हास्य-व्यंग्यः मुर्दे की नज़र से-शैल अग्रवाल

मुर्दे ने अचानक आंखें खोल दीं।

तुरंत ही, जैसे ही कौफिन खुला और दर्शन करते ही सब अपनी-अपनी जगह पर पहुँचे। आख़िरी मौक़ा था । जी भरकर देख ले वह भी सबको।
फिर आज तो वह खूब सजा हुआ था। बाल कटे थे। सूट नया था और जूते भी चमक रहे थे। आखिर अंतर्राष्ट्रीय बेटे का पिता और अंतर्राष्ट्रीय मुर्दा था वह। बस एक ही तकलीफ थी-सभी मित्र आए थे विदा देने पर वह किसी से बात नहीं कर पा रहा था । और बिना बात किए अब उसका पेट फूलने लगा था।
दिल के दौरे वाली बात भी तो यही है कि अंदर की सारी सांसें अंदर ही घुट जाती हैं। बाहर नहीं आ पाई। अगर मन की निकाल लेता तो… बीबी ने भी तो कितनी बार कहा था यही, भले ही उलाहने में ही सही। सभी परेशान थे उसकी चुप रहने की आदत से। वह तो लड़ लेती थी बहू से पर वह नहीं लड़ पाता था। आखिर बड़ा रईस व्यापारी ऐसे ही तो नहीं बना, जाने किस किस के आगे दबा और झुका है जिन्दगी भर । हाँ गप्पें और ठहाके मारने का शौक था उसे दिनभर चलते पान के बीड़ों की तरह ही। और यहाँ विदेश में आकर तो एक नई ही हवा मिली थी उसके इस शौक़ को। चारो तरफ निठल्ले ही निठल्ले थे। भला हो यहाँ की सोशल सिक्योरिटी का कइयों ने तो पचासों साल से कुछ काम ही नहीं किया था। सबके पेट में बस बातें ही बातें उफनतीं। सोशल मीडिया पर चबीसों घंटे महफ़िल लगी रहती थी। कभी एक फ़ोटो , कभी चुटकी भर हंसी और पूरी शाम रंगीन रहती।
पर आज चारो तरफ निशब्द सन्नाटा था, उसके कश्मकश से भरे जवानी के दिनों की तरह ही। तब उसे कोई शौक़ नहीं था। बस काम करता और मुर्दों सा सो जाया करता था रात में। सुबह ही आँख खुलती। पर आज मुर्दे की तरह नहीं, वाक़ई में मुर्दा था वह। और सोया नहीं जगा हुआ था, वह भी बन्द पलकों के साथ। और मज़े की बात यह थी सबकुछ साफ़-साफ देख पा रहा था। सभी क्रम बद्ध खड़े थे अब। घर पर तो फूल पत्ती घी जाने क्या-क्या उसके ऊपर चढ़ाकर दिक् ही कर दिया था उसे।पता नहीं बेचारा भगवान कैसे चढ़वाता है रोज़-रोज अपने ऊपर।

उसे याद आया पिछले छह महीने में उसने भी तो कई बार ऐसा किया था। मंदिर की तरह हफ्ते में दो बार जाने वाले सेंटर से पांच परिचितों को यहाँ विदा करने आ चुका था। फिर बस उन्ही की तरह बिजली के पट्टे में झोंक दिया जाएगा वह भी। और मिस्टर सो एंड सो का नामो-निशान तक मिट जाएगा इस दुनिया से।

चार दिन की चाँदनी…मुर्दा मन-ही-मन गुनगुनाया।

यही तो अंत है हमारा, इसी के लिए तो ताउम्र सारी हाय-हाय करते हैं!

ज़ोर से हंसी आ रही थी अब उसे खुद पर । अगर पहले से पता होता तो …बिना बात ही इतने दंद-भंद नहीं करता । किस-किस से छुपाया, कैसे-कैसे खेल खेले। और उस पर से जीते-जीते ही आख़िरी दिनों में पास बुक और कैश जेवर सब बेटे ने अपने कब्जे में ले लिए।पैसे-पैसे को मोहताज हो गया ।

बेटे के मोह में विदेश क्या आ फँसा, पूरा पराधीन हो गया। अब इसके ख़िलाफ़ तो कोई स्वाधीनता संग्राम भी नहीं छिड़ सकता था। फिर गलती भी तो उसी की थी। मिलने आने की जब बेटे को फुरसत ही नहीं मिली तो वह दोनों ही चले आए मिलने । अब क्या पता था कि लौटने की बजाय यूँ ठाट से विदा मिलेगी। पत्नी आराम से कुरसी पर बैठी चाय पी रही थी । बेटे के साथ ही रहेगी अब तो।

आखिर उन्हे भी तो नैनी को अच्छे-खासे पैसे देने पड़ते हैं, फिर नौकरानी भी तो यहाँ नहीं मिलती। जाने कब अब इतने आराम और चैन से बैठ पाएगी बेचारी…पूरे साल भर बाद इतने चैन से चाय पी पाई है, वरना तो दिन-रात उसकी ही फरमाइश और तीमारदारी में भागती दौड़ती रहती थी।

उसने फिर से ध्यान से देखा। आज तो बाल भी ढंग से कढ़े थे और चेहरे पर भी हल्का सा मेकअप था। हो भी क्यों न आखिर एक मजमा-सा जो जुटा है नाते रिश्तेदार और परिचितों का । कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा था उसने इन मित्रों को, कितना याद किया था अपने बीमारी के उन उदासी भरे दिनों में । पर फुरसत ही नहीं थी किसी को कि एक दिन भी आकर मिल जाते। यह वही मित्र और परिचित थे जिनके साथ स्वस्थ दिनों में कहकहे और शराब भरी महफिलें सजती थीं उसकी। तबकी बात और है पर, तब कुछ पैसे रहते थे उसकी ठन-ठन गोपाल जेब में ।

बुद्धि की कमी तो हमेशा ही रही है उसमें , वह माने या न माने।

बचपन में आए दिन डांट खाता था।

सच पूछो तो बुद्धि की कमी तो नही ही थी, हाँ मन ज़रूर ही तितली-सा उड़ता फिरता था। कभी आई.ए.एस औफिसर, तो कभी डॉक्टर, इंजीनियर, चित्रकार, लेखक और भी जाने क्या-क्या बनना चाहता था वह एक ही जिन्दगी में। नतीजा यह कि झट-से बड़ा हो गया, बिना कुछ बने बगैर ही। वैसे तो कुछ न बनकर भी ठीक ही जिन्दगी गुजार ली । ठीक नहीं अच्छी, अपने घर, अपनी गद्दी और अपनी दुकान पर आराम से बैठकर । पैसे गिन-गिनकर। वैसे भी इन पैसों की ही तो सारी हाय-तौबा है। इन्हीं के पीछे तो लोग सब छोड़कर विदेश जा बसते हैं।

पर उसने तो न तो किसी की जी हुजूरी की, ना ही कोई चिन्ता।

यह दुनिया गोल है…अब उसके मन के रेडियो में एक बार फिर एक और नया गाना बज रहा था।

पर यहाँ आकर तो वाक़ई में बुरा फस गया था। पाई-पाई को बेटे का मुँह देखना पड़ता था। पर अब जब इस सारे पचड़े से जान छूट गई है तो क्यों फ़ालतू में परेशान हो रहा है?

मुर्दे ने सामने टंगी घड़ी देखी, अभी दस मिनट और थे चलने में। इस बार माइक पर बेटा घड़ियाली आंसू बहाता दिखा । बगल में खड़ी उसकी पत्नी भी बारबार रगड़-रगड़कर आँखों को पोंछ रही थी पर अंदरूनी खुशी की वजह से दुखी नहीं दिख पा रही थी।

यह वही उसका अपना बेटा था, जिसने उसकी हर चीज पर कब्जा कर लिया था और पैसे पैसे को तरसाता था उसे। खाने-पीने तक को मनमाफिक नहीं देता था। हर चीज पर ताला लगा रहता । वह तो अच्छा था जो अमीर देश है यह और वृद्धों के मनोरंजन के बहाने भरपूर और मनमाफिक खाना मिल जाता था उन्हें साप्ताहिक वृद्ध समूह में।

निश्चय किया, नहीं देखना उसे इनमें से किसी का भी चेहरा अब और।

और तुरंत ही मुर्दे ने आँखें वापस बन्द कर लीं।

अब वह बहुत चैन में था। अब वाकई में उसे कुछ नहीं दिख रहा था। खुश होना और चैन से सोना इतना आसान था – पहले क्यों नहीं समझा उसने …चलो, देर आए दुरुस्त आए। अब तो उसे यह भी पता नहीं था कि सब कितने खुश-खुश विदा कर रहे थे और कितने रो रहे थे। ज़रूरत भी नहीं थी अब । पता नहीं फिर मुलाक़ात हो भी या न हो इनसे। पोती से ज़रूर एकाध आंसू की उम्मीद थी पर वह भी सहेलियों से बात करने में मगन थी- अफसोस नहीं , ग्रैनपा की लाइफ सेलिब्रेट कर रहे हैं हम। अच्छे होटल में खाने पीने का बढ़िया इंतजाम है , आना जरूर है सभी को। ‘इट विल बी ग्रेट फन।’ हंसहंसकर कह रही थी।
शुक्र है भगवान का कि सही वक्त पर जा रहा है । इज्जत से जा रहा है। आगे तो बस घिसटना ही था।

आज के इस मिलावटी वक्त में तो सत्तर तक पहुंचना भी पहाड़ चढ़ने जैसा ही है।…खास करके अमीर बेटे-बहू के साथ विदेशी घरों में रह कर, जहाँ नौकर-चाकर नहीं मिलते और सेवा सुश्रुषा की तो छोड़ो ही, दो वक़्त की ताजी दाल रोटी तक के लाले पड़ जाते हैं।…

शैल अग्रवाल
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