परिचर्चाः ध्यान और आध्यात्म व आधुनिक पीढ़ी- कमल किशोर राजपूत

लम्बी अवधि से ध्यान और आध्यात्म के विश्वरूपी शाश्वत सत्य-तत्व को एक वैज्ञानिक की दृष्टि से लिखना चाह रहा था, लेकिन अनंत को सीमित इन्द्रियों से समझना कठिन ही नहीं, असम्भव-सा है, फिर भी दु:साहस कर रहा हूँ। बुद्धिजीवी इन विचारों का आभास कर, अन्तर्मन की धारणाओं एवं कुंठाओं की परिधि से ऊपर उठकर उस “बेहद”, “असीम”, “अनंत” को समझने, समझाने और पहचानने में सहायता करेंगे। उस अनंत-असीम-अपरिमित को सीमित शक्तियों द्वारा शब्दों में ढालने का प्रयास मात्र है, जिसे आप स्वीकारेंगे, यही हृदय से प्रार्थना है मेरी।

शाश्वत सनातन धर्म; जो कालान्तर में हिन्दु धर्म नाम से पहचाना गया, उसकी व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक सरलता में निहित गूढ़ता, विशालता एवं गहनता का स्पष्टीकरण या आंकलन, अपनी विश्लेषणात्मक क्षमता या दृष्टिकोण से तो कदापि नहीं कर सकूँगा। पिछली कुछ सदियों में बायें मस्तिष्क (डिजीटल – अंकीय) का अधिकतर उपयोग और विकास हुआ है, दायें मस्तिष्क (ऐनलाग – अनुरूप) का कम और विशेषत: पीनियल ग्रंथि जिसे “तीसरा नेत्र” कहते हैं जिसे आधुनिक वैज्ञानिक मानने लगे हैं, उसका विकास और उपयोग कम ही हुआ है, भौतिकवाद की प्रचूरता के कारण। विगतकाल में महाकाल-शिव से लेकर कई सन्तों, ऋषि-मुनियों, अवतारों और महान विभूतियों ने इस तीसरे नेत्र को तपस्या एवं ध्यान-मार्ग से ही पाया है। वर्तमान और पूर्व शतक में गिने-चुने विरले महात्मा ही मिलेंगे, जिन्होंने इसे जाना और इसका आभास किया हो, उनकी श्रेणी अब अपवाद स्वरूप ही शेष रह गई है।

ध्यान क्या है? शान्ति क्या है? तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम।।
अर्थ:- जहाँ चित्त को लगाया जाए उसी वृत्ति में एक तार होना ही ध्यान है।

सरल शब्दों में जो भी करें उसे शत-प्रतिशत, तन्मयता से करें, बस यही ध्यान है। अब इसे वेद और पुराणों की पांड़ुलीपियों में ढ़ूँढ़ना उतना ही कठिन है जितना समुद्र की नन्ही-नन्ही बून्दों को खोजना। ध्यान कठिन विषय है असम्भव तो कदापि नहीं, और ना ही कोई गूढ़ रहस्य है, बस मन:स्थिति की विसंगतियों को समझना ही इस मार्ग पर आगे बढ़ना है। मन:स्थिति में एक पल भी हम शान्त नहीं! तो शान्ति कहाँ! और शान्ति नहीं! तो ध्यान कहाँ! महान ऋषि पातंजलि जी ने ‘चित्त वृत्ति निरोध योग:’ की कुँजी कहा है।

यह निश्चित है कि मन या चित्त के द्वारा ध्यान-स्थिति कदापि सम्भव नहीं। मन की मूलत: प्रकृति ही चन्चलता है, मौन या चुप्पी इसे पसन्द नहीं! ऐसा क्यूँ? इसको समझना ही समस्या का एकमात्र समाधान है, हल है। इन दिनों भौतिक साधनों से सुख-अर्जित करने का अन्तहीन चक्र चल रहा है जिसने मन:स्थिति को विचलित किया है, भँवर में धकेल दिया है, ये मन:स्थिति हमारी खलनायिका बन गई है, जिसने शान्ति-प्राथी नायक को अपने वशीभूत कर लिया है, अब इस उधेड़बुन में हमारा शान्ति-ध्यान-लक्ष्य पीछे छूट-सा गया है। मानसिक स्थिरता के लिये स्थित-प्रज्ञ प्रवृत्ति का होना आवश्यक है।

द्रुतगति के इस वैज्ञानिक युग में भौतिकवाद प्रतिस्पर्धा की अन्धी दौड़ है। बचपन ही से तुलनात्मक द्दृष्टि के बीज बो दिए जाते हैं और वहीं से इस अन्धी दौड़ की शुरूवात हो जाती है, जिसने हमारे अन्तर्मन में क्रिया और प्रक्रिया की भूचाल-सी स्थिति बना दी और संतुष्टि नामक प्रवृत्ति इस दावानल में ध्वस्त-सी हो गई है, लुप्त-सी हो गई है। आज की युवा पीढ़ी एक ऐसी मोमबत्ती है जो दोनो छोरों से निरन्तर जल रही है, जिसका प्रभाव शारीरिक और मानसिक रूप में होना था और हुआ भी है। यही बिगड़े हुए स्वास्थ्य की समस्या का मूल कारण भी बन गया है। इस अन्धी दौड़ में सन्तुष्टि-लब्धि (Satisfaction Quotient) पूर्णत: लुप्त हो गई है।

आज का प्रगतिशील इन्सान एक रोबोट की जीवन शैली अपना चुका है, जहाँ भावनात्मक-लब्धि, पारीवारिक-लब्धि और सामुहिक-लब्धि की आहूति होना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा, बस यही हमारी त्रासदी है और यही चरित्र मूल्यों को भी रसातल में ले जा रही है। आई.टी. क्षेत्र की औद्योगिक क्रान्ति में उद्योगपतियों का सर्वोपरी लक्ष्य सिर्फ पैसा ही है, जिसमें हमारी युवा पीढ़ी की आहूति दी जा रही है जो अनुचित ही नहीं, जघन्य अपराध से कम नहीं। आने वाली पीढ़ियों को इसका बहुत बड़ा मूल्य चुकाना होगा।

उपरोक्त समस्या का समाधान अत्यन्त सरल तो नहीं लेकिन सुख-साधन की अनबुझ होड़ पर अगर हम तनिक अंकुश लगा पायें तो यह सम्भव हो सकता है। सुखपूर्ण जीवन की परिधि निश्चित करना होगी, “पर्याप्त” की सीमा निर्धारित करनी होगी – “इतना ही पर्याप्त है” इसे समझना होगा, अच्छे जीवन के लिये, ये निश्चित करना है। जिस दिन इस पर्याप्त भावना का उदय हो गया, मन की चंचल स्थिति स्वत: ही नियन्त्रण में आ जायेगी और संतुष्टि के पुष्प खिलने लगेंगे। जिसकी सुगन्ध स्वयं के लिये, परिवार के लिए, समाज के लिये एवं देश के लिये स्वत: गुणकारी बन जायेगी।

यह आश्चर्य ही नहीं, विड़म्बना भी है कि आज की युवा पीढ़ी के पास पर्याप्त समय ही नहीं है कि वे स्वयं के साथ, अपनों के साथ जी सकें, समय बिता सकें। ईकाइयों में बँटे हुए समॄद्ध परिवारों में पारिवारिक सद्भाव, पारस्परिक भावनात्मक पहलू लगभग लुप्त-सा हो गया है, जो नितान्त आवश्यक है सुखमयी आनन्दमयी जीवन के लिये। अब जब ये ही नहीं तो कहाँ से आयेगी सन्तुष्टि?, कहाँ से आयेगी शान्ति? और कैसे होगा ध्यान?

आध्यात्मवाद ध्यान की सरल कुँजी – हमारे ऋषियों मुनियों का आध्यात्मिक चिंतन, उनकी ज्ञान-चर्चाऐं, वेदों और उपनिषदों जैसे ग्रन्थों में प्रस्फुटित होकर “ब्रह्मविद्या” का मूलाधार सार बने। कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ, अज्ञात की खोज के अभूतपूर्व प्रयास ही नहीं अपितु उस परमशक्ति की अनुभूतियों का वर्णनात्मक गुँथन है। उनका यह चिर योगदान सबके लिये अमूल्य निधि है, अपार कोष है, यही हमारी अजर, अमर, अमूल्य धरोहर है। इन काव्यात्मक रचनाओं के अध्ययन, मनन एवं मंथन से उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतरदृष्टि द्वारा समझना निश्चित सहज हो जाता है। उनकी अदम्य आकांक्षा से प्रेरित काव्य लेखनी से ही आन्तरिक अनुभूति का संस्मरणात्मक सृजन हुआ! हम धन्य हुए!

आज का युग भौतिकवाद का स्पर्धा युग है जहाँ अपार साधन जुटाना मानव की प्रवृति में समा-सा गया, जिसने हमें गर्व और अभिमान के पर्वत पर बिठा दिया। स्वत: को सर्वोपरी स्थान पर विराजित कर देने से वो भूल गया कि वो किसी लहर से अधिक नहीं है। सागर से लहरें हैं, लहरों से सागर कदापि नहीं! ये माना विज्ञान ने चहुमुखी दिशाओं मे सर्वोच्च उन्नति की है, प्रकृति के पंचभूतों की नैसर्गिक क्षमताओं को समझकर जानकर ही यह संभव हुआ है। लेकिन इन पंचभूतों के परे पंचशक्तियाँ भी हैं विशेषत: चेतना के उदगम का स्त्रोत, जिसे विज्ञान अभी तक खोज नहीं पाया है फिर भी अपनी क्षमताओं पर गौरन्वित है और इन्हीं कारणों से मानव अभिमानी हो गया है। जबकि सच्चाई यूँ है;

मेरे न होने में, मेरे होने का, राज़ छुपा रखा है,
दिखता नहीं, बजता, अनहद ने कोई साज़ छुपा रखा है।

अर्थ:- जब तक होने कि भावना बनी रहेगी, तब तक अमर चेतनता प्रकट नहीं हो पायेगी। बिना शर्त आत्मसमर्पण ही कुँजी है। “मेरे होने में” तो सिर्फ भौतिकवाद है जबकि “मेरे न होने में” आध्यात्म की सरल कुँजी छुपी हुई है। हमारा हृदय ही हमारी शाश्वत सनातन पूँजी है जिसे हम अपरोक्ष में अनुभव करते हैं पर परोक्ष में प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
भगवान श्री रमण महर्षि का “मैं कौन हूँ” क्या शरीर हूँ? नहीं! क्या मन हूँ? नहीं! बस यही तो समाधान है मानवीय चेतना के रहस्य का।

पवित्र ईश्वर वाणी “ॐ” का परिचय भी इसी से सम्भव हुआ। यह ना सिर्फ भारत भूमि की अमूल्य निधि बना बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिये चिंतन का स्रोत और प्रसाद भी बन गया। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सभी ग्रन्थों मे कहीं भी किसी देवता या देवी का उद्बोधन नहीं हुआ है, ये सब धर्मों और विचार शैलियों में सरलता और सम्पूर्णता से समा जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे विशाल सागर में अनेकानेक नदियाँ मिल जाती हैं, बिना किसी अवरोध के। ये वन्दनीय प्रयास ही संतुष्टि, शान्ति और ध्यान-जागृति के अनमोल रत्न हैं, जो मानवता की अद्भुत शाश्वत धरोहर है।

वेद, पुराण, उपनिषद एवं श्रीमद्भगवद्‌गीता; शाश्वत सनातन धर्म के सिर्फ ग्रन्थ ही नहीं ये पुष्पकुँज हैं जिनमें छुपी हुई ज्ञान-सुगन्ध, मानव जीवन शैली का पराग है और यही निचोड़ है सन्तुष्टि का। प्रकृति की मासूम गोद में नतमस्तक होकर हमें जीने की सहजता को सिखाया, जो पूजा और आराधना से कम नहीं जिसने इस महान देश को, इसकी शाश्वत भूमि को, यहाँ के सन्तों को, ऋषियों को, मुनियों को, अवतारों और महान विभूतियों को पूजनीय बनाया है। कोटि कोटि नमन भारत भूमि को।

“एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” –
अर्थ:- मूल सत्य एक ही है। अलग-अलग धर्मों में, परिवेशों में इसे पाने के अनेकानेक तरीके भले ही हों, अनेकानेक विचार भी हों लेकिन अन्त में निर्मल आनन्द का सत्य सिर्फ एक ही है। “विविधता में एकता” बहुमूल्य है, बहुर्मुखी होकर भी अन्तर्मुखी द्दष्टीकोण का होना ही ध्यान है, वही सर्वोपरि है। धर्मों की परिधियों में, सीमाओं मे, केवल विचारों को बांधा जा सकता है, मानवता को नहीं। नि:सन्देह प्रकृति ने लहू का रंग एक ही बनाया जो सिर्फ लाल के सिवाय दूसरा कहीं नहीं है।

आत्मसमर्पण भावना प्रज्वलित दीपक-सम है जिसके प्रकाश में “तत् त्वम् असि” – वह तुम हो – का बोध होता है, सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद् का महावाक्य है ये। इस शाश्वत सनातन भूमि में ही “वसुधैव कुटुम्बकम्” जैसी मीठी कल्पना जन्मी। कितना मधुर सन्देश है ये, सम्पूर्ण जगत के लिये! कितनी विशाल है ये परिकल्पना! कितनी गहराई है इस चिन्तन में! सन्तुष्टि, शान्ति और ध्यान के लिये!

अयं बन्धुरयं नेति गणनालघुचेतसाम् ।
उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
अर्थ:- यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं, ये सोच/गणना संकुचित चित्त वालों की है। उदार हृदय वाले सम्पूर्ण धरती को अपना ही परिवार मानते हैं।

जब प्रकृति का अपना कोई धर्म या जाति नहीं होती तो विभिन्न धर्मों और विचारों की कैसे? क्या कोई भी सभ्यता पृथ्वी, आकाश, पानी, हवा एवं अग्नि जैसे प्रकृति के मूल पंचभूतों को किसी धर्म या जाति में बाँट सकता है! कदापि नहीं। ये प्रवृत्तियाँ केवल मानवता के बीज बोती है और अन्तर्मन की ओर अग्रसित करती है, सन्तुष्टि, शान्ति और ध्यान की ओर, यही वो कुँजियाँ है जो एक ही ताला खोलती हैं जिसे “सत्‌–चित्‌-आनन्द” कहते हैं (सचिदानंद) अर्थात सत (अस्तित्व), चित (चेतना) और आनंद बस यही एक सत्य है हर मानव का।

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अर्थ:- ॐ – सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों। सब शुभ को पहचान सकें। कोई प्राणी दुःखी ना हो ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः॥
अर्थ:- है माँ! है प्रभु! हमे असत्य से सत्य का मार्ग दिखाओ! हमारे अन्तर-अन्धकार और अज्ञानता को मिटा हम में ज्योति प्रज्वलित करो, निरन्तर मृत्यु से अमरता की और ले जाओ, यही ध्यान, यही सच्चा ज्ञान है इसे हमें प्रदान करो! (हमें शुभ-कर्म करने में समर्थ बना ताकि संसार से बिदा होने के बाद मानवता हमारे कर्मो का फल सदियों तक पाती रहें। यही अमरता है)! सभी धर्मों एवं पूरी मानवता के लिये, ये प्रार्थना भावना और विचार आत्मा का अमृत है, अनहद ॐ, औंकार, ये शब्द ही अन्तर में गूँजती हुई ध्वनि है! सबके लिये।

उपरोक्त सभी श्लोकों में सार्वभौमिक सत्य, सन्तुष्टि एवं शान्ति मन्त्र की गहराई, सोच और ध्यान भावना सुनाई देती है, गूँजित होती है। ये हृदयस्पर्शी प्रार्थनाएँ अन्तर्मन में सौहार्द भर देती है। कितना असीम है ये चिन्तन! कितनी दुर्लभ हैं ये प्रार्थनाएँ! मानवता के लिये, जो सीमित कल्पना-परिधि से परे है।
इन सभी श्लोकों द्वारा ये गूढ़ रहस्य वाली बातें हमारे ऋषियों ने कितनी सरलता से कह दी, जो उनकी अनुभूतियों से उभरी काव्यात्मक शाश्वत निधि हैं, मात्र ज्ञान से नहीं उपजी हैं, अपितु अध्ययन, मनन एवं मंथन से उजागर हुई हैं।

हम भारतवासी कितने भाग्यशाली हैं, इस शाश्वत सनातन धरती पर वेदों और उपनिषदों का जहाँ प्रादुर्भाव हुआ, यह अतूल्य अमूल्य ज्ञान हमें विरासत में मिला है जिसकी महत्ता अब विश्व में भौतिकवाद में ड़ूबे बुद्धीजीवी एवं दार्शनिक आत्माएँ भी खंगाल रहे हैं और स्वयं विस्मित भी हो रहे हैं! धीरे-धीरे वे समझ पा रहे हैं कि जीवन की सच्चाई और शान्ति, ध्यान-मार्ग से ही प्राप्त की जा सकती है। हाय! कैसी विड़म्बना है! कि हम स्वयं ही अपनी बहूमुल्य धरोहर को सहेज नहीं पा रहे हैं और इस शाश्वत निधि का अर्थ ही समझ नहीं पा रहे हैं।

अन्तत: यही कहूँगा कि अब आध्यात्मिक जागरण से ही हम अपनी संस्कृति का सम्मान प्राप्त कर पाएँगे और उस पर गौरवान्वित हो सकेंगे।

कमल किशोर राजपूत “कमल”, बैंगलुरू
A2, Block2, Samhita Catsle, Sir CV Raman Nagar
Bangalore – 560093 – Karnataka
Mobile: +91 98451 73442, Email: uniksoft@gmail.com

पेशे से इंजीनियर, DRDO रक्षा मन्त्रालय में वरिष्ठ वैज्ञानिक, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति उपरान्त स्वत: की आई.टी. कम्पनी, डॉक्टर्स एवं इंजीनियर्स को बहुमूल्य समाधान दिए। देश-विदेश की यात्राएँ की। पूर्ण निवृत्ति उपरान्त कवि/शा’इर, एहसासों की अभिव्यक्ति भजनों गीतों ग़ज़लों व नज़्मों द्वारा माळवी हिंदी उर्दू एवं अंग्रेज़ी भाषा में, उर्दू से विशेष लगाव।
चार विडीयो एल्बम: “अनुगूंज” – भजन, “अंदाज़े-बयाँ”, “रक़्से-बिस्मिल” एवं “काश!” (ग़ज़ल)
भजनों का गीत संग्रह “आशीषों की गुड़-धानी”, दो ग़ज़लों के संग्रह “इल्हाम” देवनागरी एवं “रक़्से-बिस्मिल” उर्दू लिपि में, गीतों का संग्रह “रिश्तों की छत पर ..”, नज़्मों के दो संग्रह “दो लम्हों की अन्धी दूरी” एवं “आँखें क्यूँ नहीं सोतीं” प्रकाशित हुए हैं। “रक़्से-बिस्मिल” ग़ज़ल संग्रह को मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा “शम्भू दयाल सुखन” विशिष्ट पुरस्कार से नवाज़ा गया।
55+ वीडियोस: गीतों, भजनों, गज़लों, गीतों और नज़्मों के UTube पर उपलब्ध हैं।
सूफ़ी गीत विश्व-विख्यात कबीर गायक पद्मश्री प्रह्लादसिंह तिपानिया जी ने गाया।

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