गीत अनुपमः पंडित नरेन्द्र शर्मा


भरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

जहां दिन भर महुआ पर झूल,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बांस के झुरमुट में चुपचाप,
जहां सोये नदियों के कूल;

हरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

विहंग मृग का ही जहां निवास,
जहां अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास,

खरे जंगल के के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।


आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से दो प्रेम योगी,
अब वियोगी ही रहेंगे!
आज के बिछुड़े
न जाने कब मिलेंगे?
सत्य हो यदि, कल्प की भी
कल्पना कर, धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े
न जाने कब मिलेंगे?
आयेगा मधुमास फिर भी,
आयेगी श्यामल घटा घिर,
आँख भर कर देख लो अब,
मैं न आऊँगा कभी फिर!
प्राण तन से बिछुड़ कर
कैसे रहेंगे ?
आज के बिछुड़े
न जाने कब मिलेंगे?
अब न रोना, व्यर्थ होगा,
हर घड़ी आँसू बहाना,
आज से अपने वियोगी,
हृदय को हँसना सिखाना,
अब न हँसने के लिये,
हम तुम मिलेंगे!
आज के बिछुड़े
न जाने कब मिलेंगे?

प्रेमयोगी
प्रेमयोगी जीव दो कैसे जिए ?
प्रेमप्याला वो पिए तो ये पिए
द्वैतगत अद्वैत में दाम्पत्य सूत्र
मैं तुम्हारे लिए तुम मेरे लिए

जब न हम तन में रहेंगें
रहेंगें मन में तुम्हारे
भूल कर हर भूल ,
हमको भूलना मत प्राण- प्यारे
बहुत कुछ ऐसा,
समय के साथ जाता
है न आता
किन्तु कुछ है, न कुछ जैसा,
जो न बिसरेगा, बिसारे ~~

~ पंडित नरेंद्र शर्मा
(1923-1989)
जन्मशती नमन

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