किसने आखिर
किसने आखिर
ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है
जो काला है !
मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
छत्ता है काले बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है।
तहखानों से निकले
तहखानों से निकले मोटे मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे हैं
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं चीं, चिक् चिक् की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं …
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे
आएंगे उजले दिन ज़रूर आएंगे !
समता के लिए
बिटिया कैसे साध लेती है इन आँसुओं को तू
कि वे ठीक तेरे खुले हुए मुँह के भीतर लुढ़क जाते हैं
सड़क पर जाते ऊँट को देखते-देखते भी
टप-टप जारी रहता है जो
अरे वाह, ये तेरा रोना
बेटी, खेतों में पतली लतरों पर फलते हैं तरबूज
और आसमान पर फलते हैं तारे
हमारे मन में फलती हैं अभिलाषाएँ
ककड़ियाँ ऐसी
एक दिन बड़ी होना
सब जगह घूमना तू
हमारी इच्छाओं को मज़बूत जूतों की तरह पहने
प्रेम करना निर्बाध
नीचे झाँक कर सूर्य को उगते हुए देखना
हम नहीं होंगे
लेकिन ऐसे ही तो
अनुपस्थित लोग
जा पहुँचते हैं भविष्य तक।
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँटकर
चबाता फुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज़ है
एक फेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता ही रहूँगा
हर बार
भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
पहले उस ने
पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए
और कहा – ‘असल में यह तुम्हारी स्मृति है’
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया
और कहा – ‘अब जा कर हुए तुम विवेकवान’
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी और कहा –
‘चलो अब उपनिषद पढो’
फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा – ‘अब अपनी तो यही है परम्परा’।
क्या करूँ
क्या करूं कि रात न हो
टीवी का बटन दबाता जाऊं
देखूं खून-खराबे या नाच-गानों के रंगीन दृश्य
कि रोऊं धीमे-धीमे खामोश जैसे दिन में रोता हूं
कि सोता रहूं जैसे दिन-दिन भर सोता हूं
कि झगड़ूं अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूं अपने दांत से
कि टेलीफोन बजाऊं
मगर आंय-बांय-शांय कोई बात न हो
वीरेन डंगवाल हमारे समय के विशिष्ट और मुखर कवि थे। उनका जाना हिन्दी कविता की क्षति है। लेखनी पत्रिका की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि । पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ चुनिंदा कविताएँ।