माह के कविः अमर परमार/ लेखनी-मार्च-अप्रैल 17

झोंका

हम शान से जीते थे
रुतबा था एक गज़ब ही हमारा, मित्र मंडली में
जब सब बताशे लूटने में रहते
हम अपनी पोथी में सिर खपाते
सब आश्चर्य करते कि कैसे मैं ही बचा हूँ,
बचा पाया हूँ अपने बगीचे को, इस बयार से।
मैंने कोई मौका ही नहीं दिया था
बाड़ लगाए रखी हमेशा
ताकि बचा रहूँ मैं, रोगी बनने से
अपने दोस्तों की तरह
मधुवन में भटकने से, खो जाने से
पर आज सुबह ही
एक हवा का झोंका, उसी हवा का
मेरे बगीचे से गुज़र गया
और इस बगीचे की सब कलियाँ खिल गईं
फूल बन गईं
और अब मैं भी किसी के लिए
गुलाब चुन रहा हूँ।

क्या वो बच जाती?


उस दिन एक बूढ़ी औरत
कोशिश कर रही थी, सड़क पार करने की
काफी रेला था सड़क पर वाहनों का
सो पार करने में घबरा रही थी वह
मैंने भी उसे देखा था
सोचा कि हाथ पकड़ कर पार करा दूँ
मेरी सोचा-विचारी में ही
उसने अपने कदम बढ़ा दिए
और एक गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी
वृद्धा ने भी दम तोड़ दिया शायद
मैंने दृश्य देखा, फिर आगे बढ़ चला
ऊपरवाले को शुक्रिया कहा
बच गए, नहीं तो आज उसे बचाने के फेर में
मैं भी जाता
मैं उसकी मदद करता
तो क्या वो बच जाती?

अबला

मैंने उससे पूछा –
“स्वर्ग पाने के लिए क्या किया जाए?”
वह बोला –
“सब अच्छे काम करो”
मैंने उससे पूछा –
“नरक पाने के लिए क्या किया जाए?”
वह बोला –
“सब बुरे काम करो”
मैंने उससे पूछा –
“स्वर्ग भोगने के लिए क्या किया जाए, धरती पर ही?”
वह बोला –
“अच्छे ‘आदमी’ ही बन जाओ”
मैंने उससे पूछा –
“नरक भोगने के लिए क्या किया जाए, धरती पर ही?”
वह बोला –
“कुछ नहीं, बस दुआ करो कि अगले जन्म में
‘औरत’ ही बन जाओ।“

काल कोठरी 

मुझे गर्व है अपने लड़का होने पर
खुशकिस्मत मानता हूँ खुद को
कि ज़िंदा हूँ मैं
अपनी तीन बहिनों के बाद
मैं इकलौता लड़का था।
मेरी तीनों बहिनें,
जिन्हें कोख में ही मार गिराया था।
उन तीन मरी लड़कियों के बाद
मैं अकेला ज़िंदा बचा, लड़का था।
जब तक कि सोनोग्राफी से पता न चल गया
कि मैं एक लड़का हूँ;
मैं डरा रहता था
अपनी माँ की कोख में भी
कहीं ये मुझे भी न मार डालें
कहीं मेरी माँ को, मेरी बहिनों की तरह,
मेरा साथ भी न छोड़ना पड़े
पर अब मैं निश्चिंत हूँ
क्योंकि मैं ही तो हूँ अपने कुल का चिराग
चिराग, जो जगा है
मेरी बहिनों की ‘चिता’ से
लड़के की फसल पकी थी, सूरज की धूप से नहीं
लड़कियों की चिता से।

एक ज्वार

खून तो मेरा भी उबल रहा है
कइयों की तरह
गुस्सा भी आता है
विचार आते हैं एक से एक क्रांतिकारी
सोचता हूँ कि अब उठना होगा युवाओं को
तब ही निकलेगा हल, तमाम समस्याओं का
शायद शुरुआत करनी होगी मुझे ही
नेतृत्व करना होगा, एक नई क्रांति का
जो कर सकेगा व्यवस्था परिवर्तन
हाँ! युवाओं में है वो जोश, वो शक्ति
सो मुझमें भी
लग रहा है कि छोड़ दूँ सबकुछ
और उतर जाऊँ रणक्षेत्र में
आखिर यह मेरा भी तो देश है
कई लोग, महापुरुष खड़े हुए थे,
इस देश के लिए, समाज के लिए
अपना सर्वस्व अर्पण कर
प्रेरणा देते हैं ऐसे लोग, मुझे
कि मैं भी कुछ कर जाऊँ
देश हित में
कर्ज़ चुका दूँ मातृभूमि का
बस एक बार थोड़े से पैसे आ जाने दो
कमा लेने दो
फिर देखना।

गुम हो गया

सुबह जिसके सहारे मैं उठता था
अंगड़ाइयाँ लेता था
वो चिड़िया की चीं-चीं आज बंद है

जो आती थी उस खिड़की से
मुसकाती-मंद, रोशनी-हवा बंद है

घर से निकलता था जब भी बाहर
तब जो साथ चलता था, वह श्वान भी आज गुम है

लिखता था जिन कागजों पर
वो आज कलम सहित गुम हैं

हर दिन बनता था दिन मेरा
वो दिन भी तो आज कम है

अब तो हर घड़ी मेरी आँखों में सपने हैं
क्योंकि मेरी आँखें जो बंद हैं।

मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूँ

आधी सी उम्र अपनी झोंक दी है
महिला उत्थान में मैंने
सभाओं में जाता हूँ
विचार-विमर्श करता हूँ, समाज में, समाज के लोगों से
कि क्या अहमियत है नारी की
समाज में, धरती पर
कि क्यों ज़रूरी है
एक बिटिया परिवार में
बोलता हूँ, मंचों से नारी के बारे में।
माइक लगाकर भी चीखता हूँ
कि कहीं तो समझ आएगी लोगों को
जो करवाते हैं लिंग जाँच
फिर करवाते हैं गर्भपात
जाता हूँ बैठकों में महिला मण्डल की भी
समझता हूँ परेशानियाँ एवं समस्याएँ
जगत-जननियों की
फिर मिलकर कोशिश करता हूँ
इनका समाधान ढूँढने की
दिल से चाह है मेरी कि सम्मान मिले हर नारी को
न पाये वो कभी अपेक्षित स्वयं को
मेरी स्वयं भी तो चार बेटियाँ हैं
हाँ! चार लड़कियाँ
बहुत होती हैं चार लड़कियाँ
लगता है कितना बोझ सा है मुझ पर
इनकी शादी वग़ैरह का
कितनी सारी जिम्मेदारियाँ होती हैं
काश! कि मेरा एक लड़का होता
मेरा वारिस होता।

दहन

मौसम है सर्द और जरूरतें हैं मेरी कई
तो कुछ तो जलाना होगा
हाथ सेंकने के लिए
गरीब कहते हैं लोग मुझे
आज नसीब न हुई जलावन तो
थोड़ा सा खुद को जलाकर ही गर्म रख लूँगा
खुद को।
खुद को?

जड़ें

विश्वास की जड़ों को मत उखाड़िये
मत काटिए
क्योंकि ये जड़ें ही तो पहुँचाती है पानी
रिश्तों के वटवृक्ष को।

सर्वस्व

दान किया था एक मैंने
अपने सर्वस्व का, ‘पर’ की खातिर
पर क्या पता था मुझे कि एक दिन
वही ग्राही लौटा देगा
उस का सर्वस्व, ब्याज़ सहित
मुझे।

सूर्य की ऊर्जा

सूर्य समाये हुए है
स्व में इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति
स्वयं को भस्म करने की भी।

ईमानी का बाज़ार

बाज़ार गरम है बेईमानी का
नदी, इस बाज़ार की अविराम प्रवाहित हो रही,
बड़े वेग से।
सब उसमें हाथ धो रहे
तो क्यों न मैं भी…….

बयार

पंछी अकेला उड़ रहा था
गगन में।
यकायक तेज बयार आई
और उसे उड़ा कर ले गई।
क्या उसके पंख कमजोर थे?

अमर परमार
9521854433
0amarparmar0@gmail.com
सामुदायिक भवन के पीछे, बी.एल. गौतम, त-14, अम्बेडकर कॉलोनी, कुन्हाड़ी,
कोटा, राजस्थान
पिन कोड – 324008

error: Content is protected !!