माह विशेषः ज्योति चावला की कविताएँ


माँ का जवान चेहरा
मेरे बचपन की ढेरों स्मृतियों में है
ढेर सारी बातें, पुराने दोस्त
नन्हीं शैतानियां, टीचर की डांट
और न जाने क्या-क्या
मेरी बचपन की स्मृतियों में है
मां की लोरी, प्यार भरी झिड़की
पिता का थैला, थैले से निकलता बहुत कुछ

मेरी बचपन की स्मृतियों में है
पिता का जाना, मां की तन्हाई
छोटी बहन का मासूम चेहरा

लेकिन न जाने क्यूं मेरी बचपन की
इन ढेरों स्मृतियों में नहीं दिखता
कभी मां का जवान चेहरा
उनकी माथे की बिंदिया
उनके भीतर की उदासी और सूनापन

मां मुझे दिखी है हमेशा वैसी ही
जैसी होती है मां
सफेद बाल और धुंधली आंखें
बच्चों की चिंता में डूबी
ज़रा सी देर हो जाने पर रास्ता निहारती

मैं कोशिश करती हूं कल्पना करने की
कि जब पिता के साथ होती होगी मां
तो कैसे चहकती होगी, कैसे रूठती होगी
जैसे रूठती हूं मैं आज अपने प्रेमी से
मां रूठती होगी तो मनाते होंगे पिता उन्हें
कैसे चहक कर जि़द करती होगी पिता से
किसी बेहद पसंदीदा चीज़ के लिए
जब होती होगी उदास तो
पिता के कंधों पर निढाल मां कैसी दिखती होगी

याद करती हूं तो बस याद आती है
हम उदास बच्चों को अपने आंचल में सहेजती मां

मां मेरी जि़ंदगी का अहम हिस्सा है या आदत
नहीं समझ पाती मैं
मैं चाहती हूं मां को अपनी आदत हो जाने से पहले
मां को मां होने से पहले देखना सिर्फ एक बार.

चूडि़यां

रोटी बनाते वक्त बेलन के हिलने के साथ
थिरकती थीं मां की चूडि़यां
चूडि़यां, जो मुझे आकर्षित किए बिना न रह पातीं
मैं अक्सर रसोई में खड़ी
उत्सुक आंखों से पूछा करती
मां! मेरी चूडि़यां क्यों नही बजतीं
और मां मेरी उस सरल उत्सुकता पर
चिरपरिचित हंसी हंस देतीं

दिन बीतते गए…..
और चूडि़यों से जुड़ा मेरा आकर्षण भी
मां के चेहरे की मुस्कान के साथ
बढ़ता गया
एक दिन अचानक
चूडि़यों की खनक बंद हो गई
और उस दिन
मेरी आंखों में भी कोई प्रश्न नहीं था
क्योंकि
मैं जान गई थी कि
चूडि़यां क्यों बजती हैं

इन दिनों

पिछले कुछ दिनों से दुनिया का हर बच्चा
मुझे आकर्षित करता है
यूं तो बच्चे आकर्षित करते रहे हैं
मुझे हमेशा से
उनकी मुस्कान, उनकी आंखें, उनकी मासूमियत
उनकी चंचलता, उनकी सुंदरता
लेकिन अब आकर्षित करने लगा है मुझे
उन बच्चों का अकेलापन, उनकी विद्रूपता
आकर्षित कर रहा है मुझे उनका
मिट्टी और धूल में लिथड़ा उपेक्षित चेहरा
उनकी उपेक्षा मुझे आकर्षित कर रही है

इन दिनों सड़क पर चलते-चलते
जब मेरे भीतर चल रहा होता है
ढेर सारी व्यस्तताओं का लेखा-जोखा
और ढेर सारी व्यस्तताओं से पल भर भी
न चुरा पाने की खीझ, तब
ये बच्चे किसी सड़क किनारे रोते-बिलखते
और पुचकारने पर सिहर जाते
मेरी सारी व्यस्तताओं में से खुद के लिए
समय निकाल ले जाते हैं

मैं ठहर जाती हूं पल भर वहीं
जैसे यहीं थी मैं पिछली कई सदियों से
कि नहीं पंहुचना मुझे कहीं
न आफिस, न घर
नहीं याद आता कोई छूटता काम मुझे

मैं सोच में पड़ जाती हूं
आखिर क्या अंतर है इन बच्चों में और
मेरी बेटी मे, जो फूल सी पल रही है
हमारे संरक्षण में कि
जिसका छींकना मुझे विचलित कर देता है
कि जो रोती है तो लगता है
ज्यों चाकू की पैनी धार रखी हो मेरी किसी उभरी नस पर

ये बच्चे भी उतने ही मासूम हैं
उतने ही प्यारे, हो सकते हैं ये भी
उतने ही चंचल
पर कुछ रोकता है इन्हें चहकने से
नहीं खिल पाते हैं जैसे
खिलता है कोई निर्द्वन्द्व फूल

मेरा मन उछलने लगता है
कि मैं छू लूं उन बच्चों को और
ये जी सकें कोमल स्पर्श का आनंद
कि उठा लूं इन्हें गोद में
और पोंछ दूं चेहरे और जीवन की सारी गर्द

यूं तो बच्चे करते रहे हैं मुझे आकर्षित
लेकिन इन बच्चों के प्रति मेरा आकर्षण
नया है बिल्कुल टटके फूल जैसा

इन दिनों मैं हुई हूं अधिक संवेदनशील
अधिक मनुष्य हुई हूं मैं इन दिनों
इन दिनों मैं फूल को फूल कहती हूं
और नहीं ढूंढ पाती कोई कांटा उसमें
इन दिनों मैं कांटों को भी फूल कहना चाहती हूं
इन दिनों मैं मां हुई हूं
मैंने रचा है एक जीवन और
हर जीवन से मुझे प्रेम हो गया है

मैं चाहती हूं कि मुस्कुरा सके
हर वह चीज़ जिसमें धड़कती है जान
हर चीज़ मुझे सुंदर दिखती है इन दिनों

कितना सुखद होना है मां होना
काश हर जीवन जन्म दे सके एक नए जीवन को
जिस दिन जीवन से मृत्यु नहीं
जीवन जन्मेगा
सृष्टि और कई रंगों से भर जाएगी.

राधिका के लिए

मुझे याद है राधिका
अपनी मौत के ठीक एक दिन पहले
तुम मिली थी मुझसे

काफी घबराई हुई थी तुम
और तुम्हारा लाल रंगत लिए
गोरा खूबसूरत चेहरा
उस दिन सफेद फक्क पड़ गया था

मैंने पूछा था तुमसे तुम्हारे डर का कारण
और तुमने हंस कर टाल दिया था
मैं जानती थी यह भी कि यह हंसी नहीं थी
मात्र आवरण था जिसके पीछे
छिपा रही थी तुम अपना डर और शायद
एक राज़ भी

आज सुबह जब अखबार में पढ़ी तुम्हारी मौत की खबर
धक्क रह गई मैं
मेरी आंखों के आगे घिर आया तुम्हारा गोरा
खूबसूरत चेहरा और उस पर से
उड़ जाता लाल-गुलाबी रंग

और अचानक खुलने लगा वह राज़ भी
जो तुम छिपा रही थी उस दिन
अपनी डरी हुई मुस्कान के पीछे

जब तुम पैदा हुई थी राधिका
तब तुम्हारी मां ने कोसा था खुद को
और तुम्हें भी
वह रोई थी ज़ार ज़ार जच्चगी में
और सयानी औरतों ने संभाला था उसे

पिता खुश थे सारी रूढि़यों से परे
और मां को दे रहे थे दिलासा
कि देखो कैसी चांद सी गुडि़या आई तुम्हारे आंगन
अब तुम्हारा आंगन हर दिन चांदनी से जगमगाएगा

तुम्हारी खूबसूरती और गोरे रंग पर रीझे थे कई नातेदार
और बलाएं लेती तुम्हारी दादी कोस रही थी
तुम्हारे इसी रूप को

शायद तुम्हारे इसी रूप से डर गई थी तुम्हारी मां भी
जो तुम्हें पाकर खुश न हो सकी

बढ़ने लगी तुम उस आंगन में बेल की तरह
झूल जाती थी पिता को देखते ही उनके कंधों से
मुस्कुराती तुम तो थकान भूल जाते थे पिता
तुम्हारी हंसी ने कितने गमों से उभारा उन्हें

आज जब आंगन में पड़ी है तुम्हारी लाश
खून से लथपथ
तुम्हारा बहता खून आज रंगत नहीं दे पा रहा तुम्हारे रूप को

मां बार-बार गश्त खा कर गिर जाती है
और पिता ज्यों हो गए हैं पत्थर ही
कि अब नहीं झूलोगी तुम उनके कंधों से
जब लौटेंगे वे दिन भर की थकान से चूर

आज तुम्हारे उसी रूप ने डस लिया तुम्हें
जिस पर रीझे थे तुम्हारे पिता और
कोसा था तुम्हारी मां ने खुद को और तुम्हे भी

आज अपना वही रूप जब तुम नहीं बांट पाई
किसी राह चलते मनचले के साथ
तो तुम्हें तब्दील कर दिया गया है लाश में

राधिका, तुमने कभी नहीं बताया यह राज़
कि आते-जाते कालेज तुम्हें सताता है एक मनचला
कि हथेली में लिए खड़े रहता है वह अपना दिल
और दूसरा हाथ छिपाए है अपनी पीठ के पीछे

नहीं कहा तुमने किसी से, न मां से, न पिता से
कि जानती थी तुम रोक दिया जाएगा
तुम्हें बाहर जाने से
कि मां काट देगी पंख और पिता कहेंगे
कि मेरी रानी बिटिया
तूं बड़ी प्यारी है मुझे

तूं रहना मेरे पास ही
घर ही में जुटा दूंगा तुझे तेरे सब सुख

तुम जानती थी राधिका
कि उड़ने से पहले ही कैद कर दी जाओगी तुम
सुनहरे पिंजड़े में

लेकिन तुम्हें पसंद थी आज़ादी अपने हिस्से की
तुम चाहती थी बेखौफ उड़ जाना
छूना उस असीम आसमान को
कहते हैं कि जिसके पीछे एक और कायनात है
लेकिन
पिंजडे में कैद नहीं होना चाहती थी तुम

आज जब आंगन में पड़ी है तुम्हारी लाश
जहां ठीक तुम्हारे पंखों के बीचों बीच
दाग दी है गोली शिकारी ने
तुम्हारी निर्दोष आंखें हमें सोचने को विवश करती हैं.

पुराने घर का वह पुराना कमरा

मेरे पुराने घर के पुराने कमरे में
दफन था बहुत कुछ पुराना
उस पुराने कमरे में एक संदूक था
जो स्मृतियों से लबालब भरा था

उस संदूक में थे मेरी दादी के कपड़े
चांदी के तिल्ले से जड़े, जिन्हें
पहनकर आई थीं वे दादा के साथ

दादी बताती हैं रात के तीसरे पहर
विदा हुई थी उनकी डोली
चार कहारों के साथ पूरी बारात थी
जंगल से गुज़रते डरे थे घर के सभी लोग
बाराती डरे थे अपनी जान के लिए

दादी के ससुर डरे थे दहेज में आए सामान के लिए
और दादा डरे थे डोली में बैठी
अपनी खूबसूरत दुल्हन के लिए
बिल्कुल नहीं डरी थी दादी लुटेरों के डर से
उन्हें भरोसा था अपने पति पर, जिन्हें
उन्होंने अपनी डोली की विदाई तक देखा भी नहीं था

पिता ने दिया था ढेर सा सोना-चांदी
उनके सुखी भविष्य के लिए, और
मां ने पल्लू के छोर से बांध दी थीं
न जाने कितनी सीखें, नियम और कायदे

दादी जब तक रहीं, देखती रहीं
उन कपड़ों को नज़र भर और
इस बहाने दादा के साथ जुड़ी अपनी ढेरों स्मृतियों को

उसी पुराने कमरे में दफ्न थे कई पुराने बर्तन
बड़े हांडे, पतीले, थाल और परात
घूमते रहे ये बर्तन जब-जब गांव में हुआ
कोई भी आयोजन – छोटा या बड़ा
मां बताती है इन बर्तनों को पांव लगे थे
और कुछ को तो शायद पंख
उड़ कर जा बैठते थे ये थाल ये पतीले
उन डालो पर भी जिनसे कोई वास्ता नहीं रहा हमारे घर का
इन बर्तनों ने दिल से अपनाया था हमारे घर को
कि अपनी देह पर नुचवा लिए थे इन्होंने नाम
मेरे दादा और मेरे पिता के
कि जाते कहीं भी, कितने भी दिन के लिए
रात बेरात लौट ही आते थे अपने दरवाज़े पर
और खूंटे पर आकर बंध जाते थे

इसी पुराने कमरे में रखे रहे मेरे पिता के जूते भी
जिन्हें उनके जाने के बाद मेरी मां ने ऐसे सहेजा
ज्यों सहेज रही हो अपना सिंगारदान
अपनी लाली, अपनी बिंदिया, अपनी पायल और अपने कंगन
कहती थी मां जाने वाला तो चला गया
लेकिन उनके जूते हमेशा इस घर में
उनकी उपस्थिति को बनाए रखेंगे
उनकी आत्मा नहीं भटकेगी कहीं दर ब दर
वे देखते रहेंगे अपने परिवार को, अपने बच्चों को
वहीं से जहां होता है आदमी मृत्यु के बाद
मां यह भी कहती थी कि पुरखों के जूते हों
यदि घर में, तो बरकत कभी नहीं रूठती उस घर से

आज जब बिक गया वह पुराना घर
और हम आ गए इस फोर बेडरूम के नए फ्लैट में
जहां शाम बाल्कनी में झूले पर बैठ
मां छीलती है मटर और देखती है खुला आसमान
आज जब सबके पास है एक निजी कमरा और
उस निजी कमरे में उपलब्ध कई निजी सुविधाएं
तब कहीं जगह नहीं बची उस पुराने कमरे और
पुराने कमरे के संदूक के लिए

आने से पहले यहां बेच दिए गए दादी के वे कपड़े
चांदी के तिल्ले से जड़े कि
चांदी का भाव इन दिनों आसमान छू रहा है
यूं भी जरूरत क्या है अब उन कपड़ों की
जब न रहे दादा और न रही दादी

बिक गए वे पुराने बर्तन
मां बताती थीं कि जिनके तलुओं में पांव लगे थे
अब नहीं बचा न गांव न कोई मोहल्ला
कि इन बर्तनों के पैंदे घिस गए हैं
और पैर हो गए हैं अपाहिज
रसोई में करीने से शीशे की दीवारों के पीछे सजे बर्तन
इन्हें मुंह चिढ़ाते हैं
कि देखो कितनी कालिख जमी है तुम्हारे चेहरों पर
कि चिकना नहीं तुम्हारे शरीर का कोई भी हिस्सा
और हम सिर से पांव तक चिकने और चमकीले हैं

साथ नहीं आ सके इस नए घर में
जिसकी दीवारें सतरंगी हैं और
छत से टपक रही है चांदनी
पिता के पुराने जूते जो सालों से उस घर पर
बरकत बनाए रखने में जगते रहे दिन-रात
मां सहेजे रहीं उन जूतों को कई बरसों तक
जिनकी अमूल्य निधि में थे पिता के चमड़े के वे जूते
घर छोड़ते हुए हो गई एकदम निष्ठुर
बोलीं कि कब तक ढोया जा सकता है स्मृतियों को
और बेटा मेरे जाने के बाद
कौन रखेगा ख्याल तुम्हारे पिता के इस आखिरी चिह्न का
और एक ही पल में कर दिया उन्होंने
मुक्त हम बच्चों को पिता के सभी ऋणों से

आज इस घर में सब कुछ है
नया फर्नीचर, नए बर्तन, नई दीवारें, नई चमक
यहां बनेंगी अब नई स्मृतियां नए घर की
आज जब हम रात को सोते है इस नए घर में निश्चिंत
जहां नहीं आती पुराने घरी की सीलन भरी सड़ांध
जहां की दीवारों से नहीं झड़ता कभी पलस्तर
जहां के चिकने फर्श में भी दिख जाते हैं
हमारे खुशनुमा खूबसूरत चेहरे
वे बर्तन, वे संदूक, पिता के वे जूते
हमें कहीं से पुकार रहे हैं.

वह लौटता है तो लौट जातीं हैं सारी उम्मीदें

सुबह ठीक पांच बजकर तीस मिनट पर
आंख मलते हुए उठता वह
एक नए दिन की दहलीज़ पर खड़ा है
वह उठता है और साथ ही उठ जाती है उसकी पत्नी
जो देर रात तक दरवाज़े पर खड़ी हो
इंतज़ार करती है सुबह आठ बजे
घर से निकले अपने पति का
वह जो उठ जाता है साढ़े पांच बजे सुबह
ठीक छः बजे तक नहाकर रोज़ आधा घंटा बैठता है
ईश्वर की शरण में

वह छः से साढ़े छः बजे तक उसे याद करता
न जाने क्या मांगता है रोज़ अपनी दुआओं में
शायद यह कि इस महीने की तनख्वाह आने पर
करवा सकूं अपनी बीमार पत्नी का इलाज
कि दिलवा दूं इस बार अपनी बिटिया को नया बैग
कि तनख्वाह बढ़ जाए तो बढ़ सके आधा लीटर दूध
और वह मांगता है कि किसी तरह कुछ जुगाड़ हो पैसों का
तो खुलवा सके बैंक में एक खाता
कि किसी तरह तो पूंजी जमा हो उसकी ताड़ की तरह जवान
होती जाती बेटी के ब्याह के लिए.

वह मांगता होगा शायद यह भी कि
सीलन से बदबू मारते घर में पुताई हो जाए चूने की
कम से कम इस दीवाली पर
उस आधे घण्टे में सबके लिए सब कुछ मांगकर वह
तैयार होता है काम पर जाने के लिए

साइकिल के कैरियर से अपना डिब्बा बांधे
वह पत्नी की तस्वीर आंखों में कैद किए निकल लेता है
मानो आज लौटेगा तो शायद खरीदकर ला पाएगा
उसके लिए बिंदिया, लाली या फिर कांच की चार चूडि़यां

वह शुरू हुआ दिन उसमें रोज़ जगा जाता है एक उम्मीद
कि हो सकेगा कुछ बेहतर
कि आज का दिन शायद बदल पाएगा उसकी जि़ंदगी
लेकिन रोज़ की तरह ही काम पर जा और
सारा दिन हथौड़ा चला उसे एहसास होने लगता है
कि नहीं बदलने वाला है कुछ भी
उसका उठाया हथौड़ा मानो वार कर रहा हो
उसकी अपनी ही किस्मत पर

लगभग पूरे दिन हथौड़े की चोट पर गुजा़रता वह
लौट आता है रात वापस अपने दड़बे में
जहां सो चुकी है उसकी बिटिया अपने फटे बैग पर सिर रखकर
जहां बड़ी बेटी के सपने में आ चुका है कोई राजकुमार
जहां पतीली में आज भी नहीं है दूध और
पत्नी की आंखें आज भी सूनी हैं
वह चुपचाप खाकर चार रोटियां
लेट जाता है अपनी चारपाई पर जहां
बगल में लेटी है पत्नी और आंखें टिकीं हैं
दीवार पर लटकी ईश्वर की तस्वीर पर.

सिनेतारिका

७० mm के रंगीन पर्दे पर जब थिरकती थी वह
तो पूरा सिनेमाघर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था
सीटियों की चीख सी आवाज में कई दर्शक ठूंस लेते थे
अपने कानों में उँगलियां

सीने की तेज धडकन के साथ जब
थरथराता था उसका सीना तो टीस सी
उठ जाती थी कई जवाँ दिलों में

वह गुजरती थी जिन सड़कों से
तिल रखने को जगह भी नहीं बच पाती थी वहाँ
और भीड़ को लगभग रौंद कर चली जाती थी
उसकी ऊँची हील वाली सैंडल और उस पर
लचकती उसकी पतली कमर

कई नजर के पारखी अपनी आँखों को खोल और भींचकर
ठीक ठीक अंदाजा लगा लेते थे
उसकी कमर की नाप और सीने की ऊँचाई का
और बीच चौक पर शर्तें लगा करती थीं इस पारखी
नजर के आकलन की

लड़कियों ने उसकी खूबसूरती को इस तरह जगह दी थी
कि कोई करता उनकी तुलना उससे तो
वे शरमा कर लाल हुई जातीं थीं
शीशे के आगे खड़े होकर लगभग हर कोण से
वे करने लगती थीं तुलना खुद की उससे

वह सिनेतारिका थी हमारे ज़माने की
साँवली रंगत और गजब का नूर और चमक लिए
वह दिलों पर हो गई थी पाबस्त
हर बूढ़े और जवाँ के

उसके बालों का स्टाइल, उसकी चाल, उसकी ढाल
उसकी हर अदा जैसे एक मूक नियम से बन गए थे
हर जवां होती लड़की के लिए और
वे ज्यों इन नियमों को मानने के लिए बंध सी गई थीं
वह हमारे समय की सिनेतारिका थी

मुस्कुराती तो ज्यों फूल झड़ते थे
इठलाती तो जैसे बिजलियां कड़क जाएं
चाहती वह तो खरीद लेती सल्तनतें
अपनी बस एक अदा से

फिर एक दौर आया लम्बी गुमनामी का

आज एक लम्बे समय बाद
देखा उसी सिनेतारिका को स्टेज पर खड़े कुछ चंद लोगों के साथ
अब वह हँसती है, मुस्कुराती है
तो लोग सिर झुकाते हैं
नाचती है वह कुछ कुछ उसी पुरानी अदा के साथ
तो लोग सम्मान में ताली बजाते हैं

आदर से उसे लाया जाता है हाथ पकड़
चमकते चौंधियाते उसी स्टेज पर
जिस पर नाचती थी वह तो आहें उठती थीं
कई सीनों में

वह फिर बिखेरना चाहती है वही जलवा
उठाती है नजाकत से हाथ कुछ इस कदर
कि हो सके भीड़ बेकाबू एक बार फिर
और वह लहरा कर, नजरें तरेरकर निकल जाए बीच से

पर अब उसके इन उठे हाथों पर नहीं रीझता कोई
आशीर्वाद लेना चाहती है नई पीढ़ी
नई लड़कियाँ कि वे भी कायम कर सकें
वही रूप, वही समां

वह अब बूढ़ी हो गई है
पचपन पार हो चुकी है उसकी उम्र
जवां हो गई है एक नई पीढ़ी उसके बाद
और अब वह पुरानी पड़ गई है.


समझदारों की दुनिया में मांएं मूर्ख होती हैं

मेरा भाई और कभी-कभी मेरी बहनें भी
बड़ी सरलता से कह देते हैं
मेरी मां को मूर्ख और
अपनी समझदारी पर इतराने लगते हैं
वे कहते हैं नहीं है ज़रा सी भी
समझदारी हमारी मां को
किसी को भी बिना जाने दे देती है
अपनी बेहद प्रिय चीज़
कभी शाल, कभी साड़ी और कभी-कभी
रुपये पैसे तक
देते हुए भूल जाती है वह कि
कितने जतन से जुटाया था उसने यह सब
और पल भर में देकर हो गई
फिर से खाली हाथ

अभी पिछले ही दिनों मां ने दे दी
भाई की एक बढि़या कमीज़
किसी राह चलते भिखारी को
जो घूम रहा है उसी तरह निर्वस्त्र
भरे बाज़ार में

बहनें बिसूरती हैं कि
पिता के जाने के बाद जिस साड़ी को
मां उनकी दी हुई अंतिम भेंट मान
सहेजे रहीं इतने बरसों तक
वह साड़ी भी दे दी मां ने
सुबह-शाम आकर घर बुहारने वाली को

मां सच में मूर्ख है, सीधी है
तभी तो लुटा देती है वह भी
जो चीज़ उसे बेहद प्रिय है
मां मूर्ख है तभी तों पिता के जाने पर
लुटा दिए जीवन के वे स्वर्णिम वर्ष
हम चार भाई-बहनों के लिए
कहते हैं जो प्रिय होते है स्त्री को सबसे अधिक

पिता जब गए
मां अपने यौवन के चरम पर थीं
कहा पड़ोसियों ने कि
नहीं ठहरेगी यह अब
उड़ जाएगी किसी सफेद पंख वाले कबूतर के साथ
निकलते लोग दरवाज़े से तो
झांकते थे घर के भीतर तक, लेकिन
दरवाज़े पर ही टंगा दिख जाता
मां की लाज शरम का परदा

दिन बीतते गए और मां लुटाती गई
जीवन के सब सुख, अपना यौवन
अपना रंग अपनी खुशबू
हम बच्चों के लिए

मां होती ही हैं मूर्ख जो
लुटा देती हैं अपने सब सुख
औरों की खुशी के लिए
मांएं लुटाती हैं तो चलती है सृष्टि
इन समझदारों की दुनिया में
जहां कुछ भी करने से पहले
विचारा जाता है बार-बार
पृथ्वी को अपनी धुरी पर बनाए रखने के लिए
मां का मूर्ख होना जरूरी है।

रहना यूं ही जैसे तुम रहे सदा से

मुझे याद है वह दिन
जब कहा था मैंने तुमसे
सुनो, मुझे भी तुमसे प्यार है
मैं चाहूंगी तुमको वैसे ही
जैसे चाहा था हीर ने रांझे को
लैला ने मजनू को
शीरी ने फरहाद को
तुम्हें आकंठ डूब कर प्यार करूंगी मैं
और तुमने मेरे उस भावात्मक उद्वेग को
ठीक बीचोंबीच रोक दिया था
कहा था तुमने कि नहीं चाहिए तुम्हें अपने लिए
कोई हीर, कोई लैला या कोई शीरी
कहा था तुमने, हम प्यार में रहेंगे वैसे ही
जैसे रहे हैं हम सदा से
मैं सब कुछ होकर भी रहूंगा मैं ही
और तुम चाहना मुझे सिर्फ तुम होकर

सच कहूं उस दिन तुम्हारी वह बात
कुछ बुरी सी लगी थी मुझे
कि तुम नहीं चाहोगे कभी मुझे उतनी शिददत से
जितनी शिददत से मजनू ने चाहा लैला को
फरहाद ने चाहा शीरी को और
चाहा रांझे ने अपनी हीर को
कभी नहीं पार करोगे तुम मेरे लिए कोई उफनती नदी
या कोई तूफान

आज इतने बरसों बाद
जब मैं देखती हूं तुम्हारे प्यार को
यह कि मेरे बिन तुम्हारा जीवन अधूरा है तुम्हारे लिए
कि तुम्हारे बिन मेरा जीवन बेअर्थ
तब लगता है कि अच्छा ही है
जो तुम्हारे प्यार में नहीं था कोई उद्वेग
कि तुम आज भी वहीं हो
जहां थे तुम कई बरसों पहले
जब मिले थे हम एक-दूजे से
मैं जानती हूं जीवन का कोई उद्वेग, कोई हलचल
तुम्हें डिगा नहीं सकती मुझे चाहने से

तुम मुझमें और मैं तुममें उतने ही हैं
जितना बाकी है समुद्र में नमक
जितना बाकी है सृष्टि में जीवन


वे दिन जब तुम थे कुछ अनजान

याद हैं वे दिन जब
रिसर्च फ्लोर पर किताबों के बीच बैठ
किया करते थे हम बौद्धिक बहसें और
इन बहसों के बीच तुम
देख लिया करते थे नज़र भर मुझे

वे दिन याद हैं जब ला फैकल्टी की कैंटीन में
चाय की चुसिकयां लेते तुम निकालते थे
अपने बैग से एक कागज़ और
सुनाते थे मुझे कल रात लिखी तुम्हारी
एकदम ताज़ा टटकी कविता और
मैं घर जाने का वक्त भूल जाया करती थी

याद हैं वे दिन भी जब
मुझसे दो दिन न मिल पाने पर
तुम हो जाते थे बेचैन और
खोजते थे बहाने किसी तरह एक झलक पा लेने की
फोन पर भी तुम्हारी बेचैनी दिख जाती थी मुझे
और मैं खुद पर रीझने लगती थी

रिसर्च फ्लोर पर घंटो बैठ मैं करती थी
तुम्हारा इंतज़ार और
तुम्हें आता देख दिखाती थी खुद को तटस्थ
और मेरे घर जाने के नाटक को सच समझ
तुम हाथ खींच बैठा लेते थे मुझे फिर

कितने खूबसूरत थे वे दिन जब थे मैं और तुम
एक दूजे से कुछ परिचित कुछ अनजान

आज जब हमें साथ रहते हो गए कई बरस
कि जब मैं दावा करती हूं तुम्हें पूर्णत: जानने का
और शिकायत तुमसे
कि तुम्हारा प्यार एक छलावा था

तुमने मुझसे नहीं मेरे रूप से प्यार किया
आज जब तुम हो कई कामों में व्यस्त
उलझाए हुए हैं तुम्हे जीवन के कई पेंच
और मेरे रूप पर अब दिखने लगी है
बढ़ती उम्र की परछांई
आज जब धूमिल पड़ने लगी है तुमसे मेरी उम्मीदें
आज जब मैं खुद को देखने लगी हूं आइने में
कि कभी आइना रहीं तुम्हारी आंखें अब
अनदेखा करने लगी हैं मुझे, तब
एक दिन तुम ठहरकर थाम लेते हो मेरा हाथ
ठीक उसी तरह और
जवां होने लगते हैं सब गुज़रे पल
और एहसास कि
प्रेम में कोई जगह नहीं रूप की
न सौंदर्य की
तुम एक बार फिर कुछ हुए अनजान, कुछ अपरिचित
चाहती हूं मैं यूं ही तुम बने रहो मुझसे
कुछ अनजान, और जि़ंदगी गुज़र जाए
यूं ही तुम्हें हर दिन हर पल
और जानने में और चाहने में

फिर भाग गई लड़की

कल रात उस गली के उस घर से
भाग गई एक लड़की,
यह ख़बर आज आम है

वह भागी हुई लड़की
भाग गई लड़कियों के इतिहास की एक नई कड़ी है
कल रात, जिस चौराहे से गुज़र कर भागी वह लड़की
उस चौराहे से गुज़रते हुए झेले थे उसने
फिकरे दिल फेंक शाहिदों के और
टीस उठी थी बाप के सीने में यह देखकर

वह लड़की जो भाग गई कल रात,
उसका बाप है एक मामूली क्लर्क सरकारी दफ़्तर में
जिसकी उम्र अब हो चली है पचपन के पार,
और कुछ ही दिन बाकी हैं
सरकारी दफ्तर के उस सड़ांध भरे कमरे में
जहां फाइलों के नीचे दबे गुज़र गई
उसकी जि़ंदगी की कई सुबहें और कई शामें

भागी हुई लड़की भागी थी
पिता को गहरी नींद में छोड़कर कि
जहां शायद मिलती होगी उन्हें कुछ फुर्सत
घर और दफ्तर के बीच की दूरी नापने से और
लेते होंगे वे कुछ खुली सांसें उस सड़ांध से दूर

भागी हुई लड़की अब छब्बीस की हो चली थी
पिता के पास बची थी टूटती उम्मीदों की तार
मां के सीने पर था बोझ दो जवान बेटियों को ब्याहने का

भागी हुई लड़की भाग गई किसी के साथ,
या भाग गई जि़ंदगी से,
ठीक ठीक कोई नहीं जानता

वह भागी हुई लड़की
कल रात चौराहा पार करते दिखाई दी मुझे
वह भाग नहीं रही थी और
कदमों की चाल तो बिल्कुल भी तेज़ नहीं थी
बलिक सड़क पर चलती हुई वह बिल्कुल चुप सी थी,
और खोई भी इतनी खोई कि
लगभग टकरा सी गई एक गाड़ी से

मैंने पुकारना चाहा, और पुकारा भी
उस भागी हुई लड़की को,
किंतु शायद नहीं चाहती थी वह
पहचानना किसी भी आवाज़ को
नहीं चाहती थी सुनना वह उन आवाज़ों को, जो
रात को सब के लगभग सो जाने पर
पैदा होती थीं मां और पिता के बीच,
कि कैसे पार लगेंगीं दो जवान बेटियां

वह लड़की जो भाग गई कल रात
वह घर से नहीं भागी थी,
वह तो भाग गई थी दूर उन आवाज़ों से जो
चौराहों, गलियों सें लेकर रात को घर के सन्नाटे तक में पसरी हुई थीं
वह जि़ंदगी से नहीं
घर में पसरे हुए सन्नाटों से भाग गई थी

अभी और लड़कियां भागेंगीं,
यूं ही रात के अंधेरों में
वे टकराएंगीं किसी मोटर, किसी ठेले
या फिर किसी पत्थर से, और फिर धीरे धीरे
गुम होती चली जाएंगीं उसी अंधरे में।

साभारः ‘ काव्य संग्रह माँ का जवान चेहरा’ से।

ज्योति चावला

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