कविता आज और अभी / अक्तूबर-नवंबर 2015

 

माई के गाँव में पीपल की छांव में

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

माई के गाँव में पीपल की छांव में

गोरी के पाँव में , झांझर के बोल अब

सुनाई न देते हैं –

 

मक्के दियाँ रोटियाँ ,मख्खन चे मलाइयाँ,

लस्सी भरी कोलियाँ ,सरसों के साग अब

दिखाई न देते हैं –

 

गीतों में बोलियाँ ,हथ गन्ने की पोरियाँ

गिद्दे दियाँ टोलियाँ, बापू के गाँव अब

दिखाई न देते हैं –

 

गुत से परान्दे,सिर पल्लू दा बिछोड़ा है

शब्द सुहेले भावें, नितनेम आँगन में

सुनाई न देते हैं –

 

सताई गई है प्रीत ,रुलाई गई है प्रीत

मिटाई गई है प्रीत, कोख आई बेटी को

बधाई न देते हैं –

 

उदय वीर सिंह

गोरख पुर, भारत।

 

 

 

 

जिन्दगी का कोमल अहसास हो तुम..

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

जिन्दगी का कोमल अहसास हो तुम,
छुएँ तो सारा आकाश है,
लगती किसी कविता सी,
मन के बहुत पास
कोइ,अधूरी प्यास हो तुम
घर, अंगना दौडती
ममता की छाँव बनी तुम,
माँ हो, प्रिया, बहन, पत्नी बेटी मेरी,
जिन्दगी के टूटते संबंधों में ,
संजीवनी सी रिश्तोंकी सांस हो तुम ,
बच्चों की किलकारियों सी,
जोश और उल्लास हो,
नारी तुम केवल ..
सपनों की खोई हुई आस हो.
चाहत तुम, मेरा विश्वास हो ,
तुम,दुनिया की भीड़ में भी,
तनहा खड़ी,जीवन की हर जंग में,
विजयिनी सी तुम
प्रेम,नेह, गरिमा का मुखरित मृदु हास हो
तुम जीवित हो मुझमें ,
मेरा संसार हो तुम.

-पद्मा मिश्रा , जमशेद पुर

 

 

 

 

 

इन्द्रधनुषी सपने 

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

अवसादों के घने साए में ,
जब खो जाती हैं आशाएं ,
शाम के सुरमई अँधेरों में,
जब मन देता है सदायें,
तो शुभ्र-चन्द्र-किरणों के
रथ पर सवार हो कर ,
झिल-मिल-झिल-मिल
तारों की सौगात लिए ,
रुपहली-सुनहरी यादों
के सिरहाने बैठ कर
मन के किसी अतीत की
याद दिलाते हैं ,ये सपने.
ये इन्द्रधनुषी सपने.
धुँधली  राहों में ,
जब खो जाते हैं अपने.
तो स्वप्निल नयनों में
अश्रुकण झलकाते
कभी अन्तःस्थल के गहन
अवचेतन में ,
आशाओं के दीप जलाते
मन के उजले आँगन में
रंग-बिरंगे रंग सजाते,
ये इन्द्रधनुषी सपने.
कुछ मूक प्रश्न ,
कुछ अनुत्तरित प्रश्न.
बसे अन्तःकरण में ,
खोजते उत्तर ,
बंद पलकों में
मौन नयनों के भीतर
चित्रलिपि की भाषा बाँचते
अनसुलझी पहेलियाँ सुलझाते ,
कभी भविष्यवेत्ता बन कर
और भी रहस्यमय बन जाते
ये इन्द्रधनुषी सपने.
 अन्तस् के तम को हरते,
कभी हँसाते, कभी रुलाते  ,
कभी जिज्ञासु मन के कौतूहल पर
मंद-मंद मुस्काते  ये सपने.
सत्य-असत्य की सीमा रेखा पर
छोड़ जाते अवाक् मन
ये सपने,ये इन्द्रधनुषी सपने.
-शील निगम, मुंबई।

 

हे राम !

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

उनके चेहरों पर लिखी थी

‘ भूख ‘

उनकी आँखों में लिखे थे

‘ आँसू ‘

उनके मन में लिखा था

‘ अभाव ‘

उनकी काया पर दिखता था

‘ कुप्रभाव ‘

मदारी बोला — ‘ यह सूर्योदय है ‘

हालाँकि वहाँ कोई सवेरा नहीं था

मदारी बोला — ‘ यह भरी दुपहरी है ‘

हालाँकि वहाँ घुप्प अँधेरा भरा था

सम्मोहन मुदित भीड़ के साथ यही करता है

ऐसी हालत में हर नृशंस हत्या-कांड

भीड़ के लिए उत्सव की शक्ल में झरता है…

 

 

 

 

2.

बेशक़ीमती सिक्के

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

मेरे बालपन की

यादों की गुल्लक में

अब भी बचे हैं

एक , दो , तीन और पाँच पैसे के

बेशक़ीमती सिक्के

 

उन पैसों में बसी है

उन्नीस सौ सत्तर के

शुरुआती दशक की गंध

 

उन सिक्कों में बसा है

माँ का लाड़-दुलार पिता का प्यार

हमारे चेहरों पर मुस्कान लाने का चमत्कार

 

अतीत के कई लेमनचूस

और चाकलेट बंद हैं इन पैसों में

तब पैसे भी चीज़ों से बड़े हुआ करते थे

 

एक दिन न जाने क्या तो कैसे तो हो गया

माँ धरती में समा गई पिता आकाश में समा गए

मेरा वह बचपन कहाँ तो खो गया

 

अब केवल बालपन की यादों की गुल्लक है

और उस में बचे एक, दो , तीन और पाँच पैसे के

बेशक़ीमती सिक्के हैं …

 

हज़ार-हज़ार रुपये के नोटों के लिए नहीं

इन बेशक़ीमती पुराने सिक्कों के लिए अब

अक्सर बिक जाने का मन करता है…

 

– सुशांत सुप्रिय

गाजियाबाद,  भारत।

 

 

 

 

 

 

मैं तुम्हारी स्त्री – “एक अपरिचिता “ 

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

मैं हर रात ;

तुम्हारे कमरे में आने से पहले सिहरती हूँ

कि तम्हारा वही डरावना प्रश्न ;

मुझे अपनी सम्पुर्ण  दुष्टता से निहारेगा

और पूछेगा मेरे शरीर से, “ आज नया क्या है ? ”

कई युगों से पुरुष के लिए स्री सिर्फ भोग्या ही रही

मैं जन्मो से, तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही..

ताकि, मैं तुम्हारे सारे काम कर सकूँ ..

ताकि, मैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकूँ,

ताकि, मैं तम्हारे लिये तुम्हारे को सुंभाल सकूँ

तुम्हारा मन जो कभी मेरा न बन सका,

और तुम्हारा कमरा भी ;

जो सिर्फ तुम्हारे भोग की अनभुति के लिए रह गया है

जिसमे, सिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है..

मैं नहीं.. क्योंकि ;    सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;

आज तक मेरे मन को नहीं जाना.

एक स्री का मन, क्या होता है,  तुम जान न सके..

शरीर की अनभुतियो से आगे बढ़ न सके

मन में होती है एक स्री..

जो कभी कभी तम्हारी माँ भी बनती है,

जब वो तम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है ..

जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है,

जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है

जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है,

जब वो तम्हेु प्रेम से खाना परोसती है

और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है,

जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है..

और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध,

हमारी मित्रता का, वो तो तुम भूल  ही गए..

तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप

और वो भी सिर्फ    शरीर के द्वारा ही…

क्योंकि तम्हारा भोग तन के आगे

किसी और रूप को जान ही नहीं पाता  है..

और  अक्सर न चाहते हुए भी मैं तुम्हे

अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ..

लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूँढते हो,

और मुझे एक दासी के रूप में समीप चाहते हो..

और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है.

जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे,

तब भी मैं अपने भीतर की स्री के  सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी

तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होगी,

क्योंकि तमु मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे

क्योंकि तमु तब तक मेरे सारे रूपों को

अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके

मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चकेु होगे,

लेकिन तुम तब भी मेरा भोग करोंगे,

मेरी इच्छाओ के साथ..

मेरी आस्थाओुं के साथ.. मेरे सपनो के साथ..

मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ

मैं एक स्री ही बनकर जी सकी

और स्री ही बनकर मर जाउुंगी  एक स्री….

जो तम्हारे लिए अपरिचित रही

जो तुम्हारे लिए उपेक्षित रही,

जो तुम्हारे लिए अबलारही…

पर हाँ, तुम मुझे भले कभी जान न सके

फिर भी..     मैं तुम्हारी ही रही …. एक स्री जो हूँ…..

 

 

 

 

 

अपनी दुनिया

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

उठो,

चलो छत पर

हम अपने दुःख दर्द बाँटें

आकाश के नीचे

खुली एकांत छत पर कहा बांटा दुःख दर्द 

 सिर्फ बिसरता है

बल्कि

कुछ सिखा कर जाना भी

नहीं भूलता.

 

कभी बताया था तुमने,

तुम्हारे 

किसी  कंधे पर एक दिन

छिपकली गिर गई थी 

और तुम्हारे हाथ से छूट  गई थी

कविता की किताब.

अब बताओ जरा ढंग से

फिर क्या हुआ था.

 

अरे हाँयाद आया

एक बार तुमने बात छेड़ी थी

तुम लौट रहीं थीं बाज़ार से

दोनों हाथों में लादे हुए सामान के थैले

तुम पैदल थीं

और सामने तुम्हें दिख रहा था 

साफ़ अपना घर

पर अजीब सी बात थी

कि

मीलों चलने के बाद भी

वह

पास नहीं रहा था.

 

अनकहा रह गया था उस दिन 

तुम्हारा वह प्रसंग.

 

मैं अपनी क्या कहूँ..?

सब 

ठीक ही है,

लेकिन उस दिन

मैं मेज़ पर बैठा 

लिख रहा था अपनी मां को ख़त

और

मेरा लिखा एक एक शब्द 

बस 

जुगनू बन कर हवा में उड़ उड़ जा रहा था.

बेबस था मैं

और मेरे सामने कागज़ पर 

अँधेरा पसरा पड़ा था.

 

ऐसा तो अक्सर होता है 

कि 

सोते सोते अचानक 

मैं जाग उठता हूँ

बाहर फैली होती है भरपूर चांदनी

और

मेरे कमरे की अकेली खिड़की

जाम हो जाती है,

खुलती  ही नहीं.

 

नहीं,

मैं सचमुच विश्वास कर सकता हूँ

तुम्हारी बात पर

मान सकता हूँ

कि

अक्सर सपने में तुम्हें दीखते हैं सारे घरवाले 

सगे संबंधी,

तुम अस्पताल में भर्ती हो

लेकिन

कोई नहीं पूछ रहा है तुमसे तुम्हारा हाल

सब आपस में ही हंस बोल कर 

बस, हाजिरी बजा रहे हैं.

 

मैं पूछना चाहता हूँ

तुम्हारे पैर  के उस गोखरू का हाल

जो

छू जाने पर जरा सा भी

दर्द से तड़पा जाता है

पर

मैं पूछता नहीं,

पूछने से बेहतर है

अपनी उँगलियों से उस  ठौर को

जरा सा सहला देना

पर

खुली छत और आसमान की गवाही

यह कहाँ संभव है..?

 

ओस पड़ने लगी  है

बढ़ने लगी है ठंढ

चलो

नीचे चलें

कमरा बेहतर सुरक्षा देता है,

सब घरवाले वहां हैं

वही अपनी दुनिया है..

 

 

 

 

 

 

मेरे लिये, तुम.

536591_2686757588694_1849062269_1644081_162352320_n

पहले

हवा ने अपना हाथ बढ़ाया

और उठा लिया

अपने हिस्से का टुकड़ा

मुझसे बिना पूछे.

 

फिर

रोटी के हाथ लगा कुछ बड़ा ही अंश,

सहमना ही पड़ता है

रोटी के आगे.

 

अब मेरे सामने जो शेष बचा मेरा दुःख

वह तुमने उठा लिया

मेरे कंधे पर अपना हाथ रख कर,

पता नहीं कैसे

मैं झपट कर छीन पाया कुछ छोटे छोटे कण

कि कुछ तो पास रहे स्मृतियों के लिये.

 

वैसे

हवा ने

अनगिनत दुःख दिये हैं बार बार मुझे,

वह समेटती ही आती है दुनिया भर के दुःख

और बिखेर जाती है अनायास

मेरी आँखों के आगे,

मैं बीन ही लेता हूँ उन्हें, पता नहीं क्यों..?

 

दुःख तो

रोटी ने भी कम नहीं दिये हैं

रोटी का कद

बस भूख से ही उन्निस है

भूख के हाथों रोटी

कभी बिना दुःख के नहीं मिलती,

भूख

दुःख के टुकड़ों को समझौते कहती है.

 

और तुम ?

तुम्हारे दिये दुःख तो मैं समेट कर रखता हूँ,

गिनता नहीं उन्हें

मेरे कंधे पर जितनी बार हाथ रखती हो तुम

उतनी बार

तुम्हारे न होने का दुःख मुझे चीर चीर जाता है.

 

तुम

पारदर्शी अदृश्य

हवा हो मेरे लिये

हठात छीन कर ले जाती हो

मुझसे मेरे दुःख…..

-अशोक गुप्ता

305 हिमालय टावर, अहिंसा खंड 2 , इंदिरापुरम,  गाजियाबाद 201014

 

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*


This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

error: Content is protected !!