विमर्षः कविता का लोकः गोवर्धन यादव

हम कविता के लोक में प्रवेश करें, इससे पूर्व मुझे लगता है कि हमें “लोक” के बारे में विस्तार से जान लेना आवश्यक होगा. आखिर लोक क्या है?. जहाँ तक हमारी दृष्टि जितना कुछ देख पाती है, वह सब लोक है. अंग्रेजी या फ़िर पश्चिम के फ़ोक से हमारा लोक बिल्कुल ही भिन्न है. लोक यानि जो हमेशा सतर्क रहता है, जो निरन्तर बना रहता है, जो गतिशील है..वह हमारा लोक है. फ़ोक का सीधा-सादा अर्थ जो निकलता है, वह है बीता हुआ..एकदम…. पिछड़ा हुआ . हमारा लोक बीता हुआ लोक नहीं है..बल्कि वह निरन्तर अपनी परंपरा को नवीनीकृत करते हुए, अपने अनुभव से एक नया मूल्य सृजित करता हुआ, हर समय को अपने से जोड़ता हुआ, जीवन को आगे बढ़ाता है, वह हमारा लोक है.
पुराणॊं में धरती से ऊपर सात लोक और धरती से नीचे भी सात लोक होने की बात कही है. वे इस प्रकार हैं-.पृथ्वी के ऊपर- सतलोक, तपोलोक, जनलोक, महलोक, ध्रुवलोक, सिद्धलोक तथा पृथ्वीलोक हैं. ठीक इसी तरह धरती के नीचे भी सात लोक बताये गए हैं. वे इस प्रकार से हैं- अतललोक, वितललोक, सुतललोक, तलातललोक, महातललोक, रसातललोक तथा पाताललोक. पृथ्वी को छोड़कर अन्य लोक तो हमें दिखाई नहीं देते, बल्कि वह हिस्सा भी हमें दिखाई नहीं देता, तो अंधकार में आच्छादित रहता है. क्या वह लोक की श्रेणी में नहीं आता? भले ही हम उन्हें आँखों से नहीं देख पाते, लेकिन वे सारे-की-सारे लोक इसके अन्तरगत ही आते हैं. अगर इसमें कुछ संदेह बना होता/रहता तो फ़िर हम यूंहि नहीं गाते– चौदह लोक में फ़िरे गणपति..तीन भुवन में राज्य करें. पाताललोक तक श्री हनुमान जी का जाना हम नितप्रति रामायण में पढ़ते ही हैं.
लोक-साहित्य पढ़ने-लिखने में एक शब्द है, पर वह वस्तुतः यह दो गहरे भावों का गठबंधन है. “लोक” और “साहित्य” एक दूसरे के संपूरक, एक दूसरे में संश्लिष्ट. जहाँ लोक होगा, वहाँ उसकी संस्कृति और साहित्य होगा. विश्व में कोई भी ऎसा स्थान नहीं है, जहाँ लोक हो और वहाँ उसकी संस्कृति न हो.
मानव मन के उद्गारों व उसकी सूक्ष्मतम अनुभूतियॊं का सजीव चित्रण यदि कहीं मिलता है तो वह लोक साहित्य में ही मिलता है. यदि हम लोकसाहित्य को जीवन का दर्पण कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. लोक साहित्य के इस महत्व को समझा जा सकता है कि लोककथा को लोक साहित्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की जननी. लोक साहित्य मे कल्पना प्रधान साहित्य की अपेक्षा, लोकजीवन का यथार्थ सहज ही देखने में मिलता है.
लोक-साहित्य हम धरतीवासियों का साहित्य है, क्योंकि हम सदैव ही अपनी मिट्टी, जलवायु तथा सांस्कृतिक संवेदना से जुड़े रहते हैं. अतः हमें जो भी उपलब्ध होता है वह गहन अनुभूतियों तथा अभावॊं के कटु सत्यों पर आधारित होता है, जिसकी छाया में वह पलता और विकसित होता है. इसीलिए लोक साहित्य हमारी सभ्यता का संरक्षक भी है.
साहित्य का केन्द्र लोकमंगल है. इसका पूरा ताना-बाना लोकहित के आधार पर खड़ा है. किसी भी देश अथवा युग का साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकता. जहाँ अनिष्ठ की कामना है, वहाँ साहित्य हो नहीं हो सकता. वह तो प्रकृति की तरह ही सर्वजन-हिताय की भावना से आगे बढ़ता है.
संत शिरोमणि तुलसीदास की ये पंक्तियां- “कीरत भनित भूरिमल सोई-सुरसरि के सम सब कह हित होई” अमरत्व लिए हुए है. गंगा की तरह ही साहित्य भी सभी का हित सोचता है. वह गंगा की तरह पवित्र और प्रवाहमय है, वह धरती को जीवन देता है…श्रृंगार देता है और सार्थकता भी. प्रकृति साहित्य की आत्मा है. वह अपनी मिट्टी से, अपनी जमीन से जुड़ा रहना भी साहित्य की अनिवार्यता समझता है. मिट्टी में सारे रचनाकर्म का “अमृतवास”´ रहता है. रचनाकर उसे नए-नए रुप देकर रुपायित करता है. गुरु-शिष्य परम्परा हमें प्रकृति के उपादानॊं के नजदीक ले आती है. यहाँ कबीर का कथन प्रासंगिक है-´गुरु कुम्हार सिख कुंभ गढ़ी-गढ़ी काठै खोट- अन्तर हाथ सहार दे, बाहर वाहे खोट” . संस्कारों से दीक्षित व्यक्ति सभी प्रकार के दोषॊं-खोटॊं से मुक्त रहता है. इसमें लोकहित की भावना समाहित है. मलूकदास भी इन्सानियत की परिभाषा अपने शब्दों में यूं देते हैं- “मलुका सोई पीर है, जो जाने पर पीर / जो पर पीर न जानई / सो काफ़िर बेपीर.” दूसरों की पीड़ा समझने वाला इन्सान पशु-पक्षी का भी अहित नहीं सोच सकता. वनस्पति के प्रति मैत्री का वह विस्तार साहित्य ही तो है.
लोक चेतना तो संस्कृति और साहित्य की परिचालक शक्ति मानी जाती है. किन्तु वर्तमान मशीनी और कम्प्युटरी समाज से लोक चेतना शून्य होती जा रही है. आज जरुरी है कि साहित्य का मूल्यांकन, लोकजीवन तथा लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए. जो लोकसाहित्य लोकजीवन से जुड़ा होगा, वही जीवन्त होगा. माना भूमिः प्रयोग है “पृथीव्याः” अथर्ववेद कि ऋचा का महाप्राण है. लोकजीवन इस ऋचा के आशय का प्रतिनिधित्व युगों से करता आ रहा है. यही लोक साहित्य की आधारशिला है. लोकसाहित्य परम्परा पर आधारित होता है. अतः अपनी प्रकृति मे विकाशशील है. इसमें नित्यप्रति परिवर्तन की संभावना बनी रहती है. इसका सृजन युगपीड़ा एवं सामाजिक दवाब को भी निरन्तर महसूस करता रहता है.
लोकसाहित्य में लोककथा-लोकनाटक तथा लोकगीतों को रखा जा सकता है, जिसमें जनपदीय भाषाओं का रसपूर्ण-कोमल भावनाओं से युक्त साहित्य होता है. भारतीय लोक साहित्य के मर्मज्ञ आर.सी टेम्पुल के मतानुसार लोक साहित्य की साहित्यिक दृष्टिकोण से विवेचना करना, उसी सीमा तक करना उचित होगा, जिस सीमा तक उसमें निहित सुन्दरता और आकर्षण को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे. यदि लोक साहित्य की वैज्ञानिक विवेचना की जाती है, तो मूल विषय नीरस और बेजान हो जाएगा. लोक के हर पहलू में संस्कृति के दिव्य दर्शन होते हैं. जरुरत है तीक्ष्ण दृष्टि और सरल सोच की. लोक साहित्य के उद्भट विद्वान देवेन्द्र सत्यार्थी ने साहित्य के अटूट भंडार को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था- “मैं तो जिस जनपद में गया, झोलियाँ भरकर मोती लाया”.
परलोक की धारणाएँ भी इन्हीं से जुडी है. सभी कर्मकाण्ड, पूजा-अनुष्ठान तथा उन्नत सांस्कृतिक समाज में मनुष्य के आचरण का निर्धारण इसी लोक में होता है. लोक हमारी सामाजिकता की गंगोत्री है और सभ्यता का प्रवेश द्वार भी. भारतीय जनमानस को श्रीमद भगवद्गीता ने जितना प्रभावित किया, उतना शायद किसी अन्य पुस्तक ने नहीं किया.
साहित्य की लोकचेतना उतनी ही प्राचीन है जितना कि आदि मानव. रागात्मक पक्षधरता उसे मजबूत बनाता है. ग्रामीणों के पर्व, त्योहार आचार-विचार, रिश्ते, जीवनमूल्य आदि को उन्हीं की बोली में अभिव्यक्ति मिलती है. उनके भाव और भाषा में अपनी मिट्टी की सुगन्ध आती है. उसमें मन की जड़ता को दूर करने की अपूर्व क्षमता होती है. वह बौद्धिक वजन का साहित्य नहीं है. वह मौखिक और जीवंत परंपरा का हिस्सा है. वह, असल में एक अमुक व्यक्ति की भावाभिव्यक्ति नहीं है, वरन् लोक की भावाभिव्यक्ति का आईना हैं. वह समाज की धरोहर हैं. पूराने समाज की घड़कन और स्पन्दन उसको सप्राण बनाती हैं. सामाजिक, पारिवारिक मूल्य ही उसकी जैव खाद है. लोक साहित्य मानवीय रिश्तों को मधुर बनाता है. ‘बहुजन सुखाय बहुजन हिताय’ के लक्ष्य की पूर्ति करता है. तुलसी दास की उक्ति ‘गावहि मंजुल बानी, सुनि कलरव मंगल बानी’ में उसका सन्देश निहित है. लोक जीवन में जितनी भी अवस्थाएं और परिस्तिथियाँ आती-जाती हैं, वे सब रामकथा में विस्तार से समाहित हैं. पारिवारिक जीवन का मोह-ममत्व, ईर्षा (irshya) -द्वेश,, प्यार, सौंदर्य का बोध, करुणा-दया, विश्वास, छल-प्रपंच, विवशतायें, उलझनें, आन्तरिक भावनाओं के द्वन्द्व, संघर्ष, विक्षोभ, धैर्य, चातुर्य, शील, निष्ठा, विश्वास, समर्पण, दृढ़ता, वत्सलता, सुकुमारता, कर्कशता, त्याग एवं सहनशीलता, रामकथा की जीवन धारा में लहरों की भांति प्रवाहित और तरंगित होते रहते हैं. युगचेता तुलसी दास जी ने जिस कौशल से संस्कारों और परम्पराओं का वर्णन किया है, जिसकी मिसाल और कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलती. इन सब बातों को लेकर किसी विद्वत सज्जन का कथन मैंने कहीं पढ़ा था. वे कहते हैं कि रामायण को गाने की बजाए पढ़ा जाना चाहिए और गीता को गाया जाना चाहिए, ताकि उसका प्रभाव हमारे मन-मस्तिस्क पर असर डाल सके और हम उससे शिक्षा ग्रहण कर सकें. हमारे आचरण में जो दिन प्रति दिन गिरावट आ रही है तथा जैसे-जैसे हम अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं,… लोक से दूर जाते जा रहे हैं, वैसे-वैसे हम अमंगल की ओर बढ़ते जा रहे हैं.
हमें मालुम होना चाहिए कि लोकगीत, लोककथा, लोकपर्व, लोकोक्तियां, लोकनाटक, लोककलाएं, लोक भाषाएं, लोक-संगीत, लोक परंपराएं, लोक कहावतें, लोकगाथाएं तथा पहेलियां आदि सभी लोकसाहित्य के ही अंग-प्रत्यंग हैं. ग्रामीण लोग अपने नीरस और उबाऊ जीवन को रसपूर्ण बनाने के लिए जहां एक ओर विभिन्न-विभिन्न बोलियों में लोकगीत गाकर अपना मनोरंजन करते है, वहीं लोककथाओं के माध्यम से आनन्दित होते हैं. कभी नाटकों में अभिनय कर एक नया क्षितिज तैयार करते हैं, तो कहीं वे लोकोक्तियों और पहेलियों के माध्यम से अपनी दक्षता और बुद्धिकौशल का प्रदर्शन करते हैं. लोक कहावतों को सामाजिक न्याय की चलती फ़िरती अदालतें भी कहीं जाती हैं. बड़े-से-बड़े विवाद का कम-से-कम समय और शब्दों में अचूक निर्णय देने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है. शुरु से ही लोक जीवन, और लोकसाहित्य की समृद्ध परंपरा ग्रामीण अंचलों में बहुत ही समृद्ध एवं सुसंस्कृत रही है.
आइये…अब हम कविता के लोक में प्रवेश करते हैं. हम जब भी बात करते हैं कविता के लोक की या फ़िर लोक की कविता की, वस्तुतः हम लोक-साहित्य की ही बात कर रहे होते हैं.
विश्व के श्रेष्ठतम और प्रथम कवि होने का दर्जा यदि किसी को जाता है तो वह प्रातः वन्दनीय महर्षि वाल्मीकि जी को जाता है. आज से हजारों साल पहले श्री रामजी का जन्म त्रेतायुग में हुआ था. महर्षि वाल्मीकि जी श्रीराम जी के समकालीन थे. एक डकैत का-सा जीवन जीवन जीने वाले वाल्मीकि जी ने तमसा नदी के तट पर एक व्याध के हाथों मैथुनरत क्रौंच पक्षी के वध को देखा. करुणा के महासागर वाल्मीकि जी का दृदय इतना दृवित हो उठा कि उनके मुख से अचानक एक श्लोक फ़ूट पड़ा-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।। ( b )बाल्मिकी,रामायण –बालकांड-श्लोक 15)

वाल्मीकि जी का पटु शिष्य साथ ही था. वह आश्चर्यचकित हुआ कि अचानक यह श्लोक उनके मुख से कैसे फ़ूट पड़ा. उसने इस प्रश्न को पूछा तो वाल्मीकि जी ने उससे कहा-“ यह श्लोक जो मेरे शोकाकुल हृद्य से फ़ूट पड़ा है, उसके चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमे मानो तंत्री की-सी लय गूंज रही है. इसके अलावा और मैं कुछ नहीं जानता.
पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।। (…..श्लोक-18)
करुणा के इस महासागर से “काव्य” का उदय हो चुका था, जो वैदिक काव्य की शैली, भाषा और भाव से एकदम अलग था…. नया था. शिष्य के साथ वे आश्रम में पहुँचे, परंतु उनका ध्यान इस श्लोक की ओर ही लगा रहा. इतने में आखिल विश्व की सृष्टि करने वाले, सर्वसमर्थ, महातेजस्वी चतुर्मुख ब्रह्माजी, मुनिवर वालमीकि जी से मिलने के लिए स्वयं उनके आश्रम पर आये.
आजगाम ततो ब्रह्मा लोककर्ता स्वयं प्रभु चतुर्मुखो महातेजा द्रष्टुं तं मुनिपुंगम (वाल.रामायण,श्लोक- 23)
वाल्मीकि जी को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि तुमने जो काव्य रचा है, तुम आदि कवि हो, अपनी इसी श्लोक शैली में तुम रामकथा लिखना, जो तब तक दुनियां में रहेगी जब तक पहाड़ और नदियां रहेंगी.

यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति।। (वाल..रामा.श्लोक-36)

ब्रह्मा जी से आशीर्वाद प्राप्त वाल्मीकिजी ने रघुवंशविभूषण श्रीराम जी के चरित्रविषयक रामायण काव्य का निर्माण किया. इतना ही नहीं उन्होंने श्रीरामजी के दोंनो पुत्र-लव और कुश, जिनका जन्म वाल्मिकि जी की कुटिया में ही हुआ था, इस महाकाव्य को पढ़ने और गाने में मधुर, द्रुत, मध्यम और विलम्बित-इन तीनो गतियों से अन्वित, ‍षड़ज आदि सातों स्वरों से युक्त वीणा बजाकर, स्वर और ताल के साथ गाने योग्य तथा श्रृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, भयानक तथा वीर आदि सभी रसों से अनुप्राणित है, दोनों भाई को उस महाकाव्य को पढ़ाकर उसका गायन सिखाया.
पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरन्वितम // जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तन्त्रीलयसमन्वितम रसैः श्रृंगारकरुणहास्य रौद्रभयानकैः // वीरादिभी रसैर्तुक्तं काव्यमेतदगायताम ( बालकांड-श्लोक-9.चतुर्थ सर्गः)
रघुवंशविभूषण श्रीराम जी के चरित्रविषयक रामायण को अपनी जनपदीय बोली में संतकवि तुलसीदास जी ने संवत 1631 में रामनवमी के दिन रचना प्रारम्भ की. दो वर्ष, सात महिने, छब्बीस दिन में इस ग्रंथ की समाप्ति हुई. संवत 1633 के मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष में राम विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए थे. इतनी निशद काव्य रचना जो बोलने-सुनने में सहज है, जिसे अनेकों सुरों में सरलता से गाया भी जा सकता है, व्याकरण के हर पैमाने पर खरी उतरने वाला यह अद्भुत ग्रंथ, इससे पहले कभी नहीं लिखी गया था और शायद ही कभी लिखा जा सकेगा, ऐसा मेरा अपना मत है.
बालकाण्ड के श्लोक 7 में तुलसीदास जी ने लिखा है-
नाना पुराणनिगमागमसम्मतं यद रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोSपि. स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति ( श्लोक-7)
अनेक पुराणों, वेदों तथा शास्त्रों से सम्मत एवं जो श्री वाल्मीकि कृत और अध्यात्म रामायण में वर्णन है, उनके आधार पर तथा कुछ अन्यत्त्र से भी प्राप्त हुई श्रीराम कथा को अपने आन्तरिक सुख के लिए अत्यंत मनोहारिणी भाषा में रचकर, तुलसीदास विस्तार करता है.
युगों-युगों से अविरल धारा के रूप में प्रवाहित होने वाली इस काव्य-गंगा ने न जाने कितने लोकों की निर्मिति की है, जिनका सहज ही अंदाज लगाना संभव नहीं है.
कविता का लोक
सृष्टि की सबसे उत्कृष्ट कविता- “जब कोई स्वर कंठ से फ़ूटता है तो उसे कविता कहते हैं, आँखों से झरता है तो आँसू, और जब एकतारे से फ़ूटता है तो संगीत और जब वही सत्य बनकर होंठों से फ़ूटता है तो उसे मुस्कान भी कहते हैं.
ऊपर वर्णित जितने भी लोकों का मैंने उल्लेख किया है, इन सबका निर्माता और कोई नहीं, बल्कि वह सरस्वती पुत्र है, वह कवि है, वह साहित्यकार है. जिसने प्रकृति को आराध्य मानकर हृद्य में तरंगित होते हुए शब्दों को गूंथ-गूंथकर माँ भारती के लिए गलहार बनाये है. जिस प्रकार सारी सृष्टि का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव ने किया है, उसी प्रकार कलम के धनी कवियों ने भी अनेकानेक लोकों का निर्माण किया है. उसे दूसरा ब्रह्म यूंहि नहीं कहा गया है. निर्मल चित्त धारंण कर, जो भी प्रकृति की उपासना करता है, वह एक से बढ़कर एक गीत, एक से बढ़कर एक कविता की निर्मिति करता है. गीतों के बेताज सम्राट कहे जाने वाले स्व. गोपालदास नीरज को भला कौन नहीं जानता?. उन्होंने लिखा है- फ़ूलों के रंग से, दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज पाति..जैसे अनेकानेक गीत लिखे, जो लोगों के, न सिर्फ़ कंठ्हार बने, बल्कि इनके गीतों को फ़िल्मों में भी शामिल किया है. स्व.हरिवंश राय बच्चन जी (मधुशाला), सुमित्रानंदन पंत, डा.शिवमंगलसिंह सुमन, डा.हजारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राष्ट्रीय ऊर्जा के कवि रामधारी सिंह “दिनकर”,जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, गोपाल सिंह नेपाली, भारत भूषण, गिरिजा कुमार माथुर, निर्मल वर्मा आदि सहित वर्तमान समय में भी कविताएं रचीं और पढ़ी जा रही है. इनमे कुछ प्रमुख नाम- कृष्ण शर्मा “सरल” चन्द्रसेन विराट आदि से लेकर केदारनाथ सिंह, अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, भगवत रावत, विष्णु नागर, देवीप्रसाद, आदि (फ़ेहरिस्त काफ़ी लंबी है) के नाम गिनाए जा सकते हैं. इनके अलावा वर्तमान समय में भी अनेकानेक कवि सुन्दर-सुन्दर गीत/कविताएं लिख रहे हैं. भारतमूल की लेखिका सुश्री शैल अग्रवाल जी “यू.के”. से “लेखनी” पत्रिका का, केनेड़ा से सुश्री सुधा ओम ढिंगरा जी “हिन्दी चेतना पत्रिका” का, दुबई से सुश्री पूर्णिमा वर्मन “अभिव्यक्ति” पत्रिका का, अमेरिका से सुश्री सरोज शर्मा जी “प्रवासी दुनिया” पत्रिका का, न सिर्फ़ संपादन कर रही हैं, बल्कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका का निर्वहन भी कर रही हैं. इनकी पत्रिकाओं में बड़ी संख्या में हिन्दी कविताएं प्रकाशित की जाती हैं. इस तरह हम पाते हैं कि इन कवियों की कविताओं में वे सारे लोक भी कहीं न कहीं शामिल होते रहे है और शामिल होता रहा है वह “आदमी” जो साहित्य का केन्द्र बिंदु है.

कविता के केंद्र में आदमी का होना जरुरी है. आदमी है तो उसका घर-परिवार, रिश्ते, पैसों का अभाव, अनिश्चिंताएं, अपूर्णताएं. अनिर्णय, दुनियादारी की जरुरतें, साहस, विफ़लताएं, स्वप्न-प्रेम, आत्मग्लानियां, हताशाएं, छिपे हुए संकल्प, दैनिक जीवन के दबाबों की प्रत्यक्षता, उसकी छायाएं, सुख-दुख आदि कविता के आवश्यक टूल्स हैं. तब जाकर एक मुकम्मल कविता बनती है. स्टिरियो टाईप लिखी गई कविताएं ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहती. ऐसा मेरा अपना मानना है
हमारे पुरोधा भारतीय कवि.
रवीन्द्रनाथ टैगोर.
गुरुदेव की काव्यरचना गीतांजलि के लिए ही उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था।
मेरा शीश नवा दो अपनी चरण-धूल के तल में / देव ! डुबो दो अहंकार सब / मेरे आँसू-जल में / अपने को गौरव देने को / अपमानित करता अपने को / घेर स्वयं को घूम-घूम कर / मरता हूँ पल-पल में / देव ! डुबो दो अहंकार सब / मेरे आँसू-जल में / अपने कामों में न करुं मैं / आत्म-प्रचार प्रभोः / अपनी ही इच्छा मेरे /. जीवन में पूर्ण करो / मुझको अपनी चरम शांति दो / प्राणॊं में परम कांति हो / आप खड़े हो मुझे ओट दें. / हृदय-कमल के दल में / देव ! डुबा दो अहंकार सब / मेरे आँसू-जल में.

सुब्रमण्यम भारती
चमक रहा उत्तुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है / जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है / नदी हमारी ही है गंगा प्लावित करती मधुरस धारा / बहती है कहीं और भी ऎसी पावन कल-कल धारा ? / सम्मानित हो सकल विश्व में महिमा जिनकी बहुत रही है / अमर ग्रन्थ वे सभी हमारे, उपनिषदों का देश यही है / गाएँगे यश हम सब इसका / यह है स्वर्णिम देश
माखनलाल चतुर्वेदी.
पत्थर के फ़र्श, कगारो में / सीसों की कठिन कतारों में / खंभों के द्वारा में / इन तारों में दीवारों में / कुंडी, ताले, संतरियों में / इन पहरों की हुंकारों में / गोली की इन बौझारों में / इन वज्र बरसती मारों में / इन सुर शर मीले गुण, गरवीले / कष्ट सहीले वीरों में / जिस ओर लखूँ तुम ही तुम हो.
(२) नर हो न निराश करो मन को / कुछ काम करो, कुछ काम करो / जग में रहकर कुछ काम करो / यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो! / समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो / कुछ तो उपयुक्त करो तन को / नर हो न निराश करो मन को /
मैथिलीशरण गुप्त
माता का मन्दिर / यह समता का संवाद जहाँ. सबका शिव कल्याण यहाँ है पावे सभी प्रसाद यहाँ / जाति-धर्म या संप्रदाय का /. नहीं भेद-व्यवधान यहाँ, सबका स्वागत सबका आदर सबका सम सम्मान यहाँ / राम,रहीम बुद्ध,ईसा का, सुलभ एक सा ध्यान यहाँ /, भिन्न-भिन्न भव संस्कृतियों के गुण गौरव का ज्ञान यहाँ / नहीं चाहिए बुद्धि बैर की भला प्रेम का उन्माद यहाँ / सबका शिव कल्याण यहाँ है, पावैं सभी प्रसाद यहाँ./ सब तीर्थों का एक तीर्थ यह हृदय पवित्र बना लें हम / आओ यहाँ अजातशत्रु बन, सबको मित्र बना ले हम
कवि प्रदीप ( रामचन्द्र द्विवेदी.)
आज हिमाचल की चोटी से फ़िर हम ने ललकरा है / दूर हटो ऎ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है. / जहाँ हमारा ताजमहल है और कुतुब-मीनारा है / जहां हमारे मन्दिर मस्जिद सिखों का गुरुद्वारा है / इस धरती पर कदम बढ़ाना अत्याचार तुम्हारा है / शुरु हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठॊ हिन्दुस्तानी / तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी / आज सभी के लिए हमारा यही कौमी नारा है.
सुभद्रा कुमारी चौहान.
आ रही हिमालय से पुकार / है उदधि गरजता बार बार / प्राची पश्चिम भू नभ अपार / सब पूछ रहे हैं दिग-दिगन्त / वीरों का कैसा हो वसंत / फ़ूली सरसों ने दिया रंग / मधु लेकर आ पहुंचा अनंग / वधु वसुधा पुलकित अंग अंग / है वीर देश में किन्तु कंत / वीरों का कैसा हो वसंत / भर रही कोकिला इधर तान ./ मारु बाजे पर उधर गान / है रंग और रण का विधान / मिलने को आए आदि अंत / वीरों का कैसा हो वसंत / गलबाहें हों या कृपाण / चलचितवन हो या धनुषबाण / हो रसविलास या दलितत्राण / अब यही समस्या है दुरंत / वीरों का कैसा हो वसंत
रामधारीसिंह “दिनकर” ( लंबी कविता का एक अंश.)
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा / तैतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो / अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है / तैतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो / आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख / मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ? / देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे / देवता मिलेंगे खेतों में , खलिहानों में / फ़ावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं / धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है / दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो / सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
हरिवंशराय बच्चन –साकी बनकर मुरली आई / सात लिए कर में प्याला / जिनमें वह छलकाती लाई /.अधर-सुधा-रस की हाला / योगिराज कर संगत उसकी /नटवर नागर कहलाए / देखो कैसों-कैसों को है /नाच नचाती मघुशाला /२/ बनी राहे अंगूर लताएँ / जिनसे मिलती है हाला / बनी रहे वह मिट्टी जिससे/बनता है मधु का प्याला/ बनी रहे वह मदिर पिपासा/ तृप्त न हो जो होना जाने/बने रहे ये पीने वाले/ बनी रहे यह मधुशाला.
मेरे प्रिय रहे कवि.
छिन्दवाड़ा जिले की काव्य परंपरा में स्व.संपतराव धरणीधर, गीतकार स्व. पं.राजकुमार शर्मा तथा देश की सीमाओं से पार कविताओं को पहुँचाने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो स्व.श्री विष्णु खरे को जाता है. हम उनके इस महान योगदान को कैसे विस्मृत कर सकते है. हमारे समय की कविता क्या हो सकती है?.जब यह प्रश्न उनसे पूछा गया तो उन्होंने उत्तर में कहा-“यह उस सीमा की खोज है, जिसके एक ओर अर्थहीन शोर है और दूसरी तरफ़ जड़ खामोशियां. कविता इन दोंनो स्तिथियों के बीच इतिहास की तमाम विडम्बनाओं और त्रासदियों के से गुजरते हुए, तमाम तरह के धोकों, फ़रेबों, प्रपंचों और बदकारियों का सामना करती हुई, भरोसे का एक निदान चाहती हैं और इस बुनियादी सवाल को उठाती है कि यह सब क्यों?”
विष्णु खरे
तुम जहाँ हो / तुम हो नहीं,/ जहाँ तुम पहुँचते हो, / वहाँ कोई और मौजूद होता है,/ जहाँ समझा जाता था कि तुम होगे,/ वहाँ कोई बैठा था,/ पत्थर गिनता हुआ // जहाँ तुम हो आए हो / वहाँ तुम कभी नहीं थे / जहाँ तुम पहुँचे थे / तुम पहले ही उस देश की / विस्तृत यात्रा कर चुके थे / जहाँ से तुम जा चुके थे / वहाँ तुम तभी उतरे थे // जहाँ सुख का / बसेरा था वहाँ कोई सुख नहीं था / जब तुम पिता थे / तुम निःसंतान रहे / तुमने ठंढ में कदम रखा / वसंत,शुरु ही हुआ था // विस्तीर्ण मैदानों के आरपार / सपने देखते हैं गुमशुदा / सुदूर होती हैं स्वापनातीत वस्तुएँ भेस बदलकर / दुनिया भागती है, खुद से //
स्व.संपतराव धरणीधर
घर आंगन सुनसान हुआ है./ हर पावन रिश्ता मेंहदी का / भर सावन बदनाम हुआ है. / क्यों मौसम बेइमान हुआ है.(२)क्या तुमने इस पर सोचा है/ कि रोटी के पहाड़ पर बैठकर भी / आदमी क्यों भूखा है (लंबी कविता का एक अंश)
स्व.रामकुमार शर्मा
(प्यार बांटने आया हूँ)
(लंबी कविता का एक अंश)
जीवन की सहमी सांसों का अधिकार आंकने आया हूँ/मैं गली-गली और द्वार-द्वार पर प्यार बांटने आया हूँ//पलने से लेकर चलने तक जो गीत प्यार के गा न सका/ धरती पर खेला मिट्टी की रंगत को कब पहचान सका/जो रो- रोकर आंसू से नित धड़कन का तापन करते थे / मैं कफ़न उठा उनकी लाशों की मुस्कान पहचान सका/ पलकों के साये में पलती संध्या की नीरव शामलता./ मैं उन नयनों में हँसता-सा भुनसार आंजने आया हूँ

स्व.केशरी चन्देल “अक्षत”
(शांति की राह में)
आओ हम प्यार की राहों पर चलकर देखें/ नफ़ारतों के अंधेरे दर से निकलकर देखें/ आओ हम चीख-चीखकर सरे बाजार कहें/ खून की खाद से अच्छी फ़सल नहीं होती/ जंग मसलों का हल नहीं होती.
२.गाँव मेरा-
चाँदनी-सी चमक वाला/, दामिनी-सी दमक वाला/ अजनवी मुस्कान वाला/, एक अद्भुत शान वाला/हँस रहा आठों पहर है/ एक अपनी लहर वाला/ नित नये जीवन की खुशबू / नित नयी पहचान वाला /मधुमयी मुस्कान वाला/. गाँव मेरा/गाँव मेरा
स्व.नईम-
आज महाजन के पिंजरे से कैद सुआ है, अभिशापित मनुआँ बेचारा,/ काम न आई दवा-दुआ है/ टूटी खाट जनम से अपनी/अपलक रात जागती रहती / इन खेतों से उन मेड़ों तक/ एड़ीं उठा भागती रहती/ भ्रष्ट व्यवस्था का आदम की / गर्दन पर खुरदुरा जुवाँ है.
स्व.डा.हुकुमपाल सिंह “विकल”
( माँ जब जब सहलाती माथा.)
माँ ऐसा शब्द धरा पर/ जिसका पार नहीं/ जिसके अर्थों का कोई भी पारावार नहीं/ माँ को पा सुख हो जाता है/ हर आता दुखड़ा// माँ है रामचरित मानस की चौपाई ऐसी/ उपमानों में बांध न पाए/ तुलसी तक जैसी/हुआ सार्थक जीवन उसका/जिसने उसे पढ़ा
स्व.चन्द्रकांत देवताले
( माँ पर नहीं लिख सकता कविता.)
माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता/ अमर चिऊँटियों का दस्ता/ मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है/ माँ वहाँ हर रोज चुटकी-दो चुटकी आटा डाल देती है.///मैंने धरती पर कविता लिखी है/चन्द्रमा को गिटार में बदला है/समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया./ सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा / माँ पर नहीं लिख सकता कविता.
स्व.श्री चन्द्रसेन विराट
(कहाँ लाया गया देश को)
दिशाएँ हँस नहीं पातीं जहाँ ऋतु ही रुआँसी है / जहाँ कुछ खास शक्लें छोड़ सब पर उदासी है/ पसीना बो रहे हैं जो उन्हीं का दुःख नहीं घटता/ उगलती स्वर्ण जो धरती बराबर में नहीं बँटता/ जिन्हें है कब्ज दौलत का उन्हीं पर धन बरसता है/ जिसे सच्ची जरुरत है वही भूखा तरसता है/ विडंबना ही विडंबना है विपर्यय ही विपर्यय है./कहाँ लाया गया है देश को विक्षोभ-विस्मय है.
स्व.सूरज पूरी
(वासंती एक शाम.)
पोर-पोर, सांस-सांस, उतर गई आज शाम/ वासंती एक शाम/. चढ़ी धूप उतर गई, सीढ़ी पर ताल के/ दियने कुछ थिरक उठे, लहरों की चाल पे/ मंदिर के कलशों से उतर गई आज शाम/ वासंती एक शाम/वासंती एक शाम
स्व.श्रीमती शकुन्तला यादव.
( दीप गीत )

सखी री……../ .एक दीप बारना तुम / उस दीप के नाम / जिस दीप के सहारे / हम सारे दीप जरे हैं
सखी री…./ सखी री./दूजो दीप बारियो तुम/.उस दीप के नाम / जिस दीप के सहारे/हम जग देखती हैं
सखी री…../ …सखी री../..तीजॊ दीप बारियो तुम /उस माटी के नाम /जिस माटी से/बनो है ये दींप
सखी री…./..सखी री../…चौथो दीप बारियो तुम/उन दीपों के नाम/जो तूफ़ानों से टकरा गये थे/और ‘ बुझकर भी/भर गये जग में/अनगिनत दीपों का उजयारा/सखी री……..

(२) (समाजवाद मंथन)
देव और दानवों ने/ मथा सागर / व्यर्थ ही पिसता रहा वासुकि/ मिला क्या ?/ शांति-शांति की-/ चलती रही चख-चख/ फ़ायदा उठाया शे‍षशायी ने/अपना और देवगण का कराया/आज इसी क्रम में हो रहा समाजवाद मंथन/ मस्का निश्चित ही/ वरि‍ष्ठ पायेंगें/ कुछ चमचे चाट जायेगें/ मठा, समाज के नाम चढ़ाकर

वर्तमान समय के कवि.
श्री एनलाल जैन “स्वदेशी”
(वीणा के तार.)
ये लहर से हवा की छिड़ी बात है / लो वो इठला गई. मुझ पर आघात है / धार ने कूल से कुछ कहा कान में / कूल बहने लगा धार की तान में / नाव मेरी ही मुझसे जो रूठी प्रिये / फ़िर बताओ भँवर क्यूँ न घेरे प्रिये / हर लहर पर मैं अपनी पतवार बदलता हूँ / हर तार को हर गीत पर, हर बार बदलता हूँ.
श्री विष्णु मंगरुलकर.”तरल”
(शरद के चाँद का शृँगार )
चाँद-चंदनियों संग नैन लड़ाना/ खेल अनवरत चला हुआ है/ किरणों को साकी बाला बनके/ मन सबका हत किया हुआ है/चंचल चितवन फ़िजां में यौवन/.चाँद ऐसे यूँ घोले हुआ है, ऐ.!..शरद निशा जल्दी ना सराना/ जग बेगाना बना हुआ है/शृंगार चाँद ने आज किया है.
ओमप्रकाश सोनवंशी “नयन”
( तीली )
वक्त ने मेरी जिन्दगी के/ सीने पर/ एक ऐसी तीली/ रख दी है/ जिसे सुलगा लेना/ मेरी अनिवार्यता बन गई है/ क्योंकि, इस तीली का आलोक/ कर सकता है दूर/ मन की घाटियों का अँधेरा.
डा. आशीष कंधवे

(एक जीवन और )

मैंने / एक सफेद गुलाब / उगाया है फरबरी में / एक सच्चे दोस्त के लिए / जो अपना / ईमानदार हाथ / मेरे हांथो में दे दे / मेरी क्रूरता ले ले / और मेरे आंसुओं को / संभाल ले / उस दिल के साथ / मैं रहूँ और / मेरे साथ वो दिल / ताकि, / मुस्कुराते हुए / एक जीवन और / गुज़र जाए …

(शिव की तरह जीना आता हैं ) ( एक लंबी कविता का एक अंश )

हम हिमालय के धवल पंछी / केसर के खेतों में बिचरने वाले / कौन लोकतंत्र का चेहरा बिगाड़ रहा है / कौन विषधर, नज़र भारत को लगा रहा है / कायरों के कोलाहल से क्यों आसमान बेचैन है / पहचान लो,पहचान लो देश का दुश्मन कौन है / लोकतंत्र का करके आखेट / जो बढ़ाने की सोंच रहे अपना वोट बैंक / बांट रहा है कौन देश के संविधान को / नकार रहा है कौन देश के विधान को /कौन कर रहा है कुठाराघात / हमारी अस्मिता और हमारे अरमान को / पहचान लो पहचान लो देश के दुश्मन कौन हैं
हस्तीमल हस्ती
कितनी मुश्किल / कौन धूप सा / दानिशमंदों के झगड़े / सच के हक में /
सबकी सुनना अंजुमन में-/ उससे मिल आए हो / सबका यही खयाल / काम करेगी उसकी धार / जुगनू बन या तारा बन / टूट जाने तलक / सच कहना और पत्थर खाना / सच का कद / सरहदें नहीं होतीं
2. प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है / नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है
जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था / लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है
गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी / लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है /
हम ने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँढ लिया लेकिन / गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है
जयप्रकाश मानस
कविते/ कुछ फ़रेब करना सिखाओ / कुछ चुप रहना /वरना तुम्हारे कदमों पर चलने वाला कवि / मार दिया जाएगा खामखां / महत्वपूर्ण यह भी नहीं कि / तुम उसे जीवन देती हो / अमरत्व / पर मरने के बाद / कविता / फ़िलहाल उसे / तुम जरा-सा झूठ दे दो / ताकि वह किसी तरह बच जाए / जब बचा ही नहीं रहेगा कवि / तो कविता के साथ कौन जाना पसंद करेगा.
(२) कविता में महक उठता वसंत / पुतलियों से झांकने लगता /. सूर्ख सूरज / पंखरियों में बिखर गया जीवन / हत्या से लौटा हुआ मन / तलशता वनांचल का आदिम राग / क्यों करते पृथ्वी में स्वर्ग की तलाश / मिल गई होती काश / उसकी एकाध चिठ्ठी
गोवर्धन यादव
1.बस अपना एक मुस्कुराना है

पवन / कह दो हर कली से / कि वह तैयार रहे/ घोर घमण्ड कर तूफ़ान आने वाला है /गगन में घोर काले बादल घिरेगें / कौन जाने कब,दामिनी-कामिनी का होगा नर्तन / कडक-कडक कर,चमक-चमक कर वे / भरना चाहेगीं डर नस-नस में / पर इससे तुझे क्या ? / आती तो रहेगीं हरदम घड़ियाँ तम की / और कभी मिलेगा मिलिन्द आसक्त रक्त का / खिल सर कंटकों के बीच मुस्कुराना है / जिन्दगी में अपना बस,एक मुस्कुराना है
2.कपसीले बादल
कांधो पर विवशताओं का बोझ /हथेली से चिपकी/ बेहिसाब बदनाम डिग्रियाँ /दिल पर आशंकाओं-कुशंकाओं के/ रेंगते जहरीले नाग/निस्तेज निगाहें/ पीले पके आम की तरह लटकी सूरतें / और सूखी हड्डियों के ढाचों के /गमलों मे बोई गईं/ आशाओं की नयी-नयी कलमें/और पाँच हाथ के/कच्चे धागे मे लटके-झूलते/ कपसीले बादल/जो आश्वासनों की बौझार कर/तालियों की गड़गड़ाहट के बाद/फिर एक लंबे अरसे के लिये/गायब हो जाते हैं/ और कल्पनाओं का कल्पतरु /फ़लने-फ़ूलने के पहले ही/ ठूंठ होकर रह जाता है.

डा.सुधीर शर्मा “समग्र”
( घर लौटी चिड़िया )
बहुत छोटा होता है, चिड़ियों का घर/ दो बच्चे और एक वह./कैसे समाते हैं/ इस नन्हें घर में/ चिड़ियों का घर/ पूरा आकाश होता है/ पेड़-पौधे, खेत-खलिहान/ दूसरों के घरों के आसपास की जगह/ छत से लगा लोहे का कुंड/ न जाने और कुछ-कुछ/ सब चिड़ियों का ही तो घर है/ छोटा हमारा घर होता है/ मेहमान आते ही/ तंग हो जाते हैं हाल/ बड़े बेडरूम और ड्राइंगरूम भी/ चिड़िया अपने घर के भीतर/ बड़ा दिल रखती है/ हम बड़े घर में/ नहीं बचा पाते/ चिड़ियों के लिए घर.
गिरीश पंकज
( आज का दिन बहुत अच्छा बीता )
आज का दिन बहुत अच्छा बीता/ किसी लड़की से नहीं हुआ बलात्कार/ नहीं छॆड़ी गई कोई युवती/ किसी चौराहे पर/ फ़ब्तियां भी नहीं कसी गयीं किसी पर/ नहीं बनाया किसी ने किसी का “एसएमएस”/ नहीं मारा पुलिस के किसी औरत को थप्पड़/ नहीं हुए सड़कों पर प्रदर्शन/ आज का दिन बहुत ही अच्छा बीता/ पकड़े गए रिश्वतखोर अफ़सर/ रंगरेलियां मनाते नेता/ ब्ल्यू फ़िल्म देखते साधु/ कमाल का रहा आज का दिन./ कि एकाएक घट गयी महंगाई/ आदमी ने चैन की रोटी खाई/ नहीं हुई कोई सड़क दुर्घटना/ एक बच्चा पार कर गया सड़क/ बिल्कुल साबूत? कुछ नहीं हुआ उसको/ आज का दिन बहुत अच्छा बीता/ आज मैंने देखा/ बहुत अच्छा सपना देखा/ आज का दिन बहुत अच्छा बीता.
मंजु पाण्डॆय “उदिता”
“एक हक़ीकत,एक ख़्वाब…!”
तेरी यादों के एक-एक फंदे/ उंगलियो की पोर-पोर गिनते हुए/ उलझाती सुलझाती रही/ बुनती रही खूबसूरत गलीचा/ अपनी जिंदगी का…/ बालिश्त-भर बुनने की / खुशी का एहसास/ मुस्कान बन अधरों तक / आते -आते छूट गया एक सिरा../ दो सिरों के बीच / समेटने के लिए ये जिन्दगी/ तेरा साथ भी तो जरूरी है न!/ वर्ना उधड़ने लगता है/ एक पल में जिंदगी का / इस क़दर खूबसूरत गलीचा
(२) एक काली स्याह चादर/
सिमट गई एक पल में ही / सारी सुखद अनुभूतियाँ / सारे दायरे एक-एक कर/ भोर की किरण जगा गई / उम्मीद की एक नई लौ / सूरज के चढ़ने के साथ/ चढ़ने लगी परवान मेरी आशाएं/ मेरा विश्वास / ये अरुणिम रश्मियाँ / दिखाएंगी नयी राह / ले जायेंगी मुझे / उस क्षितिज तक/ जहाँ पीछे छूट जाएगा / मेरा अतीत/ मेरा दुःख / तिरोहित हो जाएगा / क्षोभ और करुणा का अथाह खारा सागर।
पीदयाल श्रीवास्तव
“नदी कंधे पर”
अगर हमारे बस में होता/ नदी उठाकर घर ले आते।/ अपने घर के ठीक सामने/ उसको हम हर रोज बहाते/ कूद-कूद कर उछल-उछलकर,/ हम मित्रों के साथ नहाते/ कभी तैरते, कभी डूबते,/ इतराते गाते मस्ताते/ नदी आई है’ आओ नहाने,/ आमंत्रित सबको करवाते/ सभी उपस्थित भद्र जनों का/ नदिया से परिचय करवाते/ यदि हमारे मन में आता,/ झटपट नदी पार कर जाते/ खड़े-खड़े उस पार नदी के/ मम्मी-मम्मी हम चिल्लाते/ शाम ढले फिर नदी उठाकर/ अपने कंधे पर रखवाते / लाए जहां से थे हम उसको / जाकर उसे वहीं रख आते
इंदिरा किसलय
बर्बरता के अणु
प्रकृति परिवर्तन लाएगी /कालक्रम में कुछ ऐसा होगा/ मनुष्य की चोंच निकल आएगी /तुम ऐसी ही किसी/ संभावित व्याख्या से खुश हो / तुम्हें लगता है/ कुर्सियां अनाज उगाएंगी ?/ कुर्सियां अनाज में तब्दील हो जाएंगी?/ कुर्सी खाकर तुम्हारा/ गुजारा हो जाएगा / शायद तुम थाली में/ मशीनें खाने के लिये भी तैयार हो /प्रयोगशाला में ऐसा कोई/ कैप्सूल तो नहीं/ बनवा रहे हो / जिसे खाकर अन्न और अन्नदाता के/ मोहताज नहीं रहोगे / तुममें बर्बरता के अणु/ यूं ही नहीं/ उपजे/ उर्वरक का पता है हमें / विचार करो/ करो या मरो/ आजादी की लड़ाई में/ सुना गया था/ क्या होगा अगर/ खेतों में बंदूकें उगने लगें/ और आसमान से/ बारिश की जगह/ बरसने लगें/गोलियां ??????.
डा.गोवर्धन साहू.
घाट का अभिलाषी शिला
सफ़लता के तनिक दूर मैं /रह गया मैं जो रह गया/जीवन के तमाम प्रयासों के बीच/असफ़लता का सहारा लिए/हो न सका कभी परिपूर्ण/बनके घाट का एक अभिलाषी शिला.
जीवन को नापने का प्रयास.
(2)बदल जाता है दिनांक के बाद दिनांक/दीवार में टंगा हुआ केलैण्डर में/तुच्छ लगता है आने वाला दिन/बीते हुए दिनों से अनजान/खण्ड-विखण्ड हर एक पल/सृष्टि के महाकाल में/मानव बांध रखने के लिए/असफ़ल प्रयास/जीवन को नापना, मात्र एक व्यर्थ असफ़लता.
sकविता का लोक काफ़ी विस्तारित है. कविता सिर्फ़ भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में लिखी-पढ़ी जा रही है और अनुवादित होकर समुचे विश्व में भ्रमण भी करती है. “लोक की कविता” शीर्षक से हम कविता के लोक की अगले अंक में विस्तार से चर्चा करेंगे.
गोवर्धन यादव

*नाम–गोवर्धन यादव *पिता-. स्व.श्री.भिक्कुलाल यादव *जन्म स्थान -मुलताई.(जिला) बैतुल.म.प्र. * जन्म तिथि- 17-7-1944 *शिक्षा – स्नातक *पांच दशक पूर्व कविताऒं के माध्यम से साहित्य-जगत में प्रवेश *देश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन *आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन *करीब पैतीस कृतियों पर समीक्षाएं *कृतियाँ * महुआ के वृक्ष ( कहानी संग्रह ) सतलुज प्रकाशन पंचकुला(हरियाणा) महुआ के वृक्ष (२) तीस बरस साह*तीस बरस घाटी (कहानी संग्रह,) वैभव प्रकाशन रायपुर (छ,ग.)
पी़डीएफ ईबुक – गोवर्धन यादव का कहानी संग्रह- महुआ के वृक्ष / पीडीएफ ई बुक// :गोवर्धन यादव का कहानी संग्रह – तीस बरस घाटी / पी.डी.एफ़. ई बुक- कहानी संग्रह-अपने-अपने आसन / पीडीएफ ईबुक – गोवर्धन यादव का कविता संग्रह – बचे हुए समय में / पीडीएफ ईबुक : गोवर्धन यादव का लघुकथा संग्रह / कौमुदी महोत्सव – हमारे तीज त्यौहार /पीडीएफ़- देश-विदेश की यात्राएं / पीडीएफ़-समीक्षा-आलेख की ई-बुक्स / पीडीएफ़-दृष्य की अपेक्षा अदृष्य रहस्यमय होता है/पीडीएफ़-आलेख-मायावी दुनियां/ पीडॆएफ़-अकेले नहीं हैं हम / पीडीएफ़-गरजते-बरसते सावन के बीच खनकते गीत और फ़िल्मी दुनियां तथा अन्य आलेख / पीडीएफ़-हिन्दी-देश से परदेश तक तथा अन्य आलेख /पीडीएफ़-कथा साहित्य में म.प्र. का योगदान तथा अन्य आलेख / पीडीएफ़-दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन तथा अन्य आलेख./ पीडीएफ़- पर्यावरण पर केन्दत विशेष आलेख / पीडीएफ़-कहानी पोस्टकार्ड की एवं अन्य आलेख./ पीडीएफ़-ऋषि परम्परा के प्रतीक एवं अन्य आलेख.-
*सम्मान *म.प्र.हिन्दी साहित्य सम्मेलन छिंन्दवाडा द्वारा”सारस्वत सम्मान” *राष्ट्रीय राजभाषापीठ इलाहाबाद द्वारा “भारती रत्न “ *साहित्य समिति मुलताई द्वारा” सारस्वत सम्मान” *सृजन सम्मान रायपुर(छ.ग.)द्वारा” लघुकथा गौरव सम्मान” *सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी खण्डवा द्वारा कमल सरोवर दुष्यंतकुमार सम्मान *अखिल भारतीय बालसाहित्य संगोष्टी भीलवाडा(राज.) द्वारा”सृजन सम्मान” *बालप्रहरी अलमोडा(उत्तरांचल)द्वारा सृजन श्री सम्मान *साहित्यिक-सांस्कृतिक कला संगम अकादमी परियावां(प्रतापगघ्ह)द्वारा “विद्धावचस्पति स.
103,कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001

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