यहां इंगलैंड में शीत ऋतु आते ही अक्सर घर मकान पेड़-पौधे जमीन, सभी एक ठंडी और नीरव बर्फ की चादर के नीचे सो जाते हैं। पात हीन ठूँठों तक पर बर्फ़ के फूल लटके हुए, दृश्य मनोरम तो लगता है परन्तु सूना और मौत के से सन्नाटे से घिरा…स्पंदन हीन। तो क्या प्रकृति में भी यह मौत की प्रक्रिया वैसे ही होती है जैसे कि हमारे बीच।
शायद, हां..।
जड़ हो या चेतन, यह विनाश और सृजन की प्रक्रिया तो सदा ही चलती रही है और चलती रहेगी। पुराना हटता है तभी नया उग पाता है। अभी फूल पत्ते पक्षी और सुरभि व कलरव से हीन है धरती पर अगले चन्द महीनों में ही चमन पुनः वैसे ही गुलज़ार हो जाएगा। यह बूढ़े जर्जर पेड़ फिर नया जन्म लेकर लहके और महकेंगे। यही तो हमारे इस नश्वर संसार की निरंतरता है।
एक बार फिर जीवन दर्शन के गूढ़ रहस्यों ने मन को उलझा लिया है। बनारस में पलते-बढ़ते, एक कौतूहल …एक जिज्ञासा बचपन से ही मन से आ जुड़ी थी मृत्यु को लेकर जो आज भी वैसे ही कायम है, अपने उसी चुम्बकीय आकर्षण, सहज भय और गूढ़ दर्शन में रची-रमी।
यदि दार्शनिक और विचारकों की मानें तो पृथ्वी ही नहीं समस्त बृह्मांड में कोई भी अंत,अंत नहीं। ना ही कोई आरंभ ही आरंभ। क्योंकि सब कुछ पुनः पुनः वापस जनमता और पनपता रहता है, नए-नए रूप और नए-नए गुणों के साथ। कुछ भी नष्ट या समाप्त नहीं होता यहां। …एक दर्शन और सिद्धांत जो मानव जीवन व मृत्यु के संदर्भ में भी शायद सच ही हो।
आखिर, हम भी तो उसी प्रकृति का ही तो हिस्सा हैं। फिर वैज्ञानिक भी तो यही मानते हैं। उनका कहना है कि सृष्टि में एक निश्चित मात्रा में ही उर्जा और पदार्थ मौजूद हैं, जो कभी नष्ट या समाप्त नही होते, बस आकार और रूप बदल कर चक्कर लगाते रहते हैं।
…इशारा शायद उसी ‘ क्षिति जल पावक गगन समीरा’ की ओर ही है जिनके पंचतत्वों द्वारा निर्मित यह ‘अधम शरीरा ‘ है। जड़ और जीव, दोंनों इससे ही उत्पन्न भी होते हैं और इसी में तिरोहित भी। नियंता को अब फिर चाहें हम ईश्वर कहें या चेतना की सामूहिक उर्जा, या मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया, यह हमारी अपनी ग्राह्यता और समझ पर है। समाज और परिवेश,धर्म व संस्कारों के पूर्वाग्रहों पर है। .
पर मृत्यु का सीधा संबंध अंत और विछोह से है । और दोनों ही पीड़ादायक और अवसादपूर्ण स्थितियां है- इसमें भी कोई संदेह नहीं। और अंत भी ऐसा कि जिसे खोया उसे वापस पाने की कोई संभावना नहीं। कम-से-कम उस रूप और जीवन में तो नहीं ही।
संघटन और विघटन का यह राग वैराग…जीवन मृत्यु का यह निरंतर का अभिसार कहां, और किसके इशारे पर कब और कैसे शुरु हुआ था, कहना मुश्किल है। पर चक्र आज भी तो वैसे ही निरंतर और ध्रुव है। …खुद जीवन की सारी उर्जा, शोध सभी प्रयोग, आज भी अमरत्व की तलाश, यानी मृत्यु पर विजय कैसे पाई जाए, आत्म संरक्षण कैसे हो मानव का और इस पृथ्वी का, इसी पर तो केंद्रित है।
फिर भी युगों युगों बाद, हजारों आधे अधूरे सच और सैकड़ों अटकलों के बाद मृत्यु एक रहस्य ही है। और इस पर विजय पाना अमरत्व को तलाशना तो बहुत दूर की बात है, इस गुत्थी को सुलझा तक नहीं पाए हैं हम। आज भी आम हो या खास हर व्यक्ति अपनी-अपनी तरह से मृत्यु से परे स्वर्ग, नरक और अंतिम निर्णयाक दिन आदि, जाने क्या-क्या सोचकर ही अस्तित्व को अक्षिण्णु बनाए रखने की आस लगाए बैठा है।
क्या है जीवन? उर्जा और तत्व का स्पंदित रासायनिक मिश्रण और विष्फोट, या फिर पूर्व कर्मों के आधार पर एक सुनोयोजित मौका, जैसा कि धर्म-ग्रंथ कहते हैं। या फिर दृष्टि के आगे फैला बस एक मायावी भ्रम…एक स्वप्न जिसका अंत ‘जगने’ के बाद ही होगा । और जगना भी ऐसा वैसा नहीं, ऐसा जगना जिसमें चेतना, ईंद्रियां, किसी का कोई अता पता नहीं। संगी साथी तो छोड़ो शायद आभास और एहसास तक नहीं रहेंगे, क्योंकि जीव हो या वनस्पति, सब बृह्म या उस सामूहिक चेतना में वापस समाहित हो जाते हैं। इसी को चाहें तो अमरत्व या मुक्ति भी कह सकते हैं हम। न कोई साक्ष्य रह जाता है और ना ही कोई साक्षी…और यदि है भी तो बड़े-बड़े ज्ञानी-विज्ञानी आज भी इसी को तो ढूंढ रहे हैं।…थोड़ा-थोड़ा समझ में आ रहा है क्यों मानव योनि को अनमोल कहा है हमारे ऋषि-मुनियों ने।…
औघड़ भोले बाबा की तीन लोक से न्यारी … शिवमय नगरी काशी वाकई में अनूठी और भिन्न है। इसके अधिनायक शिव महलों में नहीं शमशान में रहते हैं और उनके गले में हीरे पन्नों की नहीं, मुंडमाला है। उन्होंने संसार के साथ साथ जीवन के इस अन्तिम सच को भी अपनाया है। काशी वह नगरी है जहां जीवन तो जीवन, मृत्यु का भी महोत्सव चौबीसों घंटे चलता रहता है। ठीक भी तो है, जबतक मृत्यु को न जाना जाए, अमरत्व या मोक्ष कैसे समझ में आएगा। मृत्यु से क्या डरना? यहां पल-बढ़कर भी मौत सोच में न आए, जीवन के प्रति एक स्वस्थ वैराग न ढले संस्कारों और विचारों में, संभव ही नहीं।
मणिकर्णिका, हरिश्चन्द्र या अस्सी घाट पर दिन रात की वे जलती चिताएँ और आसपास के गांवों से बसों की छतों पर चढ़े, रिक्शों के पीछे बंधे चले आते मुर्दे आज भी शहर के दैनिक यथार्थ में ऐसे रचे-बिंधे हैं कि अधिकांशतः काशी वासियों के लिए यह आवागमन सामान्य तो है, पर अर्थहीन या विलुप्त नहीं।
यहां मृत्यु वीभत्स या डरावनी नहीं, मृत्यु को लेकर एक सहजता है यहां पर। जीवन मरण के इस क्रम को समझने की प्रक्रिया बचपन से ही जो शुरु हो जाती है यहां, भले ही अवचेचन मन में ही क्यों न पनपे सब। माटी का तन माटी में ही जाना है, उसी पंचतत्व में विलीन हो जाएगा एक दिन बच्चा-बच्चा जानता है यहां पर।
मौत का पहला अहसास ठंडा और शिथिलता का था, उम्र मात्र आठ-नौ साल की, जब घायल कबूतर ने हाथों में ही प्राण छोड़ दिए थे। याद और धक्का इतना गहरा कि आज भी ऐसी हर चीज एक भयानक उद्विग्नता और बेचैनी पैदा करती है, सब कुछ जानते समझते हुए भी। बचपन में , विशेषतः बरसात के दिनों में यदि किसी मुर्दे के आसपास से पैदल निकलना हो तो कैसे आंख बन्द करके तेजी से निकलती थी, या फिर कचौड़ी गली के सकरे रास्तों में जहां दो आदमियों का साथ साथ निकलना तक आरामदेह नहीं, सामने से आता कोई अंतिम यात्रा पर दिख जाता तो कैसे आसपास के किसी भी चबूतरे या दरवाजे की ड्योढ़ी पर डरती कांपती चढ़ जाती थी रास्ता देने के लिए आज भी तो नहीं भूल पाई हूं। … और अगर कहीं गलती से शरीर का कोई कोना शव की काठी से छू जाता तो अशुभ की आशेका से कैसे धौंकनी जैसी छाती लिए जड़ और चैतन्य एक साथ तुरंत ही हो जाती थी, आज भी तो नहीं भुला पाई हूँ। थोड़ी और बड़ी हुई तो पता चला कि मृत्यु का संबंध हृदय से है, धड़कनों से है। किसी परिचित की हृदयघात से अचानक मृत्यु हुई , जो एक दो-दिन पहले ही मिलने आए थे -हँसते-मुस्कुराते, बातें करते, ठहाके लगाते पूर्णतः स्वस्थ दिखते। धक्का ऐसा लगा कि सीने में जो दिल इतना चुपचाप और सहज रहता था कि कभी उसकी तरफ़ ध्यान भी नहीं गया था , वही दो दिन तक नगाड़े की तरह शोर करता रहा, डराता रहा। फिर तो स्कूल की पूरी लाइब्रेरी पलट डाली, खूब गुना-मनन किया, पर आज भी रहस्य ही तो है मृत्यु। अंतिम सच मान लो तो विभ्रम के लिए अद्भुत संदेश दे देती है अनश्वरता के स्वप्न आदि में, अनोखे पूर्वाभाषों में, जो अविश्वसनीय रूप में सच निकलते हैं। पर वास्तव में सब ख़त्म…एक निर्णायक और अंतिम प्रक्रिया ही तो है मृत्यु।
नौका बिहार करते हुए वो चलती चिताओं पर से पहले तो आंख न हटाना फिर रात भर उनके सपने देखना … आज की हर रोमांचक और डरावनी फिल्मों से ज्यादा उलझाने वाला है आज भी मेरी बचपन की यादों में। माना मृत्यु के बारे में हल्के उपमान देना ठीक नहीं, पर बहुत गंभीरता से लेना भी तो ठीक नहीं इसे। क्योंकि मृत्यु नहीं जिन्दगी ही सार है जिन्दगी का।…
जीवन मृत्यु को प्रत्यक्ष रूप में साथ साथ समेटे, यह नगरी बहुत कुछ ऐसा सिखलाती और देती है हमें, जो शायद दूसरे शहरों में उतनी सहजता से देखने और समझने को न मिले। कुछ हद तक शमशान में रहते औघड़ों की तरह एक बड़ा शमशान है काशी, जहां दबा ढका कुछ भी नहीं। हां सब जानते समझते हुए भी इस अंतिम सच को नकारना, इस शाश्वत निरंतरता को भूलने की कोशिश करना मानव स्वभाव की शायद एक बड़ी कमजोरी है।
सोचने पर मज़बूर हूं कि यह मृत्यु से भय अवश्य ही अनजाने भविष्य का ही होगा, परिचित से बिछुड़ने का ही होगा…मोह जितना अधिक होगा , विछोह उतना ही कष्टप्रद। मोह ही शायद संसार का सबसे बड़ा भय है…सबसे बड़ा विकार है। तभी तो हमारे धर्मग्रन्थों में कमल की तरह जीने की शिक्षा दी गई है। जीवन जल में…इस संसार में रहकर भी उससे पूर्णतः निर्लिप्त। …पर शायद कम ही होंगे जो इस नए कपड़े बदलने की अवश्यंभावी प्रक्रिया के प्रति पूर्णतः सहज रह पाते हों…निर्लिप्त कमल से जी पाएँ… सोचें तो शायद इसी मोह पर विजय पाने के लिए ही तो वाणप्रस्थ और सन्यास आश्रम की परिकल्पना की गई है हमारे धर्मग्रन्थों में।
कई बार मृत्यु और उससे जुड़े ऐसे कई एहसास व आभासों को टटोलने की कोशिश की है परन्तु जिज्ञासा पूरी तरह से कभी शांत नहीं हुई। एक कौतूहल …एक जिज्ञासा जो बचपन से ही मन में आ जुड़ी थी मृत्यु को लेकर आज भी तो वैसे ही कायम है, अपने उसी चुम्बकीय आकर्षण , सहज भय और गूढ़ दर्शन में रची-रमी।…
हाल की ही एक घटना याद आ रही है-जाड़ों की सुबह और छह बजे का समय… दांत किटकिटाती ठंड में गुड़गांव से अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड़्डे की तरफ कार दौड़ी चली जा रही थी। आसपास बिखरी गहरी और घटाघोप धुंध को चीरती, दौड़ती-भागती सैकड़ों कारें भयभीत करने वाली सरसराहट के साथ दाँये-बाँये दोनों तरफ से ही निकल जातीं। जल्दी तो थी, परन्तु कभी ड्राइवर को धीरे कार चलाने को आगाह करती तो कभी संभलकर। अचानक सारी मानसिक व्यग्रता को दुगना करता, सड़क पर पड़ा एक कटे हाथ का पंजा दिखलाई दिया।… विस्मित और भयभीत आँखें सब कुछ साफ-साफ देखने की कोशिश करती हैं। जैसे ही कार थोड़े और पास पहुँची… पाँचों मुड़ी उंगलियाँ पंजे सहित सामने छिली पड़ी हुई थीं और ऐसे मुड़ी, मानो कुछ समय पहले ही किसी वाहन का हैंडल पकड़े हुए थीं, पर अब सफेद क्षत-विक्षत मांसपेशियों के जाल में जकड़ी और शरीर से छिटककर दूर, सफेद रबर के खिलौने सी बेजान। ऊपर की चमड़ी पूरी तरह से छिल चुकी थी। थोड़े और आगे दूसरा ढेर दिखलाई दिया, शायद पेट से निकली आंतों का; दृश्य किसी डरावनी फिल्म-सा अविश्वनीय था सब कुछ।
जानवर तो ऐसे पड़े देखे थे, परन्तु सड़क पर मानव अवयवों का यूँ उपेक्षित पड़े दिखना…, मन गहरे अवसाद से भर गया…पता नहीं कौन था वह…पता नहीं घर वालों को पता भी है या नहीं! क्षोभ से विकृत मन और मुख को विंग मिरर में देख ड्राइवर अनायास ही कहता है …’ आप उधर मत देखो, आंखें बंद कर लो…यह तो यहाँ रोज की ही बात है। सुबह जब आदमी घर से निकलता है तो पता नहीं रहता कि शाम को घर वापस पहुँचेगा भी या नहीं।’ एक युवा के मुंह से निकली हुई वे बातें पूरी मानवता का, विकसित सभ्यता का मखौल-सा करती प्रतीत हुईं और बेचैन मन दार्शनिक बना विचारों की गूढ़ कन्दराओं में जा छुपा…।
जिस ‘मैं‘ को कभी देखा नहीं, जो ‘मैं‘ निश्चय ही एक दिन अपनी कहलाने वाली हर चीज को यूँ छोड़कर चला जाता है…या जबर्दस्ती उठा लिया जाता है; कितने आश्चर्य की बात है उसी मैं की सेवा करते, बातें करते, सोचते-बिचारते पूरी उम्र निकल जाती है; शायद ऐसी ही किसी मनःस्थिति में शेक्सपियर ने कहा था कि ‘चांद तारों से आगे भी जहाँ और हैं’… कहने वाले तो यहाँ तक कह गए कि जागती आंखों से देखा-सुना यह संसार मात्र एक स्वप्न है और जो वास्तविक है, जगने या स्वप्न टूटने के बाद ही शुरु होता है। दूसरी तरफ विपक्ष में ऐसे भी हैं जिन्होंने इस मान्यता को खंडित करते हुए कहा है कि जो है, यहीं है, इसके आगे-पीछे कुछ नहीं! …’
विचारों की गहराती उलझनें अक्सर ही सोचने को मजबूर कर देती हैं कि क्या ये ज्ञानी-विज्ञानी वाकई में कुछ ऐसा जानते है, अनुभव कर चुके हैं, जिसे हम-आप कभी जान या समझ ही नहीं पाए या फिर सिर्फ बातें करने को, तर्क करने को अटकलें लगाते रहते हैं! आम आदमी को तो पूरी भ्रमित करने वाली हैं बातें… बिल्कुल बाहर दिखती घनी उस धुंध की तरह ही जो दस-दस फुट लम्बे पेड़ों तक को अपनी चादर में छुपा लेती है। वैसे भी तो अक्सर ही आँखें बहुत कुछ देखकर भी देख नहीं पाती या देखना तक नहीं चाहतीं…कभी भय से घबराकर तो कभी उपेक्षा या अवहेलना में, विशेषकर दूसरों के दुख-दर्द को! पर कभी-कभी कुछ खबरें भी विचलित करती हैं। हमसे बहुत दूर की खबरें, ऐसी खबरें जिनका हमसे कोई लेना देना नहीं। मात्र टेलिवजन की खबर युद्ध-क्षेत्र से प्रसारित जहाँ हमास के मदचूर अत्याचारी एक कैद में ली गई और अधमरी व बेहोश इजरायली लड़की के नग्न शरीर पर चार -चार मलंग बैठे अपनी विजय पताका लहरा रहे थे। भुलाए नहीं भूलता वह दृश्य , मन को बहुत गहरे किरकने और कचोटने लग जाता है। पता नहीं उस वक्त भी जिन्दा थी या नहीं, पर उसके घर वालों पर क्या बीत रही होगी सोचकर ही मन कांपने लग जाता है।
फिर भी नफ़रत है इस दुनिया में जिसकी वजह से हत्याएँ होती हैं। बिना जीवन का मूल्य समझे मृत्यु दंड या अकाल मृत्यु दे दी जाती है। इच्छा-मृत्यु हो रही हैं घरों और अस्पतालों में और वह भी पूरी स्वीकृति और क़ानून के तहत। सामूहिक हत्याएँ हो रही हैं, विनाश के नए-नए शस्त्र विकसित किए जा रहे हैं, जहाँ पूरे शहर ही नहीं शायद पूरी सभ्यता, पूरी सृष्टि को ही खतम किया जा सके। अपनी हैवानियत में मुर्दों पर राज्य करने के सपने देखने लग गए हैं ताकतवर। और मौत एक ऐसा विषय बन चुका है जिसके प्रति संवेदनाएँ कुंद होती जा रही हैं। जाने कितनी मौत की खबरें हम सुनते रहते हैं, पर ये ख़बरें अब मन को नहीं छूतीं, विचलित नहीं करतीं। देखते हैं और टेलिविज़न बन्द कर देते हैं हम। हमें वह खबर वैसे नहीं छूती, जितना कि उनको जिनके साथ घट रही है। जिनके प्रियजन उनसे छीन लिए गए।
इतने दावे के साथ इसलिए कह रही हूँ कि मैने जाने कितनी मौत की खबरें सुनी थीं पर पहली बार मौत का असली अर्थ जिस तीव्रता और दर्द के साथ तब समझ में आया था जब माँ की मृत्यु हुई थी। मानो पूरी दुनिया ही बदल गई थी उस एक ही पल में। वजह जानती थी स्वार्थी थी क्योंकि दुनिया में सबसे ज्यादा वही प्यार करती थीं । बस दुःख आज भी इसी बात का है कि उसके जाने के बाद ही समझ में आई यह बात। और यही शायद मानव जीवन का सबसे बड़ा अज्ञान, हमारी शिक्षा का सबसे बड़ा दोष है जीवन की, अपनों की कद्र न करना, इसे |ीक से न संभालना । जरा सी बात बिगड़ी तो पूरा ही बिगाड़ देना।
अंततः मानें या न मानें …मृत्यु जीवन का अंतिम और ध्रुव सच तो है ही, एक शिक्षक भी है मृत्यु, हमें जीवन को पूरी ईमानदारी, पूरी काबलियत और पूरे आनंद के साथ जीने को कहती, क्योंकि ज़िन्दगी ना मिले दोबारा। मौत के बाद कुछ है या नहीं, यह तो मरने के बाद ही पता चल पाएगा , अभी तो हमें यही ध्यान रखना है कि इस छोटी-सी जिन्दगी में भी हम कितना जिंदा रह पाए।…
शैल अग्रवाल
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