रहियो तुम जां देश में पलियो नृप की नीति।
चलियो अपने धर्म में सबसे करियो प्रीत।।
यह थे सूरीनाम के प्रथम हिन्दी कवि मुंशी रहमान खान ( 1874-1972)
परदेश को देश बनाना…बनाना न सही मानना, यह जद्दो-जहद, इसके आंसू मुस्कान, सुख दुख ही प्रवासी साहित्य के विषय हैं और रहेंगे, चाहे वह गिरमिटिया देशों में लिखा गया साहित्य हो, गल्फ देशों में लिखा गया साहित्य हो, या फिर अमेरिका ब्रिटेन या यूरोप के अन्य देशों में लिखा गया साहित्य ही क्यों न हो। भारत जो हमारे डी.एन. ए में है, खान-पान और रुचियों में धंसा हुआ है उससे पूरी तरह से कटने में तीन चार पीढ़ियाँ गुजर सकती हैं। फिर भी कुछ न कुछ तो रहेगा ही, कहीं यादें बनकर तो कहीं आदत बनकर तो कहीं स्वाद या संस्कार बनकर, तो कहीं चित्र, प्रतिमा और पुस्तक आदि में सहेजा हुआ।
भले ही भारतीयों को अपनी मानसिकता को. चमड़ी के इस रंग को नकार पाना संभव हो या नहीं हो। वह अपना परिचय दें या न दें,
‘पहचानता है यारो हमको जहाँ सारा
हिन्दोस्ताँ के हम है हिन्दोस्ताँ हमारा’
अगर परिस्थितियाँ आदमी को दो राहे पर खड़ा कर दे, तो तर्क-वितर्क का कोई अंत ही नहीं रह जाता। विचार दोनों तरह के ही होंगे, सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। भावनाएँ भी तो व्यक्ति विशेष की मानसिकता का ही प्रतीक हैं, जिसमें बाह्य दबाव और ज़रूरतों का भी बड़ा हाथ रहता है।
अपनी मिटटी से जन्मे, जुड़े, पनपे, फले-फूले और फिर अचानक वक्त ने करवट बदली और स्थान की, परिवेश की, संस्कारों की अदला-बदली हो गई। कहीं विभ्रम तो कहीं आस का सूरज… ऐसे ही हैं मुख्यतः हमारी पीढ़ी के विदेश में बसे रचनाकार, जिनकी रचनाओं में भारत कहीं अपनी पूरी भव्यता और वैभव के साथ, बेहद प्यार से उकेरा गया है…एक टीस और लालसा दिखती है बिछुड़े के प्रति तो कहीं एक नये में ढलता, कभी-कभी खुद को छलता भारतीय समाज भी।
सच ही तो है! भारत में बसे बसाए घरों को छोड़ कर नई पीड़ी के पीछे यहाँ आते-जाते, अक्सर कई बुजुर्गों को यहीं बस जाने का निर्णय लेना पड़ता है। विदेशी परिवेश में रहकर, वहीं के रहन-सहन,पहनावे तक को अपनाना पड़ता है युवाओं को तो। काम पर जाने के लिए कई बार तो ये रिवायतें जीने की आश्यकता बन जाती हैं। चाल-चलन, उठना-बैठना, बातचीत, भाषा, उनकी शैली तक को अपनाना अनिवार्य हो जाता है अक्सर सार्थक संवाद और नए देश के नए रहन-सहन के साथ सामंजस्य के लिए। और जब ये प्रवासी काम से लौटकर घर आते हैं तो वापस अपनी निजी घरेलू व्यवस्था के साथ तालमेल रखना पड़ता है. अतः दोनों परिवेशों में संतुलन बनाये रखने का सिर्फ प्रयास ही नहीं गूढ़ परिश्रम भी करना पड़ता है. गृहस्थी और जीवन दोनों एक सुविधा के अनुसार चल पड़ते हैं। धीरे-धीरे रोटी की जगह सैंडविज और पकवानों की जगह पीजा और मोमो लेने लग जाते हैं। साड़ी तो अब भारत में भी पार्टी ड्रेस में तब्दील होती जा रही है।
विदेशों में तो और भी अधिक इस कशमकश से गुज़रना पड़ता है कामकाजी गृहणियों को। मौसम, काम औ समय तीनों के दबाव तहत, धीरे-धीरे एक सामंजस्य शुरु हो जाता है दोनों संस्कृतियों में। एक तरफ़ तो वह एक भारतीय माँ है, जो अपने बच्चों में भारतीयता के विचार कूट कूट कर भरने के प्रयास में कहीं सफल होती दिखाई देती है तो कहीं लगता है बढ़ती उम्र के बच्चों के साथ तालमेल बनाये रखने के संघर्ष में उसके हाथ से भारतीय संस्कारों और संस्कृति का छोर ख़ुद भी छूटता चला जाता है. और यह द्वंद, यह नये से सामंजस्य, नए में ढलने की ललक और खीज प्रवासी साहित्य के मुख्य विषय के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं। बदलती एक नयी संस्कृति और उभर रही है, जहाँ पुराने को छोडंने की बेचैनी तो है परन्तु भारतीय पहचान, जड़ों से जुड़े रहने की ललक भी उतनी ही है। बिल्कुल तुसी वाटर ले आ , असी फ्लावर बनाएंगे वाले अंदाज में एक नया भारत उभर रहा है नयी भाषा और नये संस्कारों के साथ। जिसमें कई बार वही छूटता नजर आता है, जिसको पकड़े रहने की तीव्र इच्छा दिखती है भारतीयता और संस्कारों के नाम पर। कई कहानियाँ याद आ रही हैं- उषा प्रियंवदा की वापसी, उषा राजे की क्लिक, सुषम बेदी की अवसान, मेरी अपनी कनुप्रिया, दिव्या माथुर की कढ़ी कविता जो इस दर्द से ओत प्रोत है। अन्य भी कई और हैं। जबतक यह दर्द जिन्दा है , भारत और भारतीयता जिन्दा रहेगी। साहित्य में भी और विदेश में बसे भारतीयों के मन में भी। आखिर साहित्य समाज का ही तो दर्पण या दस्तावेज है।
गंभीरता से देखें तो आज भारत खुद बदल रहा है, और इसके साथ-साथ भारतीय व भारतीयता भी। वैश्विक युग में दूरियाँ मिट रही हैं। तो साहित्य और इसके विषय भी बदलेंगे ही। जाति विमर्ष और नारी विमर्ष पीछे छूट चुका है भारत में भी और विदेश में भी। अब सेक्स टैबू विषय नहीं। कलम समलैंगिकता, बिना शादी के ही साथ-साथ रहना यानी को हैबिटेशन, चाइल्ड ट्रैफिकिंग आदि दुरूह विषयों पर भी चल रही है। जिगलो और अनैतिक सहवास आदि विषयों पर भी धड़ल्ले से चल रही है। यही वक्त की मांग है, यह तो नहीं कहूंगी, परन्तु समाज को आइना हमेशा साहित्य ने ही दिखाया है। चाहे तुलसी हों, कार्ल मार्क्स हों या फ्राय़ड या जुंग फिर यह 21 वीं सदी का भारत और भारतीय भी तो वही लिखेगा और पढ़ेगा जो आसपास घट रहा है।
समाज के बीच से ही जनमता और समाज में ही गढ़ा व पढ़ा जाता है साहित्य। ऐसे में साहित्य का भी तो यह फर्ज बनता है कि वह सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, समाज का दर्पण भी बने और उसका यथोचित मार्गदर्शन भी करे। दो संस्कृतियों के बीच टकराव और उससे उत्पन्न उहापोह, यह संघर्ष और यह लोच व सामंजस्य ही विदेशों में लिखे जा रहे साहित्य का उद्दात्त बिन्दु या माथे खी बिन्दी है हिन्दी के सजे-संवरे विदेशी चेहरे पर। …
शैल अग्रवाल
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