व्यंग्य/ ओम् श्री एक सौ साठ श्री चापलूसाय नमः/ अशोक गौतम/ अप्रैल मई 15

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श्री चापलूस चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरू सुधारि।
बरनउं चापलूस बिमल जसु जो दायक फलु चारि।।
बुद्धिहीन खुदको जानिकै सुमिरो चापलूस-कुमार।
संबल,  साहब का प्यार देहु मोहि, मैं हूं निपट गंवार।।

हे इस चराचर जगत् के समस्त क्लास के चापलूसो! आप पर  कुछ लिखने से पहले आपको मेरा कोटि- कोटि प्रणाम! मुझे आप मेरी इस धृष्टता के लिए क्षमा करेंगे।  आप पर मैं तो क्या, व्यास जी होते तो भी लिखने से पहले सौ बार दंड- बैठक निकाल लेते। उसके बाद भी आप पर लिखने का शायद ही दुस्साहस कर पाते। यह तो मेरा  दंभ है कि हजार बारह सौ शब्दों का व्यंग्य लिखने वाला टुच्चा सा दिशाहीन, दशाहीन बुद्धिजीवी आप पर लिखने का दुस्साहस कर रहा है। आप मेरी इस गुस्ताखी को माफ करेंगे क्योंकि आप पर लिखना केतू पर थूकना है । पर क्या करूं, अगर चार दिन न लिखूं तो उपवास रखने के बाद भी पांचवें दिन लिखे बिना मुझे कब्ज हो जाती है। और आप तो जानते ही हो कि कब्ज हर बीमारी की जड़ है।

हे कण-कण में व्याप्त चापलूसो! मेरी आपसे कोई दुश्मनी नहीं। आदमी में जरा भी अक्ल हो तो वह सबसे दुश्मनी सीना तान कर ले सकता है पर आपसे सपने में भी दुश्मनी ले तो जबतक इस धरा पर जन्म- मरण का चक्कर चलता रहे वह नरक में ही रहे, चाहे कितने ही तीर्थ व्रत क्यों न कर ले । जिसने आपसे पंगा  ले लिया उसका तो ईश्वर भी सहाई नहीं हो सकता। आपके दंभ को मैं दिल की गहराइयों से सलाम करता हूं।

हे साहब प्रिय चापलूसो। साहब जितना आपसे प्रेम करते हैं उतना तो अपनी बीवी से भी नहीं करते होंगे।  मैं तो बस अपनी कब्ज  को दूर रखने के लिए आप पर लिख रहा हूं। लिखने के बहाने आपको अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं।  आप प्रातः स्मरणीय हो। आप किसी भी न काम करने वाले को साहब की नजरों से सातवें आसमान पर चढ़ा सकते हो तो किसी  दिन- रात जिंदगी भर  ऑफिस में काम करने वाले को एक ही धक्के में नरक में गिरवा सकते हो। इस चराचर जगत् के छोटे से छोटे ऑफिस में जो आप न होते तो मुझ जैसों को काम का श्रेय कभी का मिल चुका होता।
हे वंदनीय चापलूसो! इस चराचर संसार में दो तरह के जीव होते हैं। एक अपना कर्म करने के बाद भी दफ्तर में साहब से जूते खाने वाले तो दूसरे आठों पहर चौबीसों घंटे साहब की चापलूसी करते हाथ पर हाथ धरे  बड़े आनंद के साथ छप्पन भोगों का  लुत्फ उठाने वाले।
हे चापलूसो, आपके पास चापलूसी के ऐसे अस्त्र- शस्त्र होते हैं कि आपके सामने जो  इंद्र भी युद्ध करने आ जाए तो भी आपका बाल न बांका कर सके।  आपकी  जुबान में वह  मिठास होती है कि वैसी मिठास दिन- रात फूल- फूल मंडराने के बाद मकरंद इकट्ठा करने वाली शहद की मक्खी के शहद में भी नहीं होती।  आपकी वाणी में वह  व्यंजना  होती है कि  अगर गलती से  मां सरस्वती की आपसे भिडंत हो जाए तो वह भी आपकी बुद्धि का लोहा मान कर ही चैन की सांस ले।  साहब के चरणों में आप अपने अंग- अंग को इस तरह तोड़- मरोड़ कर रख देते हो कि  बड़े से बड़ा नट भी आपके इस कौशल को देख आपके आगे नतमस्तक होने के लिए विवश हो उठे।  साहब के आगे अंगों को तोड़- मरोड़ कर अभिनय का कौशल तो कोई आपसे सीखे। आपके शरीर में वह लोच होती है कि वैसी लोच मेनका , उर्वशी के शरीर में भी शायद ही हो। कृष्ण तो चौसंठ कला निधान हैं पर आप उनसे एक कदम आगे।

हे हर युग में साहबों के प्रिय रहे चापलूसो! युग चाहे कोई भी रहा हो। आपकी हर युग में चांदी रही है। पाषाण युग तक में आपकी चांदी थी। दस भुवनों में कोई खुश हो या न हो पर तुम हर भुवन में हमेशा औरों को धुंआ देने, दिलवाने के बाद सदा प्रसन्न रहे हो। इतिहास साक्षी है कि  आप चापलूसी का सदुपयोग कर चुपड़ी -चुपड़ी खाते रहे हो ।
इस धरती पर हर युग बदला। सतयुग गया तो त्रेता आया। त्रेता गया तो द्वापर आया। द्वापर गया तो कलियुग गया। पर हे चापलूसो ! आप हर युग में विद्यमान रहे, विराजमान रहे।
अब मेरे युग को ही देखिए। मेरे ऑफिस में पीउन हथेली पर तंबाकू रगड़ता छोटे क्लर्क की चापलूसी में मस्त है तो छोटे बाबू बड़े बाबू की चापलूसी में उनके आसपास सारी फाइलें बंद किए जुटे हैं। फाइलें तो बाद में भी होती रहेंगी पर अगर चापलूसी का ये अवसर हाथ से छूट गया तो पता नहीं फिर ये मौका कब मिले? मिले भी या कि कोई दूसरा ही चापलूस उसके हाथ से छीन ले। असल में भूखे को बिन रोटी खाए नींद आ सकती है पर चापलूस जिस दिन साहब की चापलूसी न करे वह रात भर करवटें ही बदलता रहता है। अगर नींद आ भी जाए तो दूसरे ही क्षण बौखला कर जाग उठता है।  बड़े बाबू साहब की चापलूसी करने में घर के सारे काम छोड़ जुटे हैं तो साहब मंत्री जी चापलूसी में डटे हैं। वे उनकी चापलूसी से प्रसन्न हो जाएं तो  स्वर्ग सा सुख भोगते रहें। मंत्री जी मुख्यमंत्री की चापलूसी में दिनरात डटे हैं। मुख्यमंत्री खुश रहें तो क्या मजाल कोई उनको कुछ भी करने से रोक सके। मुख्यमंत्री दिल्ली के चक्कर लगा रहे हैं। हाईकमान की चापलूसी करते- करते जीभ का थूक है कि औरों से उधार पर ला रहे हैं। हाई कमान खुश तो  बाकि सब जाएं भाड़ में।
हे मेरे परम पूजनीय चापलूसो! आप  हर लोक का सत्य है, शेष  सब मिथ्या है। आप न होते तो उन जैसों का जीवन नीरस हो जाता। सबकुछ होने के बाद भी वे बंजर ही रहते। आपने अपनी चापलूसी से हर ऑफिस में अपने से ऊपर के हर बॉस को हरा भरा रखा है। अब आपकी तारीफ में और क्या लिखूं, चापलूस अनंत, चापलूसी अनंता….साहब चरन, साहब खुश करन,चापलूसी मूरति रूप। चापलूसी भंडार लिए हर मन  बसो , हे साहब के भूप!

अशोक गौतम,
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

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