कुछ दर्द मिटाने बाकी हैं / कुछ फ़र्ज़ निभाने बाकी हैं -अवधेश कुमार सिन्हा

हिंदी में महिलाओं ने अपनी आत्मकथा पुरूषों की आत्मकथा लेखन के बहुत बाद लिखना शुरू किया जब जानकी देवी बजाज की ‘मेरी जीवन यात्रा ’ के रूप में किसी महिला की पहली आत्मकथा सन् 1956 में प्रकाशित हुई । आरंभ में महिलाएं अपनी आत्मकथा लिखने से हिचकती थीं क्योंकि वे अपनी निजी ज़िंदगी को सार्वजनिक रूप से कह कर जोखिम उठाने का साहस नहीं जुटा पाती थीं । लेकिन धीरे-धीरे अनेक सामाजिक मान्यताएं टूटती गईं और नई मान्यताओं ने जन्म लिया । महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगीं, रूढिवादी रीति-रिवाजों, परंपराओं के बंधनों से निकलने के लिए छटपटाने लगीं । उन्होंने कलम को हथियार बनाया । अपने आत्म संघर्ष को अपनी आत्मकथाओं में चित्रित करना शुरू किया । मराठी, पंजाबी, बांग्ला में लिखित स्त्री आत्मकथाओं से प्रभावित होकर हिंदी की लेखिकाएं आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त हुईं । और फिर, कौशल्या बैसंत्री – दोहरा अभिशाप (1999), मैत्रेयी पुष्पा – कस्तूरी कुंडल बसै (2002) एवं गुड़िया भीतर गुड़िया (2008), सतरें और सतरें – अनीता राकेश (2002), रमणिका गुप्ता – हादसे (2005), सुशीला राय – एक अनपढ़ कहानी (2005), प्रभा खेतान – अन्या से अनन्या (2007), मन्नू भंडारी – एक कहानी यह भी (2007), कृष्णा अग्निहोत्री – लगता नहीं है दिल मेरा (2010) एवं और…और…औरत (2011), सुशीला टाकभौरे – शिकंजे का दर्द (2011), मैरी कॉम – मेरी कहानी (2014) आदि कई स्त्री आत्मकथाएं सामने आईं । ये आत्मकथाएं एक ओर कथा लेखिका के आत्म संघर्ष को पाठक के समक्ष रखती हैं, तो दूसरी ओर अन्य महिलाओं की, जो समाज में अत्याचारों को सहकर कर चुप रहती हैं, अस्मिता को जगाती हैं, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करती हैं ।
इसी कड़ी में अभी हाल ही सुपरिचित लेखिका डा. अहिल्या मिश्र की बाईस खंडों में तारतम्यता के साथ 324 पृष्ठों में फैली आत्मकथा, ‘दरकती दीवारों से झांकती ज़िंदगी ’, हैदराबाद के गीता प्रकाशन से प्रकाशित हुई है । यह उनके जीवन के आरंभ से सन् 2009 तक की गाथा है । वास्तव में, इसमें आत्मकथा के प्रमुख तत्त्वों के साथ-साथ उपन्यास के भी प्रमुख तत्त्व विभिन्न रूपों में शामिल हैं । इसलिए इसे एक आत्मकथात्मक उपन्यास कहा गया है ।
औपन्यासिक धरातल पर लिखी इस आत्मकथा की नायिका स्वयं लेखिका हैं, यानि डा. अहिल्या मिश्र । ‘दरकती दीवारों से झाँकती ज़िंदगी’ की कहानी ममता उर्फ़ आरती (बचपन में पारिवारिक नाम) से अहिल्या मिश्र बनने की एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जिसके बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था एवं अधेड़ावस्था तक के विभिन्न पड़ावों से गुजरने की यात्रा सुख-दुःख, धूप-छांव, दिन-रात, ओस-ओले, झपास, झुलसाने वाले सूर्य के रौद्र रूप के टुकड़ों में बँटी हैं । लेखिका का सात दशकों में पसरा जीवन एक रेखीय नहीं रहा वरन् अनेक रेखाएं एक दूसरे के समानांतर एक दूसरे को काटती, आपस में टकराती, उलझती, सुलझती चलती रही हैं । लेखिका मानती हैं कि उनके जीवन की संश्लिष्ट बुनावट को समग्रता में सिलसिलेवार दर्ज करना संभव नहीं था, इसलिए जीए गए क्षणों का विवरण अलग-अलग खंडों में देते हुए भी एक समय के कई टुकड़े अलग-अलग उकेरे गए हैं । इस कृति में अपने अतीत को पुनः जीते हुए, वर्त्तमान में उसका रूपांतरण करने के साथ-साथ लेखिका ने अपनी कथा में देशकाल, तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक अवस्थाओं, धार्मिक परिवेशों, रीति-रिवाजों, परंपराओं, रूढ़ियों का भी समानांतर चित्रण किया है । साथ ही, आत्मकथात्मक उपन्यास के संवादों को आंचलिक भाषाओं सहित यथारूप प्रस्तुत कर उन्हें जीवंत कर दिया है ।
लेखिका का जन्म अंग्रेजों से भारत की आजादी के एक वर्ष बाद सितम्बर, 1948 में बिहार के वर्त्तमान मधुबनी जिला के सागरपुर गांव में एक उच्च जाति के संपन्न जमींदार परिवार में हुआ था । गांव एवं आसपास के इलाके में जहाँ लोग एक ओर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उपजी विचारधाराओं एवं ग्राम स्वराज की भावनाओं का अनुकरण कर रहे थे तो दूसरी ओर समाज में जाति व्यवस्था की कठोरता, सामंती व्यवस्था, ऊँच-नीच का भेद-भाव, रूढ़िवादी सामाजिक परंपराएं एवं कई अतार्किक धार्मिक मान्यताएं भी विद्यमान थीं । स्वतंत्रता सेनानी पिता समाजवादी दल के समर्थक, क्रांतिकारी स्वभाव के परिपोषक और स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे । इसलिए लेखिका को विरासत में जहाँ जातिगत व सामंती अहं मिला तो साथ ही पिता से आनुवंशिक रूप से रूढ़िवादी परंपराओं, रीति-रिवाजों के विरूद्ध खुलापन, निडरता, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना, समाज की वंचित स्त्रियों को स्वावलंबी एवं लड़कियों को शिक्षा के माध्यम से सशक्त बनाना जैसे विचार भी मिले । अपना आत्मविश्लेषण करते हुए वे स्वीकार करती हैं कि अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी उनका बचपन में जिस तरीके से लालन-पालन किया गया, उससे वे बचपन से ही अत्यधिक उत्साही, मनमौजी एवं पौरूष गुण युक्त अपने मन की करने वाली जिद्दी स्वभाव की हो गईं । आस-पड़ोस की महिलाएं लड़कों जैसा बर्ताव न करने व लड़कियों की तरह रहने की हिदायतें देते हुए कहतीं, ‘ लड़की आओर बरसाइत क राति दूनु खराब होइते छईक । दूनु स खतरा में किंवा स्त्रीगन पड़ते छईक त यँ हेतु ई दूनु सै वाँचि क रहबै चाहि ।’ कुछ छिटपुट घटनाओं के कारण लड़कों से बदला लेने की वृत्ति भी बन गई ।
यह आत्मकथा बिहार के उन्नीस सौ साठ के दशक की परंपराओं, रूढ़ियों, मान्यताओं के साथ ही औरतों के प्रति समाज के नजरिए का एक दस्तावेज भी प्रस्तुत करती है । किशोरावस्था के अपरिपक्व उम्र में लड़कियों का उनकी इच्छा के विरूद्ध विवाह, ससुराल में नव-विवाहिताओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर थोपे जाने वाले निषेधात्मक प्रतिबंध, लड़कियों / महिलाओं में शिक्षा का अभाव व उनके ज़्यादा पढ़ने की मनाही जैसी विद्रूपताओं का सजीव चित्रण यहाँ देखने को मिलता है । मैट्रिक की परीक्षा देने के बाद सोलह वर्ष से भी कम उम्र में लेखिका का उनकी इच्छा के विरूद्ध एक सजातीय सम्पन्न संयुक्त जमींदार परिवार में विवाह के पश्चात् ससुराल आने पर नव-विवाहिता के दैनिक क्रिया-कलापों पर परंपरा के नाम पर कई तरह के दमघोंटू प्रतिबंध लगाए गए । यहाँ तक कि पति से दिन में मिलने की मनाही थी । लेकिन इन तमाम अवरोधों व निषेधों के बावजूद उपन्यास की नायिका अहिल्या मिश्र विरासत में मिली अपनी स्वभावगत विशेषताओं एवं अपने पति के समर्थन से सामाजिक तथा पारिवारिक परंपराओं की सारी बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ती रहीं । विवाह के बाद पति-पत्नी के प्रथम मिलन की रात वर्षों से संजोए सपनों को जीने का रोमांचक क्षण होता है । लेकिन लेखिका के लिए यह रात कुछ अलग ही रही । पति ने जब इनसे कुछ मांगने को कहा तो शिक्षा को स्त्री के आगे बढ़ने का सोपान मानने वाली लेखिका कहती हैं, ‘मैं जितना पढ़ना चाहूँगी, आप मुझे पढ़ाएंगे न ।’ यह सुनकर पति पहले तो चुप हो गए , फिर बोले, ‘ ठीक है, जरूर पढ़ाऊँगा ।‘ ससुराल में गांव की औरतों में शिक्षा का अभाव उन विवाहित महिलाओं के लिए अभिशाप था जिनके लिए नौकरी हेतु परदेस गये अपने पतियों को चिट्ठी के जरिए संवाद भेजना, अपने मन की बात कहना संभव नहीं था । ऐसी औरतें गांव में एक मात्र मैट्रिक पास महिला यानि लेखिका से अपनी लाचारी व्यक्त करते हुए चिट्ठी लिखने का अनुरोध करती हैं, “बड़की दुल्हिन, हमरा तो हिनकर बहुत याद अवइछै, किन्तु हम पढ़ल-लिखल त नई छी, केनाक हिनका संवाद भेजिअउ ? आ केकरा की कहिअउ ? केना क कोनो बात कहिअउ ? केकरा की बुझैतेई ? अहाँ हमर चिट्ठी लिख देवई त हमर संवाद पहुँच सकैया । अहाँ पढ़ल छिअई न । कि, अहाँ हमर चिट्ठी लिख देवई त हमरा पर उपकार होयत ।” और अहिल्या जी उन सभी को ऑब्लाईज करती हैं ।
दकियानुसी और रूढिवादी परंपराओं को मानने वाले ससुराल द्वारा औरतों को ज्यादा पढ़ने-लिखने का विरोध करने के बावजूद उपन्यास की नायिका अहिल्या मिश्र अपने पति व मायके के समर्थन से अपनी पढ़ाई को आगे जारी रखती हैं । ससुराल वालों की नाराजगी एवं उनके द्वारा किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं दिये जाने के बावजूद भी वह शहर के कॉलेज में पति की एम. ए. (अर्थशास्त्र) एवं अपनी बी. ए. की पढ़ाई का खर्च अपने सारे जेवर बेच कर पूरा करती हैं ।
गांव में अवसरों की कमी, अपने बेटे के भविष्य की चिंता और स्वयं कुछ बनने की अभिलाषा मिश्रा दम्पत्ति को शादी के पांच सालों बाद हैदराबाद महानगर ले आती है । गांव में कई कमरों के विशाल मकान में रह चुका जमींदार परिवार का वारिस और उसकी पत्नी शहर में कंपनी के मात्र एक कमरे में गुजारा करता है । उस समय बिहार और उत्तर प्रदेश की ज्यादातर सवर्ण औरतें नौकरी नहीं किया करती थीं और ग्रामीण परिवेश से आई महिलाएं पर्दे में रहा करती थीं । इसलिए बी. ए. पास लेखिका जब एक विद्युत मीटर फैक्ट्री में सुपरवाईजर की नौकरी करती है तो पड़ोस के क्वार्टरों में रहने वाले पूर्वांचल के लोग ताने कसते हैं, ‘ई मिसरैनिया जेहि तरह आजादी से घूमे फिरे ले ओकर असर हमार बेटी पतोहू पर परेला । ऊ सब लोगिन भी ई सब सीख के बिगड़ जाई । वही सब ई लड़कीयन भी करे लगिहें त समाज में हमार कुल खानदान के नाक नु कटि जाई । कोई एकरा के रोकत काहे ना बाटे ।’ लेकिन इन वर्जनाओं और तानों की परवाह किये बिना अहिल्या जी तमाम कठिनाइयों के बावजूद अपनी नौकरी के साथ-साथ आगे की पढ़ाई व शिखर पर पहुँचने की संघर्षपूर्ण यात्रा जारी रखती हैं । बी. एड. कर 100 रूपये प्रतिमाह पर एक स्कूल ज्वाईन करना, एम. ए. कर छब्बीस वर्ष की उम्र में एक दूसरे स्कूल / जूनियर कॉलेज में शिक्षिका / पार्ट टाईम लेक्चरर हो जाना, सगे-संबंधियों से मदद नहीं मिलने पर भी अन्य से कुछ कर्ज लेकर हैदराबाद में अपना मकान खरीदना, कर्ज को चुकाने के लिए हैदराबाद से काफी दूर अरूणाचल प्रदेश के केन्द्रीय विद्यालय में सरकारी नौकरी करना पर परिवार के हितों को ध्यान में रखते हुए एक साल में ही इस नौकरी को छोड़कर एक सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में बतौर शिक्षिका हैदराबाद वापस आ जाना, पश्चात् वहीं प्रधानाध्यापिका बन जाना, और उच्चतर पढ़ाई की अदम्य इच्छा शक्ति के बल पर एम. एड,, एम. फिल. तथा पी. एच. डी. कर लेना विषम परिस्थितियों एवं संघर्षों के बीच जीते हुए एक मध्यमवर्गीय स्त्री के सतत आगे बढ़ते रहने के जुझारू दृढ़ निश्चय एवं साहस की गाथा है । हाँ, इस बीच पति का कंपनी में जेनरल मैनेजर हो जाना और बाद में नौकरी छोड़कर अपनी स्वयं की कंपनी खोलकर व्यवसाय को आगे बढ़ाना परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने एवं जीवन को बहुत हद तक सुगम बनाने में भी सहायक होता है ।
मात्र 15 वर्ष की आयु में ‘सरिता’ में प्रकाशित होने वाली लेखिका नौकरी, घर-परिवार की जिम्मेवारियों, पढ़ाई के साथ-साथ पुनः जोर-शोर से लेखन की ओर कदम बढ़ाती हैं । हैदराबाद की साहित्यिक संस्थाओं में मिलने वाली ख्याति शहर से बाहर पहुँचने लगती है । यद्यपि उनकी बढ़ती ख्याति को इकलिप्स करने के लिए कुछ लोग प्रयास करते हैं पर इनकी परवाह किये बिना वे आगे बढ़ती रहती हैं । पति ने घर से बाहर पैर निकालकर साहित्यिक कार्यक्रमों में शामिल होने से मना तो नहीं किया पर यह स्पष्ट कह दिया, ‘मैं आपको हरगिज रोकूंगा नहीं, लेकिन घर से बाहर पांव निकालने से पहले या वहां जाने से पूर्व मैं चाहूंगा कि आप मुझे एक वचन दें कि आप इस ओर बढ़ेंगी तो अपने फैसले स्वयं करने की हिम्मत जुटाकर घर से निकलेंगी । किसी भी बात के लिए घर को या अन्य लोगों को कोई तकलीफ नहीं पहुंचेगी । आपका अपने क्षेत्र का मामला चाहे वह कैसा भी क्यों न हो, स्वयं निबटेंगी ।’ लेखिका इन जोखिमों की चुनौतियां स्वीकार करती हैं और अपने साहस एवं विश्वास के साथ आगे बढ़ना जारी रखती हैं । उन्हें न केवल हिन्दुस्तान के विभिन्न नगरों के साहित्यिक कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाता है बल्कि वे सरकारी प्रतिनिधि मंडलों में शामिल होकर मॉरीशस, नेपाल, भूटान की साहित्यिक यात्राएं भी करती है । पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, निबंध प्रकाशित होने के साथ अगले कुछ वर्षों में अहिल्या जी के कई कविता संग्रह, कहानी संग्रह, नाटक संग्रह और निबंध संग्रह प्रकाशित होते हैं । कई कविताएं, कहानियां विभिन्न संपादित संकलनों में शामिल की जाती हैं । वे कई पत्रिकाओं का संपादन करती हैं । हैदराबाद में साहित्यिक संस्था ‘कादम्बिनी क्लब’ स्थापित करने के साथ-साथ अपनी एक साहित्यिक पत्रिका ‘पुष्पक’ (बाद में पुष्पक साहित्यिकी) का निरंतर प्रकाशन आरंभ करती हैं । हिंदी प्रचार सभा से जुड़कर दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सक्रिय सहभागिता निभाती हैं ।
डा. अहिल्या मिश्र केवल ‘भारतीय नारी तेरी जय हो’ जैसे नाटक लिखे और ‘नारी दंश दलन साहित्य’, ‘आधुनिकता के आईने में स्त्री संघर्ष’, ‘स्त्री सशक्तिकरण के विविध आयाम’ जैसे निबंध संग्रह लिख कर स्त्री सशक्तिकरण पर केवल संभाषण ही नहीं करतीं वरन् महिला नवजीवन मंडल की प्राचार्या / मानद प्रशासक तथा नवजीवन वोकेशनल अकादमी की मानद निदेशक के रूप में जमीन पर उतरकर स्त्रियों में, विशेषकर कमजोर व आर्थिक रूप से विवश एवं गरीबी रेखा से नीचे जीने वाली स्त्रियों में शिक्षा का अथक प्रचार-प्रसार कर, उनमें व्यावसायिक योग्यता पैदा कर, उन्हें सरकारी नियुक्ति दिलवाकर या अन्य तरीके से अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद कर उन्हें आत्म-निर्भर बनाने का महती कार्य भी करती हैं ।
एक औरत पत्नी, माँ, बंधु तथा ससुराल व मायके के परिवारों का अलग-अलग रूपों में अटूट हिस्सा बनकर अपनी ज़िंदगी विभिन्न स्तरों पर जीती है । जमीन से शिखर पर चढ़ने की जद्दोजहद में इस आत्मकथात्मक उपन्यास की नायिका अहिल्या मिश्र भी अपने लेखन, साहित्यिक व शैक्षणिक संस्थागत जिम्मेवारियों, स्त्री सशक्तिकरण के कार्यों में व्यस्तता के बावजूद इन सारे फर्जों का बख़ूबी निर्वहन करती चलती हैं । वे जीवटता तथा चुनौतियों एवं जोखिमों से जूझने की अपनी प्रवृत्ति से कहीं भी हार नहीं मानती हैं और नेति-नेति, चरैवेति-चरैवेति के अपने घोष शब्दों के साथ आगे बढ़ती चलती हैं । अपने इकलौते पुत्र को उसके एक मित्र के द्वारा ही गोली मारने पर वे उसे बुरी तरह घायल अवस्था में अस्पताल में ऐडमिट कराती हैं तो पता चलता है कि डॉक्टरों की हड़ताल चल रही है । जीवन-मृत्यु के बीच झूलते हुए अपने बच्चे को ऐसी स्थिति में पाकर माँ परेशान तो होती है पर धैर्य नहीं खोती । अपनी एक पूर्व सहकर्मी के माध्यम से राज्य के स्वास्थ्य मंत्री से बेटे को बचाने की गुहार लगाती है और इलाज की पूरी व्यवस्था करती है । तीन महीने तक बिस्तर पर पड़े बेटे की तिमारदारी के लिए वह जूनियर कॉलेज में पार्ट टाईम लेक्चरर की नौकरी छोड़ देती है । अपने सगे-संबंधियों की हर तरह से मदद करने के बाद भी जब वे मुँह मोड़ लेते हैं, रिश्तों में खटास आती है, ससुराल में जायदाद का बंटवारा हो जाता है तो अहिल्या मिश्र को स्वाभाविक दुःख तो होता है, क्षण भर के लिए विक्षिप्त तो होती हैं पर, वे संयम व धीरज से स्वयं एवं परिवार को संभालती हैं । एक सड़क दुर्घटना में घायल हो जाने पर जब अस्पताल में लेखिका के पैर का ऑपरेशन हो रहा होता है उसी समय सुदूर बिहार में गंगा के किनारे माँ की चिता जल रही होती है । अपनी माँ का अंतिम दर्शन नहीं कर पाने की असीम वेदना भी वे स्वयं में जज़्ब होकर झेल जाती हैं । पति का अचानक एक दिन अपनी फैक्ट्री में कुर्सी से गिरने के बाद ब्रेन हैमरेज होने से उनके शरीर का एक भाग पक्षाघात से ग्रसित हो जाता है । डेढ़ महीने तक अस्पताल में पड़े रहने के दौरान अहिल्या मिश्र अपने पत्नी धर्म का निर्वाह करते हुए दिन-भर पति की तिमारदारी करतीं हैं । पति के अस्पताल से वापसी के बाद स्वयं अहिल्या जी कैंसर से ग्रसित हो जाती हैं । पर, कैंसर की बात बताने से पति की हालत और बिगड़ सकती है, इसलिए पत्नी ने यह बात अपने पति को नहीं बतायी । उन्होंने अपनी शारीरिक और मानसिक वेदना से अस्वस्थ पति को अछूता रखा । उन्हें लगता है कि यदि उन्हें कुछ हो गया तो पति इसे कैसे झेल पाएंगे । इसलिए वे पति से दूरी बनाने का निश्चय करती हैं ताकि वे अलग रहने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो सकें । वे कहती हैं, ‘ दैहिक आधार लिए प्रेम स्वार्थ-सिद्धि का मकड़जाल है । व्यर्थ की मृग मरीचिका में पड़कर अपने को विनष्ट करना हतचिंतन ही है । जीवन यात्रा में एकाकी चलना बहुत दुस्सह है । मेरी यात्रा जिसे अब मैं पूरा कर रही हूं, यह संगी-साथी के साथ चलने हेतु बनी ही नहीं है । एकाकी ही इस संघर्ष को जीना, भोगना पड़ेगा ।‘ पक्षाघात के कारण पति की शारीरिक लाचारी, उनके निरंतर देखभाल की आवश्यकता की तनावपूर्ण स्थितियों के बीच लेखिका के शरीर में कैंसर के रूप में मौत अपनी दरारें फाड़ती आगे चलती रही किंतु वे जिद्दी जिजीविषा के साथ हुलास से आगे बढ़ती रहीं । लीक से हटकर चलने वाली इस स्त्री में सदा अपने होने का अहसास उबलता रहा और वह छोटी-छोटी आशाओं, उम्मीदों के टुकड़ों से मौत की दरारें पाटती रही । वह मानती हैं कि – ज़िंदगी तुझसे हर क़दम पर / समझौता क्यों किया जाये / शौक़ जीने का है मग़र इतना भी नहीं / कि मर-मर कर जिया जाये ।
अहिल्या मिश्र तो अपनी बिमारी से उबर जाती हैं लेकिन पति में अपनी शारीरिक लाचारी, बिमारियों का मानसिक तनाव व खाने-पीने के परहेजों के कारण जीने की इच्छा कम होती गई । चार्वाक दर्शन के अनुगामी और अपनी शर्तों पर जीने वाले भोगवादी सोच व विलासी स्वभाव को प्रमुखता देने वाले पति कहते, ‘ मैं जावत जीवेत सुखम जीवेत, ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेत को अपना जीवन-सूत्र मानता हूं । मैं जानता हूं कि जीवन क्षणिक है । जो मेरा है उसे मैं अपने तरीके से जीऊँगा, भोगूँगा । मेरा जीवन मेरा है, मैं किसी और के अनुसार इसे क्यों जीऊँ ? क्यों न यह मेरी तरह जिए । चलो, मैं किसी की आजादी में कोई दख़ल नहीं देता, तो कोई मेरे सिद्धांतों में भी दख़ल न दे । मुझे जो पसंद है मैं वही करूंगा ।‘ पति द्वारा खाने-पीने का परहेज छोड़ देने से उनके सेहत में लगातार गिरावट आती गई । स्वयं कैंसर के ईलाज से जूझकर आई अहिल्या जी पति की यह हालत देखकर अत्यधिक मानसिक परेशानी झेलते हुए किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में आ जाती हैं । और, सारे उपचार के बावजूद पति ने अपने उनहत्तरवें जन्म-दिन के चार दिनों बाद सुबह में परिवार और दुनिया को अलविदा कह दिया । पति-पत्नी के जीवन दर्शन, जीवन मूल्यों में बुनियादी फासला होते हुए भी दोनों रेल की समानांतर पटरियों की तरह बखूबी सांमजस्य बिठाए साढ़े चार दशक तक बिना अवरोध के अपने सफल दाम्पत्य जीवन की गाड़ी चलाते रहे । इस सदमे से अहिल्या जी अपने नाम के समानान्तर अहल्या-सा पत्थर तो नहीं बनीं किन्तु पथरा अवश्य गईं । रोना वैसे भी उन्हें पसंद नहीं है । एक बार अपनी सहेली से उन्होंने कहा था,‘ मुझे किसी हाल आँसू पसंद नहीं हैं । मेरे मरने पर कोई आंसू न बहाए । मैं अपनी वसीयत में लिख कर जाऊंगी कि मेरे लिए एक समाधि बना देना और उस पर लिख देना कि यह उस स्त्री की समाधि है जिसने कभी आंसू नहीं बहाए, सदा हंसती रही या चुप रही । क्रोध में आने पर अक्सर फुफकारते हुए दहक उठती थी । अतः यहां आकर हंसना ही होगा । रोने से उम्र ही घटती है ।’ अपनी आत्मकथा में अहिल्या मिश्र अपना जीवन-सूत्र उद्घाटित करती हैं – उत्साह, साहस, दुस्साहस, जिद्द, कर्म करना, आगे बढ़ना, कल को पीछे छोड़ देना, भुला देना, अपने समय को अतीत पर व्यय होने से बचाना, केवल आगे बढ़ते जाना, रूकना नहीं, थकना नहीं, कुछ अधिक सोचना नहीं, कर जाना जो मन में आए, केवल उसके सही गलत की जांच अपने सिद्धांतों के अनुसार करना । इस सूत्र को जीने वाली अहिल्या मिश्र को अपने पति को खोने के बाद भी लगा कि उन्हें स्त्री शक्ति का एक उदाहरण बनने की राह पर आगे बढ़ते रहना है । वे लुंज-पुंज होकर पथराई नहीं रह सकतीं । उन्हें लगा, कोई आवाज दे रहा है, ‘उठ, देख, मैं जीवन, इस दीवार की दरार से झांक कर तुझे कर्म हेतु आवाज दे रहा हूं । अभी बहुत कुछ करना शेष है । निर्माण का ज़खीरा लगा है, तुझे सारे पूरे करने हैं । उठ, चल, उठ, आगे बढ़ ।’ और, अहिल्या मिश्र आगे बढ़ती रहती हैं, सतत, निरंतर, आज भी क्योंकि उन्हें अभी ‘कुछ दर्द मिटाने बाकी हैं / कुछ फ़र्ज़ निभाने बाकी हैं ।’

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