ललितः बृंदावन जाऊँगीः योगेश्वर

‘तुम्हारी राजधानी न भावै राणा वृंदावन जाऊंगी।’
मीरा का यह संगीत संपूर्ण भारत का संगीत है। भारतभूमि का संगीत-संदेश है। संतों, भक्तों महात्माओं की साधना का संगीत है। राजधानी नहीं, वृंदावन भारत का अंतर्मुखी जीवन-संदेश-वृंदावन चलो। राजधानी छोड़ो। सुख-शान्ति राजधानी नहीं वृंदावन में है। जहां आनन्द कृष्ण की मुरली बज रही है। नाम ले-लेकर बज रही है। ‘नाम समेतं, कृत संकेतं ‘। वृंदावन जाने का संकेत। राधा-राधा कहकर बज रही है। मीरा, मीरा बोल रही है। वन-पर्वतों, नदी-झरनों, पथ-वीथियों आदि के घेरों को तोड़ती-फोड़ती बज रही है। कहीं कोई दीवार नहीं। रोक रुकावट नहीं। देश-काल की सीमा लांघती भारत के कोने-कोने में बज रही है। वंशी धुन सुनने के लिए काल ठहर गया है। असंख्य कानों, अंतहीन, अनंत रोमछिद्रों से सुनी जा रही है। मुरली ध्वनि की हवा बह गई है। मंद-मंद मुरली वायु। मुरली की मंद-मंद वायु । सभी दिशाओं में एक साथ बह रही है। खिड़की दरवाजों का कोई बन्धन नहीं। आंगन, अमराई एवं करील कुंजों में बज, बह रही है।

वृंदावन की इस मधुर ध्वनि को राजस्थान में मीरा, बंगाल में चैतन्य, असम में शंकरदेव, माधवदेव, तामिल आलवार, तैलंग वल्लभाचार्य, निंबार्क, महाराष्ट्र के महानुभाव, विठ्ठल भक्त, कन्नड़ के मध्वाचार्य, गुजरात में नरसी आदि सुन रहे हैं। यह ध्वनि संपूर्ण भारत को जोड़े हुए है। कंधार के महानुभाव मंदिर में भी यह ध्वनि गूंज रही है। सभी दिशाओं के कान खुल गए हैं। असंख्य रोमांचित हैं। कोटि-कोटि कान, दिशा-विहीन कान ब्रजबल्लभ के संगीत से उद्वेलित हैं। सृष्टि में पहली बार ऐसा मधुर, मोहक संगीत बजा है। नहीं, बजता नित्य है। संगीत सनातन है, अनादि, अनंत है। पहले के लोगों ने भी सुना होगा, हम नहीं जानते। शायद महाभारत के शंखनाद में यह संगीत दब गया हो। कौन बताए? आज तो सभी जातियों, वर्गों, धंधों के स्त्री, पुरुष यह संगीत सुन रहे हैं। चांदनी रात में, अंधेरे के शून्य में यह ध्वनि और मधुर-मादक बन जाती है। यह परा वाणी है। जन-जन की परा, पश्यंती, मध्यमा से एकाकार हो रही है। परा की परिणति वैखरी गूंगी होकर चिल्लाती है—कृष्ण…कृष्ण…कृष्ण। कृष्ण पुकार साकार हो गई है। लोक और वेद साथ-साथ बज रहे हैं। सन्यासी और गृहस्थ दोनों प्रणत हैं। दोनों के हृदय में बज रही है।

यह ध्वनि वसंत की प्रतीक्षा नहीं करती। स्वयं वसंत हैं। वसंत बनाती है। इसे सुनकर वसंत भागता आता है। मधु भी, माधव भी। मधूक पुष्पों में रस छलक रहा है। पलाश वन दहक रहे हैं। रस लोभी भ्रमर सहकार के लिए दौड़ रहे हैं। आधी रात पावलों ने अपना हृदय खोल दिया है। लोक मन में उचाट है। भोग छूट रहा है। घर वन और वन घर हो रहा है। वृंदावन की गोपियों ने घर छोड़ दिया है। पति, पुत्र, माता-पिता, गुरुजन कुछ भी नहीं। जो जैसे हैं वैसे ही भागी आ रही हैं। रेती पर रमण, रेती रमण। कृष्ण…कृष्ण…कृष्ण…क्या चमत्कार है इस बांस बंसुरिया में? माधव की मादक मदिरा भरी फूंक में? सारे कंठ कृष्ण-कंठ हो गए हैं। कंठ-कंठ में कृष्ण हैं। टहकार चांदनी का रास शुरु हो गया है। चंद्रमा का आनन्द प्रकाश है। आनन्द…आनन्द…और आनन्द …अनन्त आनन्द। आनक दुंदुभि के नंदन का आनंद नाद।

कृष्ण में कर्ष है। खींचना। खींचते जाना। कृष्ण सबको खींच रहे हैं। सबकी ओर खिंच रहे हैं। राधा पर खिंचे हैं, गोपी भाव में खिंचे हैं। राधा…राधा…राधा…राधा कृष्ण पर खिंची है। कृष्ण, कृष्ण पुकार रही है। श्रंगार बाधन बन गए हैं। प्रियपथ पर चलती, कहते श्रृंगार राधा में माधव के, माधव में राधा के श्रृंगार बज रहे हैं। एक कृष्ण अनेक हो गए हैं। एक-एक गोपी गले में एक-एक कृष्ण की गलबहियां। कोमल, शीतल, तृप्त, उत्तेजक गलबंहियां। कंस के गले का फंदा कस रहा है। राधा कृष्ण की गलबांही कंस के गले को डस रही है। नागिन ने जकड़ लिया है। उसकी नींद उचट गई है। मथुरा खाली हो रही है। लोग वृंदावन भाग रहे हैं। वृंदावन वनवारी ही रक्षक है। ‘ वृंदावन जाऊंगी…’ बांसुरी सबको खींच रही है।

राजधानी में प्रेम नहीं। प्रेम संगीत नहीं। यहां केवल युद्ध पटह पटपटा रहे हैं। सभी दिशाओं की जड़ता हिल गई है। वीणा, मृदंग, पखवाज, खोल, झांझ, मजीरा आदि सभी वाद्य कृ,ण कीर्तन में लगे हैं। राधा कृष्ण बजा रहे हैं। वृंदावन बजा रहे हैं। वंशी ने सबकी माया, मोह, आसक्ति छीन ली है। सब कृष्ण समर्पित हैं। कृष्ण के लिए। कृष्णाया प्रति गोपी के साथ कृष्ण हैं। कृष्ण केवल मेरे हैं। मेरे साथ हैं। मैं कृष्ण के साथ हूं। मैं कृष्ण हो गई हूँ। कुछ देर पूर्व राधा थी। आधा थी। अराधिका थी। अब कृष्ण हूँ। पूर्ण राधा, पूर्ण कृष्ण।

कृष्ण अपना रस-रूप द्वारका नहीं ले गए हैं। उनका रस रूप वृंदावन में है। वे वृंदावन से कभी अलग नहीं होते हैं—‘ कबहुं न होत निनार ‘ । उद्धव गोकुल आ रहे हैं। गोपियों को समझाने आ रहे हैं। कृष्ण उद्धव से कहते हैं – देखो, गोकुल के वन मेंडरना नहीं। मैं वहां मंत्री (मित्र), रस रूप में सदा रहता हूं। व्रजदेवी भी तुम्हारी रक्षा करेंगीं। वैष्णव जहाँ जाता है, वहां वहां वृंदावन बस जाता है। वैष्णव वृंदावन बसाता है। महात्मा गांधी ने एक वृंदावन बसाया। मन वृंदावन। भीतर का वृंदावन। प्रार्थना सभा का, अहिंसा के सत्य का वृंदावन। सगुण वृंदावन। निर्गुण-सगुण वृंदावन। बूगोल से बड़े आचरण का वृंदावन। सत्य, अहिंसा का आडंबरहीन पाराकृत वृंदावन। असत्य और हिंसा की राजनीति को गांधी पसंद नहीं। संतन ढिंग बैठने वाली मीरा का भजन, नरसी का वैष्णव जन पसंद नहीं। गांधी यमुना के कालिय को भगा न सके। उसने गांधी का वध कर दिया। वृंदावन को अपने जहर से जला दिया। मरकर भी कंस के वंश का विस्तार रुका नहीं।

वृंदावन सभ्यता, संस्कृति और धर्म है। मानवता का ज्योति-सतंभ है। वृंदावन में राधा-कृष्ण का ऐक्य है। फिर भी संत सनातन में समता का अभाव था। उन्होंने राधा का स्थानी मीरा से मिलना अस्वीकार कर दिया–मैं स्त्री से नहीं मिलता। राजरानी का ज्ञान जगा। समर्पण ने पूछा, ‘ क्या वृंदावन में कृष्ण के अतिरिक्त भी कोई पुरुष है?’ सनातन की आँखें खुल गईँ। नहीं, पुरुष तो केवल श्री कृष्ण हैं। वही सबके पुर में शयन करते हैं। द्रौपदी की लाज बचाने वाले कृष्ण ने गोपियों के वस्त्र उतार लिये। णीरा भी लोक-लाज का आवरण उतारकर आई थीं। स्त्री भाव से भक्ति का विकास हुआ। समर्पण स्त्री शक्ति है। कृष्ण पति, प्रभु, भर्ता हैं। सबका भरण करने वाले। अहंता, ममता में भेद है। अहं पुरुष है। ममता स्त्री है। दोनों के हटते ही स्त्री-पुरुष का भेद हट जाता है। तब जीवमात्र स्त्री है। प्रकृति की प्रकृति। अपना भोग, छप्पन भोग प्रभु को समर्पित कर दो। प्रभु समर्पित भोग मुक्ति बन जाता है। कृष्ण ने गोपियों के भोग को स्वीकार किया, स्वयं योगेश्वर बन गए। अच्युत। काम को पुत्र बनाया। अच्युत का पुत्र काम।

कृष्ण का रसिक मन वृंदावन में ही छूट गया। उसे राधा ने चुरा लिया था। कृष्ण ने स्वयं दे दिया था। कृष्ण को डर है, राधा उनके और खिलौने न चुरा ले।

‘ मत ले जाय चुराय राधिका कछुक खिलौने मेरो। ‘

जगत् खिलौनों पर दोनों का दावा बराबर का है। राधा को वंशी प्रिय है। कृष्ण के होठों की जूठी वंशी। राधा ने पूर्ण समर्पण किया। कृष्ण की वंशी भी दे दी। फिर भी कृष्ण को संदेह है। राधा उनकी वंशी चुरा सकती है। वंशी राधा की है, किन्तु उसकी शोभा राधा के पास रहने में है। राधा को देखकर ही वंशी बजती है। सप्त स्वर निकालती है। राधा के विना वंशी किस काम की ?वृंदावन के बाहर वंशी नहीं बजी। नहीं बजेगी। बज नहीं सकती है।

वृंदावन के बाहर शंख बजेगा, शंख ध्वनि। सुदर्शन चक्र चलेगा। प्रभु का चक्र परिवर्तन, जन्म-मरण, उत्पत्ति-विनाश सब सुदर्शन है। कालचक्र कंस का काल आ गया। सुदर्शन आ गया है। कृष्ण गोकुल में खेलते हैं। मथुरा में मातुल वध करते हैं। द्वारका को बसाते हैं। नगर, राज, परिवार सब। गोकुल से लौटते उद्धव को राधा ने बांसुरी दे दी। ‘ कीरति कुमारी सुरबारी दई बांसुरी। ‘ किन्तु कृष्ण को अब बांसुरी नहीं, युद्धास्त्र चाहिए। वे मातुल-बध करेंगे। मामा शकुनि ने महाभारत करा दिया था। कृष्ण अपने घर में महाभारत नहीं होने देंगे। जीवन में कभी-कभी अनुचित जैसा कार्य भी करना पड़ता है। कृष्ण को कंस मामा को मारना पड़ा। शायद इसलिए भी कि वह देवता के अंश का नहीं था, असुरोत्पन्न था। असुर ने उसे छल से उत्पन्न किया था। उसकी मां के साथ असुर छल हुआ था। छलवाला बलवाले से मारा गया।

राधा यह सब जानती थी। कृष्ण को अब वंशी नहीं चाहिए। किंतु राधा को तो कृष्ण की बांसुरी ही चाहिए। चक्र सुदर्शन जितना भी महत्वपूर्ण हो। वह राधा के किसी काम का नहीं है। प्रेम का मार्ग, राधा कृष्ण प्रेम का मार्ग तो पूर्णतः अहिंसक है। यहां तो रूठने में भी मजा है। क्रोध भी प्रेम को बढ़ाता है। प्रेम का क्रोध। क्रोध का प्रेम। राधा और क्या देती ? बांसुरी ही तो सबसे प्रिय है। कृष्ण ने उसे स्वीकार नहीं किया। मथुरा, द्वारका इनमें कभी बांसुरी नहीं बजी। भला रणछोड़ क्या बांसुरी बजाता। भागना भी उसकी रणनीति है। वह सच का भगोड़ा नहीं है। भक्तों ने रणछोड़ की भी पूजा की, उसे पूज्य माना।

राधा, मीरा रणछोड़ राणा की पूजा नहीं करेगी। राधा की एकमात्र इच्छा है-कृष्ण गोकुल लौंटें। वह मथुरा, द्वारका नहीं जाएगी। स्त्री कहीं नहीं जाती। पुरुष को ही आना है। श्री कृष्ण, आओ। तुम्हारा रणछोड़ नाम राधा को पसंद नहीं। राजस्थान में रणछोड़ राणाओं की कमी नहीं। कहां-कहां तक गिनाएं ? किसे-किसे बुलाएं ? मीरा राजस्थान छोड़ेगी। उसे राणाओं की बूमि पसंद नहीं है। युद्ध और कलह से मन ऊब गया है। ऐसे में एकमात्र कृष्ण ही शरण हैं। कुकुक्षेत्र के योगी कृष्ण नहीं। गोकुल के प्रेमी कृष्ण नट-नागर। छछिया भर छाछ पर नाचने वाले कृष्ण। गाय गोपी के पीछे घूमनेवाले कृष्ण।

कृष्ण ने बहन सुभद्रा को अपने शिष्य सखा को दे दिया। बलराम को यह पसंद नहीं। बलराम अर्जुन को अपहर्ता समझते हैं। कृष्ण समझाते हैं, बलराम को मनाते हैं। सब में मेरी अनुमति थी। मेरी अनुमति के बिना अर्जुन सुभद्रा का अपहरण नहीं कर सकते। राजस्थान के राणा कृष्ण-रहित हैं। उनमें बलराम जैसी शक्ति भी है। ऐसे में उनकी इच्छा या अनुमति बेमतलब है। तथाकथित रणछोड़ ने गोकुल, मथुरा एवं द्वारका को अपना शक्ति केन्द्र बनाया। राणा का एक भी शक्ति केन्द्र नहीं रह गया है। सब पर मुगल अधिकारी हैं। रणछोड़ कृपा करते हैं। राजशक्ति रखकर भी राजा नहीं हैं। राजा बनाते, मिटाते हैं। राजा उनका खिलौना है क्रीड़ा मृग। राणा मुगलों के हाथ का खिलौना हैं। वे मुगल कृपाकांक्षी हैं। शक्ति के द्वारा मुगल उनका सबकुछ छीन ले रहे हैं। ऐसे में मीरा ललकारती है। मुझे राजधानी नहीं, राणा की राजधानी नहीं, गोकुल की यमुना किनारे का रास चाहिए। राजधानी में रस नहीं है। रस केवल रास में है, भागवत कीर्तन में है।

मीरा रानी है। राजघ राने की है। किंतु राजघराना छोड़ती है। कृष्ण हवेली में जाती है। रानी मीरा अकेली नहीं है। अनेक राजाओं , रानियों ने राजमहल छोड़ा है। मनुष्य भौतिक सुख से ऊबता है। जवाहरात को देह पर टांगे-टागे थकता है। जवाहरात बोझ बन जाते हैं। सुख सूख जाता है। औपचारिकता उपचार चाहने लगती है। मन में दर्द उठता है। सत्ता छोड़ने का दर्द। साधारण बनने का दर्द। तब राजसत्ता, शरीर सुख का केन्द्र तुरंत छूट जाता है। बुध्द, महावीर, सनातन रूप आदि का छूटा था। स्त्रियों में अक्क, लल्ला, मीरा, अंडाल का छूटा था। इन सबने अपने को कृष्ण से जोड़ा। राजधानी से नहीं, कृष्म भूमि से। रेशमी फाड़ोक कंबल लपेटे। खुद नाचो। खुद बजाओ। नाच-नाचकर कृष्ण को रिझाओ। राधा को मनाओ। काम, कंस प्रतीक कालिय ने संपूर्ण ब्रज-जल को गंदा कर रखा है। यमुना जहरीली हो गई है। उस कालिया को भगाओ।

अंडाल तमिल में गा रही है। अक्क कन्नड में, महानुभाव संत मराठी में, नरसी गुजराती में, मीरा राजस्थानी, विद्यापति मैथिली, चैतन्य और चंडीदास बंगला, अष्टछाप के कवि ब्रजभाषा में गा रहे हैं। जयदेव की संस्कृत अत्यंत सरल हो गई है। ललित लता बन गई है। सर्वत्र राधा-कृष्ण संगीत का कोमल मलय समीर ही बह रहा है। मंद-मंद मुरली का प्रभाव घना हो उठा है। कृष्ण आनंदित हैं, अपने ही प्रतिबिंब के साथ क्रीडारत हैं। जैसे बालक अपने प्रतिबिंब के साथ खेलता है।

बुद्ध, महावीर, मीरा आदि राजपरिवार के थे। इन्होंने राजघराने के कुत्सित कुरूप को देखा था, भोगा था।

उन्हें विरक्ति हुई। वे कृष्ण शरण में आईं। जूता ठोंकते रैदास शरण में। त्याग के चरम पर पहुंची। भोग नहीं, योग का चरम। मीरा ने अपना दर्द कृष्णार्पित कर दिया। कृष्ण ही दर्द की दवा है। ‘ सांवलिया वैद ‘। संसार रोग है, भव रोग। कृष्ण वैद हैं। संपूर्ण समर्पण साँवरिया वैद की दवा का मूल्य है। मीरा को राणा की राजधानी नहीं भाती है। यह रण में लगे कृष्ण की राजधानी है। मथुरा द्वारका नहीं, वृंदावन।

मीरा का संगीत देश-देश घूम रहा है। राजस्थान के मारवाड़ी देश-देश घूम रहे हैं, देश-देश को समृद्ध कर रहे हैं, मीरा का संगीत फैला रहे हैं। वैष्णवता के मुख्य आधार हैं। व्यापार के केन्द्र हैं। मीरा मारवाड़ी हैं। गुजराती हैं। व्रजी हैं। हिन्दी की हैं, मीरा के गीत इन भाषाओं को लांघ रहे हैं। जगह-जगह रास, रस का उडुराज उदित है। राधा-कृष्ण संगीत के पर्याय हो गए हैं। साहित्य, संगीत, कला सब में राधा-कृष्ण की पुकार है। अनेक पठान, मुगल, शेख, सैयद भी कृष्ण संगीत के प्रेमी बने। राधा-कृष्ण की मधुर झांकियों ने उनका उद्धार किया।

मीरा विद्रोहिणी थीं। सभी भक्त विद्रोही हैं। भक्ति विद्रोह है। भौतिकता से विद्रोह, भोग से विद्रोह, संसार शरण से विद्रोह। कृष्ण शरण। कृष्ण शरण का रस अलौकिक है। अतः अकथनीय भी है।

मीरा शंख नहीं, सितार बजाती है। शंख में महाभारत है। सत्ता परिवर्तन का णहाभारत शंख भय उत्पन्न करता है। सितार में आत्मिक शक्ति है—सत्ता नहीं, स्वभाव परिवर्तन की शांति। बांसुरी , सितार सत्ता नहीं, स्वभाव बदल रहे हैं; अहिंसक स्वभाव समाज बना रहे हैं।

(पुनर्पाठः लेखनी अगस्त 2007)

error: Content is protected !!