कहानी समकालीनः सुरतालः शैल अग्रवाल/ लेखनी-अगस्त सितंबर 2015

सुर ताल

Surtaalउसका अपना शहर था यह । इस महक को, इसके पेड़-पक्षियों को , धूप की चमक और हवा की छुअन तक को तन से नहीं, आत्मा से पहचानती है अंतरा। कई बार गूँथी, गढ़ी और मिटाई गई है वह इस धरती पर,..इस आज और अभी से पहले और शायद बाद में भी …कई बार। आज यहाँ का लिया दिया सब वापस लौटाने ही तो आई है।

कबीर की मिट्टी से बनी, कबीर के शहर में बैठी, भाव-विभोर थी वह।

बहती नदी सी कलकल स्वतः अंदर बाहर दोनों किनारों से जुड़ी, दोनों किनीरों में रिसती अंतरा ने आज दोनों ही किनारों को भिगो दिया था अपनी सुरताल की झीनी-झीनी और मोहक बौछार से।

राम नाम रस भीनी चुनरिया झीनी-झीनी रे। डूब चुके थे सब यादों में…सुरों की झंकृत थिरकन में ।… कौन ठगवा नगरिया लूटल हो… सुरीले गीत एक के बाद एक झरते पंखों से खुद-ब-खुद ही बह रहे थे उसके होठों से, आँखों-से।

माया महा ठगनी हम जानी।। तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी।।

सुरों के पंछी परवाज़ ले चुके थे और पंखों की सुरीली फड़फड़ाहट से पूरा-का- पूरा हॉल गूँजने लगा था। एक के बाद एक मीठी तानें और वे लयबद्ध सुरीले गीत आत्मा तक को गुदगुदाए जा रहे थे। बैलेरिना सी सुरों के आरोह और अवरोह पर तैरती-फिसलती कभी अलाप तो कभी तिल्लाना, कभी ठुमरी तो कभी कजरी गाती अंतरा, संगीत-सरिता में डूबती उबरती, सिहर-सिहर तबले की हर ताक धिन के साथ थिरक रही थी। गाते गाते एडियों पर पूरी की पूरी उठ जाती वह और फिर शरीर को वहीं छोड़, फड़फडाती-सी, बन्द पलकों के पीछे छुपी, हॉल के सबसे उँचे गुम्बद तक को छू आती। और अगले पल ही सम की डोर पकड़े वापस खुद को तुरंत ही खुद में समेट भी ले रही थी अंतरा। शरीर का रोमरोम संगीतमय हो चला था उसका और अपने ही गले में पिघल पिघल कर वह बही जा रही थी। वायलिन और बांसुरी की मधुर धुनों पर तैरती-बहती हॉल के हर श्रोता को छू और महसूस कर पा रही थी अंतरा। सुन और सुना पा रही थी वह खुद को भी और जो सामने जो बैठे थे उनको भी— साफ-साफ और स्पष्ट। जो सुनना चाहते थे वह भी। और जिसकी उन्हें अपेक्षा नही थी वह भी। संयम की लगाम से खुदको कसे जो वे सुनना चाहते थे और जो उन्हें बाँध रहा था, वही गाने की कोशिश कर रही थी— दूसरे शब्दों में कहूँ तो श्रोताओं की नव्ज़ पकड़ रखी थी अतरा ने और सच पूछो तो क्या यही एक सफल कलाकार की पहचान नहीं है ?

अपने ही शहर में आयोजित यह संगीत समारोह —विशिष्ट था अंतरा के लिए। भारत से यूरोप जाकर तो बहुत प्रोग्राम होते हैं। परन्तु एक भारतीय मूल का यूरोप में पला-बढ़ा कलाकार भारत आकर, अपनी एकलव्य साधना के बल पर —अपने ही शहर में स्तरीय भारतीय शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम दे, ऐसा कम ही हो पाया है। बहुत ही विशिष्ट और गौरान्वित महसूस कर रही थी अंतरा। यह और बात थी कि परिचय के सुर गले में ही घोंट लिए थे उसने, जरूरत ही नहीं थी इसकी। अंतरा देख रही थी, सामने कई परिचित और अपने ही तो बैठे थे।

पूरा हॉल तालियों की गड़गड़गाहट से गूंज उठा था। एकबार फिर शान्त होने का प्रयास करती, वह, हॉल में बैठे अन्य लोगों की तरह वैसे ही हाथ में हाथ बांधे, बहुत ही गम्भीर मुद्रा में बैठी रह गई, भावनाओं के आवेग से अभिभूत। बच्ची तो नही थी कि ताली बजा-बजाकर पूरा हॉल सरपर उठा ले। दौड़कर सबसे गले मिल ले। माना यह उसका अपना शहर है। यहां से प्यार-सम्मान पाना उसकी आत्मा की भूख थी। कलाकार दुनिया में कहीं भी सम्मान पा ले, पर अपनों के बीच अपनों से प्यार पाने का सुख ही कुछ और होता है, जान चुकी थी अंतरा। हॉल में उमड़ती हर वाह और आह से आज एक नया ही जोश पाया था अंतरा ने। लोग बातें कर रहे थे – ‘सधी कलाकार है—जीवन भर के रियाज के बाद ही आ पाती है ऐसी कशिश, यह दर्द। पर-यह मिठास तो ऊपर वाले की ही देन है, भाई, हम तो यही सोचकर खुश हैं कि हमारी अपनी मिट्टी की उपज है। हमारे शहर की, हमारी अपनी है।‘

जितने मुंह, उतनी बातें थीं, अंतरा के रीते अंतस् को सींचती-सहलाती । संगीत कार्यक्रम पूरी तरह से सफल रहा था। अंत में करतल ध्वनि के बीच अपने ही भाई और पति के हाथों से फूलों का गुलदस्ता लेना अटपटा तो जरूर लगा था परन्तु इससे आयोजन की गरिमा व महत्ता में कोई कमी नही आ पाई थी, वरन् चार चाँद ही लग गए थे। ‘ बुआ जी, बुआ जी, हमें भी अपनी तरह-से वॉयलिन बजाना सिखा देंगी न आप ? ’ , पैरों में लिपटी नन्ही भतीजी आग्रह पर आग्रह किए जा रही थी। -‘ और हाँ. यह गले में जो सुन्दर सी माला आपने पहनी है और यह सुन्दर सी साड़ी भी, यह सब मुझे दे देना जब मैं आप जितनी बड़ी हो जाऊं—याद रखिएगा? ‘ टेढी गरदन से उसे देखती भतीजी की आंखों से प्यार और प्रशंशा दोनों ही छलक रही थीं। ‘ हाँ, हाँ, क्यों नही और साथ में बहुत सारी नई भी।‘ चार साल की भतीजी को गोदी में उठाकर अंतरा ने प्यार से थपथपा दिया था तब।

कितने मासूम और मस्ती भरे होते हैं ये बचपन के दिन भी …काश वक्त को वहीं रोक कर रख पाती ।

वक्त की मुठ्ठी से तो सब फिसल जाता है चाहा -अनचाहा सभी कुछ। कभी वह भी तो इतनी ही खुश और बेफिक्र थी…अपनों से घिरी.,..बेहद प्यार करने वाले अपनों की देखरेख और निगरानी में जीती और वही करती, जो उसे पसंद था । पर अब तो पसंद नापसंद से परे जा चुकी है जिन्दगी। बीच-बीच में कुछ है जो रौशनी बनकर कौंधता है पर जबतक समझे, पकड़ने की कोशिश करे, विलुप्त भी तो हो जाता है। इस जिन्दगी में कितना सच है और कितनी हमारी कल्पना कभी जान ही नहीं पाई अंतरा। पर आज उसका अंतस तृप्त था ।

खुशी से छलकती आँखों को पोंछती अंतरा ने सोचा—काश मां होतीं, पापा होते इस वक्त तो कितने खुश होते। वही शहर पर वही लोग नहीं। …यादों की बाढ़ थी चारो तरफ। वे नहीं थे वहाँ, जिनकी कमी बहुत शिद्दत से महसूस कर रही थी अंतरा…..जिन्हें उस वक्त बगल में खड़ा देखना चाहती थी अंतरा। अचानक हॉल की भीड़ को चीरता वह आया और दौड़कर अंतरा को गले से लगा लिया उसने। ज्योति, कहाँ थीं तुम अबतक? कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा और भटका हूँ मैं तुम्हारे लिए ? तुम ही तो मेरी ज्योति हो। बोलो ज्योति …मेरी ज्योति हो ना?

खिचड़ी, रूखे और बेतरतीबी से बिखरे बालं, फटे-गंदे कपड़े और गाल के गढ्ढे बता रहे थे कि वह जिसे ढूँढ़ रहा था, बहुत प्यार करता था उसे, दीवानगी की हद तक। अचानक भीड़ में से कोई उठा और पागल को अलग करते हुए बोला , ‘गुरुजी यह ज्योति नहीं ज्योति की सहेली अंतरा है। बचपन में आपंकी ही नर्सरी में पढ़ी और बढ़ी। देखने और कदकाठी में ही नहीं …व्यवहार और प्रतिभा में भी अपनी ज्योति पर ही तो गई है यह आपके प्रताप और आशीर्वाद से। इसीलिए आपको भ्रम हुआ है ज्योति का।‘

ओह, बनर्जी मास्साब! तो यह पागल उसके बनर्जी मास्साब हैं; जिनकी खुरदुरी दाढ़ी से बच्चे अपना मुंह रगड़ा करते थे… तरह तरह की बालू और मिट्टी की मिठाइयां बनाकर दिन भर उन्हें पत्तों की तश्तरियों में सजाकर परोसा करते थे। जिनके पास अनमोल कहानियों का सदा भंडार रहता था। उन बनर्जी मास्साब का यह हाल। मास्साब की हालत देखकर अंतरा का मन भर आया। क्या हुआ उनकी ज्योति को? क्या हुआ उसके जुड़वा भाई दीपक को? उनकी आंखों से रिसता दर्द अब उसकी अपनी आत्मा में धंसता जा रहा था। गले लगी-लगी ही वह बोल पड़ी- हां, मैं ही तो आपकी ज्योति हूँ। अब आप कतई परेशान न हों।‘

अभी-अभी वह भी तो ऐसे ही, इतनी ही शिद्दत से पापा को ढूंढ रही थी। फिर यह तो जाने कबसे अपनी बेटी को ढूँढ रहे हैं। दोनों को ही जरूरत है और दोनों की ही जरूरतें पूरी करने का क्या पता भगवान ने यही तरीका सोचा हो…वैसे भी उसके खेल वही जानता है। मास्साब के इस तड़पते अपनत्व से उसे अकथ संतोष मिल रहा था। बगल में औरतें बात कर रही थीं-

‘ गम ऐसी ही चीज है बहन जी। बड़े-बड़े समझदार और विद्वान पागल हो जाते हैं इसकी मार से। एक साथ ही पूरा घर उजड़ गया बेचारे का। पाण्डे के साथ बीबी क्या गई, दो साल के भीतर दोनों बच्चे भी छोड़ गए। अब पागलों सा गली-गली बेटी को ढूँढता फिरता है। ‘

‘दीपक नहीं रहा पर ज्योति तो ठीक होने के लिए ही अस्पताल गई थी। उसे तो लौट आना था, फिर जाने अस्पताल से कहां चली गई ।‘-बीस साल से यही रट लगा रखी है पागल ने। न खाने का होश , न पीने का। न जिन्दा में और ना ही मुर्दा में…इससे तो भगवान उठा ही ले इसे भी।‘ दूसरी ने जबाव दिया।

जाने क्यों उनकी बातें अच्छी नहीं लगीं अंतरा को। अंदर तक चीर गई दर्द की एक लहर।

अंतरा की सोच और लगन , दोनों ही सतही नहीं थे । जिसे चाहा, टूटकर चाहा था उसने, इतना टूटकर कि बाकी सब भूल जाती।

अगले पल ही, वह गन्दे कपड़ों वाला विक्षिप्त , जिसे कोई जानना तक नहीं चाहेगा , अपने साथ गाड़ी में बिठाकर घर ले जा रही थी अंतरा। इनके साथ तो शैशव की, नर्सरी स्कूल की यादें जुड़ी हुई हैं। उन यादों ..उस गुरु शिष्य के रिश्ते का कर्ज चुकाना चाहती थी अंतरा। बचपन से ही ऐसी ही है अंतरा।

…बचपन के वे मासूम दिन याद आते ही बरबस आँखें पोंछती अब वापस मुस्कुरा उठी थी अंतरा।

एक बार फिर अब पूजा करती मां का शान्त चेहरा उसके सामने था। अखबार पढ़ते बाबा सामने थे और साथ में थी यादों की एक बाढ़। बनर्जी मास्साब क्या मिले उसी बरसों पहले बचपन में पीछे छूटे घर में जा बैठी थी अंतरा। उस दिन भी तो उसी प्रिय पेड़ के नीचे बैठकर स्केच कर रही थी वह और तब मां आदत से मजबूर वहीं दूध का भरा गिलास लेकर आ गई थीं, वहीं उसके पास बगीचे में ही। पता जो है, बेटी को जबतक हाथ का काम खतम नहीं होगा, न तो भूख लगेगी और ना ही प्यास। तब कैसे दूध के गिलास में रंगों से भरा ब्रश धोकर गंदले पानी के गिलास को ही मुंह से लगा बैठी थी अपने काम में डूबी अंतरा। ‘पगली बेटीं.’ ..  पल्लू से हंसी रोकती मां ने देंख लिया था सब , बेटी का उतावलापन और एकाग्रता दोनों ही। और तो और रंगों के उस गंदले पानी को पी भी जाती अंतरा तो, अगर मां की हंसी तंद्रा न तोड़ती। काम करते वक्त, शरीर छोड़ , इंद्रियों से परे , समाधि जैसी स्थिंति में ही जा बैठती है अंतरा और तब उसे संभालने वाला , वापस होश में लाने वाला, समझने और सुलझाने के लिए किसी प्यार करने वाले, अपने का आसपास होना बहुत जरूरी हो जाता है। आज भी तो उसकी यही आदत है। आंखों में पुनः आँसू थे। कोई नहीं था वहाँ जो उसे यूँ समझे। इस लगन से उसकी भूख-प्यास, उसकीं जरूरतों का ध्यान रखे। मां के जाने के बाद पापा थे—पर अब तो पापा भी नहीं। कबके पंच तत्व में विलीन हो चुके हैं वह भी–एक नही, दो नही पूरे सात साल पहले। सबके सामने रो भी तो नही पाई थी अंतरा– जाते पापा को विदा तक न कर पाने की मजबूरी तक उसने ‘अपनी -अपनी किस्मत’ समझकर स्वीकार ली थी, बिना किसी से कुछ कहे या शिकायत किए बगैर ही। वैसे भी तो हमेशा ही जमीन पर गिरे कपड़े सा निढाल छोड़कर ही लौटती थी पापा को —डरी और सहमी-सहमी,-जाने अगली बार मुलाकात हो भी या नही?

और फिर उस दिन पल में, एक खबर ने, एक टेलिफोन ने दुनिया बदल दी थी अंतरा की। पापा हैं से थे हो गए थे । पर रोई नही थी अंतरा। उस दिन भी नहीं जब बीमारी से तंग आकर पापा ने कहा था कि क्या तेरा मन नही करता फिरसे एक स्वस्थ शरीर हो मेरे पास और  एक नयी जिन्दगी का मौका मिले मुझे– क्या यह संभव भी है पापा ? शब्दों के अर्थों के बोझ के नीचे दबी, स्तब्ध वह तो यह तक पूछ नही पाई थी -‘ कि क्या फिर हम मिल भी पाएंगे कभी? ’ तब भी नहीं; जब भाई ने बतलाया था कि कैसे कुछ दिन पहले ही पापा ने आग्रह किया था कि उनके जाने के बाद वे अंतरा को कुछ न बतलाएँ, बर्दाश्त नही कर पाएगी । ढेर सारी चिठ्ठियाँ लिखकर छोड़ देंगे वह उसके लिए और बस हर हफ्ते एक चिठ्ठी डाल दिया करें वे।‘

कैसे कैसे बहलाते थे पापा लाडली को और खुद को भी।—उन्ही से तो सीखा है अंतरा ने खुद को यूं हर हाल में बहला लेना—हर परिस्थिति में सामान्य हो जाना, सामंजस्य कर लेना । उन्ही की बेटी है अंतरा। न पापा व्यवहारिक थे और ना ही अंतरा। झोंक दिया सुरों के मधुर संसार में खुदको, ताकि भुला सके मौत की ठंडी सिहरन को—सर से पैर तक दिन-रात सुलगाती वक्त और जीवन की निष्ठुरता को—- हर उस याद को, जो अब जीवन का नासूर ही नहीं, अभिन्न संगिनी बन चुकी है। गालिब के शब्दों को जी रही थी अंतरा, जहाँ दर्द, दर्द नहीं दवा बन चुका था।

ऐसा इसलिए नहीं, कि दर्द की लत् पड़ गई थी, या विक्षिप्त हो गई थी अंतरा। ऐसा बस इसलिए था कि मौत के पार जाकर जीवन की इस सबसे बड़ी गुत्थी को सुलझाना चाहती थी अंतरा। बाबली हो गई थी अंतरा। जो बड़े-बड़े ज्ञानी और सिद्ध पुरुष नहीं जान पाए थे, अंतरा जान लेना चाहती थी और वह भी तुरंत ही। कई-कई बार जमीन के उस हिस्से पर जहाँ पापा को अंतिम बार लिटाया गया था , वहीं घँटों बैठी रह जाती बस बैठे-बैठे पीठ जरूर जकड़ जाती। भाई बहन आश्चर्य करते। अँदर कमरे में आने का आग्रह करते । पर उन्हें क्या बताती अंतरा कि पापा को महसूस करना चाहती है वह।…पापा थे कि एकबार गए तो, महसूस होना तो दूर, सपने तक में नहीं लौटे।

कर्णसिद्धियों का जादू देखा था उसने इंगलैंड में टेलिविजन पर।  जहां वे मन में उठते भावों को पढ़कर तुरंत ही बता देते हैं कि मन में क्या चल रहा है। यूरोप में उन्हें मीडियम कहते हैं। ऐसी ही यूरोप की दो मशहूर मीडियम भारत आई हैं और एक साथ इसी शहर में उनका आयोजन भी है। आज सुबह ही तो उसने अखबार में पढ़ा था। इनका दावा है कि ये सैकड़ों की भीड़ में बैठे लोगों को दिवगंत प्रियजनों से मिलवा देते हैं। ‘मन में चल रहे भावों को पढ़ कर, जान कर उनके प्रिय का संदेश सुना देते हैं। पर, यह भी तो कोई कम उपलब्धि नहीं। श्रोता भी खुश और उनकी भी अच्छी-खासी आमदनी? आमदनी क्या जीवन भर के लिए चेले बन जाते होंगे !’

अब एक दूसरी इच्छा बलवती हो चुकी थी उसके मन में।

‘घर नहीं, गाड़ी टाउनहॉल की तरफ मोड़ लो।‘ ड्राइवर और खुद को भी, पूरी तरह से चौंकाते हुए अगले पल ही निर्देश दिया था अंतरा ने।

अंतरा को विश्वास नहीं। पर पापा से मिलने के लिए वह किसी पर भी विं·श्वास कर लेगी। सब स्वीकार लेगी। यही वजह थी कि धीर गंभीर अंतरा भी जा रही थी एक ऐसे अविश्वसनीय मेले में। शायद पापा की कोई खबर मिल ही जाए…और शायद ज्योति की भी। ओस की बूंद से ठंडक पहुंचाने जैसी बात थी।  पर उम्मीद तो थी और इतना ही काफी था अब अंतरा के लिए।

अंतरा ने महसूस किया बनर्जी मास्साब बहुत ध्यान से देख रहे थे उसे।

‘क्या सोच रही है ज्योति, काकू से बात भी नहीं करेगी, अब तुम ? ‘

गुमसुम अंतरा की चुप्पी तोड़ने की पहल भी बगल में बैठे और पागल समझे जाने वाले मास्साब ने ही तो की उस वक्त।

उदास चेहरा देखा नहीं जा रहा था, पर बात भी क्या करे वह इनसे।…कैसे पाटे उस बीस वर्ष की खाई को। सुनते हैं दोनों बच्चे आठ वर्ष की उम्र में स्कूल से लौटते समय दुर्घटना का शिकार हो गए थे और वहीं तुरंत सड़क पर ही दम तोड़ दिया था दीपक ने। ज्योति ने अस्पताल पहुंचकर, काकू के आने से पहले ही। पत्नी मालती दो वर्ष पहले ही साथ छोड़ चुकी थी। सहकर्मी रजत के प्यार में फंसी मालती को अब न अतुल बनर्जी की जरूरत थी और ना ही पल भर को भी चैन न लेने-देने वाली औलादों की। वैसे भी शुरु से बच्चों के मा-बाप दोनों वही तो थे। मालती के तो बच्चों को देखते ही सिर में दर्द हो जाता था। किसी भी मा-बाप के लिए बच्चों का छिनना असह्य है पर जिस सीने में मा-बाप दोनों का ही दिल धड़कता हो, उसका दुख तो दुगना होगा ही। नहीं बर्दाश्त कर पाए। बावले हो गए बनर्जी मास्साब। रोज की तरह का ही एक आम दिन था वह भी, बस, उस दिन का अंत रोज की तरह आम नहीं हुआ। सूरज डूबा तो वापिस फिर कभी उगा ही नहीं। रोज की तरह ही भीखू साइकिल पर दोनों बच्चों को बिठाकर घर वापस ला रहा था। सामने आती ट्रक ने बनर्जी मास्साब के दोनों फूलों को कुचलकर पूरा संसार ही नहीं, खुदको भी तो छीन लिया था उनसे । ऐसे में अब क्या बात करे अंतरा उनसे। किस भुलावे में फुसलाए इन्हें…बता दे क्या- कि नहीं, वह ज्योति नहीं, अंतरा है …उनकी ज्योति के साथ ही, उन्हीकी नर्सरी में पढ़ने वाली अंतरा। ज्योति की सबसे प्यारी सहेली अंतरा। तोड़ दे उम्मीद की इस आखिरी किरन को भी। पर, इतनी निर्दयी नहीं है अंतरा।

ड्राइवर ने गाड़ी टाउनह़ॉल के आगे रोक दी। अंतरा एक स्वप्न या भय-सी स्थिति में मास्साब का हाथ पकड़े-पकड़े, निशब्द उतरी और बडे-बड़े डरावने, उन सीमेंट के खंबों को पार करती , जमा भीड़ के बीच में छुपती सी भीड़ में जा बैठी। मानो भीड़ का हिस्सा बनना भी चाहती थी और नहीं भी। शो शुरु हो चुका था। हां , शाय़द शो ही सही शब्द था उस आयोजन के लिए। संदेश आने शुरु हो चुके थे । मृतकों द्वारा अपने पीछे छूटे प्रिय जनों के लिए भांति-भांति के संदेश आ रहे थे।.

’हाँ तुम…तुम पीली साड़ी में…और तुम ..तुम फूलों की साड़ी वाली , उस खंबे के पास। हाँ, में तुम्ही से कह रहा हूँ। अब एक तुम्हारे लिए…तुम्हारा बेटा है शायद।‘

किसी का बेटा, तो किसी की प्रेमिका…कोई पीछे छूटी पत्नी को तसल्ली दे रहा था, तो कोई बिछुड़े पिता को। पूरे ही हॉल में सन्नाटा था इतना सन्नाटा कि सूई भी गिरे तो साफसाफ सुनाई दे।.कभी-कभार एकाध हिचकियों के बीच सुनाई देता ’.हाँ-हाँ वह ऐसा ही था। …ऐसी ही थी वह। हाँ, यह वही है।’…बस्स। फिर दबी ढकी सिसकियाँ या फिर रह जाती वही जमी-सी भयभीत खामोशी…मिलन जिसमें विछोह का अहसास -कोई भूल ही नहीं पा रहा था। पूरे तीन घंटे अंतरा सबकुछ चुपचुप सोखती रही , अपनी पारी का इंतजार करती रही पर उसके पापा का संदेश नहीं आया, तो नहीं ही आया ।

अंतरा की आखिरी आस भी टूट चुकी थी। उसके पापा वहाँ, उस सभागार में नहीं थे। कांपते पत्ते-सी अंतरा ने कैसे भी अपने को खड़ा तो कर लिया पर भावनाओं की आंधी ने उसे वापस उसी मेज पर पटक दिया, जिसका सहारा लेकर वह जैसे तैसे अभी-अभी जाने के लिए खड़ी हो पाई थी। अंतरा के पूरे शरीर में मानो एक जलजला-सा आ चुका था और बहाए ले जा रहा था उसे, खुद उसके अपने ही आंसुओं में डुबोकर।

हॉल खाली हो चुका था। रोते-हंसते, संतुष्ट-असंतुष्ट सब जा चुके थे। अब तो वे दोनों मीडियम भी उठने की तैयारी में थीं। सामान समेट रही थीं। तभी उन्होने देखा, गिरती- सी कांपती अंतरा को, जो अपने ही निशब्द आंसुओं से पूरा चेहरा धो रही थी फिर भी उसके चेहरे पर छाई निराश की कालिमा ज्यो-की-त्यों बरकरार थी और राखपुते-से उस चेहरे को मृतप्राय बना चुकी थी।

देखते ही मीडियम दौड़कर उसके पास आईं। संभालना बहुत जरूरी था। अंतरा को बांहों में भरकर पानी पिलाया उसने और अंतरा के तटस्थ होते ही, बिना कुछ पूछे ही, खुद ही बोल भी पड़ी। बहुत हो चुका खेल। अब और चुप रहना उनके लिए संभव नहीं था।-‘ना,ना, ऐसे मन पर नहीं लेते। जब तुम हॉल में घुसी थीं , तुम्हारे साथ एक अधेड़ उम्र के बुजुर्ग भी थे , तुम्हारे कंधे पर हाथ रखे, तुम्हारे साथ-साथ चलते हुए। शायद तुम्हारे पिताजी या दादा जी …।‘….

’ हाँ, हाँ वह मैं ही था। ‘ पीछे खड़े बैनर्जी मास्साब बीच में ही बोल पड़े। पिताजी वाली बात उन्हें भी ठीक से समझ में आ रही थी। पर, मीडियम ने मानो उन्हें सुना ही नहीं था। वह अपनी ही रौ में बोले जा रही थी सब कुछ… कहना जो उसे दो घंटे पहले था, पर जाने किस दबाव के तहत् शायद कह नहीं पाई थी, अब बताना जरूरी था। हां तो वह बता रही थी-

‘ उन्होंने ही हाथ के इशारे से मुझे मना कर दिया था कि मैं तुमसे कुछ न कहूँ। तुम्हें अधीर नहीं करना चाहते थे। कह रहे हैं, कि तुम्हें बहुत प्यार करते हैं वह । शायद इस धरती पर उन्होंने किसी को भी इतना प्यार नहीं किया , जितना कि तुम्हें।’

तुम यही जानना चाहती हो ना अब कि फिर उस अंतिम पल में वे तुम्हारे पास क्यों नहीं आए, और क्या बहुत तकलीफ हुई थी उन्हें? तो वह कह रहे हैं ’–कैसी तकलीफ बेटी, ऐसे तो आदमी सौ बार मरता है, सौ बार जीता है।’

‘……..‘ अंतरा निष्पलक आंखों से सुन रही थी उसे।

‘वह तुम्हारे पास आए भी थे, पर बहुत दुखी होगी तुम, यही सोचकर बिना कुछ कहे, अंतिम विदा लिए बगैर ही लौट गए थे; पूर्णतः संतुष्ट- यह देखकर कि पति और पुत्र प्यार करते हैं तुम्हें, ठीक से देखभाल कर रहे हैं तुम्हारी और आगे भी करेंगे। वक्त आने पर तुम उनसे फिर मिलोगी । पर आज अब अंतिम विदा ले रहे हैं वह तुमसे। जाते-जाते तुम्हें बहुत सा प्यार देकर जाना चाहते हैं, जिससे तुम यूँ और न भटको। यकीन मानो, वक्त आने पर एकबार फिर तुम जरूर ही मिलोगी उनसे। ‘

अंतरा को विश्वास नहीं हो पा रहा था कि वाकई में पापा ही हैं वहां पर। पर, वह अंदाज और सोचने का तरीका तो बिल्कुल पापा जैसा ही  था। एक-एक शब्द वही था, जो वह सुनना चाहती थी। यही वजह थी कि हर शब्द पर विश्वास करना चाहती थी अंतरा। तभी उसे और अधिक हत्प्रद करती-सी वह मीडियम बोल पड़ी -सुनो, अभी-अभी बगल में एक बुजुर्ग महिला भी आ खड़ी हुई हैं और तुम्हें अपना प्यार देना चाहती हैं। आत्मिक संसार में इनकी उम्र पुरुष से ज्यादा है।

‘ हां-हां वे मेरी मां ही हैं। ढाई वर्ष पहले गुजरी थीं बाबा से। ‘अब अंतरा और चुप न रह सकी।

‘तुम्हें अपना प्यार दे रही हैं, माँ। ‘ मीडियम की आवाज में अथाह प्यार था।

अंतरा की आंखों में भी अब पूर्ण संतोष था और होठों पर वही पुरानी तृप्त मुस्कान। आंखों से बहती अविरल आंसुओं की धार को पोंछती अंतरा ने मीडियम की तरफ अकथ संतोष और कृतघ्नता के साथ देखा । अब उसे और कुछ नहीं सुनना । कुछ नहीं जानना था। शीशे में उतर चुकी थी अंतरा। फिर अचानक ही जाते-जाते पलटकर बोली,

‘तो, क्या तुम मेरा प्यार भी उन तक पहुँचा सकोगी?’-

अंतरा अगले पल ही पांच साल की बच्ची सी मचल रही थी । पर सामने से आए जबाव ने एकबार फिर उसे यथार्थ की जमीं पर वापस ला पटका।

’तुम खुद ही क्यों. नहीं दे देतीं…आई मीन दे सकती हो प्यार। आज ही नहीं, जब भी जी चाहे तुम्हारा। तुम्हारे साथ ही तो रहते हैं वे  हमेशा।’

‘तो, झूठ, सब झूठ ही था यह।…एक मृगतृष्णा में ही भटक रही थी वह।‘

‘कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढे बन मांहि‘…एक बार फिर परिस्थिति की अस्तित्वहीनता और छायामयी छलना खुली धूप –सी चुभने लगी थी, विवेकी अंतरा को । भागना चाहती थी, वह वहां से ।

अभी जाने के लिए मुड़ तक नहीं पाई थी कि अचानक ही दूसरी मीडियम ने आठ साल की बच्ची की आवाज में सुबक-सुबक कर रोना शुरू कर दिया, ‘ का…कू,। मुझे छोड़कर मत जाओ काकू। –काकू-काकू, तुमने आने में इतनी देर क्यों की ? ‘ अब जाना असंभव था।

‘मेरे पास आओ काकू, मुझे गोदी में लो, काकू। मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती, अब। कैसे-कैसे टूटती सांस के साथ भी मैंने तो उस दिन भी तुम्हारा इंतजार किय था, पर तुम आए ही नहीं। आए क्यों नहीं? बोलो, काकू! ’

स्तब्ध अंतरा देख रही थी, कि बलि के बकरे से मास्साब घुटनों के बल जमीन पर बैठे कभी मीडियम को तो कभी अंतरा को ही देखे जा रहे थे। उनकी समझ में इस नए नाटक का एक वाक्य तक नहीं आ पा रहा था। इसके पहले कि एक और बलि चढ़ती, कुछ अनहोनी होती , अंतरा ने सहारा देकर उठा लिया और बेहद दयनीय व अपनेपन से खींचती बाहर ले आई उन्हें।

-‘काकू-काकू घर नहीं चलना? देखो कितना अंधेरा हो चुका है! ‘ इसबार यह मीडियम की नहीं, अंतरा की आवाज थी जो मास्साब के लिए तपते मरु में जलधार से कम न थी।

‘हाँ बेटी, चल।‘ बेहद आश्वासन के साथ होठों-ही-होठों में कुछ ऐसा ही कहकर वह भी बिना आनाकानी के चल दिए कार की ओर, अंतरा का हाथ पकड़े-पकड़े एक अबोध बच्चे-से।

जाते हुए ‘काकू और बेटी ‘ को दोनों मीडियम विस्मित खड़ी देख रही थीं । हत्प्रद होने की अब उनकी बारी थी। ‘ऐसा तो उनके अनुभव में कभी नहीं हुआ।.. आखिर, ये दोनों यहाँ आए ही क्यों थे? ‘

अंतरा के अंदर की जिजीषा-कुंडलनी पूर्ण जाग उठी थी। बरसों से अंधेरे में भटकती को रौशनी की एक लकीर जो मिल गई थी…रौशनी…जिसकी तलाश दोनों को ही थी।

‘जो बीत गया, उसपर रोना क्या, भला ! जीवन भी एक लय ही तो है…सुर ताल पर गूंजती अनूठी और मधुर लय। …टूटे बिखरे का रुदन ही नहीं।‘

‘..सुर बिछुड़ें या बिखरें तो मुकरी और मीड़ लेकर तुरंत ही ताल से जोड़ लेना चाहिए।‘ यही तो सिखाया था मास्साब ने भी कभी उसे। जीवन भी फरक तो नहीं। समझा चुकी थी वह खुदको ।

कार, दोनों को लिए गन्तव्य की ओर बढ़ी जा रही थी। और तब, अचानक ही, वह अनहोनी भी होकर ही रही, जिसे बहुत पहले हो जाना चाहिए था। एक नया जीवन और नयी शुरुआत थी दोनों की वह। आंसू भीगी दोनों की ही मुस्कान अब एक नयी आस से गमक रही थी, नई गूँज से खिलखिला रही थी।

खिली चांदनी-के शीतल, शफ़क उजाले-में दोनों ने ही देखा और सुना ही नहीं, स्वीकारा भी उसे।

जीवन का वह खोया सुर, बरसों बाद न सिर्फ गूँज रहा था उनके अंतस में; अपितु होठ और आँखों से निर्बाध बहता, ताल पर ताल देती आत्मा के साथ मोहक नृत्य कर भी रहा था अब तो ।…

3 Comments on कहानी समकालीनः सुरतालः शैल अग्रवाल/ लेखनी-अगस्त सितंबर 2015

  1. शैल दी की कहानियों की शैली मन को छू जाती है जैसे कोई सत्य घटना कही जा रही है उत्सुकता बढती ही जाती है जितना सरल उनका व्यक्तित्व उतनी ही सरल भावनायें होती हैं ह्रदय से बधाई दी अनंत शुभकामनाएं आपकी सृजन यात्रा निरंतर गतिमान रहे !!

  2. धन्यवाद शीलजी। कहानी अच्छी लगी, जानकर प्रसन्नता हुई। मेरी राय में तो हर कहानी सच और कल्पना के ताने-बाने पर ही बुनी जाती है।

  3. ‘मृत्यु के बाद भी जीवन होता है’ इसे जानने की उत्सुकता मेरे मन में हमेशा से रही है .शैल जी की कहानी ‘सुर ताल ‘ में साक्षात् रूप से इस सत्य को प्रत्यक्ष रूप में देखने और समझने को मिला कि मृत्यु के बाद भी परलोक में बसे स्नेहीजन अपने प्रियजनों को इस लोक में दुखी देखना नहीं चाहते.कहानी लिखने की शैली में तो शैल जी सिद्धहस्त हैं हीं अपनी मनोभावनाओं को भी उन्होंने बड़ी कुशलता से कहानी के साथ साथ सुधि पाठकों के समक्ष रखा है. विस्मय और रोमांच से भरी यह कहानी सत्यकथा सी प्रतीत होती है. शील निगम (मेनचेस्टर)

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