कहानी समकालीनः दूरियाँ- इन्दु झुनझुनवाला

बैठी थी सुबह की चाय हाथ में लेकर, अचानक फोन की धण्टी,,,इतनी सुबह,,,!
मन डर-सा गया। कल ही तो गई थी, नव्या दी के घर,,,,बहुत ही कमजोर, सूनी-सूनी नज़रों से ताकती,,,मेरा हाथ थामा और हौले से कहा कि मुझे जानती भी है, पहचानती भी है,,,हाँ कुछ बातें जो हम किसी से नहीं कह सकते, इसलिए तुमसे भी नहीं कह पाई थी आज तक,,,पर आज समय आ गया है कि मैं तुमसे अपने-आप को बाँटू।
पर सच ये भी नहीं,,,।
मैं जिसे कहना चाहती हूँ ये सब कुछ, उससे कभी नहीं कह पाई।दूसरों से कहकर हमदर्दी लेना मुझे कभी समझ नहीं आया। हाँ, तुझपर बहुत भरोसा है, छोटी बहन के साथ-साथ तू मेरी दोस्त भी तो है, चाहो तो पढ़ लेना इसे,,,। पर मैं तुम्हें डाकिया बना रही हूँ। जब भी मेरी विदाई हो इस जहाँ से, ये तुम नवीन को दे देना, जीते जी जो नहीं कह पाई, शायद इसतरह कह सकूँ। मेरी अन्तिम इच्छा की वसीयत तुम्हें सौंप रही हूँ,,,,कहते-कहते दीदी ने आँखें मूँद ली और सोफे पर सिर टिका लिया।
दो बूंदें उनकी पलकों से चुपके से गिरी,,,तो मुझे लगा, अब मुझे जाना चाहिए, शायद दीदी को अकेलेपन की जरूरत है। लिफाफा घर ले आई थी। खुली किताब- सी दीदी हमेशा मुझे पहेली लगी। जब भीड़ में होतीं तो एकदम जिन्दादिल। खूब हसँती-हसाँती, खिलखिलाती, पर अक्सर अकेले में उनके चेहरे पर दर्द की छाया देखी थी मैंने,,,। कभी पूछ नहीं पाई, हिम्मत ही नहीं हुई। इसलिए ये लिफाफा मेरे लिए किसी जादू के पिटारे से कम नहीं था। दीदी ने इजाज़त दी थी पढ़ने की,,,बस खोला और एक साँस में पढ़ती चली गई,,,,,इतनी कसक,,,,,इतना दर्द,,,,

” प्रिय मेरे,
शादी के दिन लाल जोड़े, सात फेरों के सात वचन, ढ़ेर सारे उम्मीद के चमकते गहने, साथ-साथ ढेरों रंग-बिरंगे वादों के, वफाओं के कपड़े, भी दिए थे तुमने।
बड़े चाव से,अलग-अलग खानों में, सजाकर रख दिया था मैंने। उन्हें देखकर खुश होती,
इन्तजार करती, तुम एक एक कर निकालोगे, और पहनाओगे मुझे।
सालों से अपनी रंग-बिरगी भाँति-भाँति की उम्मीदों को, होली-दिवाली झाड़-पोंछकर, करीने से तह करके दिल के खानों में फिर-फिर अलग-अलग सजाती, इन्तजार करती कि तुम आकर एक-एक कर मुझे उन उम्मीदों से सजाओगे।
पड़े-पड़े उन पर धूल लिपट जाती।
फिर एक नया साल ,,,
कुछ फीकी हो गई, पुरानी-सी उम्मीद को हटा बाकी झाड-पोंछकर फिर से करीने से तह करती।
युग बीत गए, तुम चूक गए। शायद तुम देख नहीं पा रहे ऐसा सोचकर एक दिन उनपर लगे, पारदर्शी खामोशी के शीशे भी हिम्मत करके हटा दिए,,,शायद अब देख पाओ तुम ,,,,
पर नही ,,,,,।

होने लगी सारी उम्मीदें बदरंग-सी ,,कुछ फीकी पड़ गई। कुछ बहुत पुरानी।
वक्त की धूल मे कुछ बेकार भी।
तब एक दिन निकाला सभी को। झाड़ा, पोछा फिर से।
पुरानी बेकार हो गई,, उम्मीदों को बाँट दिया, जरूरतमंदों को थोड़ा रंग कर।
कुछ पर चढ़ाए, फिर से चटक रंग।
हर दिन एक-एक कर खुद से खुद को पहनाया, सरे आईना सजाया ।
एक दिन हो गई खाली अलमारी उम्मीदों की,,,पर भर गई थी मै, सज गई थी मै।

आईने में खुद को सँवारती, खुद को खुश रखना सीख लिया था मैंने। अब ना कोई शिकवा शिकायत। बस बचा रखी था एक चुनड़ी संस्कारों की और एक नथ फर्ज की,मैंने तुम्हारी खातिर।
धीरे धीरे एक वो दिन भी आ ही गया जब सारी उम्मीदें मैने ओढ ली थी खुद ही,, खाली हो गई दिल की अलमारी,,,,पर मै भर गई थी ,,सज गई थी,,

बचाकर सम्भाल कर रखी थी मैंने संस्कारों की एक चुनड़ और बस फर्ज की एक नथ ,, मैंने तुम्हारी खातिर अपने लिए, या सच कहूँ तो अपने प्यार की खातिर,,,जब-तब होली दिवाली पहन ओड़ लेती थी उन्हें, बस।।
*****
तुम्हें उम्मीद नही थी, शायद कि मैं जीना सीख जाऊँगी तन्हा,,,

इसलिए अचानक तुम आ गए टटोलने उन खानों को, क्योंकि अब तुम थक चुके थे, अकेले बदहवास, याद आ ही गई तुम्हें मेरी।
पर अब उन खाली खानों में कुछ नहीं बचा था,कुछ भी तो नहीं। बचा था तो बस फर्ज का एक लाल टुकडा-चुनड़ और नथ, जो अब भी संभालकर रखा था मैंने मेरे ही लिए। आज तो कुछ पल बैठोगे ना मेरे पास, आज तो पहनाकर विदा करोगे ना मुझे इस नथ को, उढ़ा पाओगे ना चुनड़, मेरी अन्तिम इच्छा,,,आज तो ये एक उम्मीद पूरी होगी ना मेरी, अगले जन्म में मिलने के लिए फिर से,,,,,।

सिर्फ तुम्हारे इन्तजार में,
नव्या
*********
पढ़ते-पढ़ते मैं जैसे दर्द के अथाह सागर में डूब गई, लिफाफे से चूनड़ और नथ, जैसे मुझे एक अलग ही दुनिया में ले जा रहे थे, चाहकर भी नहीं सो पाई देर रात तक।
और सुबह जलती आँखों से चाय लेकर बैठी हूँ, तो फोन की घंटी से मन सहम गया,,,,।

सोचते-सोचते ही घण्टी बन्द हो गई, फिर किसी ने दरवाजे पर हौले से पुकारा। झांककर देखा तो
दीदी का छोटा बेटा,,पूरा आँसूओं से नहाया हुआ,,,मासी,,,,,,मम्मी,,,,,,?

अरे,,, मैं सन्न रह गई। हाथ काँपा और कप छूटकर बिलख पड़ा जमीन पर।
पड़ोस में रहती थी। दीदी ने छोटी बहन से बढ़कर प्यार दिया था।
तभी उसने मेरी तन्द्रा तोड़ी, कहा,” माँ ने अन्तिम साँस लेने के पहले कहा था, आपको बुलाना जरूरी है।”

सोचने का वक्त नहीं बचा था मेरे पास। जान गई थी, दीदी को शायद कल शाम ही अहसास हो गया था। दौड़कर अपने कमरे में गई। बिस्तर पर बिखरे खत के रोते हुए पन्नें, फीक -सी दी की चूनड़ और नथ को लिफाफे में तह करके रखा,,,और दौड़कर दरवाजे को बन्दकर पहुँची दी के घर पर,,,,
ड्राइंग रूम में दीदी जमीन पर लेटी, जैसे सुकून से सो रही थीं।
भरी-भरी आँखों से ढूँढ़ा नवीन को,,
अन्दर कमरे में बेसुध एक पन्नें पर नज़र टिकाए,,,,।
धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा, चौंक उठे वो,,,मैंने वो लिफाफा उनकी ओर बढ़ाया तो नव्या दी की हैंडराइटिंग देखकर झट से लेकर खोला।

मैं वहीं बैठ गई। उनके हाथ का पहले वाला पन्ना सरककर नीचे गिर गया था, झुककर उठाया प्रिय नव्या ,,,,देखकर अनायास ही पढ़ने लगी,,,

“प्रिय नव्या,

समय वो नही, जिसे मैं अपनी मुट्ठी मे समझता रहा, अब अहसास हुआ मुझे। याद आए मुझे जीवन के वो बीते पल, मैंने ढ़ेर सारे वादों के गहनों से सजाया था तुम्हें।
उम्मीदों की रंग-बिरंगी चुनरियाँ भी दी थी, शादी के दिन सात वचनों के साथ ।
पर धीरे-धीरे मैं भूलने लगा सब। मेरे लिए वो एक औपचारिकता थी शायद, शादी के रस्मों की भाँति। तुमने भी कभी कुछ कहा नहीं । मुझे भाने लगी मेरी दुनिया, मेरा व्यवसाय, मेरे संगी- साथी । छत देकर निश्चिंत हो गया था मैं। मेरा कर्त्तव्य पूरा जो हो गया था।
पर तुम हमेशा उदास सी, ना जाने क्यूँ। वक्त नहीं था मेरे पास, तुम्हें जानने का। सच कहूँ तो कभी जरूरत भी नहीं समझी। पत्नियाँ तो बस खाना बनाने ,खिलाने और परिवार संभालने के लिए होती हैं, यही तो देखा था, समझा था मैंने। इंतजार उनका धर्म है, दोस्त इन्तजार करे,अच्छी बात नहीं। लौटता, आधी रात थककर चूर ।
छत के साथ चारदिवारी भी तो दी थी मैंने, सारी सुख-सुविधाऐं, क्या काफी नही था!

वक्त गुजरता चला गया, सालों बीत गए। अब ऊब चुक था सबसे मैं। एकरसता जीवन की और बालों की सफेदी,,,, बोर हो गया था। सभी कथित दोस्त अपने-अपने स्वार्थ में लिपटे दिखने लगे। थक गया था ऐसे दोस्तों से।तब तेरे कंधे याद आए सिर रखने के लिए।

पर अब,,? तुम्हारी हँसी और गुनगुनाहट मेरा इन्तज़ार नही करती।
तुम्हारी आँखें, जो सवालों से भरी रहती थी, अब कोई हिसाब नही करती।
तुम बदली-बदली-सी थी,पता नही कबसे, पता नही कैसे, पता नही क्यों ?
शिकायत होने लगी तुमसे मुझे, वक्त नहीं था तुम्हारे पास मेरे लिए अब।
और मुझे तुम्हारी जरूरत थी अब। परेशान मैं, झाँका दिल में तेरे, एक लम्बे अर्से बाद या शायद पहली बार। पर ये क्या, वहाँ तो अब कुछ भी नही बचा था मेरे लिए, एक फर्ज की नथ के सिवा
जिसे तुम पहन लेती थी खुद ही, कभी-कभी होली दिवाली,,,,,,,ये मेरी गल्ती थी, या समय का फेर,,,,!
कैसे कुछ कहूँ,,,अब हिम्मत भी नहीं होती, तुमसे कुछ पूछने की। जब तुम्हारी आँखों में सवाल थे, मैंने नहीं देखा। आज अपने सवाल भी बेमानी से लगते हैं। पर एकबार,,,एकबार तुमसे प्यार के वही दो बोल सुनना चाहता हूँ, शायद जिसे सुनने के लिए तुम तरसती रही हो। प्यार तो है तुमसे, पर कह नहीं पाया तुम्हें और अपने इस रिश्ते को जी नहीं पाया। आज समझ पाया हूँ,,,क्या माफ कर सकोगी ?

अब सिर्फ तुम्हारा
नवीन
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पढ़ते-पढ़ते मेरा चेहरा भी आँसूओं से भीग चुका था।
नज़र उठाकर देखा तो, पश्चाताप की आग से जलता चेहरा नवीन का, पागलों की तरह नव्या के पत्र को चूमता जा रहा था,,,उसके आँसू उस चूनड़ और नथ को पवित्र कर रहे थे और वो,,,,
अचानक उठा और दौड़कर मेरे हाथों से पत्र लेकर सोई नव्या के पास पहुँचा,,,उसे नथ पहनाई, चूनड़ से उसका चेहरा ढका और वो पत्र उसके हृदय के पास रखकर उसके हाथों में हाथ लेकर बैठ गया, उसे अपने आसूँओं से नहलाता हुआ एकटक देखता,,,,।

अचानक किसी ने उसके कंधे पर सांत्वना का हाथ रखा और,,,,,,नवीन वहीं लुढ़क गया,,,,।
जीवनभर जिसके साथ के लिए तरसती रही नव्या दी, आज नवीन ने उसका साथ इसतरह आखिर निभा ही दिया, पर नव्या को क्या हासिल हुआ,,,,यह प्रश्न मुझे कचोट रहा था, दोष सामाजिक व्यवस्था का या पुरूष के लिए रिश्तों की अहमियत की अनभिज्ञता का?
कारण जो भी हो, पत्थर तो अहिल्या को ही बनना पड़ता है न!

इन्दु झुनझुनवाला

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