सरयू से बागमती तक – एक सांस्कृतिक यात्राः उर्मिला शुक्ल

नदियाँ संस्कृति की जन्मदात्री और उसकी पोषक होती हैं। नदियों ने बहुत कुछ रचा है यही कारण है कि विश्व की सभी प्राचीन संस्कृतियाँ नदियों के साथ साथ जनमी और उसके साथ साथ प्रवाहित हुईं। सरयू के साथ तो बहुत कुछ जुड़ा हुआ है. त्रेतायुग से लेकर मुगलकाल और वर्तमान समय के तमाम द्वन्द अपने में समेटे सरयू बहुत कुछ रचती रही है. तो बागमतीकी भी अपनी सांस्कृतिक विरासत है। इसीलिये हमने इन्हें साक्षी मानकर अपनी यात्रा की योजना बनाई।

यात्रायें कई तरह की होती हैं पारिवारिक सामाजिक राजनैतिक और धार्मिक मगर ये यात्रा इन सबसे अलग थी और इसका उद्देश्य था पूर्वी उत्तर प्रदेश ,बिहार और नेपाल की जन संस्कृति को जानने की कोशिश। सो हमने ऐसी रुपरेखा बनायी कि रास्ते में आने वाले प्रमुख शहरों के साथ साथ हम गाँवों में भी जायेगें और जहाँ तक संभव होगा हम लोगों के साथ उनके घरों में रहेंगे। ताकि गाँव और उसके बदलते परिवेश को समझा जा सके। इसलिये हमने वो सारे परिचय खंगाले जिनसे इस यात्रा में मदद मिल सकती थी। और उम्मीद से कहीं ज्यादा सहयोग मिला।

हमारी इस यात्रा में एक ओर सरयू थी जिसके साथ त्रेतायुग , मुगलकाल और बाबरी ध्वंश जुड़ा है । तो दूसरी ओर थी बागमती उसका भी एक पौराणिक संदर्भ रहा है। और इनके बीच में थीं कोसी , काली ,राप्ती , रौतहट चाँदी – खोला जैसी नदियाँ। और अद्भुत संयोग ये भी रहा हमारे साथ जो लोग जुड़े उनके शहर भी नदियों के तीर पर बसे थे। सो हमारे साथ गंगा ,गोमती ,खारून और शिवनाथ (छत्तीसगढ़ ) भी अपने पूरे वैभव के साथ उपस्थित थीं। ये यात्रा अयोध्या से प्रारंभ होनी थी जिसके लिये मुझे अयोध्या पहुँचना था सो मेरी इस यात्रा में मेरे साथ खारून , शिवनाथ और अरपा तो शामिल ही रहीं आगे चलकर इलाहबाद से गंगा और यमुना भी साथ हो चलीं। और बनारस में तो गंगा अपनी पूरी रफ़्तार से बह रही थी , मगर उसमें पहले वाली बात नहीं थी और मुझे याद आ रही थी अपने बचपन की देखी वो गंगा जो बनारस ही नहीं पूरे भारत की आन थी जिसके लिये किसी गीतकार ने लिखा था – ” गंगा तेरा पानी अमरित ,झर झर बहता जाय। युगों युगों से इस धरती पर ,सबकी प्यास बुझाये। ”

मगर अब ये गीत मन को नहीं छूता। हमारी धार्मिक परम्पराओं और हमारे उद्योगों ने गंगा को इतना दूषित कर दिया है कि अब इसका पानी अब अमृत नहीं, जहर बन चुका है। इन्ही सोचों के साथ हम बनारस के गंगा तट से लौट कर दूसरी ट्रेन पकड़कर अयोध्या जा पहुँचे। वहाँ युगल किशोर शास्त्री जी से मुलाकात हुई। वे इस यात्रा के प्रमुख सहयोगी थे।

सरयू के तीर बसे इस नगर ने तो इतना कुछ खोया है कि इसका स्वरूप ही बदल गया है। तो क्या युगों युगों से इसके साथ रहने वाली सरयू में भी कुछ बदला है ? सोचकर सरयू के किनारे पहुँची तो देखा सरयू ने तो अपनी धारा ही बदल ली है। अब वो घाट को छोड़कर बहुत दूर चली गई थी । मानो इंसानी शिकंजे से छूट भागना चाहती हो। मगर ? सीढ़ियों से नीचे दूर दूर तक रेतीला तट उभर आया था और उसपर पंडे का कब्ज़ा था । उनके ठिकानों पर बछिया से लेकर मरघिल्ली गायें बँधी हुई थीं जो मनुष्य को स्वर्ग पहुँचाने के इंतजार में बैठी ऊँघ रही थीं। ऊँघ तो पंडे भी रहे थे क्योंकि ये उनके व्यवसाय का सीजन नहीं था। इसीलिये किसी यात्री को देखते ही वे उसपर भिनभिनाने लगते –
“कहँवा से आय हव । ”
“तोहार गुरु घराना केहके हिया हय ?”
उन्होंने हमे भी घेरा था मगर ” छोड़व हो ई पढ़ी लिखी हय। ई धरम करम का जानय। ” एक ने कहा तो सब लौट गये थे। सरयू की धार तक पहुँचने के पहले गोबर, फूल , पैरा और घास के साथ मानव मल देख कर मन घिना गया था। सो धार तक पहुँचने के पहले ही लौटना पड़ा।

अब यात्रा प्रारंभ हुई । सड़क मार्ग से हम आगे बढ़े और सरयू पुल पर ही बस्ती जिले में पहुँच गये। दरअसल अयोध्या का ये सरयुपुल पुल का आधा हिस्सा फ़ैजाबाद में है और आधा बस्ती में। हमारा पहला पड़ाव कुशीनगर था मगर हम कुछ देर मगहर में रुके। कबीर की निर्वाण भूमि मगर फिरका परस्तों ने उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया है और उन्हे मंदिर और मक़बरे में बाँट दिया है। मठ के महंत ने हमारे भोजन की व्यवस्था की और आस पास के स्कूल और कॉलेज की लड़कियों से मुलाकात भी करवायी । उनसे बातचीत से हमने जाना कि अब स्थितियाँ बदली हैं लड़कियों की पढ़ाई और नौकरी पर ध्यान दिया जाता है। मगर सामाजिकता का लोप सा होने लगा है अब ब्याह और मरनी-हरनी में भी एका नज़र नहीं आता। गीतों की बात चली तो वहाँ मौजूद पचास साठ लड़कियों में किसी को भी लोकगीत याद नहीं थे।

मगहर से हम कुशीनगर पहुँचे। रात घिरने लगी थी मगर हम पंडरी गाँव के लोगों से मिले। कुशीनगर से लगभग बीस किलोमीटर कोने पर भी विकास का एक कण भी यहाँ नहीं पहुँचा था। मगर यहाँ के युवा सजग हैं वे स्वप्रयास से स्कूल भी चलाते हैं और हिंदू समाज के विरोधी हैं । वे सरकार से भी खफ़ा हैं । रात को हम बौद्ध मठ में ठहरे। ये मठ किसी शानदार गेस्टहाउस से कम नही था। सुबह हम केसिया गाँव गये। सामाजिक और पारिवारिक विघटन के इस दौर में एकमात्र संयुक्त परिवार मिला। हमने उनसे बात की । उस परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला के पास तीज –.त्योहार ………गीत गवनई की अनुपम थाती थी मगर उनसे सीखने वाला कोई नहीं था। नई पीढ़ी लोक से विरत थी ।

उन्होंने हमे कई गीत सुनाये – ‘संझा बोलेली माई हमरे घरे आई , के मोरे संझा मनाई । …..’ चइता – सिंझिया पिसइया सब रूठी गइले हो रामा , कोइलरी तोरी बोलिया – – – ……। ‘

“पहिले झिंझिया , झूमर ,सामा चकवा , बिरहा, चैती अउर बियाह म संझा पराते , सेंदुर दिहले कय गीत, बिदा गीत। फेन अब त सब खतम। ” कहते हुये उनकी आँखों में एक दर्द सा छलक आया था।

गोपालगंज में रात्रि विश्राम के बाद हम मुजफ्फरपुर की ओर बढ़ चले। रास्ते में बाराचकिया शासकीय महाविद्यालय में ठहरे वहाँ के प्राचार्य हरि नारायण ठाकुर ने महाविद्यालय के विद्यार्थियों से बातचीत करवायी। बातचीत के बीच लड़कियाँ कुछ अनमनी सी लगीं , पूछा तो पता चला उनकी चिंता घर पहुँचने की थी। उनकी चिंता जायज थी। परीक्षा दस बजे खत्म हो चुकी थी और अब तीन बज रहे थे। हमने उनसे लड़कियों की सामाजिक स्थिति पर बात की तो पाया अब उनकी पढ़ाई और नौकरी पर उतना प्रतिबंध नहीं है। मगर समाज व्यवस्था में अभी भी पुरुषों का बोलबाला है। न तो दहेज प्रथा खत्म हुई है और न ही लड़कियों को संम्पत्ति में अधिकार मिला है।

हमे आगे बढ़ना था मगर हम वहीं रुक गये। कारण पास के मुसहर टोला में विवाह था और हमारे लिये कुछ और जानने का अवसर। मगर वहाँ तो सब कुछ शहरी था। वैसा ही रिसेप्शन! वही बफे, दोना पत्तल की जगह प्लास्टिक के प्लेट और गिलास ! न द्वारचार न साखोचार , न गीत गवनई। मंडप भी बाज़ार की रेडीमेड चीजों से सजा था। गाँवों में तो हमारी संस्कृति बसती थी। मगर अब वहाँ बाजार काबिज़ था। जेवनार , कलेवा और कोहबर की रस्मों के बिना ही फेरों के तुरंत बाद दुल्हन भी बिदा हो गई। दूसरे दिन हम बैसरहा गाँव पहुँचे। देखा गाँव के बाहर सूखे तालाब के किनारे मंदिर जैसी छोटी बड़ी आकृतियाँ रखी थीं। ऐसी ही आकृति मुझे देवरिया और कुशीनगर में भी नजर आयी थी। सो मैंने सरपंच से पूछा तो पता चला इन्हें छठ पूजा के लिये बनाया जाता है। और पूजा के बाद विसर्जित किया जाता है मगर अब तालाबों में पानी ही नहीं है तो इन्हे ऐसे ही किनारे रख दिया जाता है। यानि पानी था तो आकृतियाँ भी जलप्रदूषण फैलाती थीं। शायद उसी के कारण ये तालाब अब सूखा तालाब कहलाता है। आँखों में गणेश और दुर्गोतस्व के बाद तालाबों और नदियों का मंजर उभर आया। अगर हम नहीं चेते तो देश की सारी नदियाँ और तालाब ऐसे ही जलरहित नजर आयेंगे अपनी इन्हीं सोच के साथ हम स्कूल पहुँचे। फिर मुसहर टोला स्कूल देख बाबा नागार्जुन बहुत याद आये। स्कूल के नाम पर एक छोटी सी मड़ैया थी। अधनंगे बच्चे हमें घेर कर खड़े थे। हम आगे बढ़े तो गाँव वाले अपनी समस्या लेकर सामने थे, उन्हें लगा हम चुनाव के लिये वोट बटोरने आये हैं। और वे गलत भी तो नहीं थे। अब तक यही तो होता आया था। गाँव में यादवों और मुसहरों का बाहुल्य था। और गाँव दलित और महादलितों में भी बँटा था। यानि वोट के लिये एक और विभाजन ?

अगले दिन हम मजफ्फरपुर पहुँचे। हरिनारायण जी के यहाँ रात्रि विश्राम के बाद हमने तराई के इलाके में प्रवेश किया ये शास्त्री जी का गाँव बहेरा था आज 18 वीं सदी में जीता हुआ, गरीबी और भष्ट्राचार में पिसता, जहाँ मिटटी के तेल की कालाबाजारी से परेशान लोग आज भी मड़ुआ की रोटी खाने और नीम के तेल का दिया जलाने को विवश हैं। ये सीमावर्ती गाँव है। पुनौरा सीता की जन्म स्थली होते हुये हम बरहथवा की और बढ़े और शाम ढलते ढलते मंगलवा सर्लाही के रास्ते नेपाल पहुँच गए। सीमा पर लिखे ‘ नेपाल भारत मैत्री अमर रहोस् ‘ इस वाक्य ने हमारा आत्मीय स्वागत किया ही शास्त्री जी के भांजे गणेश यादव हमें लेने आये। बरहथवा से हम चाँदी नदी के किनारे किनारे बेलतौतरा गाँव की और बढ़े। गणेश ने बताया कि ये हर साल अपनी धारा बदल कर गाँव के गाँव निगल लेती है। वास्तव में उनके गाँव में एक भी साबित राह नहीं थी। कहीं अथाह गड्ढा तो कहीं ऊँचा सा टीला। ऐसे में सारा गाँव ऐसी झोपड़ियों में रहने को विवश था जिसमें निहुर कर ही प्रवेश किया जा सकता था। वहाँ मुर्गी, बकरी और इंसान एक साथ रह रहे थे। झोपडी बहुत छोटी थी मगर दिल बहुत बड़ा था। बकरी के दूध की दही के साथ दाल भात खाकर हम फिर बरहथवा लौट चले वहाँ रात्रि विश्राम था।

सबेरे हम अपनी मंजिल काठमांडू की ओर बढ़े। पहाड़ी खेतों में मक्के और अरहर की फसल लहरा रही थी। छोटे छोटे गाँव , और परकोटे वाले घर बहुत सुंदर लग रहे थे। शाम होते होते हम काठमांडू पहुँच गये। आज काठमांडू पर लिखते हुये उँगलियाँ काँप रहीं हैं। वैसे ही जैसे पचीस मार्च को काठमांडू की धरती काँप उठी थी। न्यूज चैनल जब धरहरा स्तंभ भहराकर गिरते दिखा रहे थे मेरा मन बैठा जा रहा था। क्या हुआ होगा धरहरा के इर्द गिर्द फेरी लगाकर सामान बेचने वालों का ? और उस बाँसुरी वादक का जिसके सुरों ने मन मोह लिया था। और वे पर्यटक जो धरहरा के सौंदर्य में बिंधे उसका सौंदर्य निहारते। ……? सब कुछ जानते हुये भी मन यही कह रहा है कि सब ठीक हो। मगर मुझे तो वही लिखना है जो मैंने देखा था। ये लिखना नहीं कर्ज उतारना है ।

रात को हम बाजार गये। बाजार इलेट्रॉनिक सामानों से अटा पड़ा था और दुकान की मालकिनें मुस्तैदी से सामान बेंच रही थीं। हमारे हिमालयीन क्षेत्रों की तरह यहां भी अर्थ व्यवस्था का आधार औरतें हैं। कारण पहाड़ों पर पर्याप्त जमीन नहीं होती और रोजगार के साधन भी बहुत नहीं होते। सो घर के पुरुष नीचे मैदानी इलाकों कमाने जाते हैं और घर परिवार की सारी जिम्मेदारी महिलायें उठाती हैं। सो यहाँ गाँव की महिलायें खेती और शहर की महिलायें व्यवसाय सम्हालती हैं। मैंने देखा वे बड़ी कुशलता से व्यवसायिक दाँव पेंच अपना रही थीं।

द्सरे दिन हम पशुपति नाथ गये बागमती के किनारे स्थित मंदिर में छोटे छोटे असंख्य शिवलिंग। उसदिन नेपाल का बड़ा पर्व था सो दर्शन के लिये जैसे सारा नेपाल ही उमड़ आया था। लोग परिक्रमा करते हुये छोटे शिवलिंगों पर गाजर के टुकड़े, संतरे की फांके और पैसे चढ़ा रहे थे। हम भी उनके पीछे चलने लगे इसके बगैर पशुपति नाथ के दर्शन मुश्किल थे। बड़ा अजीब सा माहौल था एक ओर तो धूपदीप की सुगंध; तो दूसरी ओर फैली थी बागमती के किनारे जलती चिताओं की चिरायत गंध । और भीड़ इतनी कि मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुँचना संभव नहीं लग रहा था। तभी भीड़ का एक रेला आया और हम छिटक कर भीड़ से बाहर। मगर अब हमारे सामने था कलात्मक सौंदर्वापस । काष्ठकला का अनुपम नमूना और उसपर चढ़ी सोने की परत अद्भुत था। मंदिर परिसर की नक्काशी से नजरें हट ही नहीं रही थीं।

मंदिर से बाहर जाने का दूसरा रास्ते से हम बाहर निकल रहे थे। मगर धुंए से राह नजर नहीं आ रही थी। यहाँ तो असंख्य चिताएं जल रही थीं । मन जाने कैसा तो होने लगा था सो हम तेजी से आगे बढ़ रहे थे कि एक जलती चिता सामने आ गई और मैंने देखा जलती चिता से मुर्दा उठने सा लगा था। मुझे लगा वो जीवित हो रहा है, शास्त्रीजी ने बताया ऊपर लकड़ियाँ कम रखी गई होंगी इसलिये शव एैंठ कर उठ रहा है। बहुत देर बाद हम सड़क पर आ पाये मगर सांसों में अभी चितागध समायी हुई थी। मैं बहुत देर तक सामान्य नहीं हो पायी थी।

दूसरे दिन हमें नागरकोट जाकर एवरेस्ट पर सुबह का नज़ारा देखना था। सर्पीली सड़क पर दौड़ती हमारी गाड़ी, जिसके एक ओर गहरी खाई और दूसरी ओर ऊँची ऊँची चोटियाँ और खाई की ओर लगभग लटकती हुई सी असंख्य दुकानें ओर होटल । फिर हम ठीक उस जगह जा खड़े हुए जहाँ से एवरेस्ट नज़र आता है। मगर अभी भोर नहीं हुई थी मगर यहाँ रात का सौंदर्य भी कम नहीं था ,गहरा स्याह आसमान और उसमें चमकते तारे कुछ ज्यादा ही चमकदार नजर आ रहे थे। फिर धीरे धीरे आसमान ने रंग बदला और एक लाल रेखा उभरी और देखते ही देखते एवरेस्ट और उसके साथ सारी चोटियाँ चमक उठीं और हम एक रोमांचक सम्मोहन में बिंध गये।

अब हम पोखरा होते हुये लौट रहे थे। रास्ते भर हिमाच्छादित चोटियां आँख मिचौली खेलती रहीं। राह में अनेक छोटे बड़े नगर गाँव और कस्बे आते रहे। नेपाली औरतें घरोँ में काम करती नज़र आ रही थीं। मक्का कटकर घर आ चुका था। उसके गुच्छे घर बाहर खूँटियों के सहारे लटके नज़र आ रहे थे। अब हम काली नदी के साथ साथ चल रहे थे।

रास्ते में हम कविलासी गाँव में रुके। ताकि लोगों से मिलकर कुछः और जान सकें। गाँव में हमें औरतें, छोटे बच्चे और बुजुर्ग पुरुष ही मिले। हमने बातचीत का सिलसिला जोड़ा तो पता चला बड़े बच्चे पढ़ने गये हैं और घर के पुरुष परदेश में। हम जिस घर में बैठे थे उसकी मालकिन अब हमसे खुल चली थी। उसने बताया औरों की तरह ब्याह के महीने भर बाद ही उसका पति परदेश चला गया। जाये बिन गुजारा भी नही था। अब साल में एक बार आता है। पहले तो आना बहुत कठिन था। पैदल रास्ता ही था, मगर अब बस आती है । उसने ये भी बताया कि यहाँ दहेज नहीं चलता। मगर उपहार दिया जाता है। शादी से पहले बरनेत वहाँ भी होता है। लड़कियों को पहले तो नहीं मगर अब पढ़ाया जाता है। हर गाँव में तो नहीं मगर दो तीन गाँवों के बीच एक प्राइमरी स्कूल जरूर है पर आगे की पढ़ाई के लिये दूर जाना पड़ता है मगर लड़कियाँ जाती हैं। हम चलने को हुए तो उसने हमें भोजन करने को विवश कर दिया। हमने उसके चौके में बैठकर मक्के की रोटी और आलू की सब्जी खायी और ऐसे तृप्त हुये कि तृप्ति पेट से होकर मन तक उतरती चली गई ।

हमने व्यासनगर में काली नदी को पार किया। वहाँ से किन्नू नुमा संतरे खरीदे। दुकानदार ने बताया ये नेपाली संतरे हैं। खट्टे-मीठे संतरे खाते हुये हम आगे बढ़े तो एक झूलता हुआ पुल मिला दो पहाड़ों को जोड़ते उस पुल से लेकर झोपड़ी तक लाल रंग की झंडियां फहरा रही थीं। शायद किसी देवी का मंदिर था। शाम होते होते हम पोखरा पहुँचे। पोखरा में अपना सौंदर्य निहारती चोटियों को हम देर तक निहारते रहे फिर अपने ठिकाने पर जा पहुँचे।

अलसुबह हम लुंबिनी की राह पर थे। लुंबिनी गौतम बुद्ध की जन्म स्थली से सोनौली,नौतनवा होते हुये लौट रहे थे। यूँ नेपाल विदेश जैसा तो कभी लगा ही नहीं।
सब कुछ अपना-अपना सा लगता है वहाँ, मगर सीमा रेखा तो है ही। सो हम अब हम फरेंदा, गोरखपुर होते हुये अयोध्या की राह पे थे। और हमारे साथ थी एक साक्षी, सांस्कृतिक विरासत की।

उर्मिला शुक्ल

A 21 स्टील सिटी
अवन्ति विहार
रायपुर
छत्तीसगढ़

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