणे की जग्हा भी हो गई। फिर लाला मूसा गुज़र गिआ। और वज़ीराबाद आगिआ। वज़ीराबाद का मशहूर जंकशन, वज़ीराबाद का मशहूर शहिर, जहां हिंदुसतान भर के लीए छुरीआं और चाकू तिआर होते हैं। वज़ीराबाद जहां हिंदू और मुसलमान सदीओं से बैसाखी का मेला बड़ी धूमधाम से मनाते हैं और उस की ख़ुशीओं मैं इकठे हिसा लीते हैं वज़ीराबाद का सटेशन लाशों से पटा हुआ था। शाइद ये लोग बैसाखी का मेला देखणे आए थे। लाशों का मेला शहिर मैं धूंआं उठ रिहा था और सटेशन के करीब अंगरेज़ी बैंड की सदा सुणाई
दे रही थी और हजूम की पुर शोर ताळिओं और कहकहों की आवाजें भी सुणाई दे रही थी और हजूम की पुर शोर ताळीओं और कहकहों की आवाज़ें भी सुणाई दे रही थीं। चंद मिंटों मैं हजूम सटेशन पर आ गिआ। आगे आगे दिहाती नाचते गाते आ रहे थे और उन के पिछे नंगी औरतों का हजूम, मादर ज़ाद नंगी औरतें , बुड़्ही, नौजवान, बचीआं, दादीआं और पोतीआं, माएं और बहिनें और बेटीआं, कंवारीआं और हामला औरतें , नाचते गाते होए मरदों के नरगे मैं थीं। औरतें हिंदू और सिख थीं और मरद मुसलमान थे और दोनों ने मिल कर अजीब बैसाखी मनाई थी, औरतों के बाल खुले होए थे। उन के जिसमों पर ज़ख़मों के निशान थे और वोह इस तर्हां सिधी तन कर चल रही थीं जैसे हज़ारों कपड़ों मैं उन के जिसम छुपे होण, जैसे उन की रूहों पर सकून आमेज़ मौत के दबीज़ साए छा गए होण। उन की निगाहों का जलाल दरद पिदी को भी शरमाता था और होंट दांतों के अंदर यूं भींचे होए थे गोइआ किसी महेब लावे का मूंह बंद कीए होए हैं। शाइद अभी ये लावा फुट पड़ेगा और आपणी आतिश फ़शानी से दुनीआ को जहंनम राज़ बणा देगा। मजमा से आवाज़ें आई। पाकिसतान ज़िंदा बाद इसलाम ज़िंदाबाद। क़ाइदे आज़म मुहंमद अली जिनाह ज़िंदाबाद ।नाचते थिरकते होए कदम परे हट गए और अब ये अजीबो ग़रीब हजूम डबों के ऐन साम्हणे था। डबों मैं बैठी होई औरतों ने घूंघट चाड़्ह लीए और डबे की खिड़कीआं यके बाद बंद दीगरे होणे लगी। बलोची सिपाहीओं ने किहा। खिड़कीआं मत बंद करो, हवा रुकती है, खिड़कीआं बंद होती गई । बलोची सिपाहीओं ने बंदूकें ताण लीं। ठाएं,ठाएं फिर भी खिड़कीआं बंद होती गई और फिर डबे मैं इक खिड़की भी ना खुली रही। हां कुछ पनाहगज़ीन ज़रूर मर गए। नंगी औरतें पनाह गज़ीनों के साथ बिठा दी गई।और मैं इसलाम ज़िंदाबाद और क़ाइदे आज़म मुहंमद अली जिनाह ज़िंदाबाद के नाअरों के दरमिआन रुख़सत होई। गाड़ी में बैठा हुआ इक बचा लुड़्हकता लुड़्हकता इक बुड़्ही दादी के पास चला गिआ और उस से पूछणे लगा मां तुम नहा के आई हो? दादी ने आपणे आंसूउं को रोकते होए किहा। हां नंन्हे, आज मुझे मेरे वतन के बेटों ने भाईउं ने नहिलाइआ है। तुमहारे कपड़े कहां है अंमां? उन पर मेरे सुहाग के ख़ून के छींटे थे बेटा। वोह लोग इनहें धोणे के लीए लैगे हैं। दो नंगी लड़कीओं ने गाड़ी से छलांग लगा दी और मैं चीखती चलाती आगे भागी। और लाहौर पहुंच कर दम लिआ। मुझे इक नंबर पलेटफ़ारम पर खड़्हा कीआ गिआ। नंबर 2 पलेटफ़ारम पर दूसरी गाड़ी खड़ी थी। ये अंम्रितसर से आई थी और इस में मुसलमान पनाह गज़ीं बंद थे। थोड़ी देर के बाद मुसलिम ख़िदमतगार मेरे डबों की तलाशी लैणे लगे। और ज़ेवर और नकदी और दूसरा कीमती सामान महाजरीन से लै लिआ गिआ। इस के बाद चार सौ आदमी डबों से निकाल कर सटेशन पर खड़े कीए थे। ये मज्हब के बकरे थे किउंकि अभी अभी नंबर 2 पलेटफ़ारम पर जो मुसलिम महाजरीन की गाड़ी आकर रुकी थी उस में चार सौ मुसलमान मुसाफ़र कम थे और पचास मुसलिम औरतें अग़वा कर ली गई थीं इस लीए यहां पर भी पचास औरतें चुण चुण कर निकाल ली गई और चार सौ हिंदुसतान मसाफिरों को तहि तेग़ कीआ गिआ ता कि हिंदुसतान और पाकिसतान में आबादी का तवाज़न बरकरार रहे। मुसलिम ख़िदमत गारों ने इक दाइरा बणा रखा था और छुरे हाथ में थे और दाइरे में बारी बारी इक महाजरान के छुरे की ज़द में आता था और बड़ी चाबक दसती और मशाकी से हलाक कर दिआ जाता था। चंद मिंटों में चार सौ आदमी ख़तम कर दीए गए और फिर मैं आगे चली। अब मुझे आपणे जिसम के ज़रे ज़रे से घिण आने लगी। इस कदर पलीद और मताफ़न महिसूस कर रही थी। जैसे मुझे शैतान ने सीधा जहंनम से धका दे कर पंजाब में भेज दिआ हो। अटारी पहुंच कर फ़ज़ा बदल सी गई। मुग़लपुरा ही से बलोची सिपाही बदले गए थे और उन की जग्हा डोगरों और सिख सिपाहीओं ने लै ली थी। लेकिन अटारी पहुंच कर तो मुसलमानों की इतनी लाशें हिंदू महाजर ने देखीं कि उन के दिल फ़ुरत मुसरत से बाग़ बाग़ हो गए। आज़ाद हिंदुसतान की सरहद आ गई थी वरना इतना हुसीन मंज़र किस तर्हां देखणे को मिलता और जब मैं अंम्रितसर सटेशन पर पहुंची तो सिखों के नाअरों ने ज़मीन आसमान को गूंजा दिआ । यहां भी मुसलमानों की लाशों के ढेर के ढेर थे और हिंदू जाट और सिख और डोगरे हर डबे मैं झांक कर पूछते थे, कोई शिकार है, मतलब ये कि कोई मुसलमान है।
इक डबे में चार हिंदू व ब्राहमण सवार होए। सिर घटा हुआ, लंबी चोटी, राम नाम की धोती बांधे, हर दवारका सफ़र कर रहे थे। यहां हर डबे मैं आठ दस सिख और जाट भी बैठ गए, ये लोग राइफ़लों और बलमों से मसला थे और मशरकी पंजाब में शिकार की तलाश मैं जा रहे थे। उन में से इक के दिल मैं कुछ शुब्हा सा हुआ। उस ने इक ब्राहमण से पूछा । ब्राहमण देवता किधर जा रहे हो? हर दवार। तीरथ करने। हर दवार जा रहे हो कि पाकिसतान जा रहे हो। मीआं अल्हा अल्हा करो। दूसरे ब्राहमण के मूंह से निकला। जाट हिंसा, तो आओ अल्हा अल्हा करीं। औनथा सिहां, शिकार मिल गिआ भई आओ रहीदा अल्हा बैली करए। इतना कहि कर जाट ने बलम नकली ब्राहमण के सीने में मारा। दूसरे ब्राहमण भागने लगे। जाटों ने इनहें पकड़ लिआ। इसे नहीं ब्राहमण देवता, ज़रा डाकटरी माअना कराते जाओ। हर दवार जाणे से पहिले डाकटरी माअना बहुत ज़रूरी होता है। डाकटरी मुआइने से मुराद ये थी कि वोह लोग ख़तना दिखते थे और जिस के ख़तना हुआ होता उसे वहीं मार डालते। चारों मुसलमान जो ब्राहमण का रूप बदल कर आपणी जान बचाने के लीए भाग रहे थे। वहीं मार डाले गए और मैं आगे चली। रासते मैं इक जग्हा जंगळ मैं मुझे खड़्हा कर दिआ गिआ और महाजरीन और सिपाही और जाट और सिख सभ निकल कर जंगळ की तरफ़ भागने लगे। मैं ने सोचा शाइद मुसलमानों की बहुत बड़ी फ़ौज उन पर हमला करने के लीए आ रही है। इतने मैं किआ देखती हूं कि जंगळ में बहुत सारे मुसलमान मज़ारा आपणे बीवी बचों को लीए छपे बैठे हैं। सिरी असत अकाल और हिंदू धरम की जै के नाअरों की गूंज से जंगळ कांप उठा, और वोह लोग नर गे में लै लीए गए। आधे घंटे मैं सभ सफ़ाइआ हो गिआ। बुढे, जवान, औरतें और बचे सभ मार डाले गए। इक जाट के नेज़े पर इक नंन्हे बचे की लाश थी और वोह उस से हवा मैं घुमा घुमा कर कहि रिहा था। आई बैसाखी। आई बैसाखी जटा लाए है़ है़।
जलंधर से इधर पठानों का इक गाउं था। यहां पर गाड़ी रोक कर लोग गाउं मैं घुस गए। सिपाही और महाजरीन और जाट पठानों ने मुकाबिल किआ। लेकिन आख़िर मैं मारे गए, बचे और मरद हलाक हो गए तो औरतों की बारी आई और वहीं इसी खुले मैदान मैं जहां गेहूं के खलिआण लगाए जाते थे और सरसों के फूल मुसकराते थे और ग़ुफ़त मआब बीबीआं आपणे ख़ावंदों की निगाह शौक की ताब ना लाकर कमज़ोर शाखों की तर्हां झुकी झुकी जाती थीं। इसी वसीअ मैदान मैं जहां पंजाब के दल ने हीर रांझे और सोहणी महींवाल की लाफ़ानी उलफ़त के तराने गाए थे। इनहें शीशम, सरस और पीपल के द्रख़तों तळे वकती चकले आबाद होए। पचास औरतें और पांच सौ ख़ावंद, पचास भेड़ें और पांच सौ कसाब, पचास सोहणीआं और पांच महींवाल, शाइद अब चनाब में कभी तुग़िआनी ना आएगी। शाइद अब कोई वारिस शाह की हीर ना गाएगा। शाइद अब मिरज़ा साहिबान की दासतान उलफ़त व अफ़त उन मैदानों में कभी ना गूंजेगी। लाखों बार लाहनत हो इन राहनमाओं पर और उन की सात पुशतों पर, जिनहों ने इस ख़ूबसूरत पंजाब, इस अलबेले पिआरे, सुनहिरे पंजाब के टुकड़े टुकड़े कर दीए थे और उस की पाकीज़ा रूह को गहिणा दीआ था और उस के मज़बूत जिसम में नफ़रत की पीप भरदी थी, आज पंजाब मर गिआ था, उस के नग़मे गुंगे हो गए थे, उस के गीत मुरदा, उस की ज़बान मुरदा, उस का बेबाक निडर भोळा भाला दिल मुरदा, और ना महिसूस करते होए और आंख और कान ना रखते होए भी मैं ने पंजाब की मौत देखी और ख़ौफ़ से और हैरत से मेरे कदम इस पटरी पर रुक गए। पठाण मरदों और औरतों की लाशें उठाए जाट और सिख और डोगरे और सरहदी हिंदू वापस आए और मैं आगे चली। आगे इक नहिर आती थी ज़रा ज़रा वकफ़े के बाद मैं रुकदी जाती, जिउं ही कोई डबा नहिर के पुळ पर से गुज़रता, लाशों को ऐन नीचे नहिर के पाणी में गिरा दिआ जाता। इस तर्हां जब हर डबे के रुकने के बाद सभ लाशें पाणी मैं गिरा दी गई तो लोगों ने देसी शराब की बोतलें खोल्हीं और मैं ख़ून और शराब और नफ़रत की भाप उगलती होई आगे बड़्ही। लुधिआणा पहुंच कर लुटेरे गाड़ी से उतर गए और शहिर में जा कर उनहों ने मुसलमानों के महलों का पता ढूंड निकाला। और वहां हमला कीआ और लूट मार की और माल ग़नीमत आपणे कंधों पर लादे होए तिंन चार घंटों के बाद सटेशन पर वापस आए जब तक लूट मार ना हो चुकी। जब तक दस बीस मुसलमानों का ख़ून ना हो चुकता। जब तक सभ महाजरीन आपणी नफ़रत को आलूदा ना कर लीते मेरा आगे बड़ना दुशवार किआ नामुमकिन था, मेरी रूह मैं इतने घाउ थे और मेरे जिसम का ज़रा ज़रा गंदे नापाक ख़ूनीओं के कहकहों से इस तर्हां रच गिआ था कि मुझे ग़ुसल की शदीद ज़रूरत महिसूस होई। लेकिन मुझे मलूम था कि इस सफ़र मैं कोई मुझे नहाने ना देगा। अंबाला सटेशन पर रात के वकत मेरे इक फ़सट कलास के डबे मैं इक मुसलमान डिपटी कमिशनर और उस के बीवी बचे सवार होए। इस डिबे मैं इक सरदार साहिब और उन की बीवी भी थे, फ़ौजिओं के पहिरे मैं मुसलमान डिपटी कमिशनर को सवार कर दिआ गिआ और फ़ौजिओं को उन की जान व माल की सख़त ताकीद कर दी गई। रात के दो बजे मैं अंबाले से चली और दस मीळ आगे जा कर रोक दी गई। फ़रसट कलास का डबा अंदर से बंद था। इस लीए खिड़की के शीशे तोड़ कर लोग अंदर घुस गए और डिपटी कमिशनर और उस की बीवी और उस के छोटे छोटे बचों को कतल कीआ गिआ, डिपटी कमिशनर की इक नौजवान लड़की थी और बड़ी ख़ूबसूरत, वोह किसी कालज में पड़्हती थी। दो इक नौजवानों ने सोचा इसे बचा लीआ जाए। ये हुसन, ये रोनाई,ये ताज़गी ये जवानी किसी के काम आ सकती है। इतना सोच कर उनहों ने जलदी से लड़की और ज़ेवरात के बकस को संभाला और गाड़ी से उतर कर जंगळ में चले गए। लड़की के हाथ में इक किताब थी। यहां ये कानफ़रंस शुरू होई कि लड़की को छोड़ दीआ जाए या मार दीआ जाए। लड़की ने किहा। मुझे मारते किउं हो? मुझे हिंदू कर लौ। मैं तुमहारे मज़हब में दाख़ल हो जाती हूं। तुम मैं से कोई इक मुझ से बिआह कर ले। मेरी जान लैणे से किआ फ़ाइदा! ठीक तो कहिती है, इक बोळा। मेरे ख़िआल में , दूसरे ने कत्हा कलाम करते होए और लड़की के पेट मैं छुरा घोंपते होए किहा। मेरे ख़िआल मैं उसे ख़तम कर देणा ही बिहतर है। चलो गाड़ी में वापस चलो। किआ कानफ़रंस लगा रखी है तुम ने। लड़की जंगळ में घास के फ़रश पर तड़प तड़प कर मर गई।उस की किताब उस के ख़ून से तरबतर हो गई।किताब का उनवान था इशतराकीअत अमल और फ़लसफ़ा इज़ जान सटरैटजी।वोह ज़हीन लड़की होगी।उसके दिल में आपणे मुलको कौम की ख़िदमत के इरादे होणगे। उस की रूह में किसी से मुहबत करने, किसी को चाहने, किसी के गले लग जाणे, किसी बचे को दुध पिलाने का जज़बा होगा। वोह लड़की थी, वोह मां थी, वोह बीवी थी, वोह महिबूबा थी। वोह काइनात की तख़लीक का मुकदस राज़ थी और अब उस की लाश जंगळ में पड़ी थी और गिदड़, गिध और कऊए उस की लाश को नोच नोच कर खाएंगे। इशतराकीअत, फ़लसफ़ा और अमल वहिशी दरिंदे इनहें नोच नोच कर खा रहे थे और कोई नहीं बोलता और कोई आगे नहीं बड़्हता और कोई अवाम में से इनकलाब का दरवाज़ा नहीं खोलता और मैं रात की तारीकी आग और शरारों को छुपाके आगे बड़ा रही हूं और मेरे डबों मैं लोग शराब पी रहे हैं और महातमा गांधी के जैकारे बुला रहे हैं। इक अरसे के बाद मैं बंबई वापस आई हूं, यहां मुझे नहिला धुला कर शैड में रख दिआ गिआ है। मेरे डबों में अब शराब के भपारे नहीं हैं, ख़ून के छींटे नहीं हैं, वहिशी ख़ूनी कहिकहे नहीं हैं मगर रात की तनहाई में जैसे भूत जाग उठते हैं मुरदा रूहें बेदार हो जाती हैं और ज़ख़मीओं की चीख़ें और औरतों के बीन और बचों की पुकार, हर तरफ़ फिज़ा मैं गूंजने लगती है और मैं चाहती हूं कि अब मुझे कभी कोई इस सफ़र पर ना ले जाए। मैं इस शैड से बाहर नहीं निकलणा चाहती हूं कि अब मुझे कभी कोई इस सफ़र पर ना ले जाए। मैं इस शैड से बाहर नहीं निकलणा चाहती, मैं उस खोफ़नाक सफ़र पर दुबारा नहीं जाणा चाहती, अब मैं उस वकत जाऊंगी। जब मेरे सफ़र पर दो तरफ़ा सुनहिरे गेहूं के खलिआण लहिर आएंगे और सरसों के फूल झूम झूम कर पंजाब के रसीले उलफ़त भरे गीत गाएंगे और किसान हिंदू और मुसलमान दोनों मिल कर के खेत काटेंगे। बीज बोएंगे। हरे हरे खेतों में ग़ुलाई करेंगे और उन के दिलों मैं मिहरो वफ़ा और आंखों मैं शरम और रूहों मैं औरत के लीए पिआर और मुहबत और इज़त का जज़बा होगा। मैं लकड़ी की इक बे जान गाड़ी हूं लेकिन फिर भी मैं चाहती हूं कि इस ख़ून और गोशत और नफ़रत के बोझ से मुझे ना लादा जाए। मैं कहित ज़दा इलाकों में अनाज ढोऊंगी। मैं कोइला और तेल और लोहा ले कर कारखानों में जाऊंगी मैं किसानों के लीए नए हल और नई खाद मुहईआ करूंगी। मैं आपणे डबों मैं किसानों और मज़दूरों को ख़ुशहाल टोलीआं लै कर जाऊंगी, और बाअसमत औरतों की मिठी निगाहें आपणे मरदों का दिल टटोल रही होंगी। और उन के आंचलों में नंन्हे मुने ख़ूबसूरत बचों के चिहरे कंवल के फूलों की तर्हां नज़र आएंगे और वोह इस मौत को नहीं बलकि आने वाळी ज़िंदगी को झुक कर सलाम करेंगे। जब ना कोई हिंदू होगा ना मुसलमान बलकि सभ मज़दूर होणगे और इनसान होणगे।


कृशन चन्दर

हिन्दी और उर्दू के प्रसिद्ध लेखक, पद्मभूषण से सम्मानित साहित्यकार श्री कृश्न चन्दर का जन्मदिन आज के दिन 23 नवंबर 1914 को वजीराबाद, ज़िला गूजरांवाला (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनका बचपन पुंछ (जम्मू और कश्मीर) में बीता। उन्होने अनेक कहानियाँ और उपन्यास लिखे हैं। उनके जीवनकाल में उनके बीस उपन्यास और 30 कथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। उन्होने रेडियो नाटक और फिल्मी पटकथाएँ भी लिखीं। 1973 की प्रसिद्ध फिल्म मनचली के संवाद उन्ही के लिखे हुये थे। उनकी भाषा पर डोगरी और पहाड़ी का प्रभाव दिखता है। उनकी कहानी पर धरती के लाल (1946) और शराफत (1970) जैसी फिल्में बनीं। उनका निधन 8 मार्च 1977 को मुंबई में हुआ था। उनके उपन्यास एक गधे की आत्मकथा को पाठकों ने काफी पसंद किया था।

1969 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

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