मौसम-1
‘कितनी गरमी है। खाना नहीं, पीने को पानी नहीं। फैक्टरी को दुश्मन ने चारो तरफ से घेर रखा है। पक्षी तक को पर नहीं मारने दे रहे ये तो।
ऐसे कबतक जिन्दा रहेंगे ?’
‘जबतक वह चाहेगा।
जिन्दा रहे, यह वक्त निकाल दिया तो खाना पानी तो फिर से, सब जमा कर ही लेंगे हम।’
अभी कप्तान की बात खतम भी नहीं हुई थी, कि छमाछम पानी बरसने लगा उसकी रेहमत बनकर, सूखी प्यासी आत्माओं को तृप्त करता, शीतल करता, नयी आस भरता…
मौसम-2
दादी जमीन में गढ्ढा खोदे जा रही थी और रोए जा रही थी।
पास में ही गाल में ही खरीदा सेव का पेड़ खड़ा था अपनी मिट्टी को कसकर पकड़े,फलने-फूलने की आस में पूरा तैयार।
शाशा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, आखिर ऐसा क्यों, दादी इतनी विचलित क्यों हैं, आज?
हारकर दौड़ी-दौड़ी चौके में गई और एक कप गरम-गरम चाय बनाकर दादी के पसंदीदा दो बिस्कुट भी रख दिए तस्तरी में और दादी के बगल में आकर चुपचाप बैठ गई।
दादी ने भी तब चाय का प्याला उठाया और सिप लेती हुई दूर कहीं ख्यालों में डूबी अपने मन की सूखी दर्दभरी परतें खोलनी शुरु कर दीं-
बहुत पुरानी बात है यह। तू तो पैदा भी नहीं हुई थी तब। अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा था पूरा देश। दुश्मन ने घेर लिया था हमें चारो तरफ से। अपने ही घर के बंकर में छुपी जब मैं पूरे हफ्ते बाद बाहर निकली तो देखा कि इस पूरे घर पर सैनिकों का कब्जा था। घर के अंदर मनमानी थी उनकी। सब कुछ अस्त-व्यस्त और बिखरा पड़ा था। पूरा बगीचा तहस-नहस और खोद डाला था उन्होंने।
आंख में आया आंसू पोंछने ही जा रही थी- कि एक उद्दंड सैनिक बंदूक की नोंक से मुझे सरकाते हुए बोला-पहले पूरी खोद तो लेने दे हमें, फिर इसमें गिरना। देख नहीं रही हो, तुम्हारी और तुम्हारे पूरे गांव की कब्र खोदी जा रही है यहाँ पर।
फिर —फिर हम यहाँ …यह घर , यह बगीचा सब ठीक कैसे..?
दादी ने मानो उसका मन पढ़ लिया था और बोली-
‘बस मानवता जीत गई, कैसे भी अपने विश्वास और साहस की मिट्टी में रची बसी खड़ी रह गई दुश्मनों की तोप-बारूद के आगे।
बम तो खूब गिरे पर हम जो भी जहाँ भी जीवित थे, अडिग डटे रहे। वह बिगाड़ते रहे और हम जोड़ते रहे, वह मारते रहे और हम जीवन देते रहे। यही तो समीकरण है मनावता और युद्ध का और यही रिश्ता भी है मानवता और युद्ध का।
कोई मिटाने के लिए युद्ध करता हैं क्योंकि वो ताकत और हवस से संचालित हैं तो कई मानवता को बचाने के लिए भी तो, क्योंकि उनका मन दया और करुणा से द्रवित है। और मजे की बा’त तो यह है कि अंत में जीतता हारता इन्सान नहीं, बस वक्त ही है, जो मौसम की तरह कभी एक-सा नहीं रहता, कुछ भी रहने नहीं देता। ‘
शैल अग्रवाल
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