ओ समंदरः अमित बृज/ लेखनी मई जून 16

220px-Little_Venice,_Mykonosओ समंदर … तकरीबन ७ साल का था जब तुमसे मेरी पहली मुलाकात हुई थी। “इत्ता पानी”, दूर क्षितिज तक फैले तुम्हारे विस्तार को देखकर बरबस ही निकल पड़े थे ये अल्फाज़। कितना डर गया था मैं। मासूम सी सिहरन फ़ैल गई थी नसों में। और फिर पापा जब मेरे नन्हें पैरों को तुमसे स्पर्श करवा रहे थे तो सारा चौपाटी सर पर उठा लिया था मैंने। मुंबई का सफर ख़त्म होने के बाद हम वापस अपने गांव आ गए थे, लेकिन तुम छप गए थे मन की किताब में कहीं।
सालों बाद रोजी रोटी के चक्कर में जब दोबारा इस शहर में आना हुआ, तो दिली ख्वाहिश थी कि तुमसे फिर मिलूं। मगर जिंदा रहने की जद्दोजहद में यूँ उलझा कि तुमसे मिल नहीं पाया। हालांकि मुझे पता था, तुम बुलाओगे जरूर। और कमबख्त हुआ भी ऐसा। मुंबई को जीते-जीते मैं कब एक मशीन में तब्दील हो गया, मुझे खुद पता नहीं चला। एक मशीन जिसमें थोड़ी सी जिंदगी डाल दी गई हो और वह भाग रहा हो इधर-उधर। लक्ष्यविहीन सा। तन्हाई का स्पंज धमनियों में बहते रस को सोखता गया और एक पड़ाव पर सिवाय खालीपन के कुछ नहीं बचा। शायद इसी खालीपन को भरने के लिए मैं दोबारा तुम्हारे पास आया था।
चौपाटी पर बैठा एकटक तुम्हारे निहार रहा था। अंनत… असीम… विराट। और फिर अचानक तुम्हारी उत्ताप उफनती लहरें मेरी तरफ बढ़ी। हौले से भिगो गई मेरी पांव को और फिर चल पडी तुम्हारी तरफ। गीलेपन की नमकीन खुशबू मेरी रगों में उतरने लगाी ऐसा लगा जैसे पांव के रास्ते तुम अंदर उतर आए हो और हर सूखे कोने को भरने लगे हो। कई गुफाएं खुलने लगी। लहरों का शोर भीतर के एकाकीपन को भरने लगा। जिन्दा हो उठी जीने की मृत ख्वाहिश जो इस कांक्रीट के जंगल में चुपचाप दम तोड़ चुकी थी।
उस दिन पहली बार मैं तुमसे ख़ौफ़ज़दा नहीं था। पहली बार तुम्हारे अंदर से उठती ठंडी हवा मां की थपकियों सी मासूम लगी। तुम साँझ के सूरज को अपने नीले चादर से ढक रहे थे। तुम्हारी पेशानी सुर्ख हो गई थी मानो कोई नई नवेली दुल्हन अपने प्रियतम को आगोश में लेकर सुरमई हो गई हो।
अब तो वक्त-बेवक्त हर रोज तुमसे मुलाकात होने लगी। तुम्हारी बहुआयामी शख्सियत को समझने की कोशिश करने लगा। तुम कभी-कभी मुझे शैतान बच्चे से लगते। एक जिद्दी मगर मासूम बच्चा जो अपने नटखट लश्कर के साथ दुनिया जीतने निकलता है और नाकाम होने के बाद पत्थर से टकराकर बिलख-बिलख कर रोने लगता है। तुम्हारे चरित्र का यह पहलु मुझे काफी आकर्षक लगा और मैंने लिखा था –
यह शांत समंदर …
जाने कितने शहर को पल में लूट जाता है,
कभी चट्टान से टकराकर टूट जाता है,
यह शांत समंदर …
यह शांत समंदर …
आज मैं फिर उसी चौपाटी पर खड़ा तुम्हे निहार रहा हूं। बगैर किसी फ्रेम के। बगैर किसी उपमा के। मैं जानता हूं मेरे जैसे अनगिनत लोग हैं, जो तुमसे अपना दुःख-दर्द-बांटते हैं, तकलीफ सांझा करते है और वक्त-बेवक्त तुम्हारा सहअस्तित्व बन जाते हैं। कुछ चेहरे तो इस समय भी आसपास हैं। विज्ञानं तुम्हें बेशक पानी का समुच्चय माने, मगर तुम आंसुओं का गुच्छा हो मेरे और मेरे आसपास के लोगों के लिए। तो क्यों ना, आज तुम खुशियों का एक बड़ा सा गुबार निकाल दो अपने अंदर से और सराबोर कर दो सबको अपने रंग से…बहा ले जाओ गम की सारी रेत और छोड़ जाओ खुशियों की चंद सीपें।
तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा।

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