‘‘हिन्दी हमारी राष्ट्रीय भाषा है’’ यह जुमला हर भारतीय की ज़बान पर सुनने को मिल जायेगा परंतु हममे से अधिकांश अंग्रेज़ी को बड़े अदब से सजदा करते हैं। इसकेे मूल में जाएँ तो ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ हमेें आज़ादी अंग्रेज़ी की थाली में परोस के दे गये हैं ना कि हमने अपनी आजादी अधिकार सहित उनसे छीनी है। इसलिए तत्कालीन निर्णय नियंता हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी में ही स्वतंत्र भारत की नीति निर्माण करते रहे। तत्कालिक परिवेश के वरिष्ठ जन भी अंग्रेजी के ज्ञाता हो चले थे। पार्टियों, अधिकारिक कार्यों, राजनैतिक सभाओं, न्यायपालिका, औद्योगीकरण, चिकित्सा सभी जगह अंग्रेजी प्रधानता बड़ी ईमानदारी से दृष्टिगोचर होने लगी। हिन्दी उपासक तब भी हिन्दी को प्रमुख धारा में लाने के लिये प्रयासरत थे परंतु तथाकथित अंग्रेजीदां इन्हे हीन भावना से देखते थे। भाषाई सोच की वो संकीर्ण श्रेष्ठ भावना वर्तमान भारत में गहरी पनप गयी है आज महानगरों से गाँवों तक लोगों का यह प्रयत्न रहता है कि उनका बच्चा अंग्रेजी सीख जाए जिससे नौकरी मिलने में सुविधा होगी। चीन, जापान, रूस, फ्रांस ऐसे कितने देश हैं जिन्होनें अपनी भाषा में ही विकास ढूँढा तो आज वो विश्व व्यवस्था के स्तंभ बने हैं। वहीं हम विश्व व्यवस्था के अच्छे मार्केेट के रूप में जाने जाते हैं। हमारी स्थिति उस पक्षी की तरह है जो कि रटता जाता है कि शिकारी आयेगा जाल फैलाएगा जाल मेें फंसना नहीं चाहिये पर फिर भी शिकारी के फंदे में फंस जाता है। हमारे लिए अंग्रेजी ऐसा ही एक फंदा है। विकास और औद्येागीकरण के छलावे में आ के हम ग्राम उद्योगों का दमन कर रहें हैं। ठीक इसी प्रकार से अंग्रेजी की सार्थकता को इतना स्वीकार कर चुके हैं कि हिन्दी से सफलता प्राप्ति में विश्वास खो रहे हैं। आंकड़े बताते र्हैं कि विश्व में आज भी हिन्दी भाषी अंग्रेजी भाषी से अधिक हैं फिर भी अंग्रेजी अधिक फलदायी मानी जाती है। कितने शर्म की बात है कि गाँधी जी के स्वतंत्र राष्ट्र के स्वप्न को भ्रमित अर्थोे में लागू किया जा रहा है। मुझे याद आता है कि मैं जबलपुर में जब श्रम-विधि की स्नातकोत्तर पत्रोपाधी परीक्षा का विद्यार्थी था, उस समय पुस्तकीय मार्ग-दर्शन के लिये एक वरिष्ठ शिक्षक के पास गया जो मेरे विश्वविद्यालय से अनयत्र संस्थान में पढ़ाते थे। जब उन्हे मेरे हिन्दी माध्यम में होने का पता चला तो वो बड़ी हीन भावना से बोले कि ‘‘यदि हिन्दी में पढ़ना था तो पैदा ही क्यों हुये’’ अफ़सोस! उस समय उनसे कुछ न बोल सका परंतु तब से आज तक वो मेरे लिये सर्वाधिक तुच्छ और हेय प्राणी हैं। समाज में जब तक ऐसे अंग्रेजी के मनसादास शिक्षक रहेंगे, वे हिन्दी के विरोध में विद्यार्थी के मन में विष वमन करते रहेंगे, जो भावी हीन भावना का कारण बन सकता है।
आज़ादी के उपरांत अंग्रेज़ तो भारत से चले गए पर अंग्रेज़ियत यहीं छोड़ गए। भारतीय आचरण गले मिलने के स्थान पर हाथ मिलाने में ज़्यादा विश्वास करने लगा। ऐसे में आने वाली पीढ़ी भी अंग्रेज़ियत के मानसिक दबाव तले बढ़ने लगी और रही सही कसर शिक्षा प्रणाली ख़ासकर उच्च शिक्षा एवं जीवकोपार्जन कारी शिक्षा में अंग्रेज़ी भाषा के प्रधानता हो गई। हां भारत! तेरा मानव जनित दुर्भाग्य कि शुरूआती समय के कुछ प्रमुख नेतागण हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी में कार्य करने के प्रति अधिक सहज थे। परिणामतः वर्तमान की भी सभी कार्यवाहियां अंग्रेज़ी के समक्ष नतमस्तक हो गईं जो आम नागरिकों के बीच विखण्डन और हीन भावना की जनक बनी। न जाने कितनी योग्यताओं ने समय के सम्मुख हार मान अपनी जीजीविषा खो दी होगी, जिनकी योग्यता, अंग्रेज़ी की कसौटी पर खरी नहीं उतरी होगी। मानसिक पराधीनता की यह वेदना बड़ी पीड़ादायी है।
अंग्रेज़ी ने न केवल हमारी राष्ट्रीय राजनैतिक भावों पर दुष्प्रभाव छोड़ा है, बल्की भारतीय संस्कृति को भी दूषित करने का कार्य किया है। अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने भ्रमित तथ्याात्मकता के माध्यम से सनातनी इतिहास को दबाना चाहा है। प्रत्येक राष्ट्र में वहां की प्राचीन संस्कृति को पढ़ाया जाता है। जबकि भारत में विदेशियों द्वारा नवलिखित इतिहास पढ़ाया जाता है। यह विकृत इतिहास अध्ययन है। शिक्षा प्रणाली में विनायक दामोदर सावरकर जैसे लोगों की कृतियां ‘‘भारतीय इतिहास के छैः स्वर्णिम पृष्ठ’’ जैसी पुस्तकों को स्थान मिलना चाहिए। जिन संस्कृति प्रेमियों ने प्रयत्न किया वे दबा दिए गए।
जनवरी 2014 की अक्षरा में पढ़ा कि बेल्जीयम के विद्वान कोएनराड एल्स्ट का मानना था कि ‘‘स्वतंत्र भारत की राजभाषा संस्कृत होती तो यहां भाषायी विवाद राजनीति पनप ही नहीं पाती। इसी प्रकार कैलीफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के शोल्डन पौलक के ग्रंथ- ‘‘द लिविंग ऑफ़ गाॅड इन द वल्र्ड ऑफ़ मैन’’ में संस्कृत पर समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्यति से विचार कर चिंता व्यक्त भी गई है। फ्रांस के पत्रकार फ्रांस्वा गोनिए का उल्लेख भी अक्षरा में किया गया है, जिन्होंने कहा ‘‘भारतीय शिक्षा प्रणाली अपनी संस्कृति की महानता से परिचित नागरिकों के बजाए ऐसे युवाओं का क्लोन तैयार कर रही है जो पश्चिमी देशों में निर्यात के लिए अधिक उपयुक्त हैं।’’ स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, महर्षि अरविन्द जैसे योद्धा सन्यासियों ने मातृभाषा महत्व और संस्कृत एवं संस्कृति के सुरक्षार्थ बहुत कुछ कहा है। कैलाश चंद्रपंत की पुस्तक ‘‘संस्कार संस्कृति और समाज’’ में लिखा है- पश्चातवर्ती समय में गांधी जी ने भी मातृ भाषा में एवं सांस्कारिक शिक्षा पर बल दिया। गांधी जी का मानना था कि अंग्रेज़ी हमारी संस्कृति को ही बदल रही है। उन्होंने दुःख व्यक्त करते हुए कहा था कि कितने पीड़ा का विषय है कि अपने ही देश में न्याय पाने के लिए मुझे अंग्रेज़ी का सहारा लेना पड़ रहा है। स्वयं अंग्रेजी विद्वान हिक्सले भी संस्कृति, प्रकृति से परिपूर्ण शिक्षा के पक्षधर थे। 1909 में महात्मा गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा है कि ‘‘अंगे्रज़ी शिक्षा लेकर हमनें अपने राष्ट्र को ग़ुलाम बनाया है। यूरोप-अमेरिका की आधुनिक शिक्षा सर्वनाशकारी है।’’ स्वतंत्र भारत में शनैः-शनैः अंग्रेज़ी कल्चर अंदर तक जड़ें जमा चुका है। बिना अंग्रेज़ी ज्ञान के हमें रोज़गार अवसर भी अच्छे नहीं मिलते। प्राइवेट सैक्टर तो मानों अंग्रेज़ी जानकारी को ही योग्यता का मापदण्ड समझता है। उम्मीदवार भी अंग्रेजी जाने या न जाने पर जीवन वृतांत- बायोडाटा अथवा रिज़्यूमे के नाम से बनाता है। आज कई विद्वान हैं जो भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के रक्षार्थ लिख रहे हैं परंतु अफ़सोस इनकी भाषा भी अंग्रेज़ी है। जैसे पंत जी की पुस्तक से अरूण शैरी कृत पुस्तक ‘‘द एमीनेण्ट हिस्टोरियन’’ का पता चला पर…।
जो होना था हो गया। वर्तमान सरकार द्वारा अपनाई कार्य शैली अथवा वक्तव्यों में हिन्दी प्रधानता तपती धूप में ठंडी छाँव सा काम कर रही है। सरकारी रूप से हिन्दी को शिक्षा का प्रधान माध्यम होना चाहिए, जिसके अंतर्गत बच्चे अन्य विदेशी भाषा भी सीख सकते हैं। प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दी की प्रधानता की सार्वजनिक स्वीकृति ही पुराना हिन्दी वैभव लौटा पाएगी। ये तथाकथित अंग्रेज़ी उपासक भले ही वरिष्ठ लोगों से अंग्रेज़ी में बात करें पर आम आदमी से तो हिन्दी ही बोलना पड़ता है। अस्पताल, कचहरी, पुलिस, बड़ी कंपनियां जहां की भी बात करें पर छोटे पद के कर्मचारी हिन्दी ही बोलते हैं। दूध वाला, सब्जी वाला, स्कूल बस, नाई सभी से तो राष्ट्र भाषा में ही बात करना पड़ती है। कितने भी अंग्रेज़ी विज्ञान हों पर जन्म से मृत्यु तक सभी संस्कार, पूजा-पाठ तो मातृभाषा में ही पुरोहित कराते हैं, फिर शिक्षा में हिन्दी से परहेज़ क्यों…? हम भारतीय, गीता को तो मानते हैं परंतु गीता की नहीं मानते ऐसा क्यों? श्री कृष्ण ने साफ़ कहा है ‘‘भली प्रकार से किए दूसरे के धर्म से गुणरहित स्वधर्म में मृत्यु कल्याण प्रद है, परधर्म भयानक है।’’ पर हम अंग्रेज़ी के अधीन हो गए हैं। गांधी प्रतिमा में पुष्प चढ़ाने वाले भारतीयों समझो, उसी गांधी ने कहा था ‘‘दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेज़ी भूल गया।’’
हिन्दी की स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात भी इतनी चिंताजनक स्थिति में रहने के अनेक कारणों मे से एक कारण स्वयं हिन्दी अनुवादकों द्वारा किया हुआ क्लिष्ट अनुवाद है, जो विषय वस्तु साधारण रूप से लिखी जा सकती है उसे अकारण उपसर्ग एवं प्रत्यय लगा के कठिन कर देते हैं। यदि कानून के हिन्दी संस्करण को पढ़ें तो ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ी इससे सरल पड़ेगी। जब कानून की भूल क्षम्य नहीं है तो इसके सुरक्षार्थ कानून का भाषाई वर्णन सरल अथवा आसानी से आमजनों के समझने योग्य क्यों नही है? परीक्षा के प्रश्नपत्रों पर भी यह निर्देश रहता है कि यदि हिन्दी एवं अंग्रेज़ी के प्रश्नों पर कोई समान विभेद हो तो अंग्रेज़ी भाग को सही माना जाए। यह निंदनीय मानसिक गुलामी नही तो क्या हैं? आज अंग्रेज़ी बोलने वाला मूर्ख भी हिन्दी के विद्वान से अधिक प्रतिभावान माना जाता है। ये सब समाज द्वारा समाज को दिया जाने वाला दर्द है जिसके निर्माण कर्ता श्वेत वस्त्र धारी हैं जो हिन्दी की महिमा को ‘‘हिन्दी इज़ ब्राॅड रेन्ज मदर टंग’’ कहकर स्व आंनदित होते हैं। दुःख तो इस बात का है कि हमारे राष्ट्रधर्म की पुस्तक ‘‘भारत का संविधान’’ जो खुद भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय विधायी विभाग राजभाषा खण्ड (1996) द्वारा द्विभाषी संस्करण में प्रकाशित है, में प्रथम स्थान अंग्रेज़ी संस्करण का है तत्पश्चात हिन्दी में लिखा है। इससे भी अधिक चिंताजनक तो भाग 1 में उल्लेखित संघ का नाम और राज्यक्षेत्र है जिसमे लिखा है ‘‘भारत अर्थात इंडिया’’ राज्यों का संघ होगा जो हिन्दी अनुवाद है मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे वाक्यांश ‘‘इंडिया, दैट इज़ भारत शैल बी अ यूनियन ऑफ स्टेटस’’। अब हम भारतीय क्या करें, क्यों हमारे राजनेता भारत की आत्मा को नही समझ रहें हैं? क्यों ये लोग हमें रोज़ी-रोटी के ही चक्कर में पड़े रहने देना चाहते हैं? बस अब बहुत हो गया, युवा वर्ग न केवल अंग्रेज़ी अपितु अन्य भाषाओं का पण्डित बनेगा पर सोच और लोक व्यवहार में हिन्दी और सिर्फ़ हिन्दी को ही रखेगा। लोक संस्कृति और साहित्य के प्रति युवा सोच का ध्रुवीकरण पश्चात सोच को पीछे छोड़ रहा है। विश्वास है कि, ब्रेड-बटर, पीत्ज़ा, बर्गर की दौड़ में, चना, मुर्रा, सत्तु आगे निकल जायेगें। गांधीजी की खादी जिससे आम आदमी का तन ढंकना था वो बड़े लोगों के शौकिया लिबास बन गई है, जिन्हें अंलकारिक रूप से पहनकर एयरकंडीशंड कमरों में बैठ कर ये भारतीयता पर अंग्रेज़ी किताबों को पढ़तें हैं। आज का भारत दो भागों में विभक्त हो गया है, अंग्रेजी जानने वाले और ना जानने वाले। इस अंतर को सरकार को समाप्त करना होगा। एक शिक्षा प्रणाली को अतिशीघ्र लागू करना चाहिए जिससे शैक्षणिक विभेद की काली खाई खत्म हो सके। आशा कर सकते हैं कि वर्तमान हुक़मरान विषय की गंभीरता को समझते हुये अच्छी भावी नीति निर्धारण करेंगे, जिससे रोती हुई हिन्दी के मुखमंडल पर आशा की हँसी खिले तथा हिन्दी को उचित सम्मान एवं स्थान प्राप्त हो, परिणामतः हिन्दी रोज़ी-रोटी का माध्यम बन सके।
वन्दे…
नाम : अखिलेश सिंह श्रीवास्तव
सम्प्रति: अध्यक्ष, वोल्गा वैल्पफेयर आॅर्गनाईज़ेशन
आलेख लेखक/एच.आर. जर्नलिस्ट
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