परिचर्चाः हिन्दी की विश्वव्यापकताः गोवर्धन यादव

हिन्दी हमारी आन-बान-शान की भाषा है. हमारी अस्मिता की भाषा है. हमारी सांस्कृतिक पहचान की भाषा है. राष्ट्रहित की बात हो या फ़िर जनहित की, इसके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता. इसकी अमोघ शक्ति के बारे में पूरा विश्व भली-भांति परिचित है. यह उस आंधी का नाम है कि जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को जड़ों को उखाड़ फ़ेंका. जैसा कि कभी यह कहा जाता था कि उसका सूरज कभी अस्त नहीं होगा. उसने अपनी शक्ति से विश्व को परिचित करवा दिया है.
अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा है, यह कहते हुए अंग्रेजीदां कहते नहीं थकते है, जबकि हकीकत ठीक इसके विपरीत है. विश्व में सबसे ज्यादा चीनी भाषा “मन्दारिन” बोली जाती है और दूसरा क्रमांक हिन्दी का है. जबकि रुसी, स्पेनिज, पोर्तुगीच और डच आदि ग्यारह भाषाऒं में अंग्रेजी बारहवें पादान पर है. विश्व की चार प्रतिशत आबादी ही अंग्र्रेजी बोलती- लिखती और समझती है. सवाल उठना लाजमी है कि यह कैसी विश्वभाषा है? हमारी हिन्दी वैज्ञानिक भाषा है, जबकि अंग्रेजी अवैज्ञानिक है. यह बिना लगाम की घोड़ी के समान है. इंगलैण्ड के जंगली लोगों ने जब इसे बोलना शुरु किया तो इसे अंग्रेजी जुबान का नाम मिला, जबकि इससे पूर्व वहाँ लैटिन भाषा प्रचलन में थी. हिन्दी के पास अपने मौलिक शब्दों की संख्या साठ लाख है, जबकि अंग्रेजी के पास लगभग देढ़ लाख शब्द हैं, और वे भी इधर-उधर से उधार लिए गए हैं.
आइए जानते हैं कि हिन्दी भाषा की विशेषताएं और आकर्षण के बारे में-
1-संस्कृत की दुहिता होने के कारण हिन्दी बहुसंख्य लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है. 2-.इसका साहित्यिक झान विभिन्न भाषाओं में विस्तृत तथा उच्च कोटि का है. 3-.इसका शब्द भंडार तथा विचार क्षेत्र व्यापक है. 4.- इसका व्याकरण सरल और प्रामाणिक है. 5-. इसकी ग्राहय शक्ति शक्तिशाली है जिससे वह आवश्यकतानुसार देशी-विदेशी भाषाओं के शब्दों को सरलता से अपने में आत्मसात कर लेती है. 6-इसकी लिपि सरल है.7 जैसा लिखा जाता वैसा पढ़ा जाता है. 8- इसमें भावात्मक एकताअ स्थापिअत करने की पूरी सामर्थयता है. इन्हीं सारी विशेषताओं को देखते हुए देश के विभिन्न भाषा-भाषियों, उदारचेतना से संपन्न बुद्धिजीवियों और राष्ट्र हितैषियों ने अपने विचार प्रकट करते हुए हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया था.

अर्थ-शक्तिभारत, परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्र भारत, संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शन भारत,एवं संसार केसबसे बडॆ बाजारों में एक भारत से निकटता बढाने के लिए विश्व का हर देश ललायित है. यही कारण है कि विश्व के अनेक देश अपने यहाँ हिन्दी शिक्षण की उच्चस्तरीय व्यवस्था कर रहे हैं. इस देशों में अमरीका, रुस, इंगलैण्ड, फ़्रांस, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे विश्व के प्रभावशाली देश भी शामिल हैं. इतना ही नहीं प्रवासी भारतीयों ने अपनी संस्कृति के रक्षा के लिए हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था विश्व में बडॆ व्यापक स्तर पर की है. वे हिन्दी की सुरक्षा, प्रतिष्ठा एवं प्रचार के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं.
संसार में कुल मिलाकर लगभग २८०० भाषाएं हैं. इनमे १३ ऎसी भाषाएं हैं,जिनके बोलने वालों की संख्यां ८ करोड से अधिक है. ताजा अंकडॊं के अनुसार संसार की भाषाओं में, हिन्दी भाषा को द्वितीय स्थान प्राप्त है. भारत के बाहर वर्मा, श्रीलंका, फ़ीजी, मलाया, दक्षिण और पूर्वी अफ़्रीका में भी हिन्दी बोलने वालों की संख्या ज्यादा है. एशिया महादेश की भाषाओं में हिन्दी ही एक ऎसी भाषा है, जो अपने देश के बाहर भी बोली और लिखी जाती है,क्योंकि यह एक जीवित और सशक्त भाषा है.
ताजा आंकडॊं के अनुसार भारत में हिन्दी जानने वालों की संख्या सौ करोड है. भारत के बाहर पाकिस्थान, इजराइल, ओमान, इक्वाडोर, फ़िजी, इराक, बांगलादेश, ग्रीस, ग्वालेमाटा,म्यांमार, यमन, त्रिनीदाद, सउदी अरब, पेरु, रुस, कतर,, मारीशस, सूरीनाम, गुयाना, इंग्लैण्ड आदि में बोली जाती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा की मान्यता मिलने जा रही है. वर्तमान में अंग्रेजी, फ़्रेंच,चीनी,रुसी एवं स्पेनिस भाषाओं को राष्ट्रसंघ की मान्यता प्राप्त है.
संसार में हिन्दी ही एक ऎसी भाषा है,जिसे विदेशियों ने सर्वप्रथम विश्वपटल पर रखा. हिन्दी के शोधार्थी डा.जुइजिपियोतैस्सी तोरी ने फ़्लोरेंस विश्वविद्धयालय इटली में रामचरितमानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन १९११ में शुभारंभ किया. भारत की संस्कृति ने उन पर इतना असर डाला कि स्वदेश “इटली” छोडकर जीवनपर्यंत बीकानेर में रहे. साम्यवादी देशों में तुलसीकृत रामचरित मानस की लोकप्रियता देख, स्टालिन ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अकादमीशियन अलकसई वरान्निकोव द्वारा रुसी भाषा में पद्दानुवाद कराया, जिसमें साढे दस वर्ष लगे. तुलसीभक्त वेल्जियम में जन्में फ़ादर रेवरेण्ड कामिल बुल्के,जिन्होंने हिन्दी के कारण भारत की नागरिकता ली. तुलसी की काव्यकृति हनुमानचालीसा का रोमानियन भाषा में, बुकारेस्ट में प्रो. जार्ज अंका ने डा. यतीन्द्र तिवारी के सहयोग से अनुवाद किया.
अमेरिका के कई विश्वविद्दालयों में हिन्दी पढाई जाती है. यथा- पेनस्टेटयेल, लायोला, शिकागो, वाशिंगटन, ड्यूक, आयोवा, ओरेगान, मिशिगन, कोलंबिया, हवाई इलिनाय, अलवामा, युनिवर्सिटी आफ़ बर्जिनिया, युनि.आफ़ मीनेसोटा, फ़्लोरिडा, वैदिक वि.वि.सिराक्यूज, केलिफ़ोर्निया वि.वि., वर्कले युनिवर्सिटी आफ़ टेक्सास, रटगर्स, एमरी, नार्थ केरोलाइना स्टेट,एन.वाय.यू.इन्डियाना, यूसीएलए, मेनीटावा,लाट्रोव तथा केलगेरी विश्वविद्धालय आदि जहां हिन्दी की शिक्षा दी जाती है.
आधुनिक चीन में हिन्दी की विधिवत शुरुआत सन १९४२ में यूनान प्रांत पूर्वी भाषा और साहित्य कालेज में हिन्दी विभाग की स्थापना के साथ हुई. यह वह समय था जब सारा संसार द्वितीय विश्वयुद्ध की चपेट में था. ऎसी स्थिति में अपनी सुरक्षा के लिए हिन्दी विभाग एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होता रहा. तीन वर्षों बाद सन १९४५ में हिन्दी विभाग यूनान प्रांत से स्थान्तरित होकर छॊंगछिन में आ गया और साल भर बाद हिन्दी चीन की राजधानी में स्थित पीकिंग वि.वि. के विदेशी भाषापीठ में आसीन हुई और तबसे यहीं फ़ूलती-फ़लती रही. यहां हिन्दी के अलावा संस्कृत, पालि, और उर्दू भाषा साहित्य का अध्ययन-अध्यापन होता है. १९४९ से १९५९ तक का समय विकास की दृष्टि से बेहतरीन रहा. बाद के वर्षों में काफ़ी शिथिल पडा.. १९६०-१९७९ तक का समय चीनी जनता और समाज के कठिनाइयों भरे दिन थे, हिन्दी विभाग सिकुडकर छोटा हो गया .१९८०-१९९९ का यह दौर परिवर्तन का दौर रहा. हिन्दी की मशाल को प्रज्जवलित करने में तीन प्राध्यापकों का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता. वे हैं प्रो.यीनह्युवैन, प्रो.लियो आनवू और प्रो. चिनतिंनहान. इन तीनो विद्वानों ने अपनी लगन ,कर्मठता और आदर्श के बल पर हिन्दी के लिए जितना कार्य किया वह प्रेरणादायक है.
जापान में विदेशी भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन के दो प्रमुख केन्द्र हैं. तोक्यो युनि. आफ़ फ़ारेन स्टडीज एवं ओसाका युनि.आफ़ फ़ारेन स्टडीज. इन दोनों ही वि.वि. में सन १०११-१०२१ से ही हिन्दुस्थानी भाषा के रुप में हिन्दी-उर्दू की पढाई का सिलसिला प्रारंभ हो गया था. इसकी नींव डालने वाले विद्वान श्री.प्रो.रेइची गामो तथा प्रो.एइजो सावा हैं. १९११ में डिग्रीकोर्स आफ़ हिन्दुस्तानी एण्ड तमिल शुरु हो गया था. सन १९०९ से १९१४ के मध्य प्रसिद्ध सेनानी मोहम्मद बरकतउल्ला इस विश्वविद्धालय में “हिन्दुस्थानी भाषा” के विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रुप में नियुक्त किए गए. ये दोनो वि.वि. सरकारी विश्वविद्धयालय हैं, जहां ४ वर्षीय पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं. आरम्भ में प्रो. देई ने तोक्यो में तथा प्रो.एइजो स्ववा ने ओकासा में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की नींव डाली. ये विद्वान प्रोफ़ेसर हिन्दी के साथ ही उर्दू भी पढाते थे. सन २००३ में सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रो. तोसियो तनाका का “विश्व हिन्दी सम्मान” से सम्मानित किया गया
तोकियो और ओसाका के राष्ट्रीय वि.वि. के अतिरिक्त अन्य कई गैर सरकारी वि.वि. और शिक्षा संस्थान भी हैं, जहाँ वैकल्पिक विषय के रुप में प्रारंभिक और माध्यमिक कक्षाओं तक हिन्दी पढने-पढाने की व्यवस्था है. ताकुशोक वि.वि. के प्रो. हेदेआकि इशिदा, सोनोदा वीमेन्स युनिवर्सीटी के प्रो. उचिदा अराकि और ताइगेन हशिमोतो, तोमाया कोकुसाई वि.वि. के प्रो. शिगोओ अराकि और मिताका शहर में स्थित एशिया-अफ़्रीका भाषा के प्रो. योइचि युकिशिता का नाम अत्यंत प्रसिध्द है.
मारिशस में भारतीय मजदूरों के आगमन के साथ ही इस भूमि पर हिन्दी का प्रवेश हुआ. जिन मजदूरों को भारत के भोजपुर इलाके से यहां लाए गए थे “गिरमिटिया” कहलाए. वे अपने साथ झोली में रामचरित मानस, हनुमानचालिसा, महाभारत जैसे पवित्र ग्रंथ लेकर आए. इन्हें विरासत में समृद्ध साहित्य, धर्म, और संस्कृति का ज्ञान था. अपनी जमीन से उजडॆ-उखडॆ इन मजदूरों को नयी जमीन, यातना शिविर में अपने को जीवित रखने, स्थापित करने और अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए भोजपुरी और हिन्दी का सहारा ही सबसे बडा अवलंबन था. मजदूरी की क्रूर नियति से दुखी और हताश ये मजदूर, कभी विरहा, कभी कजरी तो कभी हनुमानचालीसा की पंक्तियों से अपनी आंतरिक शक्ति बचा रखने और रात में रामचरितमानस का पाठ उनकी थकान मिटाकर हौसला बढाते. कई अवरोधों के बावजूद बैठकें चलती और भाषा के साथ संस्कृति और धर्म को गति देते रहे. हिन्दू महासभा, आर्यसभा, हिन्दी प्रचरिणी सभा तथा अन्य संस्थानों के सहयोग तथा पण्डित विष्णुदयाल और डा. शिवसागर रामगुलाम के नेतृत्व में भारतीय संस्कृति और इसकी वाहक हिन्दी अपनी उत्कृष्टता पाने में सफ़ल हुई. आज महात्मा गांधी संस्थान और इन्दिरा गांधी सांस्कृतिक केन्द्र, भाषा प्रचार और सांस्कृतिक गतिविधियों को विस्तार दे रहे हैं. भारत सरकार के सहयोग से अब हिन्दी स्पीकिंग यूनियन तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर संस्थान भी इस सांस्कृतिक अभियान में जुड गए हैं, तथा हिन्दी सचिवालय की स्थापना में नया आयाम मिला है.
थाईलैण्ड में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन का कार्यक्रम सबसे पहले थाई-भारत सांस्कृतिक आश्रम से शुरु हुआ जिसकी स्थापना सन १९४३ में स्वामी सत्यानन्दपुरीजी ने की थी. आचार्य डा. करुणा कुसलासायजी पहले थाई विद्वान थे, जो हिन्दी पढने भारत आए थे. महात्मा गांधी से सारनाथ में मिले और जब वे लौटे तो थाई-भारत सांस्कृतिक आश्रम में ही हिन्दी पढाना शुरु किया और बैंकाक के भारतीय दूतावास में नौकरी शुरु की.
सन १९८९ में सिल्पाकोव वि.वि. के पुरातत्व विज्ञान संकाय के प्राच्य भाषा विभाग मे एम.ए.संस्कृत पाठ्यक्रम बनाया गया. उस समय आचार्य डा. चमलोडां शारफ़ेदनूक हिन्दी शिक्षक थे. सन १९६६ में शिलपाकोन वि.वि. के पुरातत्व विज्ञान संकाय के प्राच्य भाषा विभाग के संस्कृत अध्यापन केन्द्र की, भारतीय आगन्तुक डा. सत्यव्रत शास्त्री के द्वारा स्थापना की गई. १९९३ में थमसात वि.वि. में थाईलैण्ड के भारतीय व्यापारियों के सहयोग से भारत अध्ययन केन्द्र की स्थापना हुई. डा. करुणा कुशलासाय, डा. चिरफ़द प्राकन्विध्या एवं आचार्य डा. चम्लोंग शरफ़दनूक, तीनों ने हिन्दी कक्षाएं चलायी.


गोवर्धन यादव, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश, भारत।

error: Content is protected !!