हर मानव रूप धारण करने वाला व्यक्ति,अपने- आपमें एक विशेष विचार के मंथन से जुड़ा होता है | जिसका आभास उसके विचारों और उसकी गतिविधियों से ही जाना जा सकता है जहां एक साहित्यकार को उसकी साहित्यिक- कृतियों और संपन्न लेखन को पढने से ही जाना जा सकता है | और जब उसका लेखन साहित्य- जगत के लेखन की हिस्सेदारी से
साहित्य के विशेष अभिव्यक्ति वाले प्रष्टों को छूने की दम भरता है तो उसका परिचय साहित्य के साथ-साथ समाज के संस्थागत क्षेत्रों में भी उभरता चला जाता है | उस श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचीं श्रीमती देवी नांगरानी जी का नाम, हिन्दी-जगत के साथ-साथ कई भाषाओँ के साथ उनके लेखन से जुड़ा है |
करांची (अब पाकिस्तान )- १९४१ में जन्मी श्रीमती देवी जी की मातृ-भाषा सिन्धी रही हो पर उनके संपर्क में आने पर आपको इसका एहसास न होगा कि वह केवल अपनी ही भाषा के इर्द-गिर्द ही रहीं हैं | उनको उर्दू- भाषा को वहां के वातावरण और उस देश (पकिस्तान ) के कारण अपनाना भले ही पड़ा हो किन्तु उन्होंने दूसरी भाषाओँ को भी उतना ही
महत्व दिया है | उर्दू भाषा को उन्होंने इस प्रकार अपनाया कि हिन्दी- सिन्धी भाषाओँ के साथ- साथ कई गजल -संग्रह उर्दू में प्रकाशित किये |
पिछले कई वर्षों से , मैं श्रीमती देवी नांगरानी जी के संपर्क और कहूं कि साहित्यिक संपर्क में आया मैंने अपने आपको साहित्य के इस क्षेत्र में अपने आपको बौना साबित किया | जिसको कहने में मुझे कोई हिचक नहीं होती है | गजल का व्याकरण और लिखने की विधा में वे इतनी माहिर थीं कि मुझे भी उनसे कुछ गजल का व्याकरण सीखने में उत्साह और
प्रोत्साहन दोंनों मिले | तब मैंने सोचा था कि मैं साहित्य के इस अँधेरे में जरूर हूँ लेकिन भोर की प्रतीक्षा में भी हूँ-
अपना अँधेरा मिटा सकूंगा चिराग- ए- दिल के चिराग से,
देवी जी को पढ़ सकूंगा भोर की किरण-भोर के विहाग से |
श्रीमती देवी नांगरानी जी के साहित्यिक- संपर्क में आकर जब उनको न्यू जर्सी की एक कवि-गोष्ठी के मंच पर सुना तो वहाँ गजल और गले दोंनों का ही स्वर-संगम सुनने को मिला | फिर उन्होंने ही गजलों की राजदा असलियत का मुझसे जिक्र किया | उनका कलाम उनकी ज़बानी सुनने को मिला | इसके बाद न्यूयार्क में स्टूडियो रिकार्डिंग में की गयी गजलों
को तरुन्नुम में सुना जिसमें गजल-काव्य और लय दोनों को ही सजा- संवार कर प्रस्तुत किया, सुनकर मन को छू गया |
उन्हीं दिनों न्यूयार्क की संस्था हिन्दी-न्यास के वार्षिक महोत्सव अक्टूबर ९, २०१० में जाने के लिए डॉ. सरिता मेहता केद्वारा, डॉ. सीमा खुराना का निमंत्रण मिला जैसे कि हम उसकी प्रतीक्षा कर रहे हों | मैंने अपनी कार से, श्रीमती देवी जी को साथ लेकर न्यूयार्क से डॉ. सरिता मेहता तथा श्रीमती पूर्णिमा देसाई को पोर्ट- अथोरिटी से लेकर हडसन नदी के किनारे-
किनारे प्राकृतिक दृश्यों के नजारों के साथ, आपस में साहित्यिक चर्चा करते हुए अप-स्टेट न्यूयार्क के ‘पिकअप्सी’ शहर के आयोजन में शामिल हुए | हम सब चारो कवि- कवियत्रियों ने सफलता पूर्वक मंच संभाला उसके बाद संस्था- संचालक ने सभी को हिन्दी -गौरव से सम्मानित किया | जो सबके साथ मिलकर, एक नया प्रयोग था सभी को पसंद आया | देर होने के कारण हम सब डॉ. चंदर के यहाँ रात को रुक गये | सुबह नाश्ता करके वहां पास के स्थानीय मंदिर वेपिन्जर्स फाल्स में मंदिर देखने चले आये और वहीं से न्यू यार्क के लिए कार ड्राइव करते- करते में, मेरी एक गजल के कुछ शेर लिख गये क्योकि श्रीमती देवी जी गजल के माहौल से जोड़ने और कुछ नया सिखाने में माहिर हैं –
झोली में छेद देखे जीने के सबब अटक जायेंगे,
आशाओं के तार ये तार- तार हो भटक जायेंगे |
छान डालेंगे अश्क छानकर पर अवशेष लुढ्केंगे,
सींते- सींते झोली के छेद देवी जी मटक जायेंगे |
आ. देवी जी को कई भाषायों का ज्ञान होने के कारण उन्हें कहीं न कहीं लाभ अवश्य मिल जाता है | भाषायों में- हिन्दी, उर्दू, सिन्धी, तेलगू, मराठी, तथा अंग्रेजी आदि का अच्छा- खासा ज्ञान प्राप्त है | जिसके कारण वह किसी भी वातावरण में अपना स्थान बना लेती हैं | ऊपर से काव्य की प्रतिभा; जो सभी को नहीं मिलती, आपकी इसमें अभिरूचि होने के साथ-साथ कंप्यूटर-तकनीकी की विशेष योग्यता हांसिल होने से आप विश्व के किसी भी साहित्यिक- मंच से जुड़ने में दूर नहीं रहतीं हैं |
श्रीमती देवी नांगरानी जी केवल साहित्यिक गजलों और मंचों तक ही सीमित नहीं रहतीं बल्कि साहित्यकरों को उभारने, उन्हें आयोजित करने, कवि- गोष्ठियां करने में सभी के साथ एक परिवार की तरह जुड़तीं हैं जो हमें हमारी ऊंचाइयों तक नया आसमान छूने की कोशिश की तरफ इसारा करतीं हैं | उनके साथ- संपर्क की हर गोष्ठी, मंच, और वार्ता एक उच्च- कोटि के साहित्य के साथ रहने से हमें बहुत कुछ सीखने और आगे बढ़ने के अवसर मिल जाते हैं |उनका, साहित्यिक मंचों को सुनने का भी एक अलग अंदाज है कि दूसरों से सीखने और उन्हें उत्साहित करने में भी उनका योगदान रहता है | ऐसी ही एक यात्रा, अप्रैल ९,२०११ को, श्रीमती देवी जी के साथ लगभग साढ़े- तीन घंटे की न्यू जर्सी से वाशिंगटन डी.सी. (अमेरिका की राजधानी ) की रही | मेरिलैंड यूनिवर्सिटी, मेरिलेंड में डॉ. टंडन के द्वारा आयोजित भारत से आये कवि-गीतकार डॉ. विष्णु सक्सेना, डॉ. प्रवीन
शुक्ल, हास्य कवि-श्री सर्वेश अस्थाना, प्रसिद्ध गजलकार श्री के.के.सिंह ‘मयंक’ सभी को उत्साह- पूर्वक सुना और डॉ. टंडन जी के यहाँ रात्रि-भोज पर भी साहित्यिक काव्य का ही माहौल रहा | देर रात तक कविताएँ चर्चा में रहीं अतः रात को श्री के.के.सिंह-‘मयंक’ की बेटी- पूजा के यहाँ रुकना पड़ा | फिर दूसरे-दिन हम, उन्हीं कविताओं के माहौल में साढ़े तीन घंटे का सफ़र वाशिंगटन डी. सी. से न्यू जर्सी तक का सफलता- पूर्वक तय किया | कहते हैं सीखने की ललक हो तभी हम कुछ सीख पाते हैं और सीखने के लिए कुछ त्याग और प्रयास जरूरी है तभी श्रीमती देवी जी कहतीं हैं-
काँटों से जख्म मिलता है मरहम गुलाब से,
यूं भी गुलाब बनता मसीहा कभी- कभी |
कृतित्व –
श्रीमती देवी नांगरानी जी ने अपनी कलम को माध्यम बनाकर अपने अंदर की छुपी हुयी भावनाओं को उभारकर एक सतह पर लाने का प्रयास अपनी गजलों के इन गजल – संग्रहों में आसानी से अभिव्यक्त किया है |आज तक उनके लगभग ९ प्रकाशन छप चुके हैं | २००१ के बाद तो उनके एक के बाद एक संग्रह प्रकाशन के द्वार पर पहुंचे | लगता है कि कहीं उनका साहित्य, किसी समय विशेष की ताक में था क्योंकि उनके प्रकशन किसी एक भाषा के नहीं बल्कि अलग- अलग भाषाओँ के संग्रह के संग्रह हैं |
साहित्यिक प्रकाशन का सफर श्रीमती देवी जी ने २००४ से शुरू, एक ‘सिन्धी’ – गजल संग्रह ‘गम में भीगी खुशी’ से किया | जो उनकी कुछ आंतरिक संवेदनाओं को कुरेद कर साहित्य के पड़ाव से जोडती है | इसमें उनकी करांची से सिंध तक की भावनाओं का सार्थक वर्णन होना स्वाभाविक है |फिर२००७ में एक साथ दो संग्रह- ‘चरागे- दिल’ हिन्दी गजल संग्रह तथा ‘आस की शमअ’ प्रकाशित हुए | जिसमें ‘चरागे- दिल ‘ काफी चर्चा में रहा | यह संग्रह -११९ हिन्दी गजलों का संग्रह- सरल, सहज, प्रवाहपूर्ण भाषा में जीवन के विभिन्न अनुभवों, सपनों, कल्पनाओं, तथा मान्यताओं को एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है |जहाँ एक ओर कवियत्री के संवेदनशील मन से, पाठक की जान- पहचान होती है |वहीं, कहीं अपने सामाजिक सरोकारों से इन पाठकों के मन को झक- झोरती है | और एक अनूठे वातावरण में कुछ सिखाने के प्रयास में पाठक को गुद -गुदाती है |
वहीं एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद-२००८ में, एक के बाद एक करके तीन संग्रह प्रकाशित हुए | जिनमें आप गजल संग्रह के साथ- साथ आध्यात्म से भी जुड़ी भावनाओं को हमारे बीच रखने में सफल रहीं | तथा २००८ के ये निम्न- संग्रह अपने आपमें बड़े ही प्रभावशाली साबित हुए –
१. उड़डुर पखियारा – सिन्धी भजन संग्रह
२. दिल से दिल तक – सिन्धी गजल संग्रह
३. लौ दर्दे- दिल की – हिन्दी गजल संग्रह
श्रीमती देवी नांगरानी जी ने ‘लौ दर्दे – दिल की’ – हिन्दी गजल संग्रह में एक चिंतनशील ढंग से हर शेर के मिसरे दुरुस्त करके पेश किये हैं | उनकी अभिव्यक्ति की कला में- रदीफ़, काफिये, बहर, भारी बज्म की गजलों के साथ सटीक भावनाओं से दुरुस्त (फाइलातुन) के साथ होती है | वह गजल को स्वयं परिभाषित निम्न- शब्दों से करतीं हैं-
अनबुझी- प्यास रूह की है गजल,
खुश्क होंठों की तिशनगी है गजल | ( गजल- २ )
गजल की शाइरी और उसके दर्द के विस्तार में आप कहतीं हैं कि-
मैंने अपना दर्द कागज पर उतारा इसलिए,
दर्द जिसमें न हो ‘देवी’ शाइरी किस काम की |
क्यों जलाते लोग हैं? रावण के पुतले को सदा,
जो दिखाने की हो ये नेकी-बदी किस काम की | (गजल ४३)
इस प्रकार २०१२ में भी उनके दो संग्रह प्रकाशित हुए जो दोनों भाषा, सिन्धी और हिन्दी के साथ, वे प्रकाशन से जुडीं रहीं |वहीं, शायद हिन्दी- भजन का संग्रह पहली बार आया |
१. भजन- महिमा – ( हिन्दी-भजन )
२. गजल – ( सिन्धी गजल )
और अंत में, श्रीमती देवी जी को कई अन्य भाषाओँ के जानने से उनके लेखन और व्यक्तित्व को एक भावपूर्ण गरिमा मिली |उन्होंने कई अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में करके साहित्य का आदान- प्रदान भी किया जो हर साहित्यकार नहीं कर पाता है | अतः भाषा की विद्वानता के कारण, उनका व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही साहित्य जगत में सम्मान की उस सीमा तक उन्हें पहुँचाने, उनके संवेदनशील साहित्य को परिभाषित करने सफल रहे | श्रीमती देवी जी को तहे दिल से मुबारकवाद स्वीकारता हुआ, उम्मीद करता हूँ कि वह अपने साहित्य और लोक- प्रियता का मंच कायम रख सकेंगी –
वादानोशी बरकरार बनाये रब करे सजदा ‘गौतम’ भी,
रुखसत करूं कलम- मुअतर मिले – ‘देवी’ फिर कभी |
इन्हीं शुभकामनाओं और दुआओं के साथ-
सादर-
रामबाबू गौतम, न्यू जर्सी (अमेरिका)
(२ अक्टूबर, २०१२)
Gautamrb03@yahoo.com