रहमत भाई
वह उन्नीस सौ सैंतालीस का दौर था । गाँधीजी अनशन पर बैठे थे । देश में आज़ादी मिलने की सुगबुगाहट थी । तभी देश में
अंग्रेजों ने ऐसी चिंगारी लगाई कि हिन्दू-मुस्लिमों के बीच कत्लेआम होने लगा । खुशी आते-आते देश का बँटवारा करके तबाही कर
गयी ।
एक दिन बाबूजी आफ़िस से आते ही बोले,”शहर में गदर मचा है। हर तरफ बलवा हो रहा है । सब
आफ़िस,स्कूल,कालेज़,बाजार बंद होने वाले हैं । खाने-पीने का सामान लाकर रखना होगा ।”
सभी घबरा गये । सच! अगले दिन ही स्थिति और भी खराब हो गयी । आगे वाली गली से ’अल्ला हो अकबर’ तो,पीछे वाली
गली से’ हर-हर गंगे’ की आवाजें दिल दहला देतीं थीं । सभी डर के मारे पोटली में अपना-अपना जरूरी सामान बाँध कर, छत
पर छुपकर बैठ जाते । और कोई भी आवाज़ आते ही गली में झाँक कर देखते । हिन्दु दिख जाता तो मुस्लिम उस पर टूट पड़ते
थे और मुस्लिम दिख जाता तो हिन्दुओं की आँखों में खून उतर आता था ।
एक दिन घर में खाने का कुछ सामान खतम हो गया था । बाबूजी बच्चों को रोता हुआ नहीं देख सके और घर से बाहर
थैला लेकर चले गये । गली में एक ही दुकान थी, रहमत भाई की । नीचे दुकान थी और ऊपर उनका घर था । रहमत भाई
भले आदमी थे । लेकिन ऐसे में किसी का क्या भरोसा ? कब क्या हो जाये,कुछ कह नहीं सकते थे ।
दुकान के बंद होने से,बाबूजी ने धीरे से आवाज़ लगायी,”रहमत भाई,जरा दरवाजा खोलिये”।
पर कोई जवाब नहीं आया । शायद उन्हें भी खतरा था ।
बाबूजी ने दोबारा आवाज़ लगाते हुए दुकान की कुंडी खटखटाई,”रहमत भाई थोड़ा सामान चाहिये था ,ज़रा खोल देते ।”
लेकिन कोई जवाब नहीं आया ।
तभी गली के दूसरे छोर से ’अल्ला हो अकबर की’ आवाजें आने लगीं । बाबूजी घबरा गये । लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं
हारी । उन्होंने धीरे से फिर आवाज़ लगाई ।
जैसे जैसे आवाजें नज़दीक आतीं जा रहीं थीं उनकी घबराहट बढ़ती जा रही थी । वे सोच रहे थे,”ना जाने क्या होगा ?”
“क्या करूँ,वापिस चला जाऊँ?”वे असमंजस में थे |
अचानक तभी रहमत भाई ने थोड़ा सा दरवाजा खोला और बाबूजी का हाथ पकड़ कर जल्दी से अन्दर खींच लिया । डर के
मारे बाबूजी पसीने से भीग गये थे । क्षण भर में कैसे-कैसे विचार मन को डरा गये ।
रहमत भाई चुपचाप थैले में सामान डाल रहे थे । कोई कुछ नहीं बोला । सहमी हुयी आँखें उनसे प्रश्न कर रहीं थीं । बाबू जी
डर से काँप रहे थे तभी रहमत भाई ने उनके काँपते हुए हाथों पर अपनी भीगी हुई हथेलियाँ रख दीं मानो कह रहे
हों,’खुदा का खौफ़ है मुझे’।
मालिकाना हक
“सन 1947 का हिन्दुस्तान पाकिस्तान जब याद आ जाता है तो आज भी दो आँसू आँख से निकल ही जाते हैं , और मन भारी कर जाते हैं ।” पति ने दुखी होते हुए कहा ।
पत्नी ने कहा,”भुला भी दो वह सब । वो भी कोई याद करने की बात है ।”
पति ने आह भरते हुए कहा,”भुला ही बैठे थे,जब हिन्दुस्तान आकर यहाँ नये सिरे से जिन्दगी की शुरुआत करनी पड़ी ।”
“नये शहर में अनजाने लोगों के बीच अपने आप को स्थापित करने की ज़द्दोज़हद ,कितना मुश्किल था । मालूम है ना तुझे, कुछ नहीं था अपने पास ।”
पत्नी ने हाँ भरते हुए कहा,”वो मुश्किल दिन भी गुज़र ही गये । आज हमारे पास सब कुछ है । आपकी समझदारी, मेहनत और सहनशीलता रंग लायी ।”
पति ने अफ़सोस करते हुए कहा,”लेकिन मैने बहुत कुछ खो दिया । मेरा भाई जिसे मैं जी जान से चाहता था । मेरा अपना घर ,मेरा शहर और मेरा जमा जमाया काम । ऐसी बहुत सी बातें वहीं छूट गयीं । वो मुझे रह-रह कर याद आतीं हैं ।”
पत्नी ने ढाँढस बँधाते हुए कहा,”आप अफ़सोस ना करें । जब हम लाहौर में थे तब,आपने हीरू भैया को साथ चलने को बहुत कहा भी था । आप उन्हें छोड़कर नहीं आये । वो ही हमारे साथ नहीं आये ।”
“मैने उसका बहुत इंतजार किया । लेकिन वह ना तो मुझसे मिलने ही आया,ना ही कुछ कह कर गया । ना जाने उसके मन में क्या था ?”पति ने भारी मन से कहा ।
पत्नी वो कडुवा सच कहकर पति का दिल दुखाना नहीं चाहती थी । मन ही मन उसे मालूम था कि भाई अपनी पत्नी के साथ अपने ससुराल में जाकर बैठ गया था क्योंकि वहाँ की सारी सम्पत्ति का मालिकाना हक उसे स्वत: ही मिल जाने वाला था ।
रेणु चन्द्रा माथुर
नाम: रेणु चन्द्रा माथुर
शिक्षा: एम.एस.सी .(जूलोजी).बी.एड.
सम्प्रति: स्वतन्त्र लेखन
विधाऐं: कविता,लघुकथा,कहानी एवं हाइकु लेखन ।
प्रकाशन: 1 धूप के रंग,( कविता संग्रह )
( राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा स्वीकृत )
2 छोटी सी आशा (लघुकथा संग्रह )
3 चाहत का आकाश ( कविता संग्रह )
4 शीशे की दीवार (कहानी संग्रह )
पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
सम्पर्क सूत्र : 140,New Colony,M.I.Road.
Paanch Batti,Near Wall street Hotel.
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