कहानी समकालीनः कैनवास के रंग -शैल अग्रवाल

कितने मौसम और कितने रंग हैं जिन्त्दगी के, फिर मेरा कैनवास ही इतना सूना और फीका-फीका-सा क्यों?

भाँति-भांति के बिखरे इन रंगों में यह उदासी भी तो एक रंग ही है ना, पर… न काला, न सफ़ेद, पूरा सलेटी … मैला और कुछ-कुछ मटमैला-सा, जैसा कि मैं भी दिखने लगा हूँ आजकल। शायद इसी से सजे अब मेरी तस्बीर..या शायद बदले कभी और पल में ही फक् उजाला हो जाए ? या फिर ऐसे ही यह घोर अंधेरा ही रहे सदा मेरे हिस्से में?

पर बदलते मौसम के साथ पल में ही सब कुछ बदल भी तो सकता है! मेरी बूढ़ी हड्डियों को आज भी इंतजार है उस खिलखिलाती धूप का।

पत्नी जब से गई है, मानो एक कहानी ही तो बनकर रह गई है मेरी ज़िन्दगी, जिसे मैं अकेला बैठा-बैठा बार-बार ही पढ़ता और दोहराता रहता हूँ। गुज़रे पलों को यादों में ही तो जीता हूँ। उन्हें ही गीत-सा गुनगुना कर कैसे भी अपने दुख को साध लेता हूँ। परन्तु हाल ही में जब से पिता जी भी छोड़ गए, सब कुछ ही कितना कठिन और बिखरा-बिखरा रहने लगा है… अर्थ हीन और उबाऊ। कहीं मन ही नहीं लगता । न कोई मेरे साथ और ना ही मैं ही कहीं आता-जाता, या किसी को बुलाता। फोन तक नहीं बजता अब तो। भाई-बहन, मित्र, नाते-रिश्तेदार , सभी से कट चुका हूँ। कोई चाह, कोई लक्ष या उद्देश्य ही नहीं शेष अब तो इस एकाकी जिन्दगी में। टूटे पत्ते-सा यूँ ही बेमतलब भटकता रहता हूँ अकेला-अकेला। एक कामवाली आती है तब किसी दूसरे शख्श की आवाज सुन पाता हूं चन्द घंटों को , वरना तो चौबीसो घंटों का साथ देने को वही टेलिविजन जो मेरे साथ-साथ ही सोता-जगता है। पर अब तो इन बेवजह की खबरों में भी मन नहीं लगता मेरा।

अंत का इंतज़ार करने लगा हूँ, पर वह भी तो नहीं आती ! आत्म-हत्या…. नहीं, मेरे संस्कार अनुमति नहीं देते इसकी।

हमेशा से ऐसा नहीं था मैं। पोंछ भी लूं तो भी एक उमंग चिपकी ही रह जाती थी ॲाखों में, पैरों में। चार साल पहले जब रिटायर हुआ था, सब कुछ कितना ख़ुशनुमा और चटक था जैसे खुली धूप में महकते गुलाब … कितनी उमंग रहती थी मन में। सोचा था कि परिवार को पूरा वक़्त दूँगा, खूब घुमाउँगा। सारी तीर्थ-यात्राएँ करवाऊँगा पत्नी और पिता जी को। कब सोचा था तब कि यूँ पलटी खा लेगी ज़िन्दगी और पल में ही सारे हरे-भरे ये मौसम पतझर में बदल जाएँगे। सिर्फ़ यह अंधेरा, आँधी-पानी ही रह जाएगा मेरी बगिया में। देखते-देखते जीवन के सारे रंग ही पोंछ दिए हैं वक्त ने अब तो। सूना घर काटने को दौड़ता है। तलत महमूद, फ़रीदा खानम और गुलाम अली को सुनने को भी मन नहीं करता अब तो मेरा। वही गायक जिनके गीत और ग़ज़लों से पहले कभी मन नहीं भरता था, चाहे कितना भी सुन लूँ इन्हें। इन्सानों से भरी इस दुनिया में क्यों इतना अकेला हो गया हूँ मैं…कहीं एक मानसिक रोगी तो नहीं ?

गुड़ुप …गुडुप… डूबता रहता हूँ, छटपटाता हूँ दिन-रात अपने ही मन के अँधेरों में। पर ना ही पूरा डूबता ही हॅू और ना ही उबर ही पा रहा हूँ। कितनी गोलियॅा खाऊॅ, कितने डाक्टरों के चक्कर लगाऊॅ?

सारी बत्तियाँ जलाकर रखता हूँ फिर भी अंधेरा ही निगलने को तैयार दिखता है। फिर भी ये निर्बल हाथ-पैर मारने छोड़े नही हैं अभी मैंने।

छोड़ूँ भी कैसे? आदतें भी तो नही बदलतीं ! निराशा मेरे जुझारु स्वभाव में है ही नहीं। दीमक-सा चाहे कितना भी कुतर डाले यह मुझे।

हार मानना नहीं सीख पाया हूँ अभी भी। हाँ, थोड़ा थकने अवश्य लगा हूँ। ख़ास करके तब जब दोस्त कहते हैं कि ‘ हिम्मत मत हारना, कोशिश करते रहो, बस यही हमारे बस में है।’

निराश कर देता है मुझे यह वाक्य। बढ़ती उम्र और बेबसी का अहसास दिला देता है। जाने को तो मैं भी बूढ़ों के घर में जाकर रह सकता हूँ। कम-से-कम कुछ और चेहरे और आवाज़ें तो सुनाई देतीं । पर यहाँ इस घर में मेरी किताबें हैं, चालीस साल की कोने-कोने सजी-संवरी यादें हैं। एक आत्मीय अहसास है हर चीज में। बिना किसी से टकराए अंधेरे में भी घूम सकता हूँ यहाँ पर तो मैं। इतना वाक़िफ़ हूँ हर चीज से कि अकेले भी आराम से रह सकता हूँ यहाँ पर तो मैं। हाँ, अगर यह शरीर रहने दे, तभी तो।…

और यह ‘तो’ ही तो सबसे बड़ी समस्या है अब तो मेरे लिए। जरा भी सुधार नही दिखता लकवा से सुन्न पड़े शरीर के दाहिने हिस्से में। क्या कुछ नहीं किया पर न तो हाथ ही उठ रहा और ना ही दाहिना पैर ही। ऊपर से बाँया हाथ भी काँपने लगा है। कहते हैं कि बुढ़ापे की कंपकंपी है यह। अब और क्या कोशिश करूँ, कैसे जूझूँ इस जर्जर होते शरीर के साथ, समझ में नहीं आता?

मित्रों की सलाह और सहानुभूति नहीं, बस परिस्थितियों में सुधार चाहिए अब तो । फिर एक सवाल यह भी है कि यूँ अपाहिज बनकर क्यों जिऊँ मैं या जीता ही जाऊँ इस कराहते तन और मन को लिए? एक साँस लेती लाश की तरह अकेला और बिस्तर पर पड़ा-पड़ा किसके लिए, किस आस में सहूँ ये सारे कष्ट ! क्यों जिऊँ मैं? एक वजह तो हो जीने की? बेटा बेटी दोनों अपने-अपने परिवार में व्यस्त और मस्त हैं। मेरी ज़रूरत नहीं वहाँ पर। एक मेहमान-सा ही मिलना-मिलाना रह गया है हमारा। वह भी क्या करें यहाँ की ज़िन्दगी ही ऐसी है, पल-पल की ही दिनचर्या में नपी-तुली और जकड़ी। अनावश्यक बोझ ही तो हूँ मैं! बिना बात की फ़िक्र और हफ़्ते-हफ़्ते की भागदौड़ भी…आख़िर क्या फ़ायदा इस सबसे भी, और फिर कब तक!…

मन करता है कि किसी नदी-नाले में जाकर कूद जाऊँ, खतम कर दूँ इस लाचार इहलीला को, व्यर्थ के इस झंझट को एक झटके में ही। साल भर हो गया बिस्तर से चिपके-चिपके। साधारण दिनचर्या भी पहाड़ी पर चढ़ने जैसी बोझिल और कठिन प्रतीत होती है अब तो। पर आत्महत्या भी तो कायरता ही होगी। दीप्ति कहती थी कि इससे बड़ा अपराध कोई और नहीं ईश्वर की बनाई इस दुनिया में। कर्तव्यों से मुँह मोड़ना और ज़िन्दगी से पलायन है यह भी तो। बेहतर है कि चुपचाप कर्मों के दंड भुगतें, ताकि अगला-पिछला लेन-देन तो साफ़ हो।

कम तो नहीं भुगता था खुद दीप्ति या पापा ने भी, फिर मैं ही क्यों इतना निराश हो जाता हूँ। पर ज़िन्दगी भी तो अब वैसी नहीं रही, जैसी पहले थी दीप्ति और पापा के साथ…मुश्किलों में भी खिल-खिलाती और हंसती-गाती । बेवजह ही दिनभर टी.वी. की चैनलों को इधर से उधर बदलता रहता हूँ। किसी भी प्रोग्राम में मन नहीं लगता, कहीं जाकर थिर नहीं होता। इस भयावह अकेलेपन का, इन मुश्किलों का तो कभी आभास ही नहीं था पहले मुझे। आशा से भरा हुआ, हरेक की मदद को हमेशा तैयार रहता था परिवार। आंसू बहाने वाले नहीं, आँसू पोंछने वाले थे हम लोग। हर दिन नया, नई-नई संभावनाओं और यादों से हरा-भरा । हारी-बीमारी भी हंस-गाकर ही निकल जाती थी तब तो । फिर जीवन के कैनवस पर यह उदासी की राख किसने बिखेर दी अब? सिर्फ दिया ही दिया है इन हाथों ने, यह सज़ा क्यों मिल रही है मुझे? जहाँ तक याद आता है, कोई पाप नहीं किया कभी, क्या पता वाक़ई में अगले-पिछले जनम का ही लेन-देन हो यह भी!

आँसू पोंछकर हमेशा की तरह व्यवस्थित करना चाह ही रहा था मैं ख़ुद को कि,सुबह -शाम घर की साफ़-सफाई और दैनिक देखभाल के लिए आती परिचारिका बिल्किस सामने सिर झुकाए खड़ी थी।

‘ सर, खाना सिराहने रख दिया है। गरम है, अभी खा लीजिएगा। मुझे आज जल्दी जाना होगा।’

ख़ुद में ही खोई-खोई पर बेहद चिंतित-सी दिखी वह मुझे। और मैं था कि बेखबर अपनी ही दुःख की उठती-गिरती तरंगों में बेवजह ही डूब उतरा रहा था। घोर निराशा में भी उठकर बैठ गया मैं और हड़बड़ी में तुरंत ही ‘हाँ-हाँ ‘ कहकर विदा कर दिया उसे। वह भी तुरंत ही चुपचाप चली गई। क्या पता चलते-चलते कोई भूला-बिसरा काम ही याद आ जाए मुझे?

‘ क्यों जाना चाहती है बिल्किस जल्दी आज?’

पूछने का मन तो किया था, पर पूछ नहीं पाया । दो महीने का ही तो परिचय है हमारा। वह भी सिर्फ़ काम तक सीमित। सामने वाला ख़ुद ही कुछ बताए नहीं तो बेजान प्रश्न बिना उत्तर के ही तो भटकते रह जाते हैं मन के अंदर-ही-अंदर । उस वक़्त भी ऐसा ही हुआ । हाँ, रात भर मन में सवालों का बवंडर अवश्य था-‘कौन-कौन होगा इसके साथ घर में, क्या वहाँ भी कोई मेरी तरह बीमार है, जिसे इसकी मुझसे अधिक ज़रूरत है?’

अगले दिन बिल्किस आई तो गोदी में कंबल लिपटी चार-पांच साल की बेटी थी साथ।

‘सर आज यास्मीन को साथ लाई हूँ। चुपचाप एक कोने में पड़ी रहेगी। आपके काम में कोई विघ्न नहीं पड़ेगा। बस आँख के आगे रहेगी तो मेरा मन भी नहीं भटकेगा। बुख़ार तेज़ है, अकेला छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ी थी।’

‘ हाँ, हाँ क्यों नहीं, यह तो बहुत अच्छा किया तुमने।’-कहते हुए बात को वहीं खतम करके अपनी नज़रें फेरनी चाहीं मैंने तो फेर नहीं पाया। कम्बल में लिपटी बच्ची के घुटने से नीचे पैर नहीं थे। जैसे कि उसकी सीने से लगी मैली-कुचैली गुड़िया का भी बस धड़-ही-धड़ था, पैर नहीं। मेरा मन अब वाक़ई में बेचैन हो चला था और न चाहते हुए भी एक असहज सवाल फिसल ही गया भिंचे होंठों से।

‘हे भगवान, कैसे अकेली रहती होगी यह घर में बिल्किस, और फिर किसके सहारे ?’

‘ रह लेती है सर। घिसट-घिसट कर अपना सब काम कर लेती है। ज़रूरत सब सिखा देती है। फिर ज़रूरत का हर सामान इसके पास ही रख आती हूँ। पर आज तेज़ बुख़ार की वजह से कुछ गफ़लत-सी में हैं, तो मन नहीं माना और ले आई हूँ।’

मेरी मजबूरी तो कुछ भी नहीं इसके आगे, पूरी उम्र पड़ी है इसकी तो अभी… मैं अब निरुत्तर नम आँखों से यास्मीन को ही देखे जा रहा था।

बच्ची की साँसों की खड़खड़ आवाज़ लगातार कमरे में गूंजती रही और बिल्किस भाग-भागकर अपना काम निपटाती रही। मैं समझ सकता था उसकी इस बेचैन हड़बड़ी को। पर इस हड्डी कँपाने वाली ठंड में यहाँ पर अधिक सुरक्षित है यह । लगता है घर गरम नहीं रख पाती माँ, तभी तो पूरा सीना जकड़ गया है।… कई सवाल और उनके जबाव मथनी-सा मथने लगे थे अब मुझे, पर मैं कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था, क्योंकि मेरे पास उनकी समस्याओं का हल ढूँढने का अधिकार भी तो नहीं। अपनी उलझनों में शायद भूल चुका था मैं कि अधिकार मिलते नहीं, लिए जाते हैं।

पूरे चार घंटे यास्मीन ने चूँ तक नहीं की। बुख़ार से तमतमाते सुर्ख़ चेहरे और बड़ी-बडीं आँखों से कभी मुझे तो कभी कमरे को टुकुर-टुकुर देखती रही, बस। पानी तक नहीं माँगा।

काम निपटाकर बिल्किस ने बच्ची को गोदी में उठाया और गठरी-सा बड़ी हिफ़ाज़त के साथ लेकर चुपचाप चली गई। वैसे भी कम ही बोलती है बिल्किस। पर रात भर मेरे मन में एक कचोट-सी थी । मेरा तीन कमरों का यह गर्म घर कि कहीं ठंड न लग जाए मुझे…वह भी ८५ वर्ष के बूढ़े शरीर को? क़रीब-करीब अपना पूरा जीवन जी चुका हूँ में और जाने कितने इसके जैसे अभागे हैं- जो यूँ बेसहारा और लाचार ठिठुर रहे हैं, बिना जिए ही काल का ग्रास बने!…पर क्या कर सकता हूँ मैं इनके लिए, क्या लगता हूँ में इनका? अनाथालय नहीं, घर है यह मेरा। एक नहीं हज़ारों होंगे ऐसे ही। सारी दुनिया को तो सिर पर लेकर नहीं घूमा जा सकता, अपनी-अपनी क़िस्मत है यह भी तो? भगवान ने तो पाँचों उँगलियाँ भी एक-सी नहीं बनाईं।

जब-जब आत्मा धिक्कारती, सँभाल ले रहा था मैं ख़ुद को कैसे भी अपने उन सार्थक और निरर्थक तर्क-वितर्कों से ।

अगले दिन फिर बिल्किस यास्मीन को लेकर ही आई।

वैसे ही सामने सोफ़े पर चद्दर बिछाकर, कंबल उढ़ाकर बिठा भी दिया, वह भी बिना मुझसे पूछे बग़ैर ही। पर अच्छा लगा मुझे यह भी। फिर ख़ुद ही बेटी का हाल-चाल भी देने लगी,

‘बुख़ार आज भी ज्यों का त्यों ही है, सर । फिर से लाना पड़ा है। पर अकेला कैसे छोड़ती इस हालत में इसे, माँ हूँ, आखिर।’

नज़रें चुराकर बिल्किस खुद अब अपनी आँखें पोंछ रही थी।

‘कोई बात नहीं। मुझे कोई ऐतराज नहीं। तुम बेफिक्र अपना काम करो बिल्किस।’

कहकर मैंने टेलिविज़न खोल दिया।

ख़बरें चल रही थीं सामने हमारे अजीब जटिल वक़्त की वहाँ भी । वही दुःख-दर्द और दया -करुणा से रहित स्वार्थी दुनिया की छवियाँ। चन्द सिरफिरों की ज़िद पर युद्ध से पीड़ितों पर बम गिर रहे थे और साथ में अगल-बगल खड़ी इमारतें भी भरभराकर इधर-उधर ताश के पत्तों-सी ढह रही थीं। जान बचाकर भागते उन लोगों को देखकर चुप बैठी यास्मीन ने अचानक ही घिग्घी मारकर चीखना शुरु कर दिया। हाथ में पकड़ी रोज़ी की आँखों पर हथेली रखकर उन्हें ढाँप दिया। अब वह उसके बाल सहला रही थी और रोती आवाज़ में उसे समझा रही थी, ‘चल रोज़ी चल, यह जगह अब सुरक्षित नही है हमारे लिए। पर चलें कैसे हम, तू चल नहीं सकती, मैं चल नही सकती। हमें लेकर अकेली मम्मा कितना भागेंगी। दबना ही होगा हमें भी इसी मलवे में, जैसे कि अब्बू दब गए थे, अगर मैं ज़िद न करती तुझे उठाने की।’

‘ क्या हुआ था उस दिन यास्मीन, मुझे बताओ। डरो नहीं, यह तो तस्बीरें हैं बस। ‘

उसे समझाते हुए मैंने तुरंत ही टेलिविज़न बन्द कर दिया पर सहमी बच्ची आसपास से बेख़बर अभी भी अपनी गुड़िया से ही बातें किए जा रही थी,

‘ तुझे तो ले आए. पर ख़ुद को नहीं बचा पाए मेरे अब्बू । पूरी-की-पूरी दीवार ने दबा दिया उन्हें वहीं पर। मम्मा ने तो मेरी आँखें ही बन्द कर दी थीं पर मैंने देखा था अब्बू को हाथ उठाकर खुद को नहीं, मुझे बचाने की कोशिश करते हुए।’

अब मैं वाक़ई में स्तब्ध था। तो शरणार्थी हैं बिल्किस और यास्मीन, कितना कुछ सहा और देखा है इस बच्ची ने छोटी-सी ही उम्र में ही।

उदासी के ऋी कितने रंग हैं…. जाने कितनी चिंगारियां हैं इस राख के ढेर में? बिल्किस और यास्मीन के बारे में सब कुछ जान लेने की, उनकी मदद करने की मेरी इच्छा अब और भी बलवती होती जा रही थी।

यास्मीन का बुख़ार उतर चुका था। फिर भी मैंने ख़ुद ही कहा- इसे ले आया करो बिल्किस। अकेला छोड़ने से भी क्या फ़ायदा? मेरा भी मन लगा रहता है इसके आने से और कमरे में भी एक की जगह दो दिखने लग जाते हैं।

बिल्किस तुरंत मान भी गई। उसके लिए इससे अच्छी और क्या व्यवस्था हो सकती थी। कम-से-कम पीपल के पत्ते-सा मन तो नहीं काँपेगा अपाहिज बेटी की फ़िक्र में।

यास्मीन भी अब थोड़ा-थोड़ा खुलने लगी थी मेरे साथ। कभी-कभार तस्बीरों में रंग भरते हुए तो कभी जिग सौ पज़ल बनाते हुए मुझे दिखाने भी लगी थी। और फिर जब मैं तारीफ़ कर देता तो मेरी तरफ़ देखकर मुस्कराने भी लगी थी। यही नहीं, कहानी की किताब पढ़ते हुए मेरे सवालों का जवाब भी देने लगी थी। उस दिन जब मैंने पूछा , ‘क्या अपने पापा की याद आती है तुम्हे? और क्या याद है तुम्हे अपने पापा के बारे में?’ तो दूर सूनी दीवार को देखती हुई धीरे-से बोली थी, ‘सब कुछ। वह आख़िरी दिन तो पूरा का पूरा। सुबह-सुबह ही पापा ने कहा था- यह जगह, यह घर सुरक्षित नहीं। हमें अभी कहीं सुरक्षित जगह जाना पड़ेगा।’

‘क्यों पापा?’ , पूछने पर कहा था कि ‘लड़ाई शुरु हो चुकी है। सब तहस-नहस हो जाएगा । कुछ नहीं बचेगा, जान या माल कुछ भी नहीं। और मैं यह होने नहीं दे सकता। कम-से-कम तुम दोनों के साथ तो नहीं ही।’

‘हम कहाँ जा रहे हैं? क्या वह जगह सुरक्षित है ? ‘

‘पता नहीं बेटा!’

कहकर रो पड़े थे तब मेरे पापा। बस इतना ही याद है मुझे। यही आख़री बात हुई थी हमारी।’

अब और कुछ पूछने की , बात आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं थी मुझ में। फिर भी अगला प्रश्न पूछ ही बैठा मैं- कैसे दिखते थे तुम्हारे पापा और क्या करते थे ?’

‘ बहुत अच्छे, बिल्कुल देवदूत जैसे। ऐसा ही बड़ा घर था हमारा भी वहाँ पर। जहाँ एक बड़ी -सी टेबल पर बैठकर पापा कम्प्यूटर पर अपना काम करते रहते थे और मैं वहीं अपने ढेर सारे खिलौनों के साथ खेलती रहती थी। मम्मा की तरह हमारे घर में भी दो कामवालियाँ आती थीं। सब वहीं दब गए। यह रोज़ी लकी थी जो मेरे साथ आ गई। लकी नहीं अनलकी थी यह भी । इसकी भी तो टांगें नहीं रहीं।’
‘ यह लड़ाइयाँ क्यों होती हैं, अंकल?’

उसके शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे और मेरे पास उसके सवालों का कोई जबाव नहीं था। एक अपराधी-सा आँखें चुराता हुआ मैं बुदबुदाया-

‘पता नहीं बेटा।’

‘बेटा’ शब्द सुनते ही यास्मीन ने तुरंत ही अपनी दोनों बाँहें फैला दीं मेरी तरफ। पर मैं भी तो उसकी ही तरह उठने-बैठने से लाचार था।

एक बार फिर मेरा मन भर आया- मेरा दुःख तो कुछ भी नहीं था इस नन्ही -सी जान के दुखों के आगे। शरीर ही अंग-भंग नहीं, आत्मा पर भी घाव सहे हैं इसने तो।

तब आँसू पोंछती बिल्किस यास्मीन को गोदी में उठाकर मेरे पास ले आई। अब यास्मीन कभी मेरे तो कभी अपने बहते आँसू पोंछ रही थी। और तब पहली बार रौशनी की एक किरण दिखी अंधेरे से घिरे कमरे को। हम तीनों की मुस्कान ने तो फक् उजाला ही कर दिया। महीनों बाद पहली बार अपनी कुछ उपयोगिता महसूस हुई मुझे । अहसास हुआ कि कोरा कैनवस तो सदा रंगहीन ही होता है। कूँची तो बमारे अपने हाथ है, क्या रंग भरने हैं यह भी।

डूबने से पहले ही ख़ुद को डूबा मान लेना कौन-सी समझदारी है? अकेला कौन नही है यहाँ पर! पर अब और यह दुःख या अवसाद के रंग नही जीवन में। सुख-दुख किसके साथ और किसके जीवन में नहीं। इतनी बडी दुनिया में सबको सबको जरूरत है…अकेले होकर भी कोई अकेला नहीं यहाँ पर। व्यर्थ का यह आत्महीनता का बोध भी और नहीं। आज भी सक्षम है मेरी शेष ज़िन्दगी, क्योंकि इस बेसहारा परिवार के लिए ,इस बच्ची के लिए चाहूँ तो बहुत कुछ किया जा सकता है, कर सकता हूँ और निश्चय ही करूँगा भी मैं।…

अब तक यास्मीन वापस अपनी कलरिंग बुक में डूब चुकी थी और सफेद पन्ने पर लाल हरा नीला पीला सारे रंग बिखेर दिए थे उसने।
यह क्या है यास्मीन?

पता नहीं,

पूछने पर वही पुराना जबाव था उसके पास । और तब मैंने उसके धरती -आकाश को जोड़ते हुए कई सारे खूबसूरत गुलाब खिला दिए उसके बगीचे में।

कितना सुंदर कहती , यास्मीन अब हंसते हुए मुझे देखे जा रही थी। …


शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

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