खनिज सम्पदा से भरपूर , यह धरती सदियों से हमारा भरण-पोषण करती आ रही है। हमें संरक्षण दिए हुए है। मानव जीवन यात्रा के विभिन्न सोपान , भिन्न-भिन्न सभ्यताओं के कई-कई उत्थान और पतन देखे हैं इसने। मनमाने तरीके से लूटी खसूटी भी गई है यह और कई-कई लड़ाइयाँ भी हुई हैं इसे लेकर। अभी तक जब छोटे-छोटे देश और कबीले थे और मानव की पहुँच इतनी व्यापक नहीं थी। सैटेलाइट से पूरा विश्व जुड़ा हुआ नहीं था। यह लड़ाइयाँ, द्वेष और ईर्षा आदि इतने नुकसान नहीं कर पाते थे, परन्तु आज सबकुछ सबके आगे है । परिणाम है बड़ी –बड़ी लड़ाइयाँ , बड़े-बड़े नुकसान। उच्छ्रंखल मनमानी और स्वार्थ और लालच के रहते पृथ्वी और इसके खजानों का निर्मम दोहन।
कैसे रोक सकते हैं हम इसे ! कौन हो सकता है पृथ्वी का निरपेक्ष और निस्वार्थी रखवाला! ऐसे ही चलता रहा सबकुछ तो आखिर क्या है हमारी इस धरती का और हमारा भविष्य ! कबतक और कितनों का भार संभाल पाएगी यह शस्य श्यामला सुजला सुफला ? कितने और टुकड़ों में बंट सकती है यह और कितनी और खूनी सरहदें खींची जा सकती हैं इसके सीने पर। क्या अब सबकुछ व्यापारिक अनुबंध ही रह जाएगा -रिश्ते-समाज, प्यार-व्यवहार, सबकुछ? आखिर किसकी धरती रह गई है यह!
शास्त्रों में कहा गया है कि वीरस्य भोग्या है यह। पर तब मानव समाज और जंगल राज्य में फर्क क्या रह जाएगा!
शायद इसी सोच के तहत, निर्बलों की रक्षा के लिए और हमें पाशविक धरातल से ऊपर उठाने के लिए ही धर्म का जन्म हुआ था कभी। परन्तु धर्म जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने निरंकुश समाज को नियंत्रित और सुचारु रखने के लिए की थी, आज खुद भी तो निरंकुश और अत्याचारी हो चला है। क्या वक्त नहीं आ गया कि हम थम कर सोचें अंधविश्वासों और रूढ़िगत परंपराओं से परे करुणा दया और सभीको साथ लेकर चलने वाली एक सहिष्णु जीवन शैली के बारे में, जिसमें सभी जी सकें…फलफूल सकें।
विद्वानों द्वारा सिखाया गया था जिसके लिए आत्मा गवाही दे वही धर्म है- और शास्त्रों में-
धॄति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
यानी- धैर्य, क्षमा, आत्म-नियंत्रण, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों का संयम, बुद्धि यानी दूध का दूध और पानी का पानी वाला विवेक, विद्या, सत्य और क्रोध न करना॥ जी हाँ, क्रोध न करना भी। ये धर्म के दस लक्षण हैं।
सवाल उठता है कि आज के इस बदलते परिवेश में भी क्या यही परिभाषा सही रह पाई है?
क्या है धर्म-अधर्म …आत्म संचय और संरक्षण या फिर सबके हित की बात को सर्वोपरि सम्मान देना, वैसे ही आचरण करना ! सर्वे भवन्तु सुखिनः के लिए कौन या कैसे निर्धारित करें अब हम इस धर्म को? धर्म के नाम पर बढ़ते अत्याचारों से घबराए लोगों ने तो यह तक पूछना शुरू कर दिया है कि क्या वाकई में आज हमें धर्म की जरूरत भी रह गई है? धर्म जो हमें तोड़ रहा है। खेमों में बांट रहा है। नफरत फैला रहा है। जो शरण दें उन्ही के सिर फोड़ रहा है।
इसके नाम पर आखिर कितने और अन्याय, कितनी निर्दोषों की बलि की अनुमति है या होनी चाहिए? एक सवाल, जो अक्सर विचलित ही नहीं करता हर धर्मभीरू इन्सान को अपितु लोहार के हथौड़े की तरह इसकी गूंज और चोट दिन-प्रतिदिन और-और तीव्र व असह्य ही होती जा रही है। दुनिया के कोने कोने में हुए ये विध्वंस इतने क्रूर और विष्फोटक होते जा रहे हैं कि आज समस्त मानवीय गुण जैसे दया, क्षमा, सहिष्णुता ही नहीं, पूरी मानवता का भविष्य ही खतरे में नजर आने लगा है। कोई भी कहीं सुरक्षित नहीं।
निर्भय की तलाश में हम धर्म की शरण में जाते हैं, पर यही अगर नफरत, मनमाने अत्याचार और भय का हथियार बन जाए तो त्रस्त किसके आगे गुहार लगाएँ? कौन पुलिस बनेगा इस निरंकुश समाज में या किसमें इनसे लड़ने की सामर्थ है?- कौन इतना परोपकारी और स्वार्थ हीन है कि इस सर्वहितकारी धर्म का निर्वहन कर सके, व्यवहार और आचार के नए नियम प्रणालियों की तालिका जन मानस तक पहुंचा सके। …फिर कौन लिखेगा इसके नियम -व्यक्ति या समाज ? और कौन किसको धारण करता है आज के युग में… वाकई में कौन किसका सम्बल है? लाठी जिसके सहारे चला जा सकता है, उसी से सिर भी तो फोड़ा जा सकता है।
क्या समाज ही इन लाठियों का कारक-यानी निर्माता और धारक है, या फिर हर मानव खुद ? उसकी क्या जिम्मेदारी है इसके निर्धारण और निर्वहन में ? एक खयाल या आदर्श जिसे धर्म मानकर व्यक्ति अपना जीवन न्योछावर कर देता है , क्यों अक्सर वही उसे निगले जा रहा है ? कितनी लड़ाइयाँ, अत्याचार और कुकर्म धर्म के नाम पर हुए हैं, इतिहास के पन्ने पलटें तो सिर शर्म से सिर झुक जाता है। क्या वक्त नहीं कि परम्परागत धर्म की छवि बदलें, विशेषतः आज जब जीत या ध्येय, स्वप्रचार ही अन्त मैं एकमात्र धर्म रह गए हैं ?
यदि वाकई में ऐसा है तो फिर मानवता- दया धर्म और सहिष्णुता आदि की क्या जगह और उपयोगिता रह जाती है ? क्या आज भी हम गांधी जी के उस फौर्मूले पर चलकर जी सकते हैं कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा आगे कर दो…कटु सत्य है यह भी, पर निश्चय ही है विचारणीय !
हम एक डरावने समय में जी रहे हैं, जहाँ प्रार्थना में जुड़े हाथ प्रायः आंसुओं में डूबे नजर आते हैं। गुटबाजी और षडयंत्रों से भरी दादागिरी ने आज निर्बल को पूर्णतः निरस्त कर दिया है। एक तरफ तो बढ़ते तकनीकी माध्यम विश्व को आपस में जोड़ रहे हैं , वैश्विक मानव और सभ्यता का निर्माण कर रहे हैं, वहीं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन और दुरुपयोग भी खूब है। छीनने की प्रवृत्ति अब छोटे-मोटे उठाईगीरों तक ही सीमित नहीं। पैरिस, बेरूत, ट्यूनिशिया, मैसीडोनिया, मुंबई, लंदन, न्यूयौर्क, बाली… क्रूर और दिल दहला देने वाली घटनाओं की सूची अंतहीन है। कहाँ कब और कैसे रुकेगा यह अत्याचार! जब शरणार्थियों के रूप में डाकू और लुटेरे घुसेंगे, तो फिर कौन हिम्मत कर पाएगा भूखे नंगों को शरण देने की। कैसे रहें इस धरती पर शान्ति से…किसकी धरती है यह आखिर !
सवाल नहीं, जवाब ढूंढने हैं हमें…जवाब जो सूरज की किरण से उजाला लेकर आएँ, मुस्कान लेकर आएँ !
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