कविता धरोहरः धर्मवीर भारती


ढीढ चांदनी
आज-कल तमाम रात
चांदनी जगाती है

मुँह पर दे-दे छींटे
अधखुले झरोखे से
अन्दर आ जाती है
दबे पाँव धोखे से

माथा छू
निंदिया उचटाती है
बाहर ले जाती है
घंटो बतियाती है

ठंडी-ठंडी छत पर
लिपट-लिपट जाती है
विह्वल मदमाती है
बावरिया बिना बात?

आजकल तमाम रात
चाँदनी जगाती है

शाम है

शाम है, मैं उदास हूँ शायद
अजनबी लोग अभी कुछ आयें
देखिए अनछुए हुए सम्पुट
कौन मोती सहेजकर लायें
कौन जाने कि लौटती बेला
कौन-से तार कहाँ छू जायें!

बात कुछ और छेड़िए तब तक
हो दवा ताकि बेकली की भी
द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
ताकि आहट मिले गली की भी!

देखिए आज कौन आता है
कौन-सी बात नयी कह जाये
या कि बाहर से लौट जाता है
देहरी पर निशान रह जाये
देखिए ये लहर डुबोये, या
सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाये!

कूल पर कुछ प्रवाल छूट जायें
या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो
अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?

ये अनजान नदी की नावें
जादू के से पाल
उड़ातीं
आतीं
मन्थर चाल ।

नीलम पर किरणों
की साँझी
एक न डोरी
एक न माँझी,
फिर भी लाद निरन्तर लातीं
सेन्दूर और प्रवाल !

कुछ समीप की
कुछ सुदूर की,
कुछ चन्दन की
कुछ कपूर की,
कुछ में गेरू
कुछ में रेशम
कुछ में केवल जाल ।

ये अनजान नदी की नावें
जादू के से पाल
उड़ातीं
आतीं
मन्थर चाल ।


टूटा पहिया

मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत !

क्या जाने कब
इस दुरूह चक्रव्यूह में
अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय !

अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
बड़े-बड़े महारथी
अकेली निहत्थी आवाज़ को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें

तब मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया
उसके हाथों में
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ !

मैं रथ का टूटा पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने
सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !


कुछ भी तो व्यर्थ नहीं

जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियां
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियां
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं

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