लेखनी का यह अंक लघुकथा पर केन्द्रित है। लघुकथा थोड़े में सबकुछ कह देने की और अनकहा गुनन-मनन के लिए छोड़ जाने की विधा है। हम सभी के इर्द-गिर्द ऐसी अनगिनित कथाएं नितनित बिखरी पड़ी रहती हैं, जैसे कि किनारे पर खड़े होने पर भी एक बूंद सहसा उछले और अंतस तक सिहरा जाए या फिर एक चिनगारी अचानक फपोले छोड़ जाए, चमड़ी पर ही नहीं मन पर भी, या एक बात यादों में बरसों चंदन-सी महके, कानों में बारबार गूंजे । इन अविस्मरणीय पलों को शब्दों में पिरोने की कला ही लघुकथा है। लघुकथा आसपास बिखरे मुखरित मौन को ऐसे सहेजती है जैसे कि सात सुर संगीत को। बस तरल और तीव्र नजर के साथ एक सहानुभूति भरी कलम चाहिए। कहानी की तरह ही कहन या कथनी के अनुभव पर आधारित होकर भी लघुकथा पर कहानी नहीं । हाँ कहानी की हर संभावना और विस्तार लिए हुए अवश्य है। कभी-कभी तो एक ही लघुकथा में गेंदे के फूल-सी गुंफित कई-कई कहानियाँ हो सकती है। दूसरी तरफ छोटी से छोटी चन्द शब्दों की लघुकथा भी हो सकती है जैसे कि एक संकेत, एक दृष्टि पर्याप्त है पूरी बात समझाने को। वास्तव में प्यार, नफरत, मजबूरी, अत्याचार आदि शब्द तक, अपने आप में कई -कई लघुकथाएँ समेटे हैं हजार वृतांत, संदर्भ और अध्याय समेटे हुए।
लघुकथाकार बलराम अग्रवाल जी के अनुसार-लघुकथा, उपन्यास और कहानी से इस बिन्दु पर एक अलग विधा सिद्ध होती है कि इसमें पात्रों और परिस्थितियों का मौन मुखर होता है। उपन्यास में मौन को लगभग न के बराबर स्थान मिलता है। उसके सारे कार्य व्यापार मुखर होते हैं। कहानीकार भी मौन की भाषा को पाठक तक पहुंचाना लगभग भूल ही चुके हैं, लेकिन यदि लघुकथाकार भी मौन की भाषा को उस तक पहुंचाने के दायित्व का निर्वाह नहीं करेगा तो इस विधा के जीवित रह पाने का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा।
( बलराम अग्रवाल डॉ. लता अग्रवाल के लघुकथा संग्रह ‘ मूल्य हीनता का संत्रास ‘ की भूमिका में)
इस अंक में हमने 100 से अधिक नई-पुरानी लघु-कथाओं को संग्रहित किया है। उम्मीद है आपको पढ़ने में भी उतना ही आनंद आएगा जितना कि मुझे इन्हे सहेजने में।
-शैल अग्रवाल
पुनश्चः लेखनी का अगला अंक हमने धरती के स्वर्ग कश्मीर पर रखने का मन बनाया है। क्या विचार उठते हैं आपके मन में। कैसा कश्मीर देखना चाहते हैं आप भविष्य में…विषय संबन्धी रचना और विचारों का स्वागत है । भेजने की अंतिम तिथि 20 अक्तूबर-shailagrawal@hotmail.com पर।