धारावाहिक मिट्टीः भाग 17- शैल अग्रवाल/अप्रैल-मई 2015

भाग 17.

couple-2अचानक ही, सब कुछ बदल चुका था। जितना सामान्य होने की कोशिश करते वे , उतने ही उलझते जाते अपने ही खयालों में…एक दूसरे में। दोस्तों की ही नहीं, अब तो खुद उनकी अपनी आंखें तक अक्सर ही पीछा करती महसूस होतीं उन्हें। आते-जाते सामना हो ही जाता था। अलग-अलग विभाग में थे तो क्या, छोटा सा ही तो अस्पताल था और एक ही कैंपस में रहते थे दोनों। यदि किसी वजह से न मिल पाते तो बेसब्री से इंतजार करते पाते एक दूसरे को। जिन्दगी और दिनचर्या, दोनों ही मानो सबसे बेपरवाह हो एक दूसरे में ही गुंथ गई थी उनकी। न काम पर ध्यान दे पाते थे और ना ही खुदपर। सारा वक्त एक दूसरे का इंतजार करने और एक-दूसरे के बारे में सोचते ही बीत जाता ।

‘ ऐसे कैसे चलेगा … यही तो कैरियर बनाने का, जिन्दगी संवारने का वक्त है!.. और घर बसाने का व शादी करने का भी।‘

मन के दरवाजे पर धरना दिए बैठी मीठी दस्तक बेचैन करने लगी थी उन्हें।

सहा न गया तो हंसकर पूछ ही लिया अक्षत ने –

‘ क्या प्यार करने लगी हो, रोजलिन? ‘

‘ किससे ? बताएं तो जरा, यह गलतफहमी कैसे हुई जनाब को?  ‘

‘ तुम्हारे हाथ की कौफी पी-पीकर। इतने प्यार से बनाती हो कि लगता है लत पड़ती जा रही है मुझे। ‘

अभी भी साफ-साफ कुछ कहने या पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था शर्मीला अक्षत। आधे गंभीर और आधे मजाकिया लहजे में जबाव देकर चुप हो गया ।

रोजलिन ने भी कुछ जबाव नहीं दिया । बस अपलक बहुत प्यार से देखती जरूर रह गई ।

और तब तुरंत ही माथे पर आई पसीने की बूंदों को पोछते हुए अक्षत पुनः बोला – ‘ नहीं, दुबारा सुधार कर पूछता हूँ तुमसे, क्या तुम भी मुझसे उतना ही प्यार करती हो, जितना कि मैं करता हूँ   ? ’

‘ सच।‘ सुनते ही खिलखिलाकर हंस पड़ी थी वह। ‘  ठीक से सोच लो अक्षत। कच्चे धागे की बेड़ियाँ हैं ये, चाहकर भी तोड़ नहीं पाओगे इन्हें  तुम।‘

पर अक्षत तो बस निष्पलक देखे ही जा रहा था उसे, मानो जबाव का बेसब्री से इंतजार हो उसे।

’ सच में पता नहीं है मुझे। वाकई में नहीं जानती हूँ मैं अक्षत। ’

कहकर आगे तो बढ़ गई थी वह, परन्तु उसका उदास चेहरा देखकर तुरंत ही वापस लौट भी आई।

’ सच तो यह है अक्षत कि तुम सब मित्रों के साथ इस तरह से मशगूल रही कि इस दृष्टि से मन को टटोलने की कभी फुरसत ही नहीं मिली मुझे।’

मछली सी वह शब्दों के जाल से छूटने को मचल रही थी पर अब छूट पाना आसान नहीं था ।

अक्षत भी भला कब मानने वाला था- ‘ जब प्यार ही नहीं, तो फिर यह वक्त-बेवक्त का, हर वक्त का इंतजार क्यों, मैडम ?’

‘ पता नहीं। बस यूँ ही। एक आदत ही समझ लो।‘

‘ कैसी आदत, रोजलिन? ’

‘ पिछले जनम की।’

‘ अच्छा। जब जन्म-जन्मांतर का साथ है तो फिर यह ना-नुकुर क्यों ?’

अब रोजलिन के पास कोई जवाब नहीं था और ना ही अक्षत को चाहिए था। जो वह जानना चाहता था जान चुका था।

बहुत खुश था अक्षत। मन किया कि बाहों में लेकर चुंबनों की बौछार कर दे। परन्तु शर्मीली प्रेयसी तो पलक छपकते ही जाने कहाँ अदृश्य हो चुकी थी। पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे थे अब उसके । सपनों की नगरी में जा बैठा था वह। प्रेंम में ऐसा ही होता है। आदमी आपा भूल जाता है और यह तो फिर उसका पहला प्यार था, जहाँ हर अहसास, हर अनुभव अनूठा और तीव्र। खोने का भय , मिलने की उमंग, ज्वार-भाटे सी लहरें आती और  डुबो जातीं, एक पुलक के साथ, एक नुनखरी कसक लिए और  वह  डूबा बैठा रह जाता।  घंटों बीत जाते, न तो कुछ भूल पाता और ना ही इस खुमारी से ही उबर पाता।

कल ही जरूर मां को चिठ्ठी लिखकर सब बता देगा –‘ बहू ढूँढ ली है उनकी। फोन पर तो ये बातें नहीं ही कही जा सकती हैं। संभव ही नहीं। जानता हूँ, ना नहीं करेगी माँ। और पापा को भी मना लेंगी।‘ – हुलस-हुलसकर पेंग लेता, भविष्य के सुनहरे सपनों में झूलता मन, जाने क्या-क्या सोचे जा रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। देखा तो केशव खड़ा था- हकबकाया हुआ और बेहद बेचैन।

‘क्या बात है केशव, इतने परेशान क्यों हो ? ‘

‘ क्या मैं अंदर आ सकता हूँ? ‘कमरे के अंदर खड़ा केशव जाने किस परेशानी में डूबा, बारबार ही उससे अंदर आने को पूछे जा रहा था।

‘हाँ, हाँ क्यों नहीं। मित्र हैं हम औरफिर तुम तो कबके अंदर आ चुके हो।

‘ औपचारिकता की क्या जरूरत  हमारे बीच केशव। आओ बोठो। बताओ क्या मदद कर सकता हूँ मैं तुम्हारी ? ‘

‘समझ में नहीं आ रहा यार , कहाँ से बात शुरु करूँ ? गजब ही हो गया है! बहुत बुरी खबर है। ‘

‘ कुछ बतएगा भी, या बस यूँ ही पहेलियाँ ही बुझाता जाएगा।‘ बात की तह में जाने को अब अक्षत भी बेचैन हो चला था।

‘ तुझे याद है अक्षत, तेरा एक दोस्त था, जिसके साथ तूने शेरो-शायरी का प्रोग्राम भी किया था । मुझे भी ले गया था तू अपने साथ… ‘

‘ हाँ, हाँ। कमाल। क्या हुआ अब इस कमाल को? और रात में बारह बजे तुझे यह सब कैसे याद आ रहा है ? क्या ड्रग्स वगैरह में पकड़ा गया है वह ? पुलिस पूछताछ कर रही थी कल ही उसके बारे में और उसकी बहन बता रही थी कि पाकिस्तान या अफगानिस्तान में है, वह इस वक्त, पर उन्हें उसके वेयर-अबाउट के बारे में कुछ पता नहीं। ‘

‘ बात इतनी-सी नहीं, दोस्त। ज्यादा दुखभरी खबर है…बहुत दुखभरी। अभी-अभी में मि. रौस के साथ दो एम्प्यूटेशन के केस करवाकर आ रहा हूँ। इमरजेंसी केस थे दोनों। अफगानिस्तान से लाए गए हैं घायल । लैंडमाइन विस्फोट में हादसा हुआ है यह।

‘  तो?. ‘ दरवाजा उसके हाथ से झूटकर एक दहलाते हुए शोर के साथ बन्द हो गया।

अक्षत अब अंदेशे भरी नजर से उसकी तरफ देखे जा रहा था। खबर इस वक्त क्यों दे रहा है तू मुझे। मेरा क्या लेना-देना है इससे । जाने कितने रोज ही…. ‘ अक्षत का मन कांप रहा था अशुभ की आकंशा से और वह बिना सोचे-समझे कुछ भी बोले जा रहा था।

‘ इतना कठोर मत बन अक्षत। उनमें से एक, वही तेरा दोस्त कमाल है। मैं देखते ही उसे पहचान गया था। ‘

क्या ? ‘ सुनकर भी अक्षत विश्वास नहीं कर पा रहा था। खबर ही ऐसी थी। कमाल का लड़कियों-सा खूबसूरत भोलाभाला चेहरा और काले घुंघराले बाल अब उसकी आंखों के आगे घूम रहे थे। कैसे बात बात में हंसता रहता था हरदम और अब कैसे बताएगा यह सब उसकी मां को, उसकी बहन को। बेहद प्यार करने वाला और जजबाती इन्सान था कमाल, देश और सिद्धान्तों पर मरने-मिटने को हरदम तैयार।

‘ क्या हुआ उसे ? साफ-साफ बोल। किस वार्ड में है? ‘  खुद को बारबार दोहराता, खुले मुँह से बस इतना ही पूछ पाया अक्षत उस वक्त।

‘ वार्ड नं 27 में। चिन्ता मत कर। अब खतरे से बाहर है। दोनों पैर घुटने तक उड़ गए। बाकी बचा कुचा हिस्सा हमें हटाना पड़ा । बस धड़ ही धड़ रह गया है। गैंगरीन हो रही थी वरना जान के लाले पड़ जाते। अभी-अभी रिकवरी रूम से वार्ड में वापस पहुंचाकर आ रहा हूँ। बहुत बहादुरी से सामना किया है पर उसने इस सच का। सुबह मिलते हैं वहीं वार्ड में, तब खुद आकर ही देख लेना सब। ‘

केशव तो चला गया परन्तु अब अक्षत के लिए सो पाना असंभव था। उंगलियाँ स्वतः ही रोजलिन का नंबर घुमाने लगीं। खबर तो देनी ही होगी । उसका भी तो दोस्त है कमाल। और फिर उसे भी बहुत जरूरत है किसी अपने की इस वक्त।

आधी सोई, आधी जगी रोजलिन की हलो सुनते ही, एक सांस में ही अक्षत ने सारी खबर दे डाली । सुन्न होकर सुनती रोजलिन ने भी बात खतम होते ही फोन रख दिया और अगले पांच मिनट में ही वह अक्षत के कमरे के बाहर खड़ी थी।

जाने कैसी उदासी थी अक्षत की आवाज में कि उसे हो या न हो, पर इस वक्त रोजलिन को अक्षत की बहुत जरूरत थी।

‘ यह सब क्या सुन रही हूँ मैं, अक्षत ? सच सच बताओ, क्या यह खबर सच भी है? तुम्हें किसने बताया यह सब ? ‘

अविश्वास में रोजलिन सवाल पर सवाल पूछे जा रही थी।

‘ हाँ।‘ सुबह मिलकर आते हैं। केशव ऐसा भद्दा मजाक नहीं करेगा, रोजलिन।‘

अब पूछने, सुनने को कुछ भी नहीं रह गया था। कैसे भी बस रात गुजारनी थी रोजलिन को। सोच ही नहीं, अबतक तो हाथ पैर भी पूरी तरह से सुन्न हो चुके थे उसके।

‘  क्या मैं आज की रात कुछ घंटे के लिए, यहीं तुम्हारे सोफे पर सो सकती हूँ , अक्षत ? वापस कमरे तक जाने की शक्ति ही नहीं रह गई। प्लीज, ना नहीं करना। ‘

‘ हाँ-हाँ, क्यों नहीं। ‘ अपनी ही सोच में डूबे अक्षत ने अलमारी से निकालकर दो कंबल और तकिया रोजलिन को दे दिए और एकांत ढूंढता अपने कमरे की ओर मुड़ गया पर जाने क्या सोचकर तुरंत ही पलटा और बोला-

‘ कोई और जरूरत हो तो मांग लेना। यहीं सामने के कमरे में ही हूँ मैं। वैसे भी, इस फ्लैट की हर चीज से तुम भलीभांति परिचित हो ही।… ‘

आए दिन की  अटपटी परिस्थितियों के बीच भी एक सहज विश्वास का नजदीकी रिश्ता बनता जा रहा था उनके बीच में।

अब दोनों ही अपने-अपने बिस्तर में लेटे सुबह का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे और रात थी कि और-और लम्बी ही होती जा रही थी।..

….

सुबह वार्ड में घुसते ही सिस्टर ने आगाह कर दिया  – बस पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं लेना। मरीज की हालत अभी ऐसी नहीं कि ज्यादा बातचीत कर सके। परिस्थिति की गंभीरता का उन्हें भी पूरा अहसास था। दोनों ने ही स्वीकृति में सिर हिलाकर पहले तो एक दूसरे की तरफ देखा  फिर एक करुण मुस्कान के साथ चुपचाप कुरसी खींचकर मित्र के बिस्तर के पास बैठ गए और धीरे-धीरे उसकी ड्रिप लगी हथेलियों को सहलाने लगे।

पर कमाल ने उन्हें देखते ही मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया था। अपनों की सहानुभूति की एक नजर मात्र ने उसके धैर्य के सारे बांध तोड़ दिए थे और बारह महीनों का  दुख आंखों से पिघल-पिघलकर बहने लगा। आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे ।  पहले खुदको संभाल ले फिर ही तो बात कर पाएगा मित्रों से। वे भी  भलीभांति बिना कहे ही समझ गए उसके हर दुख, हर यातना को। तब -‘ ना-ना मित्र , इतना दुख नहीं मानते। जिन्दगी हर हाल में खूबसूरत है और उसकी नेयमत है। फिर पूरा परिवार, हम सब मित्र, सभी तुम्हारे साथ हैं। हम सब मिलकर लड़ेंगे और जीतेंगे हर दुख से।’ – कहकर  उसके आंसू पोंछने लगे दोनों।

तब कैसे भी खुद को संयत करके  बोला कमाल- ‘ बहुत कुछ कहना और  बताना है मुझे और मेरी हर बात तुम्हें मेरे घरवालों और दुनिया तक पहुंचानी भी है । परेशान तो होंगे ही सभी जानने को-कहाँ गया मैं, कैसे बिताए मैंने ये पिछले बारह महीने। पर विश्वास मानो अक्षत, मुझे खुद नहीं पता चला कि सालभर से जूझ रहा हूँ मैं इस दुख, सबकी समस्या से । मैंने तो उसे भी बचाने की , समझाने की बहुत कोशिश की थी। छाया की तरह लगा रहा था उसके पीछे-पीछे। तरह तरह के खतरों का सामना किया…। ‘ अचानक उसका गला रंध आया  पर खुदको कमजोर नहीं पड़ने दिया उसने। गला खंखारकर बात जारी रखी उसने। ‘ पर देखो, कुछ भी तो नहीं कर पाया मैं। ना तो जेम्स को बचा पाया और ना ही उसकी सोच और सिद्धान्तों को ही। खुद अपने अंग-भंग होने का इतना अफसोस नहीं मुझे। पर इस्लाम के नाम पर यह जो हजारों अत्याचार हो रहे हैं, हजारों की कुर्बानियाँ हो रही हैं, इसका बहुत दुख है । अभी जाने कितना और अनर्थ होना बाकी रह गया है, जाने क्या-क्या देखने को बचा है! मेरे सामने ही जेम्स चिथड़े-चिथड़े उड़ा था इन्ही लैंड माइन को बिछाते-बिछाते! जानते हो , उसी दिन मैंने खुदा की कसम खाई थी कि जेम्स को तो नहीं बचा पाया, पर बचाऊंगा अन्य नौजवानों को अपने मजहब को इस हिंसा और नफरत से…इस जुनून के झांसे से। …

रोजलिन और अक्षत दोनों ही उसके भावों की गहराई समझ रहे थे और साथ में उसका काटता-चीरता असह्य दर्द और साहसी आत्मा का धैर्य भी। …

जब और न सहा गया तो , ‘ कुछ मत सोचो, मन पर कोई भार मत लो । सब ठीक हो जाएगा। हम हैं न  अब तुम्हारे साथ।’

कहकर बाहर निकल आए दोनों।

आंखें नम थीं दोनों की। और तब भीगी आंखों से ही मुस्कुराकर रोजलिन ने ही प्रस्ताव रखा था- क्या डियूटी पर जाने से पहले हम एक कप कौफी पी सकते हैं अक्षत !…

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