अलसुबह की ताज़ी बयार श्वास-दर-श्वास गुणित होती रही। ढलती शाम में उन सुवासित पलों को शब्दों में कैद करना मुझे रोमांचित कर गया। एक हल्की-सी दस्तक भर से स्मृतियों के पिटारे खुलकर कई अविश्वसनीय पलों को भी सामने ले आए। एक के बाद एक। यही तकरीबन 57-58 साल पहले का मेरा अपना गाँव। खालिस गाँव। टूटी-फूटी सड़कें, नीम के घने पेड़ और भीलों की बस्तियाँ। झोंपड़ियाँ भी, हवेलियाँ भी। कंगाल भी मालामाल भी। नंग-धड़ंग आदिवासी बच्चे और सेठों-साहूकारों के साफ-सुथरे बच्चों से लिपटती धूल-धूसरित हवाएँ।
मैं और छोटू, पूरे गाँव में भटक आते। पव्वा, गुल्ली-डंडा, लंगड़ी-लंगड़ी, खेलना और गाँव भर में छुपा-छुपी खेल के लिए दौड़ लगाना। न बीते कल की चिंता, न आने वाले कल की। बस आज खाया वही मीठा।
लौकिक और अलौकिक दुनिया के बीच झूलता बचपन। नन्हीं बच्ची की आँखों से देखे ऐसे कई लम्हे जिनमें विस्मय, कौतूहल, भय और विश्वास एक साथ हाथ थामे रहते। लौकिक दुनिया में जीते-जागते इंसान थे। भूख, गरीबी और शोषण से त्रस्त, अपने अस्तित्व से लड़ते आदिवासी। भीलों और साहूकारों की ऐसी दुनिया जहाँ बिल्ली और चूहे का खेल अपनी भूमिका बदलता रहता। दिन भर जिनसे मजदूरी करवाकर साहूकार अपनी तिजोरी भरते, रात में वे ही उनका माल-ताल लूट कर ले जाते।
इस हाथ ले, उस हाथ दे। दिन में सेठों की सेवा में भुट्टे हों या हरे चने के गट्ठर, हर सीजन की पैदावार भर-भर कर दे जाते। सेठों के परिवार खा-पीकर लंबी डकार जरूर लेते लेकिन रात में चैन की नींद न सो पाते। अगर मानसून ने साथ दिया और फसल ठीक-ठाक हुई तो चोरी-चकारी कम होती लेकिन जिस वर्ष फसलें चौपट होतीं, भीलों को खाने के लाले पड़ जाते। तब पेट भरने का एकमात्र सहारा सेठों को लूटना होता। लूटपाट, खौफ और दहशत से भरा गाँव। जीजी (माँ) के शब्द होते- “ई भीलड़ा रा डर से मरेला बी आँख्या खोली दे।” (इन भीलों के भय से मुर्दे भी जाग जाएँ।)
न पुलिस का भय, न कानून का। पुलिस थी कहाँ! बाबा आदम के जमाने के दो कमरों में पुलिस थाना था। एक ओर छोटे-छोटे सेल थे कैदियों के लिए। और शेष दो में एक मेज, कुछ फाइलें और सोने का एक बिस्तर। मरियल से एक-दो पुलिसवाले ड्यूटी बजाते। भीलों के सामने कहीं नहीं लगते। बगैर हील-हुज्जत के माल मिल जाता तो आदिवासी होने के बावजूद भील मार-काट कम करते। न मिलने पर किसी को भी मार-काट कर लूट लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। एकजुट होकर साहूकारों के ब्याज से मुक्त होने का यही आसान तरीका था उनके लिए।
गाँव में हमारा घर हवेली-सा था। सबसे बड़ा। यानि सबसे ज्यादा पैसा। यानि सबसे ज्यादा लूटपाट का डर। नीचे हमारी अनाज की बहुत बड़ी दुकान थी और अनाज के बोरे खाली करने-भरने के लिए कई आदिवासी हम्माल आते थे। हष्ट-पुष्ट, ऊँची कद-काठी के भील, पीठ पर बोरियाँ लादे मुझ जैसी बित्ती भर की बच्ची को भी छोटी सेठानी कहते। अपना लोटा लाकर मुझसे पानी जरूर माँगते। मैं दौड़-दौड़ कर जाती और मटके का ठंडा पानी लाकर उनका लोटा भर देती। पानी पीकर गले में लिपटे गंदे गमछे से पसीना पोंछकर फिर से काम पर लग जाते। जीजी रोटियाँ बनाकर उन्हें खाने देतीं जिन्हें वे बड़े चाव से प्याज के टुकड़े के साथ खा लेते। सबके लिए दोपहर की चाय भी बनती। कम दूध और ज्यादा पानी वाली चाय। शक्कर डबल। जीजी कहतीं- “बापड़ा खून-पसीनो एक करे। मीठी चा पीवेगा तो घणो काम करेगा।” (बेचारे इतना खून-पसीना बहाते हैं। मीठी चाय पीकर खूब काम करेंगे।)
पाँच भाई-बहनों के परिवार में हम दोनों छोटे भाई-बहन बहुत लाड़ले थे। मेरे बाद कोई बेटी नहीं और छोटू के बाद कोई बेटा नहीं। पूर्णविराम का महत्व हम दोनों बच्चों के व्यक्तित्व में झलकता था। हम ज्यादातर जीजी-दासाब (मम्मी-पापा) के आसपास ही मँडराते रहते। मानो उन दोनों पर सिर्फ हमारा अधिकार हो। अपनी हवेली के एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ते-भागते हम, हर पल जी भरकर जीते। आम के मौसम में घर में पाल डलती (कच्चे आमों के ढेर को सूखे चारे में रखकर पकाना)। रोज बाल्टी भर पानी लेकर बैठना और चुन-चुन कर पके आम बाल्टी में डालते जाना। ललचायी आँखें पलक झपकते ही रस भरे आम को गुठली में बदलते देखतीं। घर के अहाते में मूँगफली के बड़े ढेर से चुन-चुनकर मूँगफली खाना और छिलकों को बाकायदा ढेर से बाहर फेंकना।
मालवी-मारवाड़ी-भीली जैसी बोलियों के साथ धाराप्रवाह गुजराती और हिन्दी भाषा हम सभी भाई-बहनों ने जैसे घुट्टी में पी ली थी। कभी भी, किसी से भी अलग-अलग बोलियाँ बोलने-समझने में सकुचाते नहीं। भीलों से भीली में खूब बतियाते। भील-भीलनी मालवी लहजे में भीलड़ा-भीलड़ी हो जाते। मालवी की मिठास में किसी के भी नाम के आगे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाकर बोलना अपनेपन का अहसास होना। गधे या बुद्धू लड़के को गदेड़ो, और लड़की बेवकूफ हो तो गदेड़ी। यहाँ तक कि बरतन कपड़े करती भीलनी दीतू को भी दीतूड़ी कहते। कभी नाराजगी जाहिर करनी होती तो दीतूड़ी को दीतूट्टी कहते। आज भी हम सब भाई-बहन आपस में मालवी में बात करते हुए घर में जितने छोटे हैं सबके नाम के पीछे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाते हैं। टोनूड़ा, मीनूड़ी, रौनूड़ो…।
उस साल पानी नहीं गिरा था। धरती अनगिनत टुकड़ों में फट-सी गई थी। फसलें चौपट थीं। धान उगा नहीं। सेठों का धंधा ठप्प। धंधा नहीं तो भीलों के लिए मजदूरी भी नहीं। बस यही था खुली लूटपाट का समय। अब डाके पड़ने लगे। चोरी-चकारी तो आम बात थी ही लेकिन जब किसी अमीर के यहाँ चोरों की भीड़ आकर घर खाली कर जाए, मालमत्ते के साथ घर का सारा सामान यहाँ तक कि बर्तन-भांडे भी ले जाए, वह डाका होता। भीलों के समूह एकजुट होकर पूरी फोर्स के साथ ढोल-ढमाके बजाते आते। सारा कैश, जेवर और घर से जो उठा-उठा कर ले जा सकते, ले जाते। तब तक बैंक व्यवस्था पर लोगों का विश्वास जमा नहीं था। साहूकार अपना सारा कैश, कीमती चीजें घर में ही रखता था।
दो दिन पहले पास के गाँव कल्याणपुरा में अरबपति मामाजी के घर डाका पड़ा था। मामाजी के खास आसामी (ग्राहक) उन्हें लूट गए थे। करोड़ों का माल नगदी-जेवरात सब चला गया था। वहाँ से आई खबरों से हम सब डरे हुए थे। घर में दासाब के होते राहत मिलती। खबरों का खौफ कभी जीजी के पल्लू को पकड़कर कम होता तो कभी दासाब का कुरता पकड़कर। डरे-सहमे हम दोनों उनके आसपास ही सोते। नींद लगते न लगते, ढोल बजने शुरू हो जाते।
दासाब खिड़की की ओट से बाहर से आती ढोल की आवाजों का जायजा लेकर कहते- “बच्चों, डरो मत। चोर अपने घर की तरफ नहीं आ रहे। वो तो दूसरी ओर जा रहे हैं।”
लेकिन ये हमें समझाने के लिए होता क्योंकि वो स्वयं खड़े होकर आवाज दूर जाने तक सोते नहीं। घुप्प अंधेरे में कुछ दिखाई न देता होगा क्योंकि उस समय हमारे गाँव में बिजली आई ही थी। जो आती कम, जाती ज्यादा थी। चोरी-डाके की तमाम आशंकाओं के बावजूद कभी हमारे घर डाका नहीं पड़ा। हाँ, हर दो-तीन माह में हमारी भैंस चोरी हो जाती थी। दासाब की जिद थी कि घर में भैंस हो और सभी बच्चे घर का दूध पीएँ। सो हमारी हवेली के बंद पिछवाड़े में एक भैंस बँधी रहती। उन्हें ये भी पता होता था कि अपनी भैंस दो-तीन महीने ही रहेगी, बाद में चोर ले जाएँगे। और ऐसा ही होता। हर दो-तीन माह के भीतर भैंस चोरी हो जाती।
दासाब कहा करते थे- “चोट्टे घर के अंदर नहीं आ सकते। पिछवाड़े से भले ही भैंस ले जाएँ।
प्रश्नों की लंबी कतार मेरे सामने होती। मैं यह न समझ पाती कि चोर कैसे घर में नहीं घुस सकते! पुलिस तो खड़ी नहीं है बाहर। और फिर पुलिस तो कभी भैंस को भी वापस नहीं ला पाई, फिर चोरों का क्या बिगाड़ लेगी! रात में ड्यूटी पर खर्राटे भरते पुलिस वालों को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि ढोल-नगाड़े बजाकर भील चोरी करने आ रहे हैं।
मैं सोचती, शायद चोर दासाब से डरते होंगे। उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि एक जोर की आवाज या उनकी खाँसी से सब सतर्क हो जाते। बड़े भाई-बहन भी डर जाते थे। मैं नहीं डरती थी क्योंकि मुझे कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। मसलन, उनकी कई छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान रखना। वे नीचे दुकान में खाना खाते थे जबकि किचन ऊपर था। किचन क्या था, बहुत बड़ा हाल था। उस हवेली में कोई छोटा कमरा था ही नहीं, कई बड़े-बड़े हाल थे। मैं हर बार दौड़कर ऊपर जाती और गरम रोटी लेकर आती। धोबी के घर से उनके झकाझक सफेद कुरते-पाजामे बगैर सिलवटों के उन तक पहुँचाने का काम भी मेरा ही था।
जब वे बाजार कुछ लेने जाते, मुझे अपनी उँगली पकड़कर साथ ले जाते। धुली हुई घेरदार फ्राक पहने मेरी ठसक ऐसी होती जैसे दासाब की नहीं, आसमान में चमकते सूरज की उँगली पकड़कर चल रही होऊँ। कंधों पर आकर धूप ठहर जाती। बिखरती धूप के साए खिलखिलाने लगते। वो अलमस्त अनुभूति कभी मद्धम नहीं हुई। सिलसिला आज भी जारी है जब मैं अपने नाती-नातिन की उँगली पकड़कर चलती हूँ। टोरंटो की बर्फ के कणों से धूप परावर्तित होकर समूची ताकत से मुस्कुराती है। रोल बदलने के बावजूद चाल की ठसक कायम है।
भैंस के चोरी हो जाने के बाद हम दोनों छोटे बच्चों को पंडित के पास भेजा जाता। यह तफ़्तीश निकालने के लिए कि भैंस किस दिशा में गई। पंडित, गिरधावर जी अपना पोथा खोलते, हमारी जेब से निकले पैसे पोथे के पन्नों पर विराजमान होते ही उनकी गणना शुरू हो जाती। ग्रहों की गणना करते पंडित जी बताते कि भैंस, पूरब दिशा में गई है। फिर कहते, पहले पश्चिम में गई थी पर अब वापस पूरब दिशा की ओर मुड़ गई है। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज हमारे सीसीटीवी कैमरे हमें दिशा-निर्देश देते हैं।
दासाब पुलिस थाने रिपोर्ट लिखाने जरूर जाते और कह आते कि पूरब दिशा में ढूँढने जाओ। पुलिस वाले आश्वासन के साथ रिपोर्ट लिख लेते। मैं कई दिनों तक टकटकी लगाए देखती रहती कि हमारी भैंस लौट आएगी। भैंस लौटकर कभी वापस नहीं आती, मगर दासाब फिर से नई भैंस खरीद लेते। अच्छी सेहत वाली। खूब दूध देती। ज्यादातर दही जमाकर मक्खन निकाल लेते। घी बन जाता। बड़े मटकों में रस्सी से बँधी लंबी मथनी पर हम सब हाथ चलाते। घूम-घूमकर, मटक-मटक कर दही मथना एक तरह से खेल था। मथनी खूब खिंचने के बाद भी मक्खन की झलक तक नहीं दिखती क्योंकि ताकत तो हममें थी नहीं। फिर दीतूड़ी हाथ आजमाती, उसके ताकतवर चार हाथ पड़ते न पड़ते मक्खन के थक्के ऊपर तैरने लग जाते। बड़ी-सी कढ़ाही में मक्खन का हर एक दूधिया कण इकट्ठा होता जाता। कढ़ाही आँच पर चढ़ते ही पूरी हवेली शुद्ध घी की महक से सराबोर हो जाती।
मथनी बाहर भी न आ पाती और तत्काल गाँव में खबर फैल जाती- “आज सेठ के घर छाछ बनी है।” मुफ्त में छाछ लेने वालों की भीड़ लग जाती हमारे घर। छाछ वितरण का काम मैं पूरी जिम्मेदारी से निभाती। छोटे से बर्तन से निकाल-निकाल कर लोगों के पतीले छाछ से लबालब भर देती। मेरे लिए यह एक जिम्मेदारी से भरे काम के साथ रोचक समय होता था। बाँटने की खुशी मेरे चेहरे से टपकती।
बीच-बीच में जीजी आकर सावधान करतीं कि बाकी लोगों को खाली न जाना पड़े। मैं छाछ देने में कंजूसी करने लगती तो बर्तन पकड़े सामने वाले की आवाज आती- “ए, थोड़ी और डाल दे न बेटा। आज खाटो (खट्टी कढ़ी) बनेगो।” लोगों के बर्तनों को ताजी, सफेद-झक छाछ से भर देना और उनकी आँखों से बरसते प्यार को स्वीकारना, मुझे बहुत भाता।
चोरी-डाके-लूटपाट के साथ हमारी हवेली में हॉरर दृश्यों की भरमार थी। अलौकिक दुनिया के कई रूप देखे मैंने। हमारा घर गाँव वालों के लिए भुतहा हवेली के रूप में भी जाना जाता था। उन घटनाओं का बयान करना, अंधविश्वास को बढ़ाना है। शिक्षित होकर भी उन घटनाओं को खंगालना विचलित करता है जिनका तार्किक उत्तर आज तक न मिला और शायद मिलेगा भी नहीं।
अपनी आँखों से गुजरे वे पल विज्ञान के विरुद्ध जाकर कभी भयभीत करते, कभी अलौकिक शक्तियों से परिचय कराते तो कभी आत्मविश्वास को बढ़ाते। आज तकनीकी युग में उन क्षणों की सच्चाई पर विश्वास करना सहज और स्वाभाविक बिल्कुल नहीं लगता, लेकिन वे पल अभी भी पीछा करते हैं। कई बार स्वयं को पिछड़ा हुआ कहकर इनके आगोश से मुक्त होने की कोशिश भी की लेकिन जो अपनी आँखों से देखा, जाना और समझा, उसे आज तक नकार नहीं पाई। बगैर किसी लाग-लपेट के वे क्षण मेरे सामने से ऐसे गुजरने लगते जैसे आज की ही बात हो। आँखों से देखा सच और उसमें जीने का अनुभव था, किसी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं थी।
कई राज और उनमें छुपी जानी-अनजानी शक्तियों की चर्चा गाँव वाले करते। हवेली में रात में लोग बरतनों के गिरने की आवाज सुनते। रस्ते चलता आदमी भूले-से रात के अँधेरे में हवेली की किसी दीवार के पास पेशाब के लिए खड़ा हो जाता तो कोई उनके पीछे दौड़ता था। नाग-सर्प देवता के लिए तो हमारी हवेली जैसे स्वर्ग थी। रात के अँधेरे में हवेली के आसपास से गुजरने वालों को जगह-जगह नाग दिखते थे। मोटे-काले-लंबे नाग। छनन-छनन आवाजें सुनाई देती थीं। भड़-भड़ कुछ गिरने की आवाजें रोज की बातें थीं। हम गहरी नींद सो रहे होते और बाहर से गुजरने वाले ये सब देखते-सुनते हवेली से दूर भागने की कोशिश करते।
हमारे कानों में पड़ती ये बातें आम थीं। हम बच्चे आश्वस्त थे कि हमारे घर में ऐसा कुछ नहीं होता। होता भी हो तो ‘वो’ बाहर वालों को ही डराते हैं। हमें कभी कुछ नहीं करते। जीजी-दासाब ने हम दोनों छोटे बच्चों को खूब अच्छी तरह समझा कर रखा था कि कुछ भी डरने जैसा दिखे, तो हाथ जोड़ कर खड़े हो जाना। डरना मत। बस इतना कहना कि हम आपके घर वाले हैं।
हवेली के कई हिस्सों से मुझे केंचुलियाँ मिलती थीं क्योंकि दिन भर हवेली में सबसे ज्यादा ऊपर-नीचे दौड़ने वाली मैं ही थी। नजर भी बहुत तेज थी। मैं सँभालकर ले जाती जीजी के पास। जीजी कहतीं- “चोला बदले नाग देवता। पूजा रा पाट पे रक्खी दो।”
एक बार दूध के तपेले के पीछे मुझे नाग जैसी बड़ी-सी परछाई दिखी। तुरंत दौड़कर जीजी को बताया। उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर वहाँ एक दीपक लगवाया, प्रार्थना की। कहा- “छोरा-छोरी डरी रिया, आप किरपा करो। वापस पधार जाओ।”
वो दिन और आज का दिन, फिर मुझे कभी कुछ नहीं दिखा। जीजी की हिम्मत हौसला देती। हाँ, अकेले कभी रात-बिरात घर के पिछवाड़े जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। पूरी हवेली में एक ही शौचालय था जो पिछवाड़े था। भैंस के खूँटे के पास। वहाँ तक पहुँचने में पूरी हवेली का लंबा सफर तय करना पड़ता था। रात में कोई वहाँ अकेला नहीं जाता। बड़े भाई-बहन भी जीजी के साथ या दासाब के साथ ही जाते।
हमारे यहाँ कोई भी शुभ कार्य या कोई त्योहार होता, हमें सख्त ताकीद थी कि पहले घर के देवताओं के लिए भोजन परोसो। वह थाली दिन भर पूजा के पाट पर रहती। शाम तक गाय और कुत्ते को खिला देते। कभी किसी ने गलती से भी उस नियम को नहीं तोड़ा। एक बार इस बड़ी हवेली का एक हिस्सा किराए से दिया था। वह परिवार वहाँ कुछ ही महीने टिका और डर के मारे छोड़ कर चला गया। छोड़ने के बाद हमें जो भी बताया, वह अविश्वसनीय नहीं था हमारे लिए।
दासाब कहते थे वे हमारे पुरखे हैं, जो अपने घर को छोड़ नहीं पाए। आज, जीजी-दासाब-बड़े-छोटे भाई नहीं हैं पर हम घर के जितने लोग बचे हैं, सबके पास ऐसी कई स्मृतियाँ कैद हैं। जब भी मिलते हैं रात के दो-तीन बजे तक बैठकर नयी पीढ़ी को ये सब सुनाते हैं। आज वह हवेली बिक गई है। दिन में वहाँ स्कूल चलता है। रात में आज भी वहाँ कोई नहीं रहता।
मेरी सारी सोच-समझ की शक्ति धराशायी हो जाती जब वह दृश्य मेरे सामने आता। उस शाम हवेली के बीच वाले हिस्से में चाचाजी के घर धड़ाधड़ पत्थर आने लगे थे। एकाध मिनट के अंतराल से एक पत्थर आता, आवाज होती और नीचे पड़ा दिखाई देता। पत्थर कहाँ से आ रहे थे, कौन फेंक रहा था, आज तक यह रहस्य नहीं खुला।
परिवार के साथ वहाँ इकट्ठा हो रहे गाँव के लोग इस घटना के साक्षी थे। फुसफुसा रहे थे कि सेठ का घर किसी बड़े संकट में है। भीड़ भयभीत थी, घरवाले भी। क्रोध शांत करने के लिए उसी समय धूप-दीप किया गया। सवेरे उठकर बड़ी पूजा करने का निवेदन किया गया। घर के हर सदस्य ने जोर से किसी भी गलती के लिए क्षमा माँगी। थोड़ी देर में पत्थर आने बंद हुए। किसी ने एक शंका जाहिर की कि ये पत्थर चोर फेंक रहे होंगे। लेकिन एक ही आकार के सारे पत्थरों का, एक ही जगह पर आकर गिरना संभव नहीं था। वह दृश्य मेरी आँखों में आज तक ऐसा सुरक्षित है कि कभी मैं उसे डिलीट न कर पाई।
समय के सारथी उन पलों की मुट्ठी में कैद था खुले आसमान का टुकड़ा। उसी को पकड़े रखा। जिन चमकीले-धूपीले पलों को बड़ों के साथ जीया, अब अपने नाती-नातिन के साथ जीती हूँ। उन्हें अपने बचपन की बातें सुनाती हूँ तो कहते हैं- “वाह नानी, तब भी था सुपर पावर!”
और फिर सुपर पावर की कई-कई किताबें पढ़ चुके वे मुझे आज के सुपर पावर के किस्से सुना-सुनाकर चौंकाते हैं।
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Dr. Hansa Deep
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संक्षिप्त परिचय
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। चार उपन्यास आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।
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