हास्य-व्यंग्यः छाता हाथ में लेकरः शरद जोशी

वे जब बाहर जाते, हाथ में तलवार लिए रहते। पुराने क्षत्रिय। निश्चित बोर हो जाते होंगे। हमेशा क्या जरूरत, पर वजन लादना पड़ता था। बाद में सिर्फ़ कटार की चल गयी। हल्की, तेज़। ली और निकल गये। सोचो ज़रा उनका कष्ट। मैं तो अनुमान लगा सकता हूँ। चार-पांच रोज़ से इधर छाता लेकर घूम रहा हूँ। यहां-वहां भूल भी जाता हूँ। छाते में यही एक बीमारी है, जब-तब छूट जाता है, कहीं भी। क्षत्रिय वीर भी जहां-तहां तलवार भूल जाते होंगे। लड़ने-भिड़ने वालों का दिमाग यों भी खास तेज़ नहीं होता । इसलिए बाद में कमर में म्यान कसी जाने लगी जिसमें तलवार डाले रहते कि भूलने का सवाल ही न उठे। आजकल वैसे क्षत्रिय नहीं रहे। होते तो अपनी कमर में एक तलवार और एक छाता कसे घूमते नज़र आते। जब जिसकी ज़रूरत वही निकाल दिया। पुराने समय में नौकर पीछे-पीछे छतर लेकर चलता था और खुद मालिक तलवार लेकर। अब तलवार बेज़रूरत हो गयी और छतर उठाने वाला अलग कर दिया गया। अब हम अपना छतर खुद उठाये चलते हैं। जैसे मैं चार-पांच दिनों से छाता उठाय़े घूम रहा हूँ।

अक्सर जब छाता लेकर घर से निकलते हैं, वर्षा नहीं होती। बादल बिचक जाते है। कौन बरसे? फायदा क्या ? लोग भीगने को ही राज़ी नहीं तो व्यर्थ पानी क्यों गंवाया जाए? ऐसी हालत में छाता एक समस्या हो जाती है। इसे कैसे उठाया जाए? पिछले दिनों मैंने अलग-अलग ढंग से छाता उठाने के प्रयोग किए हैं। जैसे एक सामान्य शरीफ़ाना अन्दाज़ यह है कि आप छाते को बांए हाथ पर लटका लें। बांयें अथवा दाहिने हाथ पर। ऐसा मैने अक्सर किया है। विशेष रूप से स्टैंड पर किसी का इन्तज़ार करते हुए या किसी से बातें करते समय। पर यह मुद्रा ज्यादा देर चल नहीं पाती। कोहनी से हाथ बराबर नब्बे डिग्री का कोण बनाए वज़न सहता है। अपने देशी मरदाने छाते आम तौर पर हल्के नहीं होते। इस पोज़ में चलने में असुविधा होती है। छाते का निचला भाग (पता नहीं छाते का निचला या ऊपरी भाग किसे कहेंगे क्योंकि खुलने पर छाते का जो भाग ऊपर होता है, छाता बन्द करने पर वही भाग नीचे आ जाता है)। बार-बार पैरों से टकराता है। मज़बूरन आप हाथ को शरीर से थोड़ा अलग हटाकर चलते हैं जैसे पूजा की थाली लेकर मन्दिर जानेवाली औरतें थालीवाले हाथ को अपने बदन से दूर रखे बिना तेज़ी से नहीं चल सकतीं। आपका पोज़ भी कुछ वैसा बन जाता है। नज़रें नीची, ज़मीन पर कीचड़ होने के कारण, दर्द करते हाथ और धीमी चाल। आपका पूरा व्यक्तित्व एक प्रकार से सुस्त, निष्क्रिय और अर्थहीन लगने लगता है। तब आपके पास कोई चारा नहीं रह जाता कि आप छाते को किसी दूसरी तरह से उठाने लगें।

क्या कीजिएगा? एक तरीका यह है कि आप ग्रामीणों की तरह छाता लेकर चलें। यानी जैसे कन्धे लठ्ठ लेकर चलते हैं, वैसे। इसमें एक लाभ स्पष्ट है कि चाल तेज़ रहती है। पर मैं इस तरीके को अपना नहीं पाता। एक तो यही पूर्वाग्रह काम करता है कि यह ढंग गंवारू है। गांवों की खुली सड़कों पर छाता उठाने की यह शैली सुविधाजनक रहती है। भीड़ नहीं रहती और यह भय नहीं कि छाते की नोक किसी पीछे आनेवाले की आंख या नाक से टकराएगी। शहर की भीड़ में आप ऐसे कन्धे पर छाता रखे चलेंगे तो जल्दी ही किसीकी गालियां सुनेंगे। थोड़ा भी इधर-उधर घूमे कि किसी की गरदन पर पड़ी या सीने में चुभी किरिच-जैसी। शहर में सौदा खतीदने जो गांववाले आते हैं उन्हें इस ढंग से छाता उठाने के कारण अक्सर झिड़कियां खानी पड़ती हैं। कुछ तो मैने देखा है कि बन्द छाते को भी वैसे ही उठाए रहते हैं जैसे खुले छाते को। झण्डे की तरह लिए चले जा रहे हैं। कृष्णलीला के पुराने चित्रों में जैसे गोपिकाएँ छड़ी उठायी रहती थीं। किसी ने गड़बड़ किया तो दिया कसकर। इस तरह छाता उठाना सोद्देश्य लगता है। चेहरे पर तनाव-सा आ जाता है, खुद अपने से हम आतंकित होने लगते हैं। ताश के पत्तों में हुकुम का बादशाह या हुकुम का गुलाम या चिड़ी का बादशाह जिस तरह हाथ में शस्त्र लिए तने नज़र आते हैं उस तरह।

इसलिए जब छाता हाथ में होता है तो इच्छा होती है कि पानी बरस जाए तो ठीक। खोल लेंगे तो कोई असुविधा नहीं होगी। दाहिने हाथ में छाता है और बांए हाथ से कपड़े ऊपर चढ़ाए कीचड़ से बचते चले जा रहे हैं। मेरा पतली मोहरी का पैंट ऊपर चढ़ाने से नहीं चढ़ता। यह सुख तो पज़ामे कुरते में है। एक हाथ से दोनों के पांयचे ऊपर कर लो, दूसरे हाथ में छाता ले मज़े-मज़े से चले जाओ। ” संवरिया सावन बीता जाये” गाते। यह भ्रम है कि छाता खोल लो तो बदन नहीं भीगता। जिस तरह से असूर्यम्पश्या लड़कियों पर भी राह-चलतों की नज़र पड़ ही जाती है उस तरह कुछ बूंदें तो बदन पर गिरती ही हैं। कमर के नीचे का भाग भीग जाता है। अच्छा है।

कई बार मैने सोचा कि सराफ़े के छोटे दलालों की तरह छाता बगल में दाब लिया जाए और घूमते रहें। दलाल इसमें बड़े चुस्त नज़र आते हैं जो उनके व्यवसाय के लिये आवश्यक है। मैं ऐसा करूं तो कस्बे के मिडिल स्कूल का पुराना मास्टर नज़र आऊँ। आदर्श, मध्यमवर्गीय , ईमानदार और एक ऐसी लड़की का बाप जिसके लिए लड़का नहीं मिल रहा हो या मिल गया तो दहेज़ नहीं जुट रहा हो। पुराने न्यू थियेटर्स या बाम्बे टाकीज़ की फिल्मों में जैसे टिपिकल बाप होते थे, पम्प शू, चौखाने का कोट, गोल टोपी और धोतीवाले। वे ज़ब बाहर जाते थे छाता बगल में रखते थे। कहीं भूलते नहीं थे। बगल में छाता दाबे शायद मैं वैसा ही लगूँ। महिलाएं और खासकर नौकरीपेशा महिलाएं अपना छाता बगल में दाबकर चलती हैं। एक तो इनके छाते छोटे-छोटे होते हैं। वज़न में हल्के और इनमें वह भालेनुमा नोंक नहीं होती जैसी मरदाने छातों में होती है। पता नहीं इसके मूल में छाता बनानेवालों का तर्क क्या है? यदि पुरुष अपना छाता बगल में दबाकर चले तो उनके पीछे आनेवाले को असुविधा होती है। वह भालेनुमा नोक चुभ सकती है। पर महिलाओं का पीछा करने में ऐसा कोई खतरा नहीं है। मरदों की किस्मत में लम्बे छाते लिखे हैं। छड़ी-जैसे लिए चलना पड़ता है।

जिन दिनों स्कूल जाते थे, छाता कन्धे पर लटका लेते थे। दोनों हाथ खाली रहते थे और बड़े मज़े से आवारागर्दी की जा सकती थी। कन्धे मोटे नहीं थे, छाता फिट आ जाता था। अब कन्धे पर छाता रख चार कदम चलना कठिन है। नहीं जमता। कन्धे पर सुग्गा बिठाकर चलनेवाले का ध्यान जिस तरह कन्धे पर ही लगा रहता है, वैसा हो जाता है।

कुछ समझ नहीं आता। चार-पांच दिनों से हाथ में छाता लेकर शहर में घूम रहा हूँ और हर तरह से कोशिश करके देख चुका, छाता लेकर चलना एक मुसीबत है। एक छोटी-सी साधारण वस्तु मेरे पूरे व्यक्तित्व को आकार देने लगती है। मैं अपने को सुस्त और व्यर्थ अनुभव करने लगता हूँ। चाहे हूं नहीं पर स्मार्ट लगना चाहता हूं। छाता लगने नहीं देता। अजीब देसी मध्यवर्गीय नजर आता हूँ। उम्र ज्यादा लगने लगती है—कुछ ढीला और निराश-सा आदमी मुसीबत में फंसा अपने को बचाता हुआ, सुरसा की तलाश में फूंक-फूंककर कदम रखकर चलनेवाला, अपने को बड़ा होशियार लगानेवाला। मूर्ख। कल मैने दिन भर यों किया कि बन्द छाते को बिल्कुल बीच से ऐसे पकड़ लिया जैसे पुलिसवाले डंडा पकड़ते हैं। मैंने सोचा कि इस तरह मैं इस छाते को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बनने दूंगा। वह मुझसे अलग लगेगा जैसे किसी दूसरे का छाता हो और मैं उसे लौटाने जा रहा हूं। पर एक तनाव-सा बना रहा। पुलिसवाले जैसे डंडे को पकड़ते हैं यदि उस तरह छाता पकड़ूंगा तो तनाव रहेगा। कुछ समझ नहीं आता । (छाते को नापसंद करने का यह अर्थ नहीं कि रेनकोट का भक्त हूँ। उसमें तो अजब ज़मादार नज़र आता हूँ या सी. आई. डी. का शक्की आदमी। उससे उबरकर ही मैं चार-पांच दिन से छाता लिए घूम रहा हूं।

आज सुबह से घर में हूं। निकलूंगा तो छाता हाथ में लेकर जाना होगा। अपने कमरे में छाता उठाने की विभिन्न शैलियों को जांच-परख चुका हूं और परेशान हूं। मुझे लगता है कि एक अच्छी-खासी उपयोगी चीज़ ( पुष्तकों में लिखा है कि छाता उपयोगी वस्तु है, यह वर्षा और गर्मी दोनों से बचाता है) मेरे लिए पुरानेपन का प्रतीक बन गयी है। मैं इसे साथ रख अपने को युवा अनुभव नहीं करता। मैं इससे अपने को अलग करना चाहता हूं। इस बरसात में यह संभव नहीं। इस छाते को हाथ में रखे तो किसी भी बरसात में संभव नहीं।

एक बड़ी-सी घटा आकाश के एक छोर से इधर बढ़ती आ रही है। आधा घण्टा बाद लगता है बरसेगी। मुझे बाहर जाना है। पर…।

(साभार, यत्र तत्र सर्वत्र)

शरद जोशी
21 मई 1931 से 3 सितंबर 1991
अप्रतिम चुटीले व्यंगकार

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