कभी पढ़ा था- ‘जननी जन्मभूमि स्वर्गात अपि गरीयसी।‘
क्यों हमारे भारत के साथ ऐसा नहीं, प्रतिभायें पलायन करती रहती हैं। लौटती हैं तो बस नहीं पातीं। जिगसौ के खोए टुकड़े-सी अपनी सही जगह और पहचान नहीं ढूँढ पातीं और लौट आती हैं वहीं जहाँ से ललककर लौटी थीं, भारत को याद करतीं, उन्ही गली-गलियारों में आजीवन अदृश्य प्रेत-सी भटकती।
समझ नहीं पा रही कहाँ से अपनी बात शुरु करूँ , वहीं से क्यों नहीं, जहाँ पैदा हुई , जिसकी गोद में खेली और पली-बढ़ी, नींव के पत्थर जैसे पहले बीस साल बिताए,
प्रणाम तुम्हे काशी की रज
तुमने ये तन रचा, मन रचा
पाला पोसा और शिक्षित किया
बूंद हूँ मैं तो तुम्हारी ही
पावन जल धार की
सहेजो,संभालो आशीष दो महादेव
शब्द-शब्द सदा अंतस से निकले और हर अंतस से ही जुड़े जैसे धागा बींधे और गुजरे
माला में एक एक मोती से
भारत का अमृत महोत्सव है तो यादों की बाढ़ है। वैसे भी भारत को भूली ही कब …
मेरा भारत और भारत की गोद में
मृत्यु का पल पल उत्सव मनाती
जीने का संदेश देती पावन नगरी काशी
शिव के अभय त्रिशूल पर टिकी
मां की गोद-सी पलपल रही संभालती
सदियों से खड़ी काशी ही नहीं,
मेरा तो पूरा देश है मनोरम
चित्रकूट से मोहक वन यहाँ
पावन पुनीत वह अयोद्धा धाम
जनमे थे जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम
बृज के नटवर नागर राधेश्याम
जीना सिखलाया हमें आनंद ले
परन्तु निर्लिप्त और निष्काम
गूंजी थी फिर मधुर मुरलिया
राधा रानी संग मोहक रास
माखन मिश्री का नित भोग लगे है
तोते मोर की हरित छवि है अभिराम
जिधर देखूँ उधर ही पावन धाम
इसी मिट्टी ने उगले लाल-जवाहर
सुभाष, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद
वीर झांसी की रानी जन्मी थी यहीं पर
महाराणा प्रताप-सी अकाट्य तलवार
सूर कबीर तुलसी रहीम और रसखान
प्रेमचन्द प्रसाद महादेवी, निराला, पंत
एक से बढ़कर एक कवि चिंतक संत
कितने रूप कितने रंग इस मिट्टी के
पुनीत प्रयागराज और रामेश्वरम्
या फिर बद्रीनाथ और केदार नाथ
बंगाल जो चैतन्य महाप्रभु का धाम
मदुराई और कोणार्क खजुराओ
कलाकृति जिनकी कितनी बेमिसाल
लखनऊ की नजाकत भरी शाही उड़ान याद करूँ
या फिर विश्व में गूंजती इसकी बौलीबुड झंकार
आगरे का ताज महल आज भी जग को खींचे
पूरे विश्व में ही इसकी है अलग एक पहचान
छप्पन भोगों वाले मेरे भारत का भविष्य
मथुरा की खुरचन सा उजला और मीठा
रसगुल्ले सा रसमय रहे सदा
लवंगलता सी गमके
अपरिमित कीर्ति महान
मघई पान-सा जो घुले यादों में
बनारसी सिल्क सा बेशकीमती
रंग बिरंगा, लहलहाता सरसराता
दुलराता-संभालता मां-बाप बन कभी
कभी हजार बाहों में ले ले जो नित ही
मेरे भारत का कोई नहीं है जबाव।
पावन गंग- जमुन-सा बहता सींचता
अक्खड़ अलमस्त मनमौजी देश
गुर्बत में भी जो सदा जश्न मनाता
पुनीत है इसकी एक एक याद…
…व्यक्ति का संबंध उसके देश, समाज और परिवार से होता है। अतीत,वर्तमान और भविष्य से भी। निरंतर की एक कड़ी है जीवन । हम कहीं भी चले जाएँ, कहीं भी बस जाएँ, याद, अनुभव…जीवन की इस निरंतरा से अलग हो पाना संभव ही नहीं। अंग्रेजी में एक कहावत है कि . Absence makes heart go fonder भारत के प्रति इस लगाव को, इस दर्द को हम प्रवासी दूर होकर और अधिक तीव्रता से महसूस करते हैं। जुड़ने की ललक में उसके दुख-दर्द को अधिक गहराई से महसूस कर पाते हैं। हम सभी ने जाना और महसूस किया है इसे कभी न कभी। मेरे लिए तो भारत अनंत यादें ही नहीं , अनंत सहारा भी रहा है। बस शुरुवाती बीस वर्ष ही बिताए थे भारत में और शेष पूरा जीवन यहाँ ब्रिटेन में। यानी पचास वर्ष से भी अधिक हो चुके यहीं रहते-रहते। पहले माँ-बाप की पुकार करेजा चीरती थी और अब जब वे नहीं रहे तो उन पुकारों को ढूंढती-ढूंढती , उन यादों को ताजा करने के लिए पुनः-पुनः पहुँच ही जाती हूँ। अजीब मनःस्थिति और परिस्थिति है यह । भारत मुझे अब अपना नहीं मानता और मैं भारत से अलग और दूर- इस शब्द के वार से आज भी बुरी तरह से आहत होकर कराहने लग जाती हूँ। माना वक्त की लहरों के संग दूर किनारों पर जा फिंकी और वहीं फली-फूली, पर अपने सारे वही भीरतीय रूप गुणों के साथ, आज भी तो बस वही हूँ मैं, इसी की यादों में डूबी-रची!
आज हमारा देश आजाद है। इसमे शक नहीं। पर अब लड़ाई आजादी की नहीं, संयम और समझ की है।कई बार जिस तेजी से हम पाश्चात सभ्यता की तरफ बढ़ रहे हैं वह कहीं पश्चाताप में न बदल जाए, इससे बचना ही होगा हमें। शिव की तीसरी आँख और कृष्ण के नवनीत यानी उत्कृष्ट और सारगर्भित विवेक की , राम की पारिवारिक कर्तव्य निष्ठा और समर्पण की आज भी उतनी ही तो जरूरत है। वैचारिक धरोहर संभालनी है हमें अगर पूरे विश्व को रौबैटिक होने से बचाना है, जो वही पीजा और बर्गर खाएगा और बस अंग्रेजी में ही बात कर पाएगा। ‘कुछ तो बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी, सदियो रहा है दुश्मन ये जमाना हमारा। हमारे पास तो संस्कृति और भूगोल की अक्षुण्ण धरोहर है। सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ‘ भारतीयता की खुशबू को अपने कोर-कोर में सहेजे हम सभी अपनी अपनी धरती पर भारतीयता के प्रतीक और पहचान है। देश के राजदूत हैं। कई बार यूरोप में घूमते हुए, ब्रिटेन में समस्याओं से जूझते हुए मैंने खुद महसूस और अनुभव किया है इसे और गौरवान्वित भी हुई हूँ कि पचास साल से अधिक भारत से बाहर रहते हुए भी अभी तक भारत ही मेरी वास्तविक पहचान रहा है। टूटी और छूटी नहीं है वह स्नेहिल कड़ी। समय के साथ बदलाव सिर्फ अच्छाई के लिए, बह और डूबकर नहीं, धार में टिककर और तैरकर। यही संदेश देना है हमें अगली पीढ़ी को।
विदेश की धरती पर जब भी कोई अपना घर बनाता है तो पहली ईंट जहां महत्वाकांक्षा की होती है दूसरी निश्चय ही यादों की आच में तपी और सिकी, यादों के जल से तरी व संवरी। पहली पीढ़ी तो इस लगाव और प्यार को एक संग्रहालय सा मन में संजो पाती है पर अगली पीढ़ी को वक्त और जीवन की आपाधापी इतना वक्त नहीं देती, और वे दूर होते चले जाते हैं अपनी जड़ों से। और तब इन बातों और ऐसे प्रयासों का महत्व बढ़ जाता है कि हम उन्हें जोड़े रख पायें । विदशी चमक-धमक में खो न जायें वे।
‘हम पंछियों से भिन्न नहीं राबिया। पिंजरे पिंजरे ही होते हैं, चाहे सोने के हों या लोहे के। इन्हें पहचानना, इनसे बचना बहुत जरूरी है हमारे लिए’- मेरी विच कहानी में सहेली रूबी परमानंद नायिका राबिया से यही तो कहती है। जीवन के हर क्षेत्र में यह बात इतनी ही धारदार है। बचना और बचाना है हमें खुद को भी और अगली पीढ़ी को भी इन प्रलोभनों से। हमारी धरती ही नहीं, संस्कृति और पहचान सभी कुछ आज विनाश के विष्फोटक कगार पर है।
माना चेतन-अवचेतन के स्वप्न उर्जा देते हैं संचालित करते हैं परन्तु इन्सान या जाति विशेष के पूरे इतिहास… संघर्ष, आकांक्षा, उपलब्धि और विफलताओं को समेटे साहित्य ही है जो जीवन को परिलक्षित करता है, भविष्य के लिए संजो पाता है । जीवन जिसमें सुख भी हैं और दुख भी। यह स्वीकरोक्ती यह संयम और सामंजस्य ही शांत और सफल, इस विभ्रमित जीवन को जीने का असली गुर है आज। न तो कुछ स्थाई है यहाँ , ना ही कुछ अति महत्वपूर्ण शिवमंगल सिंह सुमन ने लिखा है –
मिट्टी की महिमा मिटने में मिट मिट हर बार सँवरती है मिट्टी मिट्टी पर मिटती है मिट्टी मिट्टी को रचती है
क्योंकि
मिट्टी में स्वर है, संयम है, होनी अनहोनी कह जाए हँसकर हालाहल पी जाए, छाती पर सब कुछ सह जाए, यों तो ताशों के महलों सी मिट्टी की वैभव बस्ती क्या भूकम्प उठे तो ढह जाए, बूड़ा आ जाए, बह जाए!
मानव जीवन की यह मिट्टी भी तो , वैसे तो कुछ भी नहीं पर सामर्थ और संभावनाओं में बहुत कुछ।
आज हमारा भारत प्रगति कर रहा है परन्तु यदि सफलता के शिखर पर पहुंचना है तो अंधी नकल की फिसलन से बचना होगा। मुन्नी बदनाम हुई, या बद्तमीज इश्क नहीं, यह देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानो का -जैसे बोल युवाओं के होठों पर हों इस बात की कोशिश जारी रहनी चाहिए। कुछ ऐसा परोसना होगा हमें कि बात-बात में, युवा पीढ़ी के उच्छवास तक में -हे भगवान से -ओह शिट -तक की जो काई आई है,वह साफ कर पायें। उनकी दैनिक सोच और भाषा को वापस उसी गरिमा और प्रांजलता तक खींच पायें।
खान-पान और वेशभूषा- संस्कृति को जीवित रखना इसलिए जरूरी नहीं कि हमारा बाहरी खाका बदल रहा है, अपितु इसलिए कि हमारा अंतर्मन और चरित्र न बदले। लड़ाई अब आजादी की नहीं, आजादी में संयम और अनुशासन सीखने की है- याद आ रही है दिनकर की कविता
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं,
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।
पत्थर के बुत और पोथियां नहीं आज की जरूरत मानवता और करुणा है। स्वार्थी this is my life , नहीं हमारा वही पुराना- वसुधैव कुटुम्बकम है।
प्रार्थना है कि बाहरी हस्तक्षेप हमें बदलें न, विचलित न करें और हर भूखे पेट में रोटी हो हर रोते बच्चे के होठों पर मुस्कान हो, तभी हम अपना भारत विकसित और पुनः सभ्य मान पायेंगे, गर्व से हम ही नहीं, दूसरे भी यह कह पायेंगे ।…
शैल अग्रवाल
आणविक संकेतः shailagrawal@hotmail.com
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