जलाभिषेक- शैल अग्रवाल

माना आज दूर है वह अवधूत
और मैं अनगढ़ मस्त
चलता रह जाता बस
जीवन में मौत का उत्सव
भुलक्कड़ हूँ मैं क्षमाशील वह
कितना भी कठिन हो वक्त
सदैव ही बेखबर और उदार
आत्मा पर रह जाए प्रंकित
बस एक उसका ही नाम
कौन है यह , शिव, गंगा या समय…
महाकाल, स्वयंभू या फिर यादें, बस यादें….

बनारस आते ही सबकुछ भूल जाती हूँ। सबकुछ याद आने लगता है। वो, जो है और वह भी जो नहीं रहा अब। अपने याद आते हैं, तो उसी बाबरेपन में तुलसी और कबीर याद आने लगते हैं, कभी माँ के मुँह से सुने तो कभी बाबा और पापा के मुँह से जाने-समझे। प्रेमचन्द और प्रसाद याद आने लगते हैं। गर्मी की शांत और एकांत दोपहरियाँ याद आने लग जाती हैं, जो शरद, टैगोर और हार्डी में डूबकर बिताई थीं ।

कितनी यादें, कितनी बातें हैं इस शहर की जिनकी याद मात्र से मन पूर्णतः अभिभूत हो उठता है। आह और वाह में डूबने व उतराने लग जाता है। कट-छंटकर भी, चाहूँ , न चाहूँ एक चुम्बकीय आकर्षण है आज भी इस गर्भनाल के प्रति।
मन कहता है काशी मेरा घर है और रहेगा परन्तु वक्त कहता है-था, अब नहीं है। परदेशी का कैसा घर ? चलो घर न सही, मंदिर तो है ही यह अभी भी मेरे लिेए।…
प्रणाम तुम्हें काशी की रज
जिसने यह तन रचा मन रचा
पाला पोसा और शिक्षित किया
खो गई अब वह गोद तो क्या
तुम तो हो यहीं पर महादेव
तुम्हारी जटा से निकली
पावनी मातु गंगे भी
देखो कैसे लहलहाकर
गले मिलती है मुझसे
बूँद हूँ मैं भी तो उसी
पावन जलधार की
सींचो सँभालो सहेजो आशुतोष
बेटी खड़ी है तुम्हारे द्वार पर
भटकी अनाथ और अकेली
और बेहद उलझी हुई भी…

नेह का और आंसुओं का भी शायद एक अभिन्न रिश्ता है। फिर इस बार तो सावन का महीना था। अक्सर ही बादल और आंखों में होड़ लगी।

मिलना व बिछुड़ना, खोना और वापस फिर मिल जाना प्रकृति और जीवन दोनों का ही एक शाश्वत नियम है- जहाँ न कुछ खोता है न मिटता है, बस रूप बदलता है। जगहें बदल जाती हैं। दृश्य बदल जाते हैं, हम खुद बदल जाते हैं, परन्तु यह अड़ियल मन नहीं।
शायद आत्मा की तरह ही काल की परिधि और जीवन-मृत्यु से परे है मन भी। कहीं शिव जी गंगा जल से नहाते तो कभी मेरे अश्रुजल से…याद आने लगतीं वो चन्द शिवरात्रि जो बाबूजी की उँगली पकड़े-पकड़े उनके साथ गुजारी थीं,

लहरें उठती हैं मुझमें और मुझको ही डूबो जाती हैं.
मन किनारे धोती पखारती दूर तक बहा ले जाती हैं
न इनका आना मेरे बस में है और ना ही इनका जाना
सोचती रह जाती हूँ बस कि कौन हूँ मैं
वह बेवजह उछाल खाती बेचैन लहरें
या फिर शांत ठहरा हुआ बूढ़ा समंदर…

पल में ही अपनों के बीच पराए खड़े दिखते हैं कभी और कभी पराए आंसू पोंछते-ऐसा ही तो है औघ़ड़ अक्खड़ बनारस और रोता हंसता भ्रमित अपना मन भी तो जो इसके मोह से नहीं निकल पाता। बनारस का जादू ही कुछ ऐसा है।
मन के उस अँझियारे में
सूझे ना इक बात
पागल है यह बादल मन सा –
गरजा बरसा और बिखरा
सब कुछ ही तो एक साथ…

फिर भी बनारस ख़ास है और रहेगा। कभी बरखा और बदली तो कभी खिलता महकता उपवन,

जादू वो
अंकित है आज भी तो
चारो तरफ

एक एक शब्द
मन की शिला पर प्रंकित

शब्द जो कभी
कहे ही नहीं गए

शब्द जो फिर भी
साफ-साफ सुने गए

जैसे बारिश की बूंदें
गिरती हैं रेगिस्तान में

जैसे भूखे की आँखों में
आ जाती है चमक
रोटी की आस में ।

शब्द जो प्रार्थना में
मंत्र की तरह उच्चारते हम

पर यह जादू तभी तक तो
जब तक यह जरूरत हमारी
बेचैन ना कर दे हमें
इसके प्यार में…

फिर जब परिचितों के बीच भी अपरिचित ही सब और वही घटाघोप अँधेरा तो ठगई का वह कसैला अहसास भी तो नहीं जाता, बनारस ठगों का शहर मन मानता क्यों नहीं, जबकि बीच डगरिया लुट चुकी है गठरिया-

घुसपैठिया था वक़्त
कब्ज़ा ही करके बैठ गया
कब झर गए सुमन सारे
कँटीले ठूँठों भरा पतझर
बसंत को ही लील गया

भ्रमित मन पर
आस ना छोड़े
जाले तोड़े.
बहे लहरों पर
मझलियों की आँखों में
लहरों के बुदबुदों में
तुम्हारे संदेशे ढूँढे

हवा आए
कानों में गुनगुनाए-

सर्दी गरमी बरखा बहार
मौसम चाहे जो भी हो पर
बीज है तू मेरी आस का
संभावनाओं का
याद दिलाए, हौसले बढाए
गले लगाए

‘फिर फिरकर आना
झरती ही जाना
खिलना फिर फिरकर बहारों में
झाँकना झिर्रियों से दरारों की
चट्टानों का भी सीना भेदना’

कानों में समझाती जाए…

गठरी में सिक्कों सी समेट कर ही लौटती हूँ हर बार सारी यादें, शिवमंगल सिंह सुमन जी के शब्दों में कहूँ तो,
‘इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गए स्वाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।’

शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

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