अपने फ़्लैट की खुली खिड़की से उसने सामने पहाड़ी की तरफ़ इशारा किया –“वह देखो सामने वाली पहाड़ी पर पतझड़ का मारा रुंडमुंड-सा एक अकेला पेड़! मैं भी बस वही हूं, वैसा ही हूं! वह भी अकेला, मैं भी अकेला। हम दोनों में बातें होती रहती हैं।”
एक पेड़, एक पुरुष! कहां दूर का वह वृक्ष, कहां मेरी बग़ल में बैठा वह पूरा इंसान। यह था जिम, मेरा टैक्सी ड्राइवर कम गाइड। पूरा नाम — जेम्स हिल। पूरा पागल?
शायद नहीं! पर वह नीमपागल तो है ही। खोया-खोया, उदास-सा रहता है ॰ ॰ ॰ जैसे अपने को ही ढूंढ रहा हो। कभी-कभी मैं भी सोचा करता हूं कि ऐसा खोया -खोया-सा इंसान मेरा गाइड कैसे बन गया? ॰ ॰ ॰ लेकिन बन गया!
उस दिन उसका जन्मदिन था। अपने जन्मदिन पर उसका यह कैसा पगला सवाल था?
“उस पेड़ के इर्दगिर्द ज़मीन पर बिखरे कितने सूखे पत्ते होंगे?”
“होंगे सैंकड़ों ॰ ॰ ॰ हज़ारों। हमें क्या?”
“वे पत्ते नहीं, सपने हैं मरे हुए!”
जिम से मेरा परिचय कराया था पर्थ, दक्षिण-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में मेरे ममेरे भाई राजीव और नेहा भाभी ने। मैं उन दिनों इंग्लैंड से एक रिसर्च प्रॉजेक्ट के सिलसिले में था वहां। सिर्फ़ तीन महीने के लिये। दो चार दिन की बात होती तो कुछ और बात थी। दोनों में से किसी एक की कार मांग लेता। लेकिन तीन महीने की बेशर्मी कैसे कर लेता? राजीव ने जेम्स हिल की टैक्सी का प्रबंध कर दिया।
सुबह-शाम हम एक साथ रहते। लंच-डिनर एक साथ करते। पता ही न चला कब मैं ‘सर’ से ‘मिस्टर दीपक’ हो गया। दोस्ती हो गई और फिर यह औपचारिकता भी नहीं रही और मैं ‘दीपक’ से अंग्रेज़ी का एक सर्वनाम, ‘यू’ बनकर रह गया। उसकी टैक्सी का भाड़ा हर शाम देना बनता था मगर उसी न सुझाया कि मेरी यात्रा के अन्तिम दिन पूरा हिसाब हो जाएगा। मेरी सुविधा भी इसी में थी। उसकी बात मान ली। लेकिन पेड़ और सूखे पत्तों वाली उसकी बात मैं कैसे मान लेता? मैंने भी बेझिझक कह दिया–
“न तुम सूखा पत्ता हो, न पेड़, न पहाड़ी! अपने जन्मदिन पर ये कैसी बातें कर रहे हो? ॰ ॰ ॰ और अकेले क्यों हो? भले-चंगे इंसान हो। ख़ूबसूरत हो, अच्छा कमा लेते हो। कोई गर्ल फ़्रेंड ढूंढो और शादी कर लो।”
“थी एक आदिवासी लड़की, अल्कीना! बिना ढूंढे ही मिल गयी थी।”
“फिर क्या हुआ?”
“छूट गयी!”
झट भूल सुधार किया, “छूट नहीं गयी, छिन गयी। सभी कुछ छिनता रहा है। झेलता रहा हूं। अब तो आदत पड़ गयी है।”
अपने अकेलेपन का सबूत भी जिम ने स्वयं दे दिया। अपने जन्मदिन पर उसने किसी पार्टी, वार्टी का आयोजन नहीं किया। बस वह था और मैं। दोपहर में ही पब में पीना-पिलाना शुरू हो गया और काफ़ी देर तक चलता रहा। फिर जिम ने ज़िद पकड़ ली कि मैं उसके घर चलूं। बहुत सी बातें करनी हैं।
जिम का दो कमरों वाला फ़्लैट! भीतर प्रवेश करते ही देखा ड्राइंगरूम में सामने वाली दीवार के साथ जुड़ा हुआ उसका पलंग। पलंग से कुछ उंचाई पर एक खिड़की ॰ ॰ ॰ जैसे पहाड़ी पर के उस पेड़ को निशाने में रखकर वहां फ़िट की गयी हो। कमरे में घुसते ही जिम ने उस पलंग के क़रीब से उस पेड़ को नमन किया मानो वह उसका कोई देवता, कोई सम्राट हो।
पागल हरकत, पगली सफ़ाई!
“तुम्हारा क्या तुम तो पन्द्रह-बीस दिनों में इंग्लैंड भाग जाओगे। फिर वह भी अकेला, मैं भी अकेला। दूसरे कमरे की खिड़की से वह पेड़ दिखाई नहीं देता। इस लिए पलंग यहां लगा दिया है। उस पेड़ को देखता हूं, फिर बातें करता हूं। अजीब-सी अच्छी फ़ीलिंग होती है, सहारा मिलता है।”
क्या पागलों की भी कोई ‘फ़ीलिंग’ होती है? सड़कों पर अकेले में बड़बड़ाते कितने पागल देखते हैं हम! क्या उनकी भी वैसी ही ‘फ़ीलिंग’ होती है?
जिम की उन ‘बहुत-सी’ बातों की यह उदास भूमिका थी। सोचा, उसका मूड बदलूं —
“कम से कम आज के दिन तो हंसो, खेलो ख़ुशियां मनाओ। क्या ऐसे मनाते हैं जन्मदिन? कहीं अच्छी जगह चलते हैं, डिनर करते हैं। फिर तुम्हारा बर्थडे केक काटेंगे।”
“मैं जन्मदिन का केक नहीं काटा करता। मेरा जन्मदिन, मदर्स डे और क्रिसमस का दिन ॰ ॰ ॰ ये तीन मेरे सबसे उदास दिन हैं ।”
“ग़ज़ब करते हो। यह भी कोई बात हुई?”
लेकिन बात तो थी। उसने कहा, “तन्त्र कोई भी हो जब हुकूमतें ज़ुल्म पर आती हैं तो ख़ुदा का लिखा भी बदल देती हैं, क़यामत बरपा कर देती हैं! मैं तो एक मिसाल भर हूं, मेरे जैसे कोई दस हज़ार शिकार और भी हैं।”
“क्यों? क्या हुआ था?”
“तुम सुनोगे? सुन सकोगे? तुम्हारे इंग्लैंड के नॉटिंघम में हैं वे मातृदेवी, एक श्रद्धेय सोशल वर्कर, मार्ग्रेट हंफ़्रीज़। उन्हींसे सुना था पूरा क़िस्सा।”
पागलों वाली बात नहीं थी यह! सुननी पड़ी दस हज़ार कहानियों की उसकी एक कहानी जो दो सभ्य और सुसंस्कृत देशों — इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया — की कहानी भी है!
जेम्स हिल जैसे दस हज़ार बच्चों को जो कहने को ‘केयर’ में थे, सरकारी परवरिश में थे, इंग्लैंड से निकालकर ऑस्ट्रेलिया में फेंक दिया गया। दोनों देशों की सरकारों के बीच हुए एक अत्यंत ख़तरनाक, गुप्त और घिनौने समझौते के तहत। कोई काग़ज़ पत्तर नहीं, पासपोर्ट नहीं ॰ ॰ ॰ बस फेंक दिया! मक़सद? नग्न नस्लवाद और ग़रीब-मासूम बच्चों का निरंकुश शोषण! बदनामी के डर से इस नीच षडयंत्र में कैथलिक ब्रदर्स, साल्वेशन आर्मी, बर्नार्डोज़ जैसी लोक-सम्मानित धार्मिक और सामाजिक कल्याणकारी संस्थाएं भी शामिल कर ली गयीं। पैसा सरकारी लगता किन्तु सुविधानुसार इन संस्थाओं को आगे कर दिया जाता।
ब्रिटेन की ‘केयर’ में बच्चों का दैनिक ख़र्चा था पांच पाउंड जबकि ऑस्ट्रेलिया में यह था केवल दस शिलिंग (आजके पचास पेंस)। ब्रिटेन को हुई प्रति बच्चा प्रतिदिन साढ़े चार पाउंड की बचत। ऑस्ट्रेलिया की नस्लवादी सरकार को हुआ दोहरा फ़ायदा। ऑस्ट्रेलिया को मिले मुफ़्त के नन्हे मज़दूर और काले आदिवासियों के मुक़ाबले गोरों की आबादी की वृद्धि। बाद में गोरे, गोरियों की परस्पर शादियों के फलस्वरूप इस बढ़ोतरी का हुआ ज़बरदस्त multiplier effect!
बीस सालों में कोई दस हज़ार बच्चे आराम से खपा लिए गए। माताओं को ‘दुश्चरित्र’ कहा गया और पिताओं को ‘नाकारा’; और फिर झूठ पर झूठ! बच्चों को कह दिया कि उनके माता पिता नहीं रहे और मां बाप को कहा गया कि उनके बच्चे कुलीन, धनी और भले घरों में गोद ले लिए गए हैं और अब वे उनके संपर्क से दूर रहेंगे। वे बच्चे इंसान नहीं थे, लूट का माल थे और लूट के माल की तरह उनका दुष्प्रयोग भी हुआ।
जिम को तो अपनी कहानी कहनी थी। वह एक झटके से उठा और दूसरे कमरे में चला गया। लौटा तो उसके हाथ में एक भूरे-से रंग का रजिस्टर था। वैसे ही मरियल से भूरे-पीले पन्ने थे उस रजिस्टर के। देखते ही मेरे मुंह से निकला, “स्क्रैप बुक!”
“यस, स्क्रैप बुक ऑफ़ अ स्क्रैप लाइफ़ (एक रद्दी ज़िंदगी का कतरन रजिस्टर)! इस में बसी हुई हैं मेरी ज़िंदगी की बहुत-सी तीखी-कड़ुवी यादें। नौ साल की कच्ची उम्र में मेरी मम्मी का यह अंतिम तोहफ़ा!” “तो नौ साल की उम्र में तुम्हारी मां चल बसीं?” “नहीं! वे भी छिन गयीं। वे इंग्लैंड में कहीं होंगी और मैं यहां ऑस्ट्रेलिया आ पहुंचा!”
जिम ने मां के उस अन्तिम उपहार को एक धर्म-पुस्तक की तरह चूमा, माथे से लगाया और पृष्ठ पलटने लगा।
पहली तस्वीर नवजात जिम की थी, जिसपर उसकी मां के हाथ से दर्ज किया उसका जन्म-समय और तिथि उकेरे हुए थे। कुछ तस्वीरें स्कूल-प्रवेश तक उसके बाल्यकाल की थीं ॰ ॰ ॰ नन्ही नन्ही खिलौना कारें, रबड़ की छोटी-बड़ी गेंदें और प्लास्टिक का क्रिकेट-बल्ला, वग़ैरा-वग़ैरा।
मार्गरेट ने चुन चुनकर बड़े प्यार से स्क्रैप-बुक में चिपकाई होंगी वे कतरनें। एक कतरन में पहली बार बिंदुओं से जुड़े उसके हाथ का लिखा हुआ था उसका नाम, ‘Jim’। वह पन्ने पलटता रहा। कई जगह उन कतरनों में मां के प्रति छलकते उसके प्यार की लिखावटें भी दिखाई दीं।
‘Mum’ ‘My mum’ ‘I love my mum’
और फिर ‘xxx’ का निशान।
रुंधे हुए स्वर में बयान हुई उस कतरन की कैफ़ियत, “तब पहली बार मम्मी ने मुझे समझाया था कि हर वाक्य के अंत में ‘फ़ुल स्टॉप’ भी लगाना होता है और तुम मम्मी से प्यार करते हो तो चुम्बनों के निशान ‘xxx’ भी जोड़ो।”
जिम की भीगी आंखें मेरी आंखों से मिलीं, “देख लो तुम भी! मेरी लिखाई सुधरती रही, तक़दीर बिगड़ती रही। यह ‘फ़ुल स्टॉप’ सदा के लिए हम मां-बेटे के बीच आ गया और जैसे ग़लत लिखाई को काग़ज़ पर से काट दिया जाता है, चुम्बनों के ‘xxx’ बन गये काटे के निशान!”
स्क्रैप-बुक के एक पन्ने पर मां-बेटे की फ़ोटो चिपकी हुई थी। उसके नीचे मार्गरेट हिल ने कैपिटल अक्षरों में दक्षिण लंदन के क्रॉयडन में स्थित अपने घर का पता और फ़ोन नंबर लिख रखे थे। जिम की हथेली उसकी मम्मी के लिखे पच्चीस साल पुराने अपने फ़्लैट के पते पर यों फिर गयी मानो अपनी इस प्रक्रिया से उसने समय की फिरकी को सालों पीछे घुमा दिया हो और सात समंदर पार फिर से अपने घर की दहलीज पर जा खड़ा हुआ हो!
फिर बरबस उसकी चीख़ निकली, “हिटलर के सहचरो, यह तिल-तिल की मौत क्यों सौंप दी हमें? किसी गैस-चैंबर में डाल देते, गोली से उड़ा देते!”
दस हज़ार आवाज़ों में ऐसी ही चीख़ें और भी होंगी! गोलियों, गैस-चैंबरों से कैसे मिलते मुफ़्त के ग़ुलाम, वे बाल-मज़दूर? कैसे बढ़ती ऑस्ट्रेलिया में गोरी आबादी?
यह थी जिम की ‘बहुत सी’ बातों की पहली उदास क़िस्त! वातावरण भारी हो गया था। बड़ी मुश्किल से मैंने जिम को बाहर चलकर एक अच्छे रेस्तोरां में डिनर के लिए मनाया।
जिम की पूरी कहानी मैंने सुन ली है। उसकी मम्मी रोमन कैथलिक थीं; पोप की अनुचर। और डैडी प्रोटेस्टेंट; चर्च ऑफ़ इंग्लैंड के अनुयायी! शादी हुई नहीं और मार्गरेट और डेविड एक साथ रहने लगे और जिम का जन्म हुआ। वह नौ साल का था जब एक रात अचानक डेविड घर छोड़कर चला गया। उसी की कमाई से घर चलता था और मार्गरेट हो गई एक ग़रीब ‘ सिंगल मदर ’। उसने घर में ही कुछ टाइपिंग और सिलाई का काम शुरु कर दिया था और किसी तरह से मां-बेटे का गुज़ारा चल रहा था। फिर भी मां से बेटे को झपटने के बहाने तराशे जाने लगे।
एक दिन क्रॉयडन काउंसिल के कर्मचारी आए और एक छपे हुए फ़ॉर्म पर अपना फ़तवा लिख गए – ‘Single mother, no stable income, James Hill (9) to be taken into Council care.’
फिर आए पादरीनुमा कैथलिक ब्रदर्स। लम्बे-लम्बे काले चोग़े; लम्बी-लम्बी दाढ़ियां। न उनमें ईसाइयत थी, न इंसानियत! दाढ़ियों की ओट में छिपे गर्दनों से लटकते उनके क्रॉस, ईसाइयत के इस धर्म-चिन्ह को भी लज्जित करते होंगे। उनका बहाना अलग था। मार्गेरेट ने बिना विवाह के एक विधर्मी से नाता जोड़कर एक bastard को क्यों जन्मा? बहुत चिल्लाई थी मार्ग्रेट, “‘डेविड बेवफ़ा निकला ॰ ॰ ॰ मेरी क़िसमत! शादी हुई हो या न भी हुई हो, सहधर्मी हो या विधर्मी, तुम्हारे पास कोई गॉरंटी है कि कोई किसी सूरत में बेवफ़ा नहीं होता, किसी को छोड़कर नहीं जाता?”
वे अपना सा मुंह लेकर चले गए।
एक तयशुदा नीति थी कैथलिक ब्रदर्स की — पहले गर्म, फिर नर्म! अब उनकी ओर से पेश हुआ मीठा ज़हर! एक और पादरीनुमा अजनबी ब्रदर जॉन घर में आने जाने लगा। वही हुलिया पर बड़ी-बड़ी बातें और फ़रिश्तों जैसे मीठे-विनम्र बोल। वह मार्गरेट को ‘माई चाइल्ड’ और जिम को ‘डीयर लिट्टल सन’ कहकर बुलाता था। उसने विश्वास दिलाया कि कैथलिक ब्रदर्स की नज़रों में वे सदा रोमन कैथलिक ही रहेंगे और दोनों मां-बेटे को कैथलिक ब्रदर्स की ‘केयर’ में रखा जाएगा। जिम को काउंसिल की ‘केयर’ में नहीं जाने दिया जाएगा। ब्रदर जॉन ने मार्गेरेट को अपने संगठन में एक अच्छी फ़ुल-टाइम नौकरी दिलवाने का भी वचन दिया। वह नौकरी के लिए ‘हां’ कैसे कर देती!।प्रश्न जिम का था। उसे कौन संभालता?
जिम ही तो था उनके निशाने पर! उसी को लेकर तो रचा जा रहा था वह प्रपंच। केवल शहद में घुले शब्दों से बात नहीं बनने वाली थी। जॉन परिवार के सदस्यों की तरह हर तीसरे-चौथे दिन कभी फूल, कभी चॉकलेट लेकर पहुंच जाता। धीरे-धीरे इन छोटी छोटी मेहरबानियों के दम पर उनके साथ बिल्कुल अपनों की तरह घुलमिल गया और बन बैठा उनका अभिभावक। उसने दूर ऑस्ट्रेलिया की सच्ची-झूठी प्रशंसा में वहां की सुहानी हरियाली मार्गरेट के ठीक आगे बिछा दी।
रात में जो सपने हम देखते हैं, आते हैं गुज़र जाते हैं। अगली सुबह तक याद भी नहीं रहते। लेकिन जागृतावस्था में जब कोई दूसरा सपने उंडेलता है, वे गुज़रते नहीं। कई बार भीतर कहीं बैठ जाते हैं, घर कर लेते हैं! ब्रदर जॉन को इस कला में कमाल हासिल था। कौन जाने इससे पहले उसने कितनी माओं को बेवक़ूफ़ बनाया होगा!
“इंग्लैंड, बिल्कुल तंग और घुटा-घुटा-सा! यहां धूप कहां॰ ॰ ॰ सिर्फ़ बादल, बारिश और बर्फ़। उधर ऑस्ट्रेलिया – एक महाद्वीप। हर मौसम में सुनहली धूप में पलते-पनपते दूर -दूर तक खुले-फैले खेत और फलों के बगीचे! संपूर्ण जन्नत है वह देश। खेतों-बाग़ों की सैर करेगा तुम्हारा लाल! हर तरह के ताज़ा फल खाएगा। नए-नए दोस्त बनाएगा। घोड़ा-बग्घी में बैठकर स्कूल जाएगा। हर रोज़ सैंकड़ों-हज़ारों लोग यहां से वहां योंही तो नहीं भाग रहे। तुम्हारे पास भी यहां फ़ुल-टाईम नौकरी होगी। कुछ ही महीनों में तुम भी ख़ूब सारे पैसे बचाकर बेटे के पास चली जाना।”
तभी जिम कमरे में आ गया। ब्रदर जॉन ने उसी से पूछा, “तुम यहां सरकारी ‘केयर’ में जाओगे या ऑस्ट्रेलिया?”
नौ साल का अबोध बालक। बिछोह की व्यथा से अनभिज्ञ। समुद्र-सैर की उकसाहट में झट से कह गया, “ऑस्ट्रेलिया!”
मुसीबतों की गुफ़ा में क़ैद मार्गरेट धोखा खा गई। उसके मुंह से निकल गया, “सोचना पड़ेगा!”
जेम्स को ले जाने के लिए कौंसिल के कर्मचारी एक दिन फिर आ धमके। मार्गरेट ने कहा था ‘सोचना पड़ेगा’, पर विचाराधीन बात कोमौक़े पर मौजूद ब्रदर जॉन ने अपनी ओर से अंतिम निर्णय में बदल दिया। कर्मचारियों को यह कहकर लौटा दिया कि दोनों मां-बेटा कैथलिक ब्रदर्स की ‘केयर’ में हैं और ऑस्ट्रेलिया भेजे जा रहे हैं; पहले जिम की बारी है, तीन महीने बाद के एक समुद्री जहाज़ में उसकी बुकिंग है। मां बाद में बाइ एयर चली जाएगी।
मार्गरेट कुछ न कह सकी। बस सोच लिया कि कम से कम तीन महीने के लिए बुरी घड़ी टल गयी। लेकिन तीन महीने कितने होते हैं ॰ ॰ ॰ गुज़रते देर नहीं लगती। बेटे से बिछोह का ख़ौफ़ मार्गरेट को खाए जा रहा था। दोनों मां-बेटा एक ही कमरे में सोते थे। एक रात जिम ने सुनीं मां की सिसकियां। वह उससे जा लिपटा।
“तू चला जाएगा ॰ ॰ ॰ अकेला, इतनी दूर!”
“बाद में आप भी तो वहां आने वाली हैं।”
“तू अभी बहुत छोटा है। पहले कभी मुझसे अलग नहीं हुआ। इतने दिन मेरे बिना कैसे रहेगा?”
यही प्रश्न मन ही मन मार्गरेट अपने से भी पूछती होगी, ‘मैं जिम के बिना अकेली कैसे रहूंगी!’ ॰ ॰ ॰ और फिर वही आश्वासन जो ऐसे समय माएं मांगा करती हैं और वही वचन जो दिए जाते हैं — तमाम उम्र न भूलने की क़समें!
अब वहां बिछोह की उदासियां भी थीं और उज्जवल भविष्य के सपने भी!
साउथेम्प्टन। मार्गरेट ने देखा कि उस समुद्री जहाज़ पर सवारी के लिए जैट्टी पर कोई अस्सी-सौ लड़के-लड़कियां और भी थे। कई तो देखने में जिम से भी छोटे थे। एक-दो बच्चे तो केवल तीन या चार साल के होंगे और साथ में कोई व्यस्क भी नहीं!
विदाई की बेला! मां ने बेटे को गले लगाया। चुंबनों से उसका मुखड़ा धोया। फिर ढेरों नसीहतें दीं — भूल मत जाना, ख़त लिखना, अच्छे बच्चे बनना, पढ़ाई -लिखाई में ध्यान लगाना, सिर्फ़ खेल-कूद में समय मत गंवाना।
जिम का ट्रॉली-सूटकेस उसके नन्हे से हाथों में काफ़ी भारी लगता था, संभल नहीं रहा था। जहाज़ के गैंगवे पर वह कुछ ही क़दम चला होगा जब मार्गरेट की ममता ने जोश मारा, “या मेरे जिम को जहाज़ से उतारो, या मुझे भी साथ जाने दो।”
जवाब में सुनने को मिली एक अफ़सरी फटकार — “ बिना टिकट, बिना पासपोर्ट के कैसे जाओगी तुम? इन सबका तो सामूहिक पासपोर्ट है।” सामूहिक पासपोर्ट? ॰ ॰ ॰ कोरा झूठ!
ब्रदर जॉन दहाड़ा, “उसका किराया भरा है कैथलिक ब्रदर्स ने! जिम को उतार देते हैं, तुम किराया लौटा दो!”
मां के ठीक सामने खड़े उसके बेटे की फिरौती मांगी जा रही थी! कैसा ‘ब्रदर’ है यह आदमी? यही जॉन कुछ दिन पहले मार्गरेट को ‘माई चाइल्ड’ और जिम को ‘डीयर लिट्टल सन’ कहकर बुलाया करता था।
मार्गरेट रोती-चिल्लाती रही। जिम मां को ‘वेव’ करता रहा। जहाज़ का सायरन बजा और वह सागर की ओर बढ़ चला।
बीच सागर में जहाज़। एक हॉल में सभी लड़के-लड़कियों को इकठा किया गया। उनके नाम और जन्म-तिथियां बदल दी गयीं, ताकि भविष्य में उनका कोई अपना, कोई अभिभावक इन्हें अपनाना भी चाहे तो आसानी से तलाश न कर सके। वे मुजरिम तो थे नहीं फिर भी उनकी उंगलियों के निशान तक लिए गए। यदि ऑस्ट्रेलिया में कोई भाग भी जाए, तो फिर पकड़ा जा सके। कोई पीटर से हेनरी हो गया, कोई सूज़न से कैथरीन बन गई!
जिम ने ज़िद पकड़ ली। चीख़-चीख़कर रोने लगा– “मेरा नाम और जन्म-तिथि इस स्क्रैप-बुक में लिखे हुए हैं, नहीं बदले जा सकते। मेरी मम्मी ने कहा है कि ख़त लिखता रहूं। किसी दूसरे नाम से ख़त लिखूंगा तो वे मुझे कैसे पहचानेंगी?”
॰ ॰ ॰ और ज़िद चल गयी।
छह महीने की लम्बी समुद्री यात्रा के बाद जहाज़ पर्थ के फ़्रीमेंटल घाट पर किनारे लगा। वहां के आर्चबिशप ने उन्हें उपदेश दिया, “You are of a good white stock. यूरोपियन इसाई मूल्यों का सदा ध्यान रखना। हम यहां के काले-असभ्य आदिवासी जंगलियों का बहिष्कार नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें अपने समाज में शामिल करने से पहले हमें उन्हें शिक्षित करना है, सभ्य बनाना है।”
इशारा साफ़ था — आदिवासियों का तिरस्कार, नफ़रत!
समुद्री यात्रा के दौरान लड़के-लड़कियों में घनिष्ठ मैत्री हो गयी थी। वे स्नेह-बंधन भी एक ही झटके में काट दिए गए। घाट के एक कोने में लड़कों को खड़ा कर दिया गया और लड़कियों को दूसरे कोने में। ‘केयर’ में आए कई सगे भाई-बहन भी थे। वे चीख़ते-चिल्लाते रहे। भाई अलग कर दिए गए और बहनें अलग।
दूर कहीं कोई जन्नत भी होगा, लेकिन इन बच्चों के लिए ऑस्ट्रेलिया में जहन्नुम की कई शाख़ाएं थीं; जैसे क्वींज़्लैंड में रॉकहैम्पटन के समीप तथाकथित सन्यासिनों ‘Sisters of Mercy’ द्वारा संचालित नीरकोल का रोमन कैथलिक अनाथालय।
सद्भावना और स्नेह-रहित अत्यंत क्रूर थीं ये Sisters of Mercy! इस अनाथालय के फ़र्श लकड़ी के थे। ज़रा-ज़रा सी बात पर लड़कियों को फ़र्श के तख़्तों के नीचे अंधेरे में क़ैद कर दिया जाता जब तक घुटन में वे मौत की कगार तक न पहुंच जातीं। लड़कियों के नाख़ून उखाड़ दिये जाते; तेज़ उबलते पानी में उनके अंग जलाए जाते। पर्थ में अलग किए गये दो सगे भाई-बहन एक बार फिर मिल गए। बड़ी मुश्किल से एक भाई ने बहन को नीर्कोल में ढूंढ निकाला। दोनों एक दूसरे के गले भी मिल सकते थे। जोश में आई बहन ने भाई का हाथ क्या पकड़ा, उसकी पिटाई शुरू हो गयी। दिखावे की सन्यासिनें उसका हाथ भी काट देतीं तो कौन पूछने वाला था? उन्होंने रहम किया। हाथ की हड्डी तोड़ डाली। एक लड़की की गुदा में जलती सलाख़ डाल दी गयी। उसके भीतर से शैतान भगाना था, इसलिये!
कहने को वे सब सन्यासिनी थीं। वे लड़कियों का समलैंगिक यौन शोषण भी करतीं। फिर उन्हें अनाथालय के पुरुष सहयोगियों को बलात्कार के लिए सौंप देतीं।
एक दूसरा जहन्नुम था बिंडून — पर्थ से कोई अस्सी किलोमीटर उत्तर में एक शहर। बहुत से अभागे लड़कों को वहां पहुंचा दिया गया। वह बना उनका Bin of Doom यानी सर्वनाश का कूड़ेदान! वहां कैथलिक ब्रदर्स का एक दूसरा मुखौटा था — क्रिस्टियन ब्रदर्स। इस संस्था का संचालक था ब्रदर फ़्रांसिस कीनी। उसकी मनोकामना थी वहां रोमन कैथलिक धर्म के प्रतिष्ठान में एक विशाल भवन का निर्माण। अब हाज़िर थे ये बाल ग़ुलाम और ग़ुलामी में उनके मासूम कपोलों पर आंसुओं से लिखी जा रही थी इनकी कहानी! पानी से मुखड़े धुल जाते होंगे मगर गुस्ताख़ आंसू फिर आ जाते। आंसुओं से लिखी यह कहानी आंसुओं से धुलती रही मगर ज़ुल्म कम नहीं हुए!
भरपेट भोजन था अधिकारियों के लिए और बच्चों को मिलते बचे-खुचे टुकड़े। तिस पर भूखे पेट, मैले-कुचैले वस्त्रों में, नंगे पांव वे कर रहे थे भवन का निर्माण। कंक्रीट-मिश्रण, चूने का काम — सब हाथों से करना होता था। छाती से पेट तक के लंबे भारी पत्थर भी उठाने पड़ते थे। कहने को काम धार्मिक था किंतु घायल-बीमार बच्चों की चिकित्सा का वहां कोई धर्म नहीं था। ज़रा-सी भूल पर चमड़े की चार-चार पेटियों के सिले हंटरों से पिटाई होती थी। एक पड़ जाता तो मरने को जी करता! पिटाई होती रहती। कोई हड्डी फ़्रैक्चर हो भी जाती तो क्या? कितने मर गए, कितनों ने ख़ुदकुशी की? लाशों का हिसाब कौन रखे? चुपचाप फूंक दिए गए, दफ़ना दिए गए!
अत्यंत भूखा होगा बारह वर्षीय जॉन हेनेस्सी; जब कुछ बच्चों को लेकर वह अंगूरों के बाग़ में जा पहुंचा। भरपेट अंगूर खाए। वापसी पर नंगा किया गया और पचास लड़कों के सामने चार पेटियों वाले हंटर से पिटा। चाबुकों, हंटरों से बच्चों की मार तो वहां की दैनिक प्रक्रिया थी।
प्रस्तावित भवन के चारों ओर दूर-दूर तक फैली थी ख़ाली ज़मीन जहां पर खेती होती थी और फलों के बाग़ लगाए गए थे। कहा जाता है कि यह सब ज़मीन या तो आदिवासियों से हथियाई गयी थी या औने-पौने दामों पर ख़रीदी गयी थी। जिम अभी बहुत छोटा था। बिल्डिंग का काम तो वह क्या करता, उसे बाग़ में फलों की पेटियों भरने पर लगा दिया गया। इंगलैंड में ‘हर तरह के ताज़ा’ फलों का लालच दिया गया था। अभी उसने एक सेब दांतों से काटा ही था कि सब लालसा ठंडी हो गयी जब कपोलों को गर्मागर्म चांटों का सेंक मिला — “चोरी के फल खाएगा तू?”
लड़कों का यौन-शोषण भी लगातार चल रहा था। रात को बिस्तरों में और दिन में दूर तक फैले खेतों-उद्यानों में। कौन देखता-सुनता था? कभी किसी बच्चे ने एतराज़ किया तो उसे पास के किसी पेड़ के तने से बांधकर मतलब निकल जाता! जिम कई बार शिकार हो चुका था। लड़के अपने दुख किससे कहते? ॰ ॰ ॰ काश पेड़ बोल सकते!
शारीरिक अत्याचारों और यौन-शोषण के अतिरिक्त इन बाल-ग़ुलामों पर आर्थिक दबाव भी डाला जाता। ज्योंही कोई बच्चा पंद्रह वर्ष का हो जाता क्रिस्टियन ब्रदर्स उसके भरण-पोषण का हज़ारों का बिल उसके हाथों में थमा देते ताकि ज़िंदगी भर वह उनका बंधक मज़दूर बना रहे। इतने वर्षों की उसकी बेगार का कोई मूल्य नहीं माना जाता। उसी से उसके शोषण की वसूली की जाती।
इन्हीं अत्याचारों से दुखी एक आठ वर्ष का बालक बिंडून से भाग खड़ा हुआ और सागर किनारे जा पहुंचा। अपने भोलेपन में एक युवा दंपती से इंग्लैंड का पैदल रास्ता पूछ बैठा! क़िस्मत अच्छी थी उन्होंने उसे गोद ले लिया। बहुत सालों बाद उसने एक इंटर्व्यू में कहा भी था, ‘यदि कोई ज़मीनी रास्ता होता तो मैं सचमुच चल निकलता।’
आदिवासियों और क्रिस्टियन ब्रदर्स के बीच पुराना झगड़ा चल रहा था। ज़मीन छिन चुकी थी, तो भी क्या? आदिवासी उसके उत्पादों पर अब भी अपना अधिकार समझते थे और फलों की चोरी के लिए बगीचों में घुस ही आते थे। एक बार उन्होंने धमकाया भी था, “हमें बच्चों का ध्यान है नहीं तो तुम्हारे गुनाहों का यह महल एक रात में राख कर दें और फिर यहीं कहीं जंगलों-गुफ़ाओं में गुम हो जायें।”
क्रिस्टियन ब्रदर्स स्थिति की नज़ाकत समझते थे और आदिवासियों से टक्कर लेना अनुचित समझते थे।
एक आदिवासी नियोका ने एक रोज़ बाग़ में फल चुराने के दौरान पेड़ से बंधे एक बच्चे की चीखें सुनीं। यह जिम ही तो था। नियोका ने आव देखा न ताव और बलात्कारी की पीठ पर पत्थर दे मारा। फिर एक और पत्थर! जिम को पेड़ से बंधा छोड़कर वह मुजरिम भाग खड़ा हुआ। नियोका ने उसे मुक्त किया। उसके आंसू पोंछे, सिर पर हाथ फेरा — “यह स्कूल का समय है। तुम स्कूल नहीं जाते? ”
पेड़ से बंधा लड़का स्कूल कैसे जाए? उसने बताया, “दो साल पहले, इंग्लैंड में जाता था। ये लोग कहते हैं पहले काम, फिर स्कूल। ढेरों काम होता है, स्कूल जाने का समय ही नहीं मिलता।”
बोलते समय जिम रोने लगा, “स्कूल के लिए कपड़े भी तो चाहिये। मेरे पास तो कपड़े भी नहीं हैं। यहां न ढंग से खाना मिलता है, न कपड़े।”
लड़के में कुछ तो था जो नियोका को छू गया। एक ओर थे ‘good white stock’ वाले धर्म के ठेकेदारों के ज़ुल्मों पर ज़ुल्म और दूसरी ओर ‘काले,असभ्य, जंगली’ नियोका के कोमल मन की सुहृदयता।
नियोका अगले दिन तड़के सवेरे ही आ पहुंचा। साथ में थी उसकी बेटी, अल्कीना। वे अपने साथ अल्कीना के भाई के छोटे हो गए कुछ कपड़े और एक जोड़ी चप्पल भी लाए थे।
“जल्दी से तैयार हो जाओ। तुम्हें स्कूल ले चलें। आज से तुम अल्कीना के साथ स्कूल जाया करोगे।”
“मैं स्कूल नहीं जा सकता। ब्रदर्स बहुत मारेंगे।”
“वे तुम्हें मारेंगे, हम उन्हें मारेंगे।”
जिम नहा-धोकर निकला और वे तीनों चलने को हुए तभी ब्रदर हैमिल्टन वहां आ टपका, “कहां जा रहे हो, जिम?”
जिम नहीं बोला। नियोका ने उत्तर दिया, “तुम गए थे न स्कूल? यह भी जा रहा है। कोई एतराज़?”
हैमिल्टन कुछ बड़बड़ाता हुआ वहां से निकल गया। ऑस्ट्रेलिया में सोलह साल तक के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य है। ब्रदर्स ने क़ानून का परिपालन कर दिया और सभी बच्चों के नाम स्कूल में लिखवा दिए मगर हाज़िरी पर पाबंदी लगा दी। पाबंदी ब्रदर्स की और अनुपस्थिति की ज़िम्मेदारी बच्चों पर!
दो वर्षों के अंतराल के बाद फिर से शुरू हुआ जिम का शिक्षारंभ। किसी कारणवश जिम से दो साल बड़ी अल्कीना की शिक्षा देर से शुरू हुई होगी। दोनों एक ही क्लास में थे। दोनों को एक-दूसरे का सहारा हो गया। अल्कीना के टिफ़िन बॉक्स में जिम का हिस्सा भी रहता। वह क्लास में सबसे फिसड्डी थी। स्कूल से घर के लिए मिला काम दोनों एक साथ करने लगे — स्कूल में या फिर अल्कीना के घर। जिम के अपने ठिकाने पर या तो स्कूल का काम हो सकता था या फिर क्रिस्टियन ब्रदर्स की भारी बेगार! वे जानते थे कि लड़का उनके बस के बाहर था और ‘बिगड़’ रहा था। विचित्र ‘बिगाड़’ था यह! क्लास का वार्षिक परिणाम आया तो दोनों मित्र लगभग टॉप पर थे। बहुत प्रभावित हुआ स्कूल भी, अल्कीना का परिवार भी। बदले में आदिवासी त्योहारों पर, परिवार में हर किसी के जन्मदिन पर उसे उपहार में मिलते नये कपड़े और जूते। स्कूल के ‘पूअर फ़ंड’ से अलग सहायता मिलती।
क्रिस्टियन ब्रदर्स की ‘केयर’ तो बस नाम की रह गयी थी। जिम को संभाल रखा था उस आदिवासी परिवार ने। कुछ समय तक सब ठीक ठाक चलता रहा। दूसरे बाल-ग़ुलामों की बग़ावत के डर से क्रिस्टियन ब्रदर्स जिम की राह में रोड़े अटकाने लगे। वे सवेरे सवेरे ही उसे इतना काम दे देते कि उसका स्कूल जाना दूभर हो जाता। वह देर से पहुंचता और कारण बताता संस्था में काम का आधिक्य!
स्कूल को क्रिसटियन ब्रदर्स के अत्याचारों की पूरी जानकारी थी किन्तु वे उनसे टकराव नहीं चाहते थे। जिम की टीचर मिस सिंप्सन उसकी मदद करना चाहती थीं। उन्होंने भरी क्लास में अपील की कि स्कूल से पहले या स्कूल के बाद कोई उसकी मदद कर दिया करे। शेष बच्चे तो एक-दूसरे का मुंह ताकते रहे। अल्कीना ने अपना हाथ खड़ा कर दिया। मुफ़्त में मिली एक और मज़दूरिन का क्रिस्टियन ब्रदर्स को क्या एतराज़ होता?
अब तो वे हर दिन, हर शाम एक साथ होते। स्कूल में और स्कूल के बाद फलों के बाग़ों में। जिम चौदह का हो गया था और अल्कीना सोलह की। शुरू शुरू का स्नेह-स्पर्श अब आलिंगनों में अभिव्यक्त होने लगा। जिम को वह उसके प्रचलित नाम से नहीं, ‘डार्लिंग जिम्मी’ कहकर बुलाती थी और अल्कीना हो गयी थी जिम की ‘अल्की’।
आदिवासियों में जल्दी शादी का रिवाज है। अल्कीना के प्रस्ताव पर प्रगतिवादी पिता ने साफ़ इंकार कर दिया।
“जिम अभी बहुत छोटा है। अभी सगाई कर लो। शादी जिम की कॉलेज की पढ़ाई के बाद होगी।”
“तो फिर मैं भी उसके साथ कॉलेज में पढ़ूंगी।”
भले ही हम किसी अनदेखे भगवान को अपना जन्मदाता मानते रहें, जिम के लिए उसकी मां, उसकी जननी ही उसकी भगवान थी। उसकी क्लास में एक प्रतियोगिता आयोजित हुई। ‘मां’ पर निबंध लिखा जाना था और सबसे बढ़िया निबंध पर पांच डॉलर का इनाम था। जिम ने एक अत्यंत सुंदर निबंध लिखा जिसका अंतिम वाक्य था, ‘My mother is my God!’ जिम को पुरस्कार दिया गया परंतु उसकी टीचर मिस सिंप्सन ने इस वाक्य को काट कर शुद्ध किया, ‘My mother is like a goddess for me.’ लड़का तो टीचर के सामने तनकर खड़ा हो गया — “Sorry, teacher. My mother is my God!”
शर्मिंदा हो गयी बेचारी टीचर। उसने अपनी शुद्धि को काटकर फिर अपने हाथों से जिम के वाक्य को दोबारा लिख दिया।
पांच डॉलर तो क्या, जिम के हाथों में तब तक कभी पांच सेंट भी नहीं आए थे। तो फिर कैसे लिखता वह मां को पत्र? निबंध की फ़ोटो-कॉपी करवाई गयी। अल्कीना के पते से जिम ने उन्हें पत्र लिखा। देर से लिखने का कारण, स्कूल की पढ़ाई में अपनी योग्यता, संलग्न किया पुरस्कृत निबंध और पांच डॉलर के इनाम की बात कही। ख़ुशी ख़ुशी वह पत्र डाक में छोड़ा और बड़े चाव से मां के उत्तर का इंतिज़ार होने लगा।
मां का उत्तर क्या आता जब पत्र ही लौटा दिया गया था — “Return to sender. Addressee not traceable.” उसे लिफ़ाफ़ा पकड़ाकर अल्कीना बहुत पछताई। दोनों गले मिलकर देर तक रोते रहे थे।
“ “मम्मी गुम हो गयीं ॰ ॰ ॰ अल्की, मेरी मम्मी गुम गयीं ॰ ॰ ॰ कैसे और कहां ढूंढूंगा उन्हें? मम्मी, मेरी मम्मी! ”
अल्की भी क्या दिलासा देती? बस कह दिया, “सॉरी, जिम! मुझे यह लिफ़ाफ़ा तुम्हें देना ही नहीं चाहिये था। इंतिज़ार तो रहता, उम्मीद तो रहती!”
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जेम्स हिल की स्क्रैप-बुक ॰ ॰ ॰ ‘स्क्रैप-बुक ऑफ़ अ स्क्रैप लाइफ़’ आदि से अन्त तक देख ली है मैंने! उसकी एक पॉकेट में उसका पुरस्कृत निबंध भी पढ़ लिया है। स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य उसके वाक्य ‘My mother is my God’ पर टीचर की लाल लकीर और फिर भूल सुधार भी पढ़ लिया है। स्क्रैप-बुक के अन्तिम पेज पर अल्कीना का फ़ोटो भी लगा हुआ है। उसके घुंघराले केश; गहरे सांवले चेहरे को सजाती उसकी चौड़ी पेशानी तले चमकती दो भोली भाली आंखें; पिचकी हुई आदिवासी नाक और मोटे मोटे होंठ — फिर भी फ़ोटो में वह अत्यंत सुंदर लग रही है। लेकिन अब वह मनोरम मूरत नहीं रही। उसका क़त्ल हो गया है। वह बाग़ में से फल चुरा रही थी। किसी ने पीछे से गोली मार दी। क्या उसके साथ बलात्कार भी हुआ था? पुलिस आई; पूछताछ हुई; बयान लिए गए; पोस्ट-मॉर्टम भी हुआ; पर कोई गिरफ़तारी नहीं हुई। चुपचाप उसे दफ़ना दिया गया।
एक स्क्रैप-बुक में पूरी ज़िंदगी तो नहीं सिमट सकती। उस बंद किताब के बाहर भी तो दुनिया है ॰ ॰ ॰ उसके भले, भद्दे रंग हैं। नियोका जिम को अपने भावी दामाद के रूप में देखता था। जब अनब्याही बेटी ही न रही, तो दामाद कैसा? फिर भी नियोका का स्नेह वैसा ही बना रहा। लेकिन लड़का अपने को बेसहारा समझने लगा था और बिंडून में क्रिस्टियन ब्रदर्स की तथाकथित ‘केयर’ जी का जंजाल बन गयी थी।
इंग्लैंड से पधारीं मिसेज़ मार्ग्रेट हंफ़्रीज़ ने मुक्ति दिलाई। वे जिम को बिंडून से निकालकर पर्थ ले आईं जहां उसकी स्कूल की शिक्षा पूरी हुई।
मिसेज़ हंफ़्रीज़ का आदर्श हैं मदर टेरेज़ा। उन्होंने इन दुखी बच्चों और उनके परिवारों का दर्द अपना लिया है। उन्हें मौत की धमकियां भी मिलीं क्योंकि वे तथाकथित धार्मिक और राजनैतिक महानुभावों को बेनक़ाब कर रही थीं। वे लगभग हज़ारेक परिवारों को जोड़ने में सफल हो गयीं। उनका पुण्य अभियान शुरू हुआ जब ‘मातृ-हीन’ कही गयी बचपन से ऑस्ट्रेलिया में निष्कासित दो महिलाएं नॉटिंघम में उनसे आकर मिलीं। मिसेज़ हंफ़्रीज़ की खोज के बाद दोनों की माताएं जीवित पाई गयीं। इन दोनों महिलाओं ने बताया कि उनके साथ उनके जहाज़ों में सैंकड़ों बच्चे और भी थे। तब रहस्य खुला कि उनकी तरह कोई दस हज़ार बच्चे ऑस्ट्रेलिया में और भी हैं। ऑस्ट्रेलिया के समाचार पत्रों में विज्ञापन छपे जिनमें इन बच्चों के लिए उन्होंने अपनी सेवाएं अर्पित कीं। हज़ारों जवाब आए। बहुत से ऐसे व्यस्क भी थे जो बाल्यकाल में बिंडून और बिंडून जैसी संस्थाओं में दुख झेल चुके थे। काम जटिल था और शुरू शुरू में असंभव लगता था। उन्होंने पर्थ और मेलबर्न में इन बच्चों और इनके परिवारों की सहायतार्थ Child Migrants’ Trust स्थापित किया। असंभव को संभव कर डाला!
मिसेज़ हंफ़्रीज़ को ऑस्ट्रेलिया में भेजे गए बच्चों की मुसीबतों की पूरी ख़बर मिल चुकी थी और उन्होंने दोनों देशों की सरकारों को अपनी शिकायतें भेज दीं और उनसे आश्वासन मिला कि जल्दी ही इन सभी ज़ालिमों को कोर्ट में घसीटा जाएगा। मिसेज़ हंफ़्रीज़ की पूछताछ पर नौ साल की उम्र से तब तक जो भी उसपर गुज़री, जिम ने सब उगल दिया। मैडम ने बेझिझक उसके यौन शोषण के बारे में भी पूछ लिया। चीख़ उठा था जिम उस वृत्तांत को बताते हुए, “पेड़ों से बांधकर ॰ ॰ ॰ दिन में भी ॰ ॰ ॰ क्या क्या नहीं झेला उसने!” मैडम ने उसके आंसू पोंछे, “डरना नहीं। कोर्ट में बताना सब कुछ।” जिम ने ‘हां’ में सिर हिला दिया।
आख़िर मिसेज़ हंफ़्रीज़ की मेहनत रंग लाई। ‘केयर’ के नाम पर चलाए गए मासूम बच्चों के कारागारों और उनके ज़ालिम संचालकों पर मुक़दमे चलाए गए।
न्यायालयों में फिर से वही क़िस्से खुलकर दोहराए गए जिनको कहने वालों, सुनने वालों, जजों, वकीलों के सिर शर्म से झुक गए होंगे। चमड़े की चार पेटियों वाले वे हंटर भी पेश किए गये होंगे जिनसे नन्ही नन्ही पीठों पर वार किए गए थे और नंगी पीठों पर उन मारों के अमिट निशान भी दिखाए गए होंगे। अदालत में एक गवाह का नाम पूछा गया। उसका जवाब था — “मैं अपना सही नाम नहीं बता सकता।” “क्या कह रहे हो तुम? यह कोर्ट की अवमानना है?” “ “तीन साल की मेरी उम्र थी जब इंग्लैंड में मुझे मेरे मां-बाप से छीन लिया गया था और मेरा नाम बदल दिया गया था। मैं अब भी अपनी पहचान ढूंढ रहा हूं। मेरे मां-बाप कौन थे? उनके नाम, उनके चेहरे तक मुझे याद नहीं!”
बाल-यौन शोषण के ढेरों क़िस्से खुले। नियोका और जिम के बयान भी हुए। एक लड़के की प्यारी नीली आखें दो ब्रदर्स के बीच एक वहशियाना प्रतियोगिता का कारण बन गयीं: दोनों में से कौन सौ बार उसका बलात्कार करेगा। वह अपनी बंद आंखें पीटा करता। किसी तरह आंखों का रंग बदल जाए, इसलिए! आंखों का रंग बदला नहीं और वे दोनों बलात्कार करते रहे! प्राय: कोर्ट कचहरियों में बलात्कार सिद्ध करना लगभग असंभव होता है किन्तु 250 मामलों में यह असंभव भी संभव हो गया। व्यभिचारी सिद्ध हुईं Sisters of Mercy की कई संयासिनें; और काले चोगों वाले कई ब्रदर्स को यथोचित ख़ूब लंबी सज़ाएं सुनाई गयीं और वे हथकड़ियों में जेल गए।
अंतत: ‘केयर’ की सभी संस्थाओं को अपने जुर्म स्वीकार करने पड़े। बिंडून के क्रिस्टियन ब्रदर्स ने पुराने और वर्तमान निवासियों को दस दस हज़ार डॉलर का मुआवज़ा देना स्वीकार किया।
स्थिति इतनी शर्मनाक थी कि 1998 में ब्रिटेन के House of Commons की एक Select Committee ने इस घृणित षडयंत्र को ‘Britain’s Shameful Secret’ तो कह दिया किंतु किसी से माफ़ी नहीं मांगी। इस बारे में 15 नवंबर 2009 के दिन ऑस्ट्रेलिया के प्रधान मंत्री श्री कैविन रड्ड ने पहल की और ऑस्ट्रेलियन पार्लियामेंट में ब्रिटेन से अपहृत बच्चों से सार्वजनिक राजकीय माफ़ी मांगी और दस लाख पाउंड का हरजाना घोषित किया। ये बच्चे सभी ब्रिटिश मूल के थे। 23 फ़रवरी 2010 को ब्रिटेन के प्रधान मंत्री श्री गॉर्डन ब्राउन को भी हाउस ऑफ़ कॉमंज़ में वैसी ही माफ़ी मांगनी पड़ी और उन्होंने पीड़ित व्यक्तियों और उनके परिवारों को साठ लाख पाउंड का मुआवज़ा घोषित किया।
मुआवज़े में जिम को भी ख़ूब सारा पैसा मिला लेकिन इन पैसों से खोया हुआ बचपन नहीं मिल सकता था। बेवतन हुआ जिम अब अपनी खोई हुई मां की खोज में इंग्लैंड जाना चाहता था। उसने ब्रिटिश और फिर ऑस्ट्रेलियाई सरकारों से पासपोर्ट की मांग की परन्तु उसे इंकार ही मिला। यदि अल्कीना से उसका विवाह हो जाता तो वह एक ऑस्ट्रेलियाई नागरिक का पति होता और ऑस्ट्रेलिया का पासपोर्ट आसानी से पा जाता। एक जीते जागते इंसान से काग़ज़ी सबूत मांगे जा रहे थे। मां द्वारा दी गयी स्क्रैप-बुक का एक पन्ना तो सरकारी बर्थ-सर्टिफ़िकेट नहीं माना जा सकता था। ब्रिटेन में उसके जन्म का प्रमाण-पत्र मांगा गया। मांगे गए ब्रिटेन से प्रस्थान और ऑस्ट्रेलिया में प्रवेश के काग़ज़ी प्रमाण! “मैं क्या पेश कर देता? ज़ालिमों ने अपने गुनाहों का कोई सबूत छोड़ा था मेरे पास?”
जिम की शिकयत थी दोनों सरकारों से, उनके नेताओं से; अधिकारियों से; लेकिन उसने प्रश्न किया मुझसे, “जिन लोगों ने उस दर्दनाक, नाजायज़ समझौते के तहत हमारी ज़िंदगियां बरबाद कीं — बहुत से अभी भी जीवित होंगे, ऊंचे पदों पर स्थापित होंगे — उन नए हिटलरों पर कब मुक़दमा चलेगा? उन्हें कौन जेल भेजेगा?”
सुनता रहा मैं भी! क्या जवाब देता?
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ऑस्ट्रेलिया में मेरी रिसर्च का काम पूरा हुआ और वहां पर वह मेरी अंतिम शाम थी। हम दोनों ने एक बढ़िया रेस्तोरां में डिनर किया। तीन महीनों में जिम की टैक्सी का भाड़ा बनता था पांच हज़ार चार सौ डॉलर। मैंने हार्दिक धन्यवाद के साथ एक बंद लिफ़ाफ़े में उसे छ: हज़ार डॉलर थमा दिए और उसने मुझे दे डाली अपनी स्क्रैप-बुक के उस पृष्ठ की फ़ोटो-कॉपी जिसमें मां के साथ उसके बचपन की तस्वीर थी: “क्षमा करना दोस्त, अपने दुखों में तुम्हें भी जोड़ लिया। कुछ बोझा तो तुम्हें भी ढोना पड़ेगा। जैसे भी हो ॰ ॰ ॰ कहीं से भी, किसी तरह से मेरी मम्मी को ढूंढ निकालो। उम्र भर तुम्हारी ग़ुलामी करूंगा।”
उसकी बेचैन भीगी पल्कें और कांपते होंठ! इंकार का तो सवाल ही नहीं था। अगले दिन वह मुझे एयरपोर्ट तक छोड़ने आया। गले मिले, विदाई हुई और मैं हवाई जहाज़ पर चढ़ गया।
प्लेन की लम्बी यात्रा। सोचा, अपना थीसिज़ फिर से पढ़ लूं। कोई कांट-छांट ज़रूरी हो तो कर डालूं। ब्रीफ़केस में हाथ डाला और मेरे हाथों में आ गया नोटों से भरा जिम को दिया मेरा वही लिफ़ाफ़ा। न जाने कब मुझसे नज़र बचाकर उसने यह खेल खेल डाला। एक रुक़्क़ा भी था साथ में — ‘मैं तुम्हारा नुक़सान नहीं चाहता। मम्मी की तलाश में पैसा तो लगेगा ही। चाहिये हो तो और मंगा लेना ॰ ॰ ॰ पर मेरी मम्मी ढूंढ दो ॰ ॰ ॰ प्लीज़, प्लीज़, प्लीज़!’
एक हथौड़ा सा लगा!
यूनिवर्सिटी में मेरी थीसिस स्वीकार हो गयी और मुझे पी॰एच॰ डी॰ की डिग्री भी मिल गई, पर जिम की मम्मी नहीं मिलीं। उसके पुराने घर और आसपास के कई घरों पर दस्तक दी और निराश हुआ।
एक वहमी शूल शब्द है ‘शायद’, जो शंका और आशा के बीच टांगे रखता है, निरंतर चुभता रहता है। मैंने उस घर के सामने वाली सड़क पर चक्कर पर चक्कर लगाए। इसी उम्मीद पर कि अभी एक मां आएगी। मैं जेम्स हिल का नाम लूंगा और वह उत्सुकता से पूछेगी ‘कैसा है मेरा बेटा?’
एक वृद्धा पुरानी पड़ोसन, मिसेज़ टेलर से मुलाक़ात हो गयी। उन्हें इन मां-बेटे की तस्वीर दिखाई। कुछ क्षण अतीत के धुंधलके में गुम रहीं वे। फिर जैसे किसी जटिल पहेली के सुलझने पर हम जोश में आजाते हैं उसी बुलंदी से उन्होंने बताया, “ओ, यस! मार्ग्रेट हिल। वह तो जिम के साथ ऑस्ट्रेलिया चली गयी थी।”
समझाना पड़ा। मार्ग्रेट हिल नहीं गयी थीं। जिम का अपहरण हुआ था। वह अकेला ही गया था। फिर जो मुझसे बन पड़ा, मैंने किया। क्रॉयडन, साउथेंप्टन के थानों से पूछताछ; समाचार पत्रों में और इंटर्नेट पर विज्ञापन; हस्पतालों, क़ब्रिस्तानों के चक्कर। कहीं से कोई ख़बर नहीं!
डिग्री की प्राप्ति पर मुझे बधाईयां तो मिलनी ही थीं। ढेरों पत्र और कंप्यूटर पर इ॰मेल मिले। फ़ोन की घंटी भी बराबर बजती रही। राजीव और नेहा की फ़ोन कॉल भी आई। जवाब में मेरे ‘थैंक यू’ के बाद कहने को न मेरे पास कुछ था न उनके पास। तब राजीव बदलते बेवफ़ा मौसम का पचड़ा ले बैठा — “तुम तो Indian Summer मना रहे हो। यहां पर तो बला की सर्दी है। पिछली रात बड़ा ज़बर्दस्त तूफ़ान आया। घरों की छतें उड़ गयीं, बहुत से पेड़ गिर गए।”
इसके आगे राजीव ने जो बताया तो लगा मानो उनमें से एक पेड़ मुझी पर आ गिरा हो। उस रात वे दोनों शहीद हो गए — जिम और उसके साथ पहाड़ी वाला वह पेड़!
परिणाम सोचे बिना जब कोई कुछ भी कर गुज़रे तो वह पागल ही माना जाएगा। जिम पर भी वैसा ही पागलपन का दौरा चढ़ा होगा और वह अपने उस चहेते पेड़ से जा लिपटा। अगली सुबह मिली उसकी औंधी-अकड़ी लावारिस लाश। पेड़ को समेटे हुए थीं जिम की अकड़ी हुई बाहें और टांगें। ज़रा दूरी पर खड़ी उसकी टैक्सी की नम्बर-प्लेट से उसकी पहचान हुई।
जिम नहीं रहा मगर मुझपर दो-दो क़र्ज़ छोड़ गया है। कहीं पर खोई हुई उसकी मां भी है ॰ ॰ ॰ है या थी? उसे कहां ढूंढूं, कैसे ख़बर पहुंचाऊं? बंद लिफ़ाफ़े में बिन मांगे का जो क़र्ज़ वह मुझपर थोप गया है, उसे कहां और कैसे चुकाऊँ?
एक इंसान की मौत, एक तमाशा! लोगों की भीड़ लग गई थी। पेड़ से लाश जुदा हो तो दफ़न हो। मगर कैसे?
होता आया है ॰ ॰ ॰ इंसान तोड़े जाते हैं; फिर होती है लाशों में उनकी भावनाओं की प्रतिष्ठा! भावुक, व्यथित पादरी भी लगभग रो पड़ा था — “कभी देखा न सुना ऐसा अनन्य प्रकृति-प्रेम! एक मरे हुए पेड़ से ऐसा अभिन्न एकत्व? मृत की भावनाओं की क़दर करो। लाश के ऊपर से पेड़ काटकर उसे सीधी करो। जिम और सीने से लगे तने को एक साथ दफ़न करना है।”
जिम अब अकेला नहीं रहा!
महेन्द्र दवेसर
(14 दिसंबर 1929 – 4 नवंबर 2023)