स्वागत नव वर्ष
वक्त की शाख पर
एक और
नव किसलय…
झरते पत्तों बीच
चमकता दीप्त
आस और विश्वास भरा
प्रेरणा देता-
आने वाला वक्त मेरा
जो भी होगा
जी लूंगा, जीत लूंगा
पुलकित बौझार, मौसमी थपेड़े
फलता-फूलता
हंसता-झूमता
ओस की बूंद-सा माना
छणिक है जीवन
फिर भी
कुसमित-सुरभित
हजार संभावनाएं
हजार सुगंध
लेता ही नहीं,
बहुत कुछ देता भी तो है
वक्त…
1-1-2016
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ, मित्र !
कई अपरिहार्य तकनीकी और व्यक्तिगत वजहों से देर हुई। लेखा-जोखा बाद में फिर कभी, अभी बस एक सीधी सच्ची लेखनी परिवार (पाठक और कवि-लेखक व हितैषी मित्र) से माफी और भविष्य में देर न होने का कर्मठ व ईमानदार वादा।
नववर्ष के पहले दिन मानवता के हित में- सर्वे भवन्तु सुखिनः- का संदेश लेकर इस अंक को आपतक पहुंचाने का इरादा था। जी हाँ, नए साल के उसी पहले दिन, जब आंखों में सपनों की अंजुरी भर-भरके संकल्प लेते हैं, खुद को सुधारने के , दुनिया और जीवन को बेहतर बनाने के, पर अधिकांश सपने सूखे फूलों से ही झर जाते हैं और गीली हथेलियाँ निराश पलकों को पोंछने के ही काम आ पाती हैं और फिर तब उन सूखे फूलों और गीली हथेलियों की नमी में. हम चाहें या न चाहें, खुश हों या दुखी हों, परवाह किए बगैर नए बीज अंकुरित होते हैं, नए फूल नई सुरभि बिखेरने के लिए…और इस तरह से हमें हराता पिछाड़ता,पर पुनः आगे बढ़ने की प्रेरणा देता एक और नया वर्ष आ जाता है …यह क्रम और जीवन यूँ ही आस-निराश के बीच पेंगे लेते चलता रहता हैं।
सोचती हूँ, कोई तो वजह होगी कि आज माँ सरस्वती का आशीष लेकर बसंत पंचमी के दिन लेखनी अपनी 2016 की साहित्य यात्रा शुरु कर रही है। बहुत कुछ साझा करना है आपके साथ, जयपुर लिट फेस्टिवल और बनारस के सेमिनार, पर सबकुछ एकसाथ नहीं। अगले कुछ अंकों में धीरे-धीरे।
भारत जाना किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं रह गया अब…ज्यों-ज्यों अपने सिमट रहे हैं, अपनेपन की वह सुरक्षा देती चादर भी। पथ दुर्गम और जोखिम भरा, जहाँ यादों के भग्नावशेषों में इष्ट की प्रतिमा के साक्षात्कार के लिए मन जगह-जगह भटकता है। कहीं प्रतिमा खंडित और पहुंचने के रास्ते बेहद कष्टकर तो कहीं आशातीत रूप से इतनी भव्य और विराट कि विह्वल मन संभाले ही न संभले, दोनों ही सूरत में अपरिचित…और तब शुरु हो जाता है अपनों को ही जानने समझने का एक नया उपक्रम…क्योंकि मन हारना नहीं जानता।
…
बनारस के लिए चली थी तो धूप खुलकर बिखरी हुई थी और पैरों में मानो उमंगों के पंख लग गए थे। जब छोड़ा, तो गहन कोहरा। कितनी जल्दी आकाश से छिटक जाती है यह धूप, विशेषतः तब जब आप उसकी उष्मा को पूरे मनोयोग से सोख रहे हो।
और तब ठंडे यथार्थ में जमी-थमी आँखें पलपल सन्यासी-सी मन की गूढ़ कन्दराओं में छुपी सच और सपनों का फर्क समझाने बैठ जाती हैं बिना जाने ही जो इतनी आसानी से हार मान ले वह मन ही नहीं।…
अपनों से मिलने का चाव, अपने ही विश्वविद्यालय के किसी प्रायोजन में शामिल होने का पूरे पांच दशक बाद यह सुनहरा मौका… सब कुछ स्वप्न जैसा ही था मेरे लिए। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का आयोजन आत्मीय था और आयोजकों का व्यवहार व आतिथ्य अपनत्व लिए हुए। पर प्रवासी शब्द और लेखकों की व्याख्या सच कहूँ तो बासी और उबाऊ ही थी। अब शायद इस शब्द पर नहीं, वास्तविक लेखन पर सेमिनारों की जरूरत है ताकि एकाध नाम ही नहीं, व्यापक प्रवासी लेखन से भी भारत के पाठक परिचित हो सकें। कविताओं के सेशन अच्छे थे। कहीं लेखन कौशल तो कहीं अपनत्व, कई नाम स्मृति में अंकित हो गए सदा के लिए और कई मधुर स्मृतियाँ भी।
विद्यानिवास न्यास का आयोजन साहित्य के कुंभ मेले जैसा था जहाँ कई दिग्गज और महंतों के दर्शन हुए। विध्यानिवास जी के छोटे भाई जी की साहित्य के प्रति निष्ठा और समर्पण वाकई में काबिले तारीफ है। लगातार खांसी बुखार के बाद भी हर दिन पहुंची और गौरवान्वित महसूस करती रही कि यह सभी इतने समर्पित लोग मेरे अपने शहर के हैं और यह आयोजन मेरे अपने शहर काशी का…
अक्सर सोचती हूँ, यह चाहत, जुड़े रहने की ललक ही तो है जो इतना कमजोर और भावुक कर देती है हमें।
पता नहीं नजर का धोखा था या सच – हमेशा की तरह ही अजनबियों में कई अपने और अपनों में कई अजनबी नजर आए।
….
दादा, नाना, दोनों घराने बृज से थे तो निश्चय किया कि इसबार बृज की विस्तृत यात्रा होगी। बृज यात्रा का वर्णन आपके लिए मार्च-अप्रैल के अंक में । अभी बस इतना ही कि…एक खोज …जड़ों की, अस्मिता की, पूर्वजों के इतिहास की, जो बृज भूमि की हफ्ते भर की यात्रा और परिक्रमा से शुरु हुई थी पूरे दो महीने तक भारत प्रवास में साथ-साथ चली।
कई आत्म संतुष्टि और दाह दोनों के ही अविस्मरणीय पल आए गत् दिसंबर और जनवरी के दो महीनों में।
…
आप सोच रहे होंगे 2016 के प्रवेशांक के लिए शरणार्थी विषय ही क्यों?
कई बातें थीं जिन्होंने मजबूर किया मुझे इस अंक के लिए शरणार्थी विषय चयन करने के लिए।
विश्व की बढती जनसंख्या, असंहिष्णुता और युद्ध व हिंसा ने कई देशों में कई लोगों को बेघर करके शरणार्थी बनने पर मजबूर कर दिया है और वे बड़ी संख्या में विकसित देशों की तरफ भाग रहे हैं परन्तु विकसित देशों के लिए यह जन सैलाब खतरे का निशान पार कर चुका है। प्रवासी वह है जो बेहतर जिन्दगी की तलाश में दूसरे देश में जा बसता है और उसके पास अपनाए देशों को देने के लिए योग्यता होती है, वह अपना और परिवार का भरण-पोषण करने में सक्षम है। परन्तु शरणार्थी आपदा व विपदा के मारे होते हैं। और अपना सबकुछ छोड़कर जान की भीख मांगते हैं। शरणार्थियों को शरण देना सबल देशों की नैतिक जिम्मेदारी भी है और अप्रत्याशित आर्थिक बोझ भी।
और यही इस अनचाही समस्या की मुख्य दुविधा है। अनाधिकारिक अतिक्रमण और क्रूर शोषण जैसे मुद्दे सदियों से जुड़े हैं इनके साथ जहाँ अमानवता की हदें पार कर ली हैं तानाशाहियों ने।
हम इस अंक में इन्ही शरणार्थियों की बात उठा रहे हैं। उनके दुख और दुःस्वप्नों को समझने का प्रयास है, यह अंक। भूलकर कि क्या आज भी हमारे पास इतना समय, इतनी संवेदना है कि , अपने सौभाग्य और वक्त को दीन-हीनों के साथ बांट सकें, थोड़ी-ही सही मदद कर सकें।
लेखनी पत्रिका का यह अंक शरणार्थियों की समस्या और तकलीफों की तरफ ध्यान खींचने का प्रयास मात्र है, क्या करना होगा-फैसला सबका अपना-अपना।
मानती हूँ, नतीजा और निर्णय तो भविष्य के हाथ में है परन्तु हर सदेक्षा व सुप्रयास के प्रति अशेष शुभकामनाएँ
-शैल अग्रवाल
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