उतरते जहाज की खिड़की से दुबई पूरी-की पूरी रौशनी की कतारों से झिलमिल दिख रही थी, मानो जमीन पर बहती इमारतों की एक रंग-बिरंगी और जगमग नदी बह रही हो हमारी आँखों के आगे ।
अगले पंद्रह दिन में घूमने और देखने को बहुत कुछ था -सबसे बड़ा म़ॉल, सबसे ऊँची इमारत…शंघाई और टोरैंटो जैसा पर्यटकों को भरमाता-डराता शीशे का कौरीडोर, क्या नहीं है दुबई में …न्यूयार्क और लौस ऐजलेस जैसे ही, मोजार्ट नहीं तो बौलीवुड की धुन पर उनसे भी ऊँचे नाचते और थिरकते फब्बारे… लैम्बगिनी और शेवरलेट जैसी मंहगी कारों की कतारें। सभी कुछ तो दिखा। हीरों से लदी औरतें और दुनिया भर के सामानों से जगमग एक-से-बढ़कर एक नामी-गिरामी दुकानें….दुनिया की कोई ऐसी मशहूर और मंहगी ब्रांड नहीं जो न दिखी हो! पावर बोट , अतीत से भविष्य की तरफ ले जाता वह फ्रेम , कुछ भी तो भुलाए नहीं भूलता। वाकई में फ्रेम में नहीं तो निगाह में नहीं, और दुबई तो पूरी-की-पूरी फ्रेम में ही दिखी। हाँ फ्रेम के अंदर के संग्रहालय को देखकर थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ मुझे, जहाँ वे भारी-भरकम लोहे के ताले रखे थे जिन्हें हमारी माँ और दादी बुन्नासी ताले कहा करती थीं। कलछी, चिमटे और पौनिया सब रखी थीं। विश्वास है कि भारत ही नहीं, दुबई के जन-जीवन में भी ये चीजें अभी भी बखूबी इस्तेमाल होती हैं।
वाकई में सितारों से भरी आकाश-गंगा की तरह ही झिलमिल थी दुबई, चाहे जिस भी कोण से भी देखें…सिवाय उन अधनंगी लड़कियों के जो उन मँहगे होटलों के इर्दगिर्द मंडराती दिखीं। पता नहीं ग्राहकों की तलाश में या फिर अति आधुनिक होने के प्रयास में, आँखें स्वतः ही नीची हुई जाती थीं उन्हें देखकर और कई सवाल मन में उठने लगते थे। परन्तु जैसे ट्रैफिक में आती कई आवाजों से दिमाग खुद को बंद कर लेता है गाड़ी का शीशा चढ़ाकर , जबर्दस्ती खुद को स्विच औफ किया उन दृश्यों से।
धंधा और आकर्षण है यह भी कइयों के लिए इन देशों में, बात चाहे सोने की हो, मसालों की हो या फिर सस्ते-मंहगे यौन या अन्य प्रकार की मनोरंजन की, सबकुछ उपलब्ध है यहाँ पर शायद पर्यटन के नाम पर सब चलता और बिकता है आजकल।
लड़ाइयों की, बढ़ती मंहगाई की, उर्जा की चढ़ती कीमतों की, अमीर-गरीब की, पर्यावरण की सारी चिन्ताओं को भूलने का निश्चय करते हुए आँखों पर रंग-बिरंगे चश्मे चढ़ा लिए थे अब हमने। कम-से-कम कोशिश तो की ही थी।
हर पर्यटन स्थल पर पर्यटकों को भरमाने के लिए नये-नये आकर्षण होते हैं, यहाँ भी कम नहीं थे।
चारो तरफ ही खाते-पीते, पैसे उड़ाते लोग, काले, पीले, भूरे, गुलाबी हर चमड़ी के मौजूद। परन्तु मेरे लिए दुबई का सबसे बड़ा आकर्षण -चारो तरफ हिन्दी कहें या उर्दू, अपनी भाषा में बोलते -समझते लोग ही रहे-प्यार और इज्जत से सईदा , आपा, मैम और कभी-कभी तो दीदी तक पुकारते।
भारत के बाहर बसा भारत की याद दिलाता, भारत के सारे सुख देता देश लगा। थोड़ा और भव्य, साफ सुथरा और संपन्न। बौम्बे फ्रूट कौर्नर दिखा तो दिल्ली चाट-भंडार और शुद्ध अमृतसरी ढाबा भी दिखा। छप्पन भोग और पूरनमल थे मैगडौनल्ड और पीजा बर्गर के बगल में ही, उतनी ही शान से बीकानेरवाला के साथ खड़े, उतने ही व्यस्त और मशहूर और सारी आधुनिकतम सुविधाओं के साथ।
संपन्न यूरोप का भ्रम देता वातावरण और सुविधायें, एक बेफिक्र मस्ती का अहसास है दुबई। चारो तरफ ही भविष्य के लिए बड़े-बड़े सपने और योजनायें। यथार्थ को, उसकी सारी चिंताओं को या तो जान-बूझकर भुला दिया गया है यहाँ पर. या फिर साफ-साफ कह और मान लिया गया है कि दुनिया में आज भी बस दो ही खेमे हैं। और सदा ही रहेगे भी। एक वह, जो उन्नति पर उन्नति करता जाएगा, बेफिक्र ऐश करेगा और दूसरा वह जो पसीना बहायेगा, सेवा करेगा और इस्तेमाल होगा। दूसरों के लिए साधन और सुख-सुविधा जुटाते और अपने लिए सपने देखते ही जीवन बीतेगा उनका। खटना और उन्ही के भरोसे जिन्दगी बिताना, यही जीवन रहेगा उनका। यही व्यवस्था है विकसित और सभ्य समाज की और यही रहेगी भी। अमीरों के मनमौजी इसी अहसास से कोने-कोने छलकती दिखती है दुबई।
वाकई में मौज मस्ती और उत्तेजना का केन्द्र बनती जा रही है यह, जहाँ न लोग खाते-पीते अघाते हैं और ना ही नाचते-गाते।
कम-से-कम पंद्रह दिन के इस पर्यटन के दौरान तो यही महसूस हुआ। दूसरों की क्या कहें, खुद हमारा भी तो यही हाल था, हम भी तो दिन-रात बस यही कर रहे थे। असल जिन्दगी से पूरी तरह से कटकर बस बच्चों की तरह एक आरामदेह उत्तेजना को जिया हमने, आधुनिक दुबई के हर विकास , हर आराम का सामर्थ्य अनुसार भरपूर आनंद लेते हुए।
इस पागलपन की वजह मौसम की असह्य गर्मी को भुलाना तो था ही, छुट्टी को भरपूर आनंद लेने की हमारी जिद भी थी।
बौलीवुड पार्क में मुगलई शान और शीश महल से सजे राग-रंग के वे अनूठे कार्यक्रम, राजमहल थिएटर के अंदर भव्य शो, जो अपनी कलात्मकता और सुरुचि से मन को मोहते ही चले गए।
वहाँ पर अन्य कलाकारों के साथ नाचते सलमान खान को देखकर तो विश्वास ही नहीं हुआ कि असली नहीं है। सच कहूँ तो दो सलमान थे वहाँ पर, एक राजमहल थिएटर के अंदर जो हू-बहू सलमान ही लग रहा था और दूसरा बाहर पेड़ के नीचे बने स्टेज पर नाचता थोड़ा मोटा। पर दोनों की ही आँखों पर पूरे वक्त धूप का चश्मा लगा रहा।
चकाचौंध ज्यादा हो तो असली-नकली का फर्क भी तो मिट ही जाता है।
तरह तरह के रंगीन चश्मे लगा दिए थे दुबई ने हमारी आँखों पर भी।
भारत की शान बौलीवुड की याद दिलाता. अपनी तरह का अनूठा पार्क था वह, जो मिडल ईस्ट में बौलीवुड की सफलता और प्रेम दोनों को ही बखूबी दर्शाता रहा। न सिर्फ गीत संगीत था , लगान और शोले जैसे फिल्मों की राइड का भी आनंद लिया हमने। रणवीर सिंह, दीपा पादुकोणे, आलिया भट्ट, आमीर खान और अपने अमिताभ बच्चन सभी के कार्डबोर्ड कटआउट और बड़े-बड़े पोस्टर थे , जिन्हें देखकर बार-बार मन में ख्याल आ रहा था कि हमने आर.के. स्टूडिओ को इस तरह के पार्क के रूप में क्यों नहीं तब्दील किया और ऐसे संवारा-संजोया कि हमारे पास भी फिल्मों के इतिहास का एक संग्रहालय और ऐसा फन पार्क होता ?
वाटर पार्क नहीं जा पाए, पर दुख नहीं था । बच्चे, जिनमें इसके प्रति उत्साह था और मुख्यतः इसी के लिए यह छुट्टी निश्चित की गई थी, वे भी चुपचाप मान गए। अटलांटिस होटल में ही ठहरे थे वे पिछली साल जिसके अंदर ही यह वाटर पार्क है और पूरे हफ्ते वाटर पार्क का हर दिन ही आनेद लिया था। जहाँ तक हमारी बात थी हमें तो पानी की राइड में आनंद की जगह धूप ही अधिक दिख रही थी। वैसे भी पूरी दुनिया में इतनी उत्तेजक और विशाल राइड्स पर बैठ चुके थे कि अब इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उत्साह की जगह डर ही अधिक था मन में।
लीगो पार्क में पूरी दुबई ही नहीं , दुनिया के सातो आश्चर्य छोटे आकार में ही सही, अपनी पूरी भव्यता के साथ इन्तजार करते दिखे और हम सभी ने जी भरकर आनंद लिया इसका।
आतिथ्य दूसरा अनुभव है जिसका जबाव नहीं यहाँ पर । हम जिस पांचतारा होटल के मेहमान थे, वहाँ एक-से-एक लजीज पकवान तो थे ही, भारतीय गीत और ग़ज़लों की महफिल लगती थी और जब हम खूब अपनी मनमानी करके , खूब थककर लौटते थे तो अगले दो तीन घंटे बड़े सुकून से निकलते थे हर शाम और खुद ही दिन भर की सारी थकान उस खुशनुमा और रूमानी माहौल में मिट जाती थी।
अगले दिन हम रेत सफारी का इरादा लिए निकले। एक मेला-सा था चारो तरफ और छोटा-मोटा पर्यटकों के लिए बाजार भी।
एक ने तो ना-ना करते हुए भी अपने बाज को छोटे पोते की कलाई पर लाकर ऱख दिया और फिर इस एवज में पैसों की उम्मीद में खड़ा रहा। अंततः संग तस्बीर खिंचवाकर , पैसे लेकर ही आगे बढ़ा। कई ऐसी घटनायें हुई जहाँ कभी स्थानीय लोगों की खुशी के लिए हमने कुछ सैलानी अनुभव किए और कई बार स्थानीय लोगों ने अपना अतिरिक्त ध्यान और आथित्य हमें दिया।
फिर भी चेहरों को बारबार महकते गीले टिशू पेपर से पोंछते, बालों को झाड़ते हम, उन सीधे-साधे लोगों को अमीर और फर्क ही दिख रहे थे, जैसे कि अन्य विदेशी पर्यटक। चमड़ी और रूपरंग में उनके जैसे होकर भी, उनके पडौसी देश में पैदा होकर भी एक पार न कर पाने वाली खाई खुद ही खुद थी हमारे बीच में। वह लगातार हमसे कुछ कमाने की कोशिश करते रहे और हम उन्हें जांचने परखने की।
सच कहूँ तो वाकई में रेत के टीले पर खड़े थे हम, पैरों के नीचे की भुरभुरी रेत पर कैसे भी अपना संतुलन बनाते हुए।
बच्चों-सा कौतुहल और उत्साह था मन में और सामने ड्राइवर अली हमें रेगिस्तान की सफारी पर ले जाने की तैयारी में जुट चुका था। चारो पहियों की हवा कम करते ही, हमें सहज करने के लिए पेशावर और दिल्ली की बातें करने लगा था वह ।
उसका कहना था कि दिल्ली तो वह कभी नहीं गया, परन्तु उसके परदादा पुरानी दिल्ली के ही रहने वाले थे। साथ-साथ यह भी कि हमें डरने की जरा भी जरूरत नहीं। फोर व्हील ड्राइव वाली बढ़िया और मंहगी रेंजरोवर कार है उसकी और पूरी तरह से सुरक्षित भी।
रेगिस्तान दिखाने ले जा रहा था वह हमें मुंहमांगे दामों पर। व्यवस्था से वह भी खुश था और हम भी। अकेले-अकेले स्कूटर पर धूल खाना या उन गाड़ियों को खुद चलाने की हिम्मत नहीं थी उस चिलचिलाती धूप में। वैसे भी बेवजह का खतरा लेना बेवकूफी की ही तो निशानी है और हम इस मौसम में वहाँ पहुंचकर भी मानना चाह रहे थे कि हम बेवकूफ नहीं हैं। ठंडे पानी से मन-मस्तिष्क धोकर आस-पास का जायजा लेना शुरु किया तो अब कहीं बंदाना बांधा जा रहा था तो कहीं कोई ऊँट की सवारी पर ले चलने की जिद कर रहा था। उन घुंघरू और लटकन वाली ओढ़नियों को एक खास अंदाज में सिर पर बंधवाकर वे यूरोपियन महिलाएँ बेहद खुश भी नजर आ रही थीं और आकर्षक भी लग रही थीं। पर हम खुले में न घूमने का निश्चय ले चुके थे और पहले भी कई बार यह सब स्वांग कर चुके थे अतः फालतू में मात्र एक तस्बीर के लिए बाल पसीने से गीले न करने का निर्णय लिया और उस सम्मोहन में फंसने से खुद को रोका। ए.सी. वाली गाड़ी के अंदर ही तो यात्रा करनी थी हमें, फिर यह बोझ और रूप क्यों लें? याद आ गई ट्यूनिया की वह रेगिस्तान की यात्रा जो उंट पर चढ़कर, ऐसे ही हमने पूरी की थी स्थानीय थोब और सिर पर पग्गड़ के साथ, पूरे 20-25 किलोमीटर की । शुरु में तो कौतुक और जोश था पर फिर बाद में थकान और ऊब होने लगी थी जबकि तब महीना अगस्त का नहीं, दिसंबर का था और मौसम भरपूर जाड़ों का । तब भी लौटते-लौटते पसीने से पूरी तरह चिपचिप थे हम। जाड़े हों या गर्मी, रेगिस्तान तो तपते ही हैं।
परन्तु संतुलन ही तो किसी भी यात्रा के आनंद का मूलमंत्र है, चाहे वह यात्रा पर्यटन की हो या जीवन की। आसपास की चहल-पहल और उत्तेजना से खुद को काटकर चुपचाप गाड़ी में जा बैठी।
आड़ी-तिरझी कलाबाजी खाती जीप अब रेत के टीलों पर कभी गिलहरी सी फुदक कर चढ़ जाती तो कभी सांप सी रेंगने लग जाती ।
ड्राइवर अली का सिर भी एक दर्शनीय अजूबा ही था। तेज बजती धुन पर ताल देता हुआ वह बिल्कुल हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया वाली मन-स्थिति में पहुंच चुका था। मानो हमें विश्वास दिला रहा हो वह कि डरने की कतई जरूरत नहीं, जीप उलटेगी नहीं।
हमारे सामने अब रेत..और सिर्फ रेत थी। रेत के लहरों से उठते गिरते टीले थे। जिनपर चलना तक मुश्किल है पर जीप दौड़ रही थी उन पर। अब दूरतक रेत के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था हमें। जबकि पास ही दुबई मॉल में दुनिया के हर कोने से मंहगे से महँगा सामान मौजूद था। दुनिया की कोई मंहगी डिजाइनर शौप नहीं थी जो वहाँ पर न हो। खरीदें या न खरीदें, खूब मन लग रहा था हमारा वहाँ पर। पर यह विरोधाभास ही तो दुबई है…एक ओर बहुत कुछ और दूसरी ओर कुछ भी नहीं। कहीं 48 डिग्री पारा तो चार कदम दूरी पर ही तुरंत 20 से भी कम…कभी-कभी तो हलका सा स्वेटर डालने को मन करने लगता था। पलपल कृतिम और अकृतिम इस वातावरण के बीच टहलते वाकई में मौसम के ठंडे-गरम रोलर कोस्टर पर जा बैठे थे हम।
अब रेत के बीहड़ में उग आए बेतरतीब कूड़े से अचानक इक्के दुक्के पेड़ दिखने लगे थे। सोचने पर मजबूर थी कि ये आँख को ठंडक क्यों नहीं दे रहे, प्यारे क्यों नहीं लग रहे? किथनी अजीब सी बात है न…अपनी जगह पर न हो तो सुंदर-से सुंदर चीज भी सुंदर नहीं लगती।
अचानक ही दृश्य बदला और सुर्ख सूरज सुनहरी रेत के समंदर में वाकई में डूबने लगा। अद्भुत रूप से सुंदर दृश्य था वह। सारी किरकिरी भूल हम एकबार फिर पूर्णतः सम्मोहित हो चुके थे।
कैमरे वापस निकल आए और हम सब कुछ भूल फिरसे उन परछांइयों को पकड़ने का खेल खेलने लगे यादों के एलबम जो सजाने को। जो तस्बीरों में नहीं उतरा, वह मन की संदूकची में भर लिया हमने सदा-सदा के लिए।
रात की खामोशी और वह दूज के चांद की रेत पर बिखरी चांदनी मानो एक नशा-सा फैल चुका था मिनटों में ही हमारे चारो तरफ और हम अपने अगले पड़ाव की तरफ बढ़े जा रहे थे। तभी अचानक वह दिखी । लम्बी छरहरी और खूबसूरत। शरीर तो पूरा का पूरा -लम्बी बलखाती और आपस में लिपटी पतली-पतली दो टांगेों के साथ. जो बड़े ही कलात्मक रूप में आपस में उलझी हुई थीं। उभरे सुगढ़ और स्पष्ट अन्य अंग, परन्तु चेहरा नहीं। यूँ उस वीराने विस्तार में अकेली खड़ी वह मानो झटका देना चाहती थी चेतना को।
लगा वह खूबसूरत औरत नहीं, रेगिस्तान में पूरा और लम्बा खड़ा अकेला पेड़ नहीं, म्यूजियम में रखी एक अभूतपूर्व और आधुनिक बेशकीमत कलाकृति थी । सिर पर बालों-सी और बालों की जगह चमकती रुपहली पत्तियाँ जो दूज के चांद की झिलमिल रौशनी में और भी ज्यादा चमक रही थीं…लगातार कांपे जा रही थीं। निश्चय ही एक सम्मोहन था , एक भय था उस दृश्य में और साथ ही तेज जंगली चमेली की हवा में उड़ती महक भी, जो बन्द खिड़कियों के बावजूद भी कार में महसूस कर पा रही थी।
एक सिहरन सी हुई, एक आल्हाद हुआ मन को कि वह मुझे दिखी पर इसके पहले कि कैमरे में कैद कर पाऊँ, मिनटों में ही गाड़ी आगे बढ़ गई और अंधेरा पूरी तरह से निगल गया उसे। बेबस आँखों से एक दो बार मुड़कर भी देखा पर वह वापस नहीं दिखी।
पुनः सामने रौशनी की जग-रमगर थी और वाकई में एक खूबसूरत और यादगार शाम इंतजार कर रही थी हमारा आगे भी, अपने सारे रंगारंग कार्यक्रमों के साथ।
अगले तीन चार घंटे हमने मानो कहानियों के जादुई कारपेट पर उड़ते हुए ही बिताए और वक्त कई सौ साल पीछे की दुनिया में ले उड़ा हमें। दुबई के आलीशान चमचमाते उंचे-उंचे और मंहगे मालों के विपरीत, जो अति आधुनिक थे , यह सब जाने क्यों बालीवुड की पुरानी फिल्मों की याद दिला रहा था जहाँ ऐसे दृश्य, इसी तरह की सज्जा के साथ अक्सर दिखते थे।
अब हम मसनदों पर पालती मारे बैठे हुए थे। माल जिन्हें पल-पल धोया और पोंछा जाता है, जहाँ रेत और धूल का एक कतरा तक नहीं आ पाता , वहाँ एक आध किरक हम तक पहुंच चुकी थी आँख और तलवों को परेशान करने के लिए। बैठने को तो ऊपर भी बैठ सकते थे परन्तु शो से दूर हो जाते और हमें तो पूरा आनंद लेना था।
यहाँ चारो तरफ रेत ही रेत और बजरी थी. जिस पर बिछे कालीनों पर हम बैठे हुए थे । जो लोग मॉल के फर्शों को, कोनों को साफ करते-करते अमीर हो जाते हैं, उन्ही जैसे या उन्ही के नए आए रिश्तेदार हमें यहाँ पेय और खाना परोस रहे थे, ऊँचा और आलीशान न सही, पर चार कमरों का एक आरामदेह घर बना पाने की आस में। इज्जत की जिन्दगी जी पाने लायक सामान तो जुटा ही लेते हैं लोग दुबई आकर।
भव्य आशियाना था हमारी आंखों के आगे और हाथों में गरमागरम इलायची वाली चाय।
छोटी-छोटी मेजों के इर्द-गिर्द पडे मुलायम रेशमी कुशन वाली मजलिस में बैठे थे हम, जहाँ झीने शिफौन के आवरण के नीचे से थिरकती यौवना, अपना रूप शैम्पेन की तरह बहा रही थी । दो तीन मनचले तो संग-संग नाचने भी लगे थे और वह उन्हें अपने हाव- भावों से और भी उकसाए जा रही थी।
खुले तारों भरे आसमां के नीचे वह दृश्य खयाम की सुराही-सा था। फिर आग पीते और उगलते, कलाबाजियाँ लेते दो जांबाज भी आए जिन्होने वातावरण में जोश और उत्तेजना भर दी। और उसके बाद एकबार फिर से एक और कमसिन आई. उन्ही सब पुराने लटके-झटके और पत्तों-सी कांपती कमर के साथ।
अब तक खाना परोसा जाने लगा था और आकाश तक शोर मचाती आतिशबाजी कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा करने लगी थी। खाना कुछ खास नहीं था एक गिलास कोक के साथ कुछ पकौड़ियाँ खाकर हम उठ खड़े हुए। वैसे भी पुरानी दिल्ली में तरह-तरह के मन माफिक व्यंजन हमारा इंतजार कर रहे थे।
चौंकिए नहीं, दुबई में भी हमने पुरानी दिल्ली ढूंढ ही ली थी और घर के बाहर होकर भी घर जैसे खाने का आनंद ले रहे थे। बल्कि बेटे का तो यह कहना था कि एक आलीशान क्रूज जैसी ही सारी खाने-पीने की वैराइटी थीं हमारे पास।
दुबई की चमक खींच कर लाई थी हमें । सुनते हैं कि समुद्र को रेत से पाटकर बसाया गया था वह पाम बसेरा. जहाँ दुनिया के हर रईस ने अपना घर खरीदा है। मुकेश अम्बानी और शाहरूख खां ने भी। जलने वालों का तो यह भी कहना है कि यह स्वर्ग-सा दिखता टापू धीरे-धीरे समुद्र में वापस धंसने लगा है। पर हमें इन सच्ची-झूठी खबरों से क्या लेना देना , हम तो बस पर्यटक थे और घूमने आए थे और अड़तालीस के उस चिलचिलाते पारे में आराम करने के बजाय सड़कों की धूल फांक रहे थे। फोटो खिंचवा रहे थे। होटलों की लम्बी कतारें थीं समुद्र के किनारे। पैदल घूमने की हिम्मत नहीं थी तो अगले दिन पावर बोट में दुबारा घूमे। लिफ्ट से चढ़कर पाम माल में ऊपर गए और दुबई को एक नई आँख से नए रूप में देखा। बिल्कुल वैसे ही जैसे बुर्ज खलीफा को देखा। मेरी व्यक्तिगत राय में पाम से दुबई ज्यादा सुंदर लगी। और बुर्ज खलीफा का फव्वारा भी ऊपर से नहीं , दुबई माल के सामने वाले ब्रिज से कई गुना अधिक आकर्षक और मनोरम दिखा। पर पर्यटक थे तो ऊपर तो चढ़ना ही था।
मिलना-जुलना इस यात्रा का एक दूसरा मुख्य आकर्षण सिद्ध हुआ।
कई-कई सुखद संजोग बने। सुधी की सहेलियाँ नीता और स्वाति से मिलना उनके साथ शौपिंग करना, उनके घरपर संग-संग बैठकर भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देखना, संग-संग खाना खाना और फिर सौभाग्य से भारत का जीत भी जाना…कई यादें हैं जो बेहद आत्मीय रहेंगी। आरती और लोकेश जी का होटल में मिलने आना, लगा ही नहीं पहली बार मिले। नीरज जी और उनके पतिदेव डॉ. साहब से मिलना तो एक अत्प्रत्याशित और बेहद आनंददायक संजोग था। मैं बच्चों सी चहक रही थी, बिल्कुल अपने बाल कहानी संग्रह की तरह ही, जिसे नीरज जी ने ही अपने संपादन में वनिका प्रकाशन से बहुत स्नेह और धैर्य के साथ छापा है।
बहुत इच्छा थी मिलने की, धन्यवाद कहने की, तो भगवान ने सुन भी ली। परन्तु लगा ही नहीं पहली बार मिल रही हैं , पहली मुलाकात में ही हम दूध-चीनी से घुल चुके थे।
साहित्यिक बातें मुलाकातें और अन्य कई नए-नए मित्रों ने मन को पूर्णतः मोह लिया था… स्फूर्त कर दिया। पूर्णिमा बर्मन की ‘चोंच में आकाश (कविता संग्रह)’, आरती लोकेश गोयल का ‘कुहासे के तुहिन ( कहानी संग्रह)’ करुणा राठौर टीना का ‘हर बात में तेरा जिक्र ( कविता संग्रह)’ और अनु वाफना जो शादी से पहले ममता वैद थीं का ‘…और कली खिल उठी ( कहानी संग्रह )’ साथ लेकर लौटी हूँ। बहुत कुछ है इन प्यारी-प्यारी सहेलियों की स्मृति को और भी गहरे अपने मन में समोने को, साथ रखने को।
कइयों से सालों बाद मुलाकात हुई तो कइयों से आभासी मुलाकात थी पर साक्षात मुलाकात पहली बार हुई। पूर्णिमा, जिससे मिलने का मन बनाकर ही दुबई गई थी, उसके साथ एक छोटी-सी मुलाकात ही हो पाई , थोड़ा असंतोष रहा।
पर हम दोनों ही तो व्यस्त हो चुके थे उपन्यास शेष-अशेष के लोकार्पण में। खैर…फिर कभी सही…
नया पुराना, हर मित्र जो मिला एक ऐसा हीरा था जिनमें दोस्ती और प्यार की अद्भुत चमक थी और यह अहसास मन ही नहीं, आत्मा तक को सुकून देने वाला था। बहुत अपनापन और सम्मान मिला, बहुत खुलूस से मिले सब। खुदपर लिखी कविता सुनी वह भी इस पिचत्तहर वर्ष की उम्र में, वैसे ही शरमाते और गूज पिंपल के साथ, जैसे कि 16 वर्ष की उम्र में सुनी थी जब जूनियर्स ने फेयरवेल पार्टी में मुझे सुनाई थी—इस क्षुद्र लेखनी से केवल करती मैं छायालोक सृजन। ज्यादा फरक तो नहीं था इसबार भी जो अंजू ने सुनाया, पूरा हृदय, पूरा लाड़ उमेड़कर शब्दों से खेली है अंजू, मेरी कई-कई रचनाओं का नाम इसमें शामिल करते हुए-
‘शैल हूँ मैं ‘
कवयित्री हूँ मैं, लेखिका हूँ मैं
भारत की माटी में गढ़ी गईं
सुदूर उसकी सुगंध बिखेरती हूँ मैं
कवयित्री हूँ मैं ….
देश विदेश परिवेश
हृदय के अविराम विचारों को
उद्वेलित होते वेगों को
छंदों,दोहों,मुक्तकों में
बाँधकर व्यक्त करती हूँ मैं
कवयित्री …..
शब्द मुझे रचते या मैं शब्दों को रचती
नित नया जीवन पाती हूँ मैं
अनवरत,अनंत असीमित भावों को
कूची से समेटकर एकांत में रंग भर
परिभाषित करती हूँ मैं
कवियत्री ….
कभी रंग मंच तो कभी नाट्य मुद्राओं से
नारी की उथल-पुथल और दिव्यता को
प्रस्तुत करती हूँ मैं
कवयित्री …
कनुप्रिया बन यादों के गुलमोहर को संजोती
दर्द की लताओं को विरह की कसक को
लंदन पाती लिख एक बार फिर
नीली स्याही में कलम डुबो संदेश-
पहुँचाती हूँ मैं
कवयित्री हूँ मैं …..
विसर्जन में सृजन अनुभूतकर
सूखे पत्तों की कुम्हलाहट को
शैल बन एक नया जीवन रचती हूँ मैं
शैल हूँ मैं शैल हूँ मैं..
अंजू
और उर्मिला ने तो लंदनपाती के बारे में बात करके, उसकी याद दिलाकर पूरी तरह से एकबार फिर उन्ही दिनों में वापस पहुंचा दिया, जब अभिव्यक्ति और अनुभूति में बड़े मनोयोग से ढाई वर्ष तक यह कॉलम लिखा था। हम और पूर्णिमा दो बहनों औरर दो अभिन्न सहेलियों से थे दिन में दो चार बार हालचाल न लें तो चैन ही नहीं पड़ता था। डायरीनुमा कहें या पत्र के रूप में लिखी लंदन-पाती सीधे पाठकों के मन तक पहुंची। आपभी देखें क्या कह रही है लिखने के बीस साल बाद एकबार फिर अगली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती उर्मिला-
“ सर्वप्रथम यहाँ पर उपस्थित सभी साहित्य प्रेमियों को नमन करती हूँ और लेखिका शैल अग्रवाल जी को इनके उपन्यास ‘शेष-अशेष’ के विमोचन के अवसर पर अनेकों शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ। आज इन्हीं के द्वारा रचित साहित्य पर कुछ बोलने का अवसर मिला …मैं अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली मानती हूँ। इनके विपुल साहित्य में से अभिव्यक्ति पत्रिका में प्रकाशित ‘लंदन पाती’ में संकलित आलेखों से कुछ अंश आपके साथ साझा करना चाहूंगी। प्रवासी भारतीय के रूप में अपनी भाषा के प्रति घनिष्ठ प्रेम मन को छू गया। हमारी सभ्यता और संस्कृति की संवाहक हिन्दी के व्याकरण को भारतीय जनमानस के व्यवहार से जोड़ा है, विलक्षण है। ‘खुद की तलाश में- हिन्दी क्यों और कैसे’ का उदाहरण देखिये- वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो यह सबसे अधिक परिष्कृत और सफल भाषा है। जहां कर्ता की जिम्मेदारी पहले आती है कर्म की बाद में ( कर्ता ने, कर्म को, कारण से हम सभी ने सीखा ही होगा)। कर्म के बारे में क्रिया से पहले सोचा जाता है। क्रिया के बाद कर्म के बारे में सोचने का कोई अर्थ नहीं।‘
वाकई, यह वाक्य संरचना केवल व्याकरण से ही संबन्धित नहीं है। यह हम सब भारतीयों के सोच-विचार और व्यवहार को भी दर्शाती है। उसी के अनुरूप ही इसकी रचना हुई है। इसी आलेश का दूसरा अंश- ‘हमारा अवचेतन मन जिस भाषा में सोचे वही हमारी मातृभाषा है।‘ मातृभाषा की इससे अच्छी परिभाषा क्या होगी कि एक वाक्य में ही मातृभाषा के स्वरूप को स्पष्ट कर दिया। अकबर और बीरबल का उदाहरण तो इस अंश को और भी रोचक बनाता है। एक अन्य आलेख- ‘नए घरों में वही पुराना सामान’ में लेखिका ने समाज के दोगलेपन को दर्शाया है। उदाहरण.- ‘हाल ही में एक निरपेक्ष धार्मिक संस्थान से आमंत्रण मिला कि ‘ हिंदु धर्म में नारी का स्थान’ पर कुछ बोलूं, सभी धर्मों के विद्वान इस विषय पर कुछ न कुछ बोलेंगे।‘
हमारे समाज में कथनी और करनी का अंतर ही उसकी सबसे बड़ी विडम्बना है। इसी आलेख में लेखिका ने ‘कन्या भ्रूण हत्या’ से संबन्धित चौंकाने वाला सत्य उद्घाटित किया है- ‘हमने घर चाहे कितने भी नए बना लिए हों, सात समुंदर लांघ आए हों, पर सोच का सामान तो आज भी वही जर्जर और पुराना ही है। यहाँ भी धीरे-धीरे वही सब बुराइयाँ पनपती जा रही हैं, जो अपने देशों में थीं। गर्भ में ही लिंग का पता हो जाने की वजह से कन्या गर्भपात और भ्रूणहत्या के मामले इतने बढ़ गए हैं कि यहाँ की सरकार को स्थानीय चिकित्सकों को निर्देश देने पड़े कि बच्चे का लिंग जन्म से पहले न बताया जाये।‘
सोचने पर मजबूर करता है कि अगर विकसित देशों में भी ऐसे ही घिनौने अपराध हो रहे हैं तो हमारा शिक्षित समाज किस दिशा की ओर जा रहा है? क्या उनके द्वारा ग्रहण की गयी शिक्षा का कोई अर्थ है? इसके पीछे का कारण अगर भारतीय हैं तो यह हमारे लिए और भी शर्म की बात है। हम भारतीयता का कौन सा रूप दुनिया के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं? ऐसे में बहुत सारे प्रश्न दिमाग में उठते हैं। “..
संतुष्ट हूँ कि अगली पीढ़ी भी पढ़-समझ रही है लिखे को।
यादों और वादों से भरी मोहक पिटारी लेकर लौटी हूँ। यादें जो आजीवन साथ रहने वाली हैं। याद दिलाती रहेगी कि जगहों से नहीं, अपनों के मिलने से ही मन खुश हो पाता है , वरना धरती-आकाश तो सब जगह वही एक-से और एक ही हैं।…
शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com