मेरे दफ़्तर में बीस लोग हैं । हम सब एक-दूसरे से डरते हैं । एक-दूसरे को डराते हैं । पर यह कहानी उन सभी बीस लोगों की नहीं है । यह कहानी है चंद्रकांत की ।
चंद्रकांत संस्कृत का प्रकांड विद्वान था । उसके मुँह से समय-असमय , सही-ग़लत श्लोक ऐसे झरते जैसे सर्दी-ज़ुकाम हो जाने पर किसी की नाक बहती । आप नाक के बहने को रोकना चाहते । पर वह थी कि कम्बख़्त बहती ही जाती । हर स्थिति , हर घटना के लिए चंद्रकांत को श्लोक कंठस्थ थे । वह श्लोक ही खाता , श्लोक ही पीता , श्लोक ही ओढ़ता , श्लोक ही बिछाता । श्लोक ही उसकी ढाल थी । श्लोक ही उसकी गदा थी । पर वह क्या करता कम्बख़्त अपने ग़लत उच्चारण का जो अर्थ का अनर्थ कर देता और श्लोक शोक बन कर रह जाता ।
चंद्रकांत का दूसरा शौक़ था दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-पंक्तियों का मेंढक की तरह समव-असमय पाठ करना । मेंढक टर्राना भूल सकते थे लेकिन चंद्रकांत दिनकर और गुप्त को दोहराना-तिहराना नहीं भूलता । ऐसा लगता जैसे वह दिनकर और गुप्त के काव्य का सस्वर फ़ोटोकॉपीअर हो । वह खाँसता तो दिनकर और गुप्त में , छींकता तो दिनकर और गुप्त में , जम्हाई लेता तो दिनकर और गुप्त में , अँगड़ाई लेता तो दिनकर और गुप्त में । पर वह क्या करता कम्बख़्त अपनी कमजोर याददाश्त का जो दिनकर की पंक्तियों को गुप्त की और गुप्त की पंक्तियों को दिनकर की बता देती ।
चंद्रकांत के पीछे-पीछे उसका पुछल्ला ‘ जी ‘ चलता । वह चाहता कि सब उसे चंद्रकांत ‘ जी ‘ कहें । पुचकारें तो चंद्रकांत जी कहें । लताड़ें तो चंद्रकांत जी कहें । सत्कारों तो चंद्रकांत जी कहें । दुत्कारें तो चंद्रकांत जी कहें । ‘ जी ‘ में उसके प्राण बसते । यदि उसके नाम से आप ‘ जी ‘ हटा दें तो वह बेचारा श्रीहीन हो जाता ।
हम लोगों ने इस देश पर सैकड़ों सालों तक यूँ ही नहीं राज किया है — उसकी गर्वोक्ति थी । हम आदमी को दिमाग़ से मारते हैं — वह डींग हाँकता । चाणक्य उसका आदर्श था । मैकियावेली उसका आइडियल । उसका सारा समय तिकड़म में बीतता । इससे उसको कैसे लड़ाया जाए , उसको कैसे नीचा दिखाया जाए — ये ही खुराफ़ातें उसका टॉनिक थीं । तिकड़म की गाय की पूँछ पकड़ कर वह वैतरणी पार करता । वह क को ख के विरुद्ध भड़काता , ख को क के विरुद्ध और ग को क और ख , दोनों के विरुद्ध । यहाँ तक कि एक बार जब मैं उसके घर गया तो उसकी पत्नी कहने लगी — भाई साहब , आप इन्हें समझाइए न । घर में भी पॉलिटिक्स करते हैं । दोनों बच्चों को मेरे ख़िलाफ़ भड़काते रहते हैं ।
ख़ाली समय में मैं कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रहा होता तो चंद्रकांत कहता —पढ़ने-लिखने में कुछ नहीं रखा । ज़िंदगी में और भी बहुत से ज़रूरी काम पड़े हैं करने के लिए । किताबों में सिर फोड़ने से कुछ नहीं मिलता । उसकी इसी सोच की वजह से उसके दोनों बच्चे हर कक्षा में कई बार फ़ेल होते ।
एक बार उसकी तिकड़मी हरकतों के कारण बॉस उस पर बहुत नाराज़
हुए । वहाँ तो वह मुँह पर ताला लगाए रहा पर बॉस के केबिन से बाहर आकर वह चार लोगों के बीच चिल्लाने लगा — मैं स्साले को जूते से पीटूँगा । क्या समझता है अपने आप को ? यह सुनकर हम सब मुस्कुराए बिना नहीं रहे । बॉस छह फुट का हट्टा-कट्टा व्यक्ति था जबकि चंद्रकांत मुश्किल से पाँच फुट का मरियल-सा आदमी था ।
चंद्रकांत को दिनभर पान चबाने की लत थी । वह रोज़ सुबह पनवाड़ी से एक सौ बीस नंबर के ज़र्दा वाले पान के कई जोड़े बनवाता और सारा दिन पान की जुगाली करता रहता । वह पूरे देश को एक बहुत बड़ा पीकदान समझ कर जहाँ-तहाँ थूकता रहता और देश को निहाल किए रहता । कभी जब उसके पान का स्टॉक ख़त्म हो जाता और आस-पास कोई पनवाड़ी भी नहीं होता तो वह एक असीम छटपटाहट से भर जाता । जब तक उसके मुँह में , जेब में पान रहता , उसके चेहरे पर आत्म-विश्वास का तेज रहता । पान के अभाव में उसका नूर चला जाता । और एक बेचारगी का घटाटोप उस पर छा जाता । पान में उसके प्राण बसते । उसके प्राणों में 120 नंबर का पान बसता ।
मैं ऐसी मित्रता को नहीं ढोता जिसका कोई फ़ायदा न हो — चंद्रकांत कहता । वह अवसरवाद के गधे की सवारी करने में माहिर था । जिसे सुबह दस लोगों के बीच गाली देता , शाम को उसी के साथ ‘ हें-हें ‘ करता हुआ चाय-कॉफ़ी पी रहा होता । जिसका अहित करता , ज़रूरत पड़ने पर उसी से रुपए-पैसे की भीख माँगने में भी कोई संकोच नहीं करता । दूसरी ओर जो मुसीबत में उसकी मदद करता , वह उसी को पीठ पीछे गालियाँ देता । उसकी जड़ काटता । “ मैं उसे इतना खिझा दूँगा कि उसका ब्लड-प्रेशर बढ़ जाएगा । “ वह अक्सर दंभ से भर कर किसी-न-किसी के बारे में दावा करता । उसके लिए सारे संबंध ‘ डिस्पोज़ेबल ‘ थे । वह उनका इस्तेमाल करता और उन्हें समय के कूड़ेदान में फेंक कर आगे बढ़ जाता ।
दरअसल चंद्रकांत का सारा जीवन छद्म और छल-प्रपंच के आवरण में लिपटा था । यदि आप उससे पूछते कि कहाँ जा रहा हो और वह पूरब दिशा में जा रहा हो तो वह आपको पश्चिम दिशा बताता ।
कई बार उसे यह भी नहीं पता चलता कि वह चपरासी या ड्राइवर से बात कर रहा होता या किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति से । तब वह चपरासियों और ड्राइवरों को भी अपनी जर्जर उच्चारण वाली अंग्रेज़ी के ओज से प्रकंपित कर देता ।
वह ज़रूरत पड़ने पर दयनीय चेहरा बना कर लोगों से ऋण ले लेता पर बाद में उधार लौटाने से साफ़ इंकार कर देता । बल्कि उल्टा रुपए वापस माँगने वाले आदमी को ही धमकाता ।
चंद्रकांत को एक और शौक़ था — प्रवचन देना । उसमें किसी भी विषय पर घंटों प्रवचन देने की महान खूबी थी । वह सैकड़ों- हज़ारों शब्दों में कुछ भी सार्थक नहीं कहने की अपार क्षमता रखता था । उसके प्रवचनों में रामायण और महाभारत के प्रसंगों का बखान होता । यह और बात थी कि कभी वह रामायण के पात्र महाभारत के प्रसंगों में डाल देता , कभी महाभारत की घटनाएँ रामायण काल में घटित हो जातीं । वह सबको एक आँख से देखता था । उसके प्रवचनों में सभी युग और काल एक ही घाट पर पानी पीते थे ।
कभी-कभी चंद्रकांत अपने प्रवचनों में मूल्यों की गरिमा और महिमा का गुणगान करता । मूल्यों के ह्रास और स्खलन पर चिंता व्यक्त करता । सच्चरित्रता को लेकर पुराणों में से कोई कथा सुनाता । लोग उसे जानते थे । इसलिए एक-दूसरे को आँख मारते हुए रस लेकर कथा सुनते ।
असल में एक बार एक महिला सहकर्मी ने चंद्रकांत को दफ़्तर के चपरासी के साथ किसी दूसरी महिला सहकर्मी के यौन-जीवन के बारे में चर्चा करते हुए सुन लिया । पूछने पर वह कहने लगा — मैं तो इसे डी. एच.लॉरेंस के उपन्यासों में यौन-संबंधों के बारे में बता रहा था । जो व्यक्ति अपने सहकर्मियों और उनकी बीवियों , बहनों और बेटियों के बारे में ओछी और घटिया बातें करे , उसके मुँह से मूल्यों के ह्रास और सच्चरित्रता की बातें सबको हास्यास्पद लगता थीं । दफ़्तर की एक महिला सहकर्मी ने तो उसके द्वारा अपने चरित्र-हनन की बात सुन कर उस पर ‘ यौन -उत्पीड़न ‘ का केस कर दिया था ।
कभी-कभी वह दफ़्तर में सबसे यह कहता फिरता — चंदा दीजिए । मैं नाग-यज्ञ कर रहा हूँ । मेरे सभी शत्रुओं का , सभी नागों का नाश होगा । पर वह यह भूल जाता था कि लाख कोशिशों के बावजूद जनमेजय को एक नाग ने डँस ही लिया था ।
उसकी इन्हीं हरकतों के कारण ऑफ़िस में सहकर्मी कहने लगे थे कि यदि साँप और चंद्रकांत एक साथ मिल जाएँ तो पहले चंद्रकांत से बचो , साँप से नहीं क्योंकि वह ज़्यादा ख़तरनाक है । पर चंद्रकांत इसे भी अपनी उपलब्धि मानता । गर्व से कहता — मेरा डसा पानी भी नहीं माँगता ।
फिर एक समय ऐसा आया जब चंद्रकांत के बारे में सुना जाने लगा कि वह होटलों में कॉल-गर्ल्स के साथ मौज-मस्ती करने लगा था । फिर सुनने में आया कि उसकी पत्नी अचानक बच्चे को ले कर उससे अलग हो गई । पता चला कि वह अपनी पत्नी को ज़बर्दस्ती ऐसी पार्टियों में ले जाने लगा था जहाँ ‘ वाइफ़-स्वैपिंग ‘ कर के मौज-मस्ती की जाती थी । पत्नी इंकार करती तो वह उसे पीटता । इस तरह उसका पारिवारिक जीवन नष्ट हो गया । वह शराब पी कर दफ़्तर आने लगा ।
और तब एक दिन दफ़्तर में शराब के नशे में चंद्रकांत का झगड़ा के.के. से हो गया । दोनों ने एक-दूसरे की ऐसी-तैसी की । के.के. का हाथ ऊपर तक था । इसलिए विभागीय कार्यवाही हुई , और चंद्रकांत सस्पेंड हो गया । कई लोग उससे खार खाए हुए थे । उन्होंने आग में घी का काम किया । उसकी पत्नी ने उस पर घरेलू हिंसा का केस कर दिया । इन सब के कारण अंतत: उसे नौकरी से निकाल दिया गया ।
फिर कई सालों तक मेरी चंद्रकांत से मुलाक़ात नहीं हुई । हालाँकि उसके बारे में कुछ-न-कुछ सुनने में आता रहता था । कि वह अवसाद-ग्रस्त हो गया था । कि उसने फिनाइल पी कर आत्म-हत्या करने की कोशिश की थी । कि उस पर राहु की महादशा चल रही थी । और वह ज्योतिषियों के चक्कर काट रहा था और घर के बर्तन-कपड़े बेच कर तरह- तरह की अँगूठियाँ पहन रहा था ।
चार-पाँच सालों के बाद एक शाम मैं राम मनोहर लोहिया अस्पताल के बस-स्टॉप पर खड़ा था । अचानक किसी ने मुझे आवाज़ दी । मुड़ कर देखा तो सामने डेढ़ पसली का एक आदमी खड़ा था । दाढ़ी बेतरतीबी से बढ़ी हुई थी । बाल उलझे हुए थे । गाल पिचके हुए थे । आँखें भीतर तक धँसी हुई थीं । उसे पहचानने के लिए मुझे उसे ध्यान से देखना पड़ा ।
“ अरे चंद्रकांत , तम ? “ मेरे मुँह से निकला । वह अब भी पान की जुगाली कर रहा था ।
मेरा हाथ पकड़कर न जाने क्या-क्या कहता हुआ वह मुझे तालकटोरा गार्डन में ले आया ।
शाम ढल गई थी । पूर्णिमा का थाली जितना बड़ा चाँद पेड़ों के ऊपर निकल आया था ।
अचानक मेरा हाथ छोड़ कर वह चाँद की ओर इशारा करता हुआ बोला , “ वह देख रहे हो ? बताओ , वह क्या है ? “
“ चाँद । और क्या ? “
“ उसे ध्यान से देखो । “ वह बोला ।
ऐसा चाँद मैं दर्जनों बार देख चुका था ।
“ चाँद कितना सुंदर है । “ उसने कहा । मैं इससे सहमत था । मैंने हाँ में सिर हिलाया ।
“ तो तुम मानते हो कि तुम चाँद नहीं हो ? चाँद चाँद है और तुम तुम
हो ? “ वह फिर बोला । मैं कुछ समझ नहीं पाया ।
“ और चूँकि तुम चाँद नहीं हो , इसलिए तुम सुंदर नहीं हो ? “ उसने मेरी ओर इशारा किया ।
मैं क्या कहता । हैरान-सा उसे देखता सुनता रहा ।
“ चाँद को देखो , चाँद को । कौन स्साला कहता है कि उसमें दाग़
है ? “ उसकी एक उँगली अब चाँद की ओर उठी हुई थी । उसकी आँखों में एक सनक सवार थी ।
“ सुनो , चंद्रकांत … । “
“ चुप! बिल्कुल चुप ! रामायण काल में भी चाँद सुंदर था । महाभारत काल में भी चाँद सुंदर था । चाँद आज भी सुंदर है… । “
मैं उसे चाँदनी रात में वहीं तालकटोरा गार्डन में बड़बड़ाता हुआ छोड़कर बाहर सड़क पर आ गया । वह अब भी पेड़-पौधों , उल्लुओं , चमगादड़ों और आवारा कुत्तों के सामने चाँद की सुंदरता का बख़ान कर रहा था । दरअसल चंद्रकांत पागल हो गया था । पर पागलपन में भी वह आत्म-रति को नहीं भूला था । चाँद की उज्ज्वलता में वह अपना ही रूप ढूँढ़ रहा था ।
जीवन बड़ा विचित्र है । आप अपने-आप को तीसमारखाँ समझते हैं । जीनियस समझते हैं । आपको लगता है कि चाणक्य के बाद सबसे बड़े नीति-निपुण और तिकडमी व्यक्ति आप ही हैं । मैकियावेली ने आप ही में पुनर्जन्म लिया है । पर क़िस्मत आप को कहाँ-से-कहाँ ला खड़ा करती है । समय बड़े-बड़ों की हवा निकाल देता है । समय की मार से कौन बच सकता है । और उससे भी बड़ी एक और बात होती है । वह होती है पीड़ित व्यक्ति की ‘ हाय ‘ । जिन्हें आप बेवजह सताते हैं , जिन्हें आप बेवजह रुलाते हैं , जिनका आप बेवजह अहित करते हैं , उनकी ‘ हाय ‘ से डरिए । उनकी ‘ आह ‘ से डरिए । चंद्रकांत को समय की मार पड़ी थी । और जिनका उसने अहित किया था , उनकी ‘ हाय ‘ उसे निगल गई ।
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सुशांत सुप्रिय
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