उपन्यास अंशः शेष अशेष – पहचान-शैल अग्रवाल

पीछे सबकुछ छोड़कर आए लोगों का वह टुकड़े-टुकड़े हुआ देश था, जहां खुश रह पानाअसंभव नहीं, पर बेहद मुश्किल जरूर था। कई ऐसे थे जो अभी तक नयी पहचान को आत्मसात नहीं कर पाए थे।… घरबार तो छूटा लोगों का, परन्तु मुसीबतें और रंजिशें नहीं।आगे-आगे अब और जाने क्या हो? जान पहचान के, आसपास के, कई ऐसे थे जिनकी पिछली पीढ़ी शरणार्थियों की थी। खानाबदोश या राजनीतिक शरणार्थी… पिता, बाबा, चाचा, वगैरह, सब अभी भी अपने उसी पुराने दर्द में ही जीते थे…दिनरात कुर्बानियों की रौ में बहते रहते और वे मां चाची, दादी, जो रात-दिन चौके में सुलगते चूल्हे से भी ज्यादा सुलगती रहती थीं, न एक रोटी ढंग से पका पाती उनके लिए, न एक ख्वाइश। और तब उनकी वह सारी बेचैनी आने वाली पीढ़ी को दूध और घुट्टी में पीनी पड़ती। वही पी-पीकरही तो बड़ी हो रही है यह।
‘… इतनी यह नफरत…गहरे रूह तक पैठी हुई… बेचैन ये रूहें कहीं बिखरे घरबार को सहेजते समेटते कई-कई पीढ़ियां न निकाल दें !’ मनु सोचती और  आत्मा तक बेचैन हो उठती।
बोसनिआ, लाओस, काबुल, ईरान, लीबिया जाने कहां –कहां के भटके लोगों की कौम थी वह उसके आसपास। इनका अब कोई देश नहीं , बस धरम ही रह गया था और रह गए थे बदले की आग भड़काने वाले ठेकेदार। कश्मीरी, तामिल, बंगलादेशी जाने कितनी-कितनी पार्टियां थीं और उतनी ही समीतियां भी। आए दिन नए प्रस्ताव पास होते और अगले दिन ही खारिज भी हो जाते….कभी पैसे की कमी से तो कभी हिम्मत और लगन की कमी से। आए दिन ही समीतियों की मीटिंग होती और फिर नए जोश से दुगने परचे बंटते। ऐसा ही एक भटका हुआ परचा मनु के हाथों भी आ पहुँचा था और वह भी अचानक ही।

पढते ही सिर से पैर तक दहक उठी थी मनु…’ कैसे कोई आजभी, विश्वीकरण के इस युग में भी ऐसी सोच रख सकता है …वह भी युवा पीढी के साथ…जो संबल और भविष्य ही नहीं, पहचान है उनकी…. यहां हजारो मील दूर, एक नए और तेजी से बदलते हुए नए समाज में थमी और सुलझी सोच की जरूरत है। कैसे कोई घर और समाज का बड़ा और जिम्मेदार ऐसे समझा सकता है अपने युवाओं को, कि जाओ विध्यालय और समाज में अभद्र मनमानी करो। साजिशें करो। दूसरे धर्म की भोली-भाली लड़कियों को बहकाओ। अपने धर्म में शामिल करो। और अगर ऐसा न कर पाओ तो जी भरकर मौज-मस्ती करो और फिर खराब करके छोड़ दो उन्हें। क्योंकि यही बस यही एक तरीका था उनकी आखों में बदला लेने का।…
‘शैतानी इन दिमागों की जंगलगी यह सोच बदलनी ही होगी …यही एक तरीका है शान्ति और सभ्यता से जीने का। आंख के बदले दूसरी आँख फोड़ते चले गए तो एक दिन पूरी दुनिया ही अन्धी हो जाएगी और अन्धी दुनिया में तो सबके लिए ही भटकन है! क्यों नहीं समझ पाते ये भी इतनी ज़रा सी इस बात को? पुरानी शिकायतों की गठरी क्यों अभी तक साथ रख रखी है

इतनी नफरत क्यों पाल रखी है इन्होंने और बजाय एक-दूसरे का सहारा बनने के क्यों रोज ही एक नयी गांठ, नया घाव खोलकरबैठ जाते हैं ये? ‘
मनु उम्र में छोटी जरूर थी पर उसकी सोच और संवेदना बेहद ही जिम्मेदार और सुलझी हुई थी। नई पीढ़ी में भी तो कई नादान ऐसे थे जो इस नफरत की झुलस से नहीं बच पा रहे थे। सांप्रदायिक झगड़ों और मनमुटाव की आंच अब मैनचेस्टर और बर्नली जैसी जगहों में ही नही एडिनबरा, ग्लास्को और बरमिंघम होती, अमेरिका, यूरोप, एशिया, अप्रीका चारो महाद्वीपों को चपेट में ले चुकी थी। करांची और श्रीनगर में ही नहीं, लंदन और न्यूयौर्क में भी धमाके होने लगे थे अब तो। आए दिन के झगड़े और तोड़फोड़ आम बातें हो चली थीं।  कभी कनाडा में, तो कभी ब्रैडफोर्ड में, कभी काबुल में तो  कभी कहीं, तो कभी कहीं और अगले पल ही…कोई भी तो सुरक्षित नहीं था अब  दुनिया के किसी भी कोने में, कहीं भी और कभी भी। आंसुओं का सैलाब था चारो तरफ.और पोंछने वाला कोई नहीं था , हां बेदर्दी से निचोड़ने वाले जरूर कई-कई। फिर आया वह ‘ 9-9-‘ और सभी शक के दायरे में आ गए। कोई पहचान नहीं बची किसीकी बस एक रंग रह गया । और रहगई एक बेबसी। इन अंग्रेजों के लिए तो वैसे भी सब पाकी ही थे।
मनु ने निश्चय किया कि युवाओं का एक नया और समझदार व संगठित चेहरा लाने की जरूरत है इस बिखरती और भटकती सोच के विरोध में। मनु की ‘ फ्रैंड्स औफ अर्थ’ संस्था में बीस सदस्य हो चुके थे फूलों से सहृदय और मुस्कुराते, हर देश, हर जाति, हर रंग के। जोनुस ने कब सारा कार्य भार अपने हाथों ले लिया मनु को पता ही नहीं चल पाया। शुक्रवार को वह युवाओं की समस्या सुनते थे और नाप-तौलकर, सोच-समझकर ही कोई राय दी जाती थी। समस्याएं जो वे अपने परिवार से नहीं बांट पाते थे, इनसे जी भर-भरकर बांटने लगे थे।
मनप्रीत और मो (मोहम्मद) की समस्या बिल्कुल जारा और डेविड जैसी ही थी। दोनों के ही परिवार वाले सख्त खिलाफ थे उनके और उनकी शादी के। मनप्रीत की मां ने फांसी लगाकर मरने की धमकी दे रखी थी तो पापा ने जिंदा ही उसे जमीन में गाड़ देने की। जारा का झटपट रिश्ता पापा के दोस्त मीर अंकल से तय कर दिया गया था। बेटी जात धरम से बाहर जाए, इससे तो परिवार ने यही बेहतर समझा था। और तब बीसों सदस्यों की घंटों की तर्क-वितर्क से भरी बेहद सुलझी और शांत बैठक के बाद यह निश्चित किया गया कि दोनों युगलों की रजिस्टर्ड शादी करा दी जाए और फिर चारो साल दो साल के लिए मां-बाप की पहुंच से दूर रहें जबतक  गुस्से का गुबार थम न जाए…आखिर पहले भी तो स्वयंबर और गंधर्व विवाह होते ही थे और फिर क्या पता इसी तरह के मेल-मिलापों से ही यह नफरत की दीवारें कमजोर पड़ पाएं…शायद यही एक रास्ता हो। सबको अच्छा लगा था जोनुस का सुझाव और सर्व सम्मति से अगले पल ही पास भी हो गया था। शादी की तारीख तीन महीने के बाद, इम्तहान के बाद की ही निकाली गयी …आखिर पढ़ाई भी तो उतनी ही जरूरी थी और वैसे भी शादी में शामिल होनेवाले, तैयारी करने वाले,  वही बीस लोग ही तो थे जो उस समय उस कमरे में मौजूद थे। घर की एकएक चीज  सबने मिलकर जुटाई थी  और नव विवाहितों की गृहस्थी व्यवस्थित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। एक उल्लासमय और सन्तोष जनक दिन था वह सत्रह अगस्त का जब पृथ्वी के उन मित्रों ने अपने मित्रों को उनकी हर संभव खुशियों की सौगात दी थी। एक ही व्यक्ति मां बाप और सखा कैसे बन सकता है इसकी अनूठी मिसाल थे वे अब एक दूसरे के लिए।
अलौकिक या पूर्व निर्धारित…आम आदमी जिसे भाग्य या किस्मत कहता है, कुछ ऐसा ही तो था वह दिन… उमंगों से भरपूर। और इन सब बातों में विश्वास न करते हुए भी मनु को वह दिन सुबह से ही कुछ विशेष संभावनाओं से भरा और दिव्य लग रहा था…एक ऐसा दिन, जब पक्षी आकाश में उड़ते उड़ते गाना सुनाते हैं और खुशी से झूमती डालियां फूलों से रास्ता भर देती हैं। याद आते ही मनु का मन आज भी तो बादलों से भी ऊँची उड़ान लेने लगता है। मनु के मन की सारी पुलक मानो प्रकृति में ही जा समाई थी उस दिन।
शादी की भागम-भाग भरी व्यस्तता के बाद, दिन भर की थकान और उत्तेजना को शांत करने के लिए मनु जब अपना स्केच पैड और तूलिका लेकर पार्क में पहुंची तो जोनुस वहांपर मौजूद था…वैसे ही शांत और चुपचाप योगी-सा अपने काम में व्यस्त, मानो दिन भर की हलचल एक लहर थी जो आई और चली गयी। पर प्रकृति ने तो कुछ और ही सोच रखा था दोनों के लिए। साधारण सी जीन और सफेद एरन स्वेटर में खड़ी मनु को अचानक ही तेज हवा में झरझर झरती एपल और चेरी ब्लौजम की कोमल सफेद गुलाबी पत्तियों ने बाल, कान और कपड़ों पर गिर गिरकर दुल्हन सा सजा दिया। गालों और होठों पर ही नहीं, चंद नटखट तो झुकी पलकों तक पर जा बैठी थीं। और तब पता नहीं यह उसकी निष्कलुष नजर से नहाई-धोई मनु के रूप का जादू था या फिर होनी के षडयंत्र का, जोनुस की निष्पलक दृष्टि बारबार ही ऊदे बादलों की जगह मनु के उड़ते बालों में उलझकर रह जा रही थी और सोच ही नहीं उसकी तूलिका तक बग़ावत कर बैठी थी अब तो उससे। अब जोनुस की आंखों के आगे हरियाली और फूलों से लदी वादियां नहीं, सफेद एरन स्वेटर की गोलाइयों के उतार चढ़ाव थे। झुके ऊदे रंग-बिरंगे बादल नहीं, हवा में बिखरकर बेतरतीब उड़ रहे मनु के घुंघराले बाल और पंखुरियों से नाजुक होठ थे। और तब उन अलकों और उनमें गुंथी गुलाबी पंखुड़ियां, दोनों को ही बेहद प्यार और परवाह से कागज पर समेट लिया था जोनुस ने। उस अनुरागी पल में शर्मीले सूरज से भी ज्यादा अरुणिमा और रंग जो दिख रहे थे उसे मनु के सिंदूरी गालों पर।
जोनुस की तरफ चौकलेट बार बढ़ाती मनु की दृष्टि जब उसके कैनवस पर गई तो वहीं ठिठककर रह गई। “यह क्या बना डाला है जोनुस तुमने?“ पूछने तक की हिम्मत न जुटा पाई वह। पल भर में ही पैरों के नीचे झूमती नरम ऊदी घास की तरह वह भी जाने किन सपनों की हरी भरी वादियों में रच बस गई थी। जोनुस ने भी तो उसी पल सबकुछ पढ़ और जान लिया था, उसके अभिसारी मन को भी, और सामीप्य से उठती नन्ही वादियों की उठती गिरती हलचल को भी। और तब जैसे फूलों की टहनियों ने कोमल किरनों को बांहों में समेट रखा था, एक नई उष्मा और आवेश से जोनुस ने मनु को बांहों में ले लिया और उसकी बंद पलकों पर अटकी कांपती पंखुड़ी को ही नहीं, एक-एक करके बालों में गुंथी सारी कि सारी पंखुड़ियों को भी होठों से ही हटाना शुरु कर दिया। पता नहीं पास में झूमती चम्पई झाड़ियों का मादक नशा था या मन में छुपी नेह कस्तूरी का, कैनवस, रंग, ब्रश ही क्या, अब तो खुद भी वे सारी दुनिया से अलग कहीं दूर जा गिरे थे और कांपते हाथ और होठ जाने किन किन अनजान और रहस्यमय वादियों में खुद को ही ढूंढे जा रहे थे।
हवा में उड़ती वे चेरी और एपल ब्लौजम की पत्तियां अब मनु को ही नहीं, जोनुस को भी दुलरा रही थीं। एक दूसरे में रिझे-बिंधे वे निःशब्द बुत बन चुके थे और खुद उनके अपने स्पंदन के शोर ने बहते झरने की गूंज और चिड़ियों का कलरव सब कुछ डुबो दिया था कानों से। जोनुस तो जोनुस, पत्तों से गुजरती हवा की सरसराहट से भी ज्यादा चौकन्नी मनु तक आसपास के शोरगुल, खेलते बच्चे और टहलते दौड़ते वयस्क सबसे ही बेखबर हो चुकी थी।
उनकी इस तंद्रा को उस नन्ही बच्ची ने आकर तोड़ा जो आराम से बैठकर बिखरे रंग और ब्रशों से मनु के कैनवस को एक नया ही रूप और आकार दे रही थी और उसकी मां दौड़ती-भागती दूर से ही हाथ हिला-हिलाकर मना करती, उसे रोकती हुई, भागी चली आ रही थी -.” ओह गॉड, यह क्या कर डाला है तुमने? ब्रश नीचे रखो बेबी!” कह-कहकर अब उसे समझा और धमका रही थी।
मनु के कैनवस पर अब उन क्रीडारत कबूतरों की जगह दो बड़े बड़े धब्बे थे और चिप्स हैम्बर्गर की चिकनाई और टोमैटो सौस में डूबी उंगलियों के कई-कई  नन्हे नन्हे निशान थे। जोनुस के कैनवस का तो आसपास क्या दूरदूर तक कोई अता-पता ही नहीं था ।
हांफती मां भी अबतक वहां आ पहुंची थी और कलाकार की लापरवाही से परेशान और क्षुब्द थी। बच्ची को गोदी में उठाकर उसके हाथ पैर …मुंह और बाल साफ करने शुरु कर दिए। ‘कितने लापरवाह होते हैं यह कलाकार भी। पता नहीं किसका सामान है? लगता तो नहीं कि कैनवस या ट्यूब के अन्दर कोई भी रंग बचा है ! ‘ बड़बड़ाती उसकी आखें अभी भी बिखरे सामान के मालिक को ढूंढ रही थीं।
उसे चित्रकार पर गुस्सा भी आ रहा था और सहानुभूति भी ….’ कौन जाने कितने दिन, घंटों की मेहनत बेकार हुई बिचारे की ! ‘ सोच-सोचकर कम परेशान नहीं थी वह अब।
“ कैथलीन, ओह माई गॉड, व्हाट हैव यू डन ? से सॉरी टू द….  “ नन्ही कैथलीन और उसकी मां, दोनों ही भौंचक्की सी इधर-उधऱ देख रही थीं- किसका हो सकता है, इतनी दूर पड़ा यह सामान…इनका तो हरगिज ही नहीं? एक दूसरे में पूरी तरह से खोए और आलिंगनबद्ध मनु और जोनुस को देखकर उस वक्त मां भी तो बच्ची की तरह ही, बस यही सोच पायी थी।
और तब मस्त बच्ची और परेशान व झुंझलाई मां को देखकर, न चाहते हुए भी, दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े थे। आज उन्हें किसी भी नुकसानकी परवाह नहीं थी। एक दूसरे में डूबकर, खुदको खोकर, एक नया और अनमोल खज़ाना जो पा लिया था उन्होंने। इसके पहले कि जोनुस की आखों की शरारती चमक से सम्मोहित और उद्वेलित मनु कुछ भी कह पाए, जोनुस हवा सी ही सरसराहट से आगे झुककर उसके कानों में फुसफुसाया था, “ देखो, अब तुम मुझसे कुछ मत कहना मनु, मेरी नहीं, यह तो इस मन की ही शरारत थी। वही गुनहगार है तुम्हारा। अब जो भी सजा देनी है, इसीको देना तुम। “
“तो फिर अपने इस धृष्ट मन से कहो कि आज शाम को ही घर आकर मुझसे मिले और अपनी सफाई में जो भी कहना है , साफ़ साफ़ खुलकर कहे !“
बिखरे रंग और कैनवस को समेटती मनु ने शरारत से मुस्कुराते हुए, बिना कुछ सोचे समझे, बस यही जबाव दिया था उस समय तो।
“जरूर, क्यों नहीं!” जोनुस ने भी उसी चुस्ती से शरारत भरा वह आमंत्रण स्वीकार कर लिया था।
वक्त सी उलझी नाज़ुक पंखुड़ियों को हिफ़ाज़त से अँजुरी में भरकर जोनुस का मन हवा के सात घोड़ों पर जा बैठा था। और तब उसी एक पल में ही शाम की ही क्या, पूरी जिन्दगी की ही सारी  तैयारियां कर डाली थीं जोनुस ने। दर्जन भर दहकते सुर्ख गुलाब और मनु की आखों-सी ही चमकती हीरे की अगूंठी लेकर ही तो पहुंचा था वह उस शाम मनु के फ्लैट पर और चौकलेट सी तारतार होती मनु से अपने प्यार की बेताब घोषणा भी हिम्मत जुटाकर एक ही सांस में दे डाली थी…उसी पल, वहीं दरवाजे पर खड़े-खड़े ही। अगूंठी तक तो बड़ी मुश्किल से पहना पाया था जोनुस, क्योंकि हाथ तो पलभर के लिए भी मनु को छोड़ने को तैयार ही नहीं थे।
तुरंत ही मझली-सी फड़कती और फड़फड़ाती मनु उसकी बाहों से फिसलकर बाहर भी आ गई थी। हंसकर बोली थी-, “नहीं! इतनी जल्दी क्या है…पहले हम एक-दूसरे को जान तो लें जोनुस?”
और तब भिखारी सी करुण आवाज में पूछा था जोनुस ने, “ इतनी कठोर क्यों हो मनु, क्या दया करुणा नहीं आती तुम्हें मुझपर?”
और जोनुस को आश्चर्य-चकित करती, अबूझ सुख में डुबोती, अगले दिन ही अपने सारे सामान से लदी-फंदी मनु दरवाजे पर खड़ी थी … उसके घर साथ रहने के लिए आ पहुंची थी वह।
भावातिरेक से बन्द आँखों में पूरी तरह से मनु को कैद कर लिया था जोनुस ने तब उसी पल। उसका और अपना बोझ हलका करते हुए, हाथों से सारा सामान लेते , गूंजती-सी आवाज में बस इतना ही तो पूछ पाया था, “ मेरे इस उल्लासित घर और जीवन को सूना करती अब कभी वापस तो नहीं जाओगी मनु?”
और तब एक दृढ़ “नहीं!” के साथ मनु तुरंत ही कांपती लता-सी लिपट गई थी जोनुस से। इसके पहले कि मन और शरीर में उठते उस ताप से पूरी-की-पूरी पिघल जाए मनु, समेट लिया था जोनुस ने…उसे भी और उसकी भटकती सोच को भी। जीवन भर के लिए तने सा सहारा जो बन चुका था जोनुस अपनी आत्म-वल्लरी का।  सशक्त बाहों में लिपटी लरजती-कांपती मनु ने भी दोनों के भविष्य के बारे में कई-कई दृढ़ संकल्प ले डाले थे उसी पल…अम्मा बाबा और दादी को तुरंत ही बताना होगा।मना लेगी सबको वह। उसके बाद तो जीवन के हर कमजोर पड़ते क्षण में सुख और सहारे के लिए बस यही करती आयी है मनु…जोनुस के पास जाना, जोनुस की सलाह लेना, जोनुस का सानिध्य एक सुखद आदत थी…एक नई पहचान थी अब मनु के जीवन की… बाहर से बेहद ही मज़बूत और समझदार दिखती, बच्चों-सी नादान और कमजोर ही तो थी मनु …

(आगामी उपन्यास ‘ शेष अशेष ‘ से साभार…)

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