कहानी समकालीनः कैनवास के रंग -शैल अग्रवाल

युद्ध उत्सव नहीं। और ना ही विछोह ही। पर जब डाली भारी हो जाए तो वृक्ष से गिरना ही पड़ता है…जबरन् छलक आए आँसू को मैंने दृढ़ता से पोंछ लिया था तब।

कितने मौसम और कितने रूप-रंग हैं इस जिन्त्दगी के, फिर मेरा यह कैनवास इतना सूना-सूना और फीका क्यों? भाँति-भांति के बिखरे इन रंगों में यह उदासी भी तो एक रंग ही है पर?
हाँ रंग तो है, पर कैसा अजीब रंग… न काला, न सफ़ेद, पूरा सलेटी …काजल भरी आँखों में आँसू जैसा, मैला और कुछ-कुछ मटमैला-सा, जैसा कि मैं भी दिखने लगा हूँ अब! शायद इसी रंग से सजे अब यह लढ़ती और डूडती-बिखरती दुनिया ..या शायद बदले कभी किस्मत और पल में फक् उजाला हो जाए, फिर से फूल खिल आएँ चारों तरफ! लोग सँभल ही जाएँ? यह नेता, राजनेता इन्हें भी अकल आ ही जाए कि झूठ और अफवाहों पर ही नहीं चलती राजनीति और दुनिया!

बदलते मौसम के साथ पल में ही सब कुछ बदल भी तो जाता है!

मेरी बूढ़ी हड्डियों को बेसब्री से इंतजार है खिलखिलाती धूप का।

पत्नी जब से गई है, कितनी उदासी ने घेर लिया है मुझे। जी नहीं रहा, मानो एक कहानी बन गई ही ज़िन्दगी, जिसे अकेला-अकेला पढ़ता और दोहराता रहता हूँ, बस ।

सच कहूँ तो गुज़रे पलों की यादों में ही तो जीने लगा हूँ अब। उन्हें ही बारबार गीत-सा गुनगुनाता दोहराता। कैसे भी अपने दुख को साध तो लेता हूँ, पर कभी नहीं भी साध पाता।…

जब से पिता जी भी छोड़कर गए हैं, सब कुछ ही कितना ज्यादा और भी कठिन और बिखरा-बिखरा-सा रहने लगा है चारो तरफ… अर्थ हीन और उबाऊ। कहीं पर मन ही नहीं लगता। न कोई मेरे साथ है अब और ना ही मैं ही किसी के। कहीं आ-जा ही नहीं पाता उदासी के इस लकवे से अपाहिज । किसी को बुलाता तक नहीं। फोन तक नहीं बजता।

भाई-बहन, मित्र, नाते-रिश्तेदार, सभी से कट चुका हूँ। कोई चाह, कोई लक्ष या उद्देश्य ही नहीं शेष अब तो मानो जीवन में , इस पृथ्वी पर।

टूटे पत्ते-सा यूँ ही बेमतलब भटकता रहता हूँ अकेला-अकेला। एक कामवाली आती है तब किसी दूसरे सख्श की आवाज सुन पाता हूं, वह भी चन्द घंटों को, बस। वरना तो चौबीसो घंटों का साथ देने को बस टेलिविजन है जो मेरे साथ-साथ ही सोता और जगता है हर दिन। पर अब तो इन बेवजह की खबरों में भी मन नहीं लगता मेरा।

अंत का इंतज़ार करने लगा हूँ शायद, पर मौत भी तो नहीं आती ! आत्म-हत्या…. नहीं, मेरे संस्कार अनुमति नहीं देते हैं इसकी।

पर हमेशा से मैं ऐसा नहीं था मैं।

पोंछ भी लेता था, तो भी एक उमंग चिपकी ही रह जाती थी ॲाखों में, ओठों पर, हाथ-पैरों में भी । चार साल पहले जब रिटायर हुआ था, सब कुछ कितना ख़ुशनुमा और चटक था जैसे खुली धूप में महकते गुलाब बगिया के… कितनी उमंग रहती थी चारो तरफ। सोचा था कि परिवार को पूरा वक़्त दूँगा, खूब घुमाउँगा। सारी तीर्थ-यात्राएँ करवाऊँगा पत्नी और पिता जी को।

कब सोचा था तब कि यूँ पलटी खा लेगी ज़िन्दगी और पल में ही सारे हरे-भरे ये मौसम पतझर में बदल जाएँगे। सिर्फ़ यह अंधेरा, आँधी-पानी ही रह जाएगा आँखों के आगे। यूरोप बदनाम है इस मौसम के लिए। पर जीवन के सारे हंसते-किलकते चटक रंग भी तो यहीं देखे थे मैंने। देखते-देखते जीवन के सारे रंग ही पोंछ दिए हैं वक्त ने अब तो। सूना घर काटने को दौड़ता है। तलत महमूद, फ़रीदा खानम और गुलाम अली को सुनने को भी मन नहीं करता मेरा, गायक जिनके गीत और ग़ज़लों से पहले कभी मन नहीं भरता था, चाहे कितना भी सुन लूँ ।

…कहीं शरीर की इस विकलांगता के साथ-साथ एक मानसिक रोगी तो नहीं हो चला मैं, जो इन्सानों से भरी इस दुनिया में इतना अकेला हो गया हूँ?

गुड़ुप …गुडुप… छटपटाता हूँ दिन-रात अपने ही इन अँधेरों में। पर ना तो पूरा डूबता ही हॅू और ना ही उबर ही पा रहा हूँ मैं। कितनी और गोलियॅा खाऊॅ, कितने और डाक्टरों के चक्कर लगाऊॅ? सारी बत्तियाँ जलाकर रखता हूँ फिर भी अंधेरा ही निगलने को तैयार दिखता है। पर अभी ये निर्बल हाथ-पैर मारने छोड़े नही हैं मैंने।

छोड़ूँ भी कैसे? आदतें कब बदलती हैं! निराशा मेरे जुझारु स्वभाव में रही ही नहीं। दीमक-सा चाहे कितना भी कुतर डाले वक्त मुझे। हाँ थोड़ा थकने अवश्य लगा हूँ। ख़ास करके तब जब दोस्त कहते हैं कि ‘ हिम्मत मत हारना, कोशिश करते रहो, बस यही हमारे बस में है, और कुछ नहीं।’

निराश कर देता है मुझे यह उनका निरर्थक वाक्य।

बढ़ती उम्र और बेबसी का अहसास होने लगता है।

रहने को तो मैं भी बूढ़ों के घर में जाकर रह सकता हूँ। कम-से-कम कुछ और चेहरे और आवाज़ें तो सुनाई देंगी! पर यहाँ इस घर में मेरी किताबें हैं, चालीस साल की कोने-कोने सजी-संवरी यादें हैं। एक आत्मीय अहसास है घर की हर चीज में। बिना किसी से टकराए अंधेरे में भी घूम सकता हूँ यहाँ पर la मैं। इतना वाक़िफ़ हूँ अपने घर के कोने-कोने से से कि अकेले भी आराम से रहता हूँ यहाँ।

पर अगर यह शरीर बाधा न बने, तभी तो।… और यह ‘तो’ ही तो सबसे बड़ी समस्या है अब मेरे लिए। बोझिल हो चले हैं तन और मन दोनों ही।

जरा भी सुधार नही दिखता लकवा से सुन्न पड़े शरीर के दाहिने हिस्से में। क्या कुछ नहीं किया, पर न तो हाथ ही उठ रहा है और ना ही दाहिना पैर ही। ऊपर से बाँया हाथ भी काँपने लगा है अब तो। कहते हैं कि बुढ़ापे की कंपकंपी है यह भी। अब आप ही बताओ, और क्या कोशिश करूँ मैं, कैसे जूझूँ इस जर्जर होते शरीर के साथ?

मित्रों की सलाह और सहानुभूति नहीं, बस परिस्थितियों में सुधार चाहिए अब तो मुझे। फिर एक सवाल यह भी है कि यूँ अपाहिज बनकर क्यों जीता ही जाऊँ मैं इस कराहते तन और मन को क्यों ढोऊँ, एक साँस लेती लाश की तरह अकेला और बिस्तर पर पड़ा-पड़ा? आखिर किसके लिए? किस आस में सहूँ ये सारे कष्ट मैं! क्यों जिऊँ? एक वजह तो हो जीने की? बेटा बेटी दोनों अपने-अपने परिवार में व्यस्त और मस्त हैं। मेरी ज़रूरत नहीं अब किसी को। एक मेहमान-सा ही मिलना-मिलाना रह गया है अब तो हमारा।

पर वह भी क्या करें, यहाँ पर ज़िन्दगी ही ऐसी है, पल-पल की ही दिनचर्या में नपी-तुली और बंधी-जकड़ी। अनावश्यक बोझ ही तो हूँ मैं अब उनके लिए भी ! बिना बात की फ़िक्र और हफ़्ते-हफ़्ते की भागदौड़ भी…आख़िर क्या फ़ायदा इस सबसे भी, और फिर कब तक?…

मन करता है कि किसी नदी-नाले में जाकर कूद जाऊँ, खतम कर दूँ इस लाचार इहलीला को, व्यर्थ के इस झंझट को एक झटके में ही तोड़ दूँ। साल भर हो गया बिस्तर से चिपके-चिपके। साधारण दिनचर्या भी पहाड़ी पर चढ़ने जैसी बोझिल और कठिन प्रतीत होती है अब तो। पर आत्महत्या भी तो कायरता ही होगी। दीप्ति कहती थी कि इससे बड़ा अपराध कोई और नहीं ईश्वर की बनाई इस दुनिया में। कर्तव्यों से मुँह मोड़ना और ज़िन्दगी से पलायन है यह भी तो। बेहतर है कि चुपचाप कर्मों के दंड भुगतें हम, ताकि अगला-पिछला लेन-देन तो साफ़ रहे।

कम तो नहीं भुगता था पर खुद दीप्ति या पापा ने भी। फिर मैं ही क्यों इतना निराश हो जाता हूँ?

ज़िन्दगी भी तो अब वैसी नहीं रही, जैसी पहले थी दीप्ति और पापा के साथ…मुश्किलों में भी खिल-खिलाती और हंसती-गाती।

बेवजह ही दिनभर टी.वी. की चैनलों को इधर से उधर बदलता रहता हूँ। किसी भी प्रोग्राम में मन नहीं लगता। कहीं जाकर थिर क्यों नहीं हो पाता? इस भयावह अकेलेपन का, इन मुश्किलों का तो कभी आभास ही नहीं था मुझे। आशा से भरा हुआ, हरेक की मदद को हमेशा तैयार रहने वाला परिवार था हमारा। यूँ आंसू बहाने वाले नहीं। आँसू पोंछने वाले थे हम लोग तो। हर दिन नया, नई-नई संभावनाओं और यादों से हरा-भरा और चहकता। हारी-बीमारी भी हंस-गाकर ही निकल जाती थी तब तो। फिर जीवन के कैनवस पर यह उदासी की राख किसने बिखेर दी समय ने? सिर्फ दिया ही दिया है इन हाथों ने तो? यह सज़ा क्यों मिल रही है मुझे? जहाँ तक याद आता है, कोई पाप नहीं किया मैंने तो कभी! क्या पता वाक़ई में अगले-पिछले जनम का ही लेन-देन हो यह भी!

आँसू पोंछकर हमेशा की तरह व्यवस्थित करना चाह ही रहा था ख़ुद को कि,सुबह-शाम घर की साफ़-सफाई और दैनिक देखभाल के लिए आती परिचारिका बिल्किस सामने सिर झुकाए आ खड़ी हुई।

‘ सर, खाना सिराहने रख दिया है। गरम है, अभी खा लीजिएगा। मुझे आज जल्दी जाना होगा।’

ख़ुद में ही खोई-खोई पर बेहद चिंतित-सी दिखी वह। और मैं था कि बेखबर अपनी ही दुःख की उठती-गिरती तरंगों में बेवजह ही घटों से डूब-उतरा रहा था। उस घोर निराशा में भी उठकर बैठ गया मैं तब और हड़बड़ी में ही तुरंत ‘हाँ-हाँ ‘ कहकर विदा भी कर दिया उसे। वह भी तुरंत ही चुपचाप चली गई। डरती थी शायद क्या पता चलते-चलते कोई भूला-बिसरा काम ही याद आ जाए मुझे और वह मना न कर पाए?

भली औरत है बिल्किस। पर वक़्त की मारी। कौन नहीं है यहाँ इस धरती पर , जिसे कभी-न-कभी इस वक़्त ने पटकी न लगाई हो?

‘ पर क्यों जाना चाहती थी बिल्किस जल्दी आज?’ कम-से-कम पूछना तो चाहिए ही था मुझे, शायद कुछ मदद कर पाता!

पूछने का मन तो किया था, पर पूछ नहीं पाया था मैं। दो महीने का ही तो परिचय है हमारा। वह भी सिर्फ़ काम तक सीमित। सामने वाला ख़ुद ही कुछ बताए नहीं तो बेजान प्रश्न बिना उत्तर के ही तो भटकते रह जाते हैं मन के अंदर-ही-अंदर ही। उस वक़्त भी तो ऐसा ही हुआ। हाँ, रात भर मन में सवालों का बवंडर अवश्य था-‘कौन-कौन होगा इसके साथ घर में, क्या वहाँ भी कोई मेरी तरह बीमार है, जिसे इसकी मुझसे अधिक ज़रूरत है?’

अगले दिन बिल्किस आई तो गोदी में कंबल लिपटी चार-पांच साल की बेटी थी साथ।

‘सर आज यास्मीन को साथ ले आई हूँ। चुपचाप एक कोने में पड़ी रहेगी। आपके काम में कोई विघ्न नहीं पड़ेगा। बस आँख के आगे रहेगी तो मेरा मन नहीं भटकेगा। बुख़ार तेज़ है, अकेला छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ी थी।’

‘ हाँ, हाँ क्यों नहीं, यह तो बहुत अच्छा किया तुमने, बिल्किस।’-कहते हुए बात को वहीं खतम करके अपनी नज़रें फेरनी चाहीं मैंने तो फेर नहीं पाया। कम्बल में लिपटी बच्ची के घुटने से नीचे पैर नहीं थे। जैसे कि उसकी सीने से लगी मैली-कुचैली गुड़िया का भी बस धड़-ही-धड़ था, पैर नहीं। मेरा मन अब वाक़ई में बेचैन हो चला था और न चाहते हुए भी एक असहज सवाल फिसल ही गया था तब मेरे भिंचे होंठों से।

‘हे भगवान, कैसे अकेली रहती होगी यह घर में , और फिर किसके सहारे बिल्किस ?’

‘ रह लेती है सर। घिसट-घिसट कर अपना सब काम कर लेती है। ज़रूरत सब सिखा देती है। फिर ज़रूरत का हर सामान इसके पास ही रखकर आती हूँ। पर आज तेज़ बुख़ार की वजह से कुछ गफ़लत-सी में हैं, तो मन नहीं माना और ले आई।’

मेरी मजबूरी तो कुछ भी नहीं इसके आगे, पूरी उम्र पड़ी है इसकी तो अभी… मैं अब निरुत्तर नम आँखों से यास्मीन को ही देखे जा रहा था।

बच्ची की साँसों की खड़खड़ आवाज़ लगातार कमरे में गूंजती रही और बिल्किस भाग-भागकर अपना सारा काम निपटाती रही। मैं समझ सकता था उसकी इस बेचैन हड़बड़ी को।

‘ इस हड्डी कँपाने वाली ठंड में यहाँ पर अधिक सुरक्षित है यह । लगता है घर गरम नहीं रख पाती माँ, तभी तो पूरा सीना जकड़ गया है।’

कई सवाल और उनके जबाव मथनी-सा मथने लगे थे अब तो मुझे, पर मैं कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था, क्योंकि मेरे पास उनकी समस्याओं का हल ढूँढने का अधिकार भी तो नही था। अपनी उलझनों में शायद भूल चुका था मैं कि अधिकार मिलते नहीं, लिए जाते हैं।

पूरे चार घंटे यास्मीन ने चूँ तक नहीं की।

बुख़ार से तमतमाते सुर्ख़ चेहरे और बड़ी-बडीं आँखों से कभी मुझे तो कभी कमरे को टुकुर-टुकुर देखती रही, बस। पानी तक नहीं माँगा।

काम निपटाकर बिल्किस ने बच्ची को गोदी में उठाया और गठरी-सा बड़ी हिफ़ाज़त के साथ लेकर चुपचाप चली गई। वैसे भी कम ही बोलती है बिल्किस। पर रात भर मेरे मन में एक कचोट-सी थी।

‘मेरा तीन कमरों का यह गर्म घर कि कहीं ठंड न लग जाए मुझे…वह भी ८५ वर्ष के बूढ़े शरीर को? क़रीब-करीब अपना पूरा जीवन जी चुका हूँ में और जाने कितने इसके जैसे अभागे हैं- जो यूँ बेसहारा और लाचार ठिठुर रहे हैं, बिना जिए ही काल का ग्रास बन जाते हैं!

पर क्या कर सकता हूँ मैं इनके लिए, क्या लगता हूँ में इनका? अनाथालय नहीं, घर है यह मेरा। एक नहीं हज़ारों होंगे ऐसे ही। सारी दुनिया को तो सिर पर लेकर नहीं घूमा जा सकता, अपनी-अपनी क़िस्मत है यह भी तो? भगवान ने तो पाँचों उँगलियाँ भी एक-सी नहीं बनाईं। ‘
जब-जब आत्मा धिक्कारती, सँभाल ले रहा था मैं ख़ुद को कैसे भी अपने उन सार्थक और निरर्थक तर्क-वितर्कों से ।

अगले दिन फिर बिल्किस यास्मीन को साथ लेकर ही आई।

वैसे ही सामने सोफ़े पर चद्दर बिछाकर, कंबल उढ़ाकर बिठा भी दिया उसे, वह भी बिना मुझसे पूछे।

अच्छा लगा मुझे यह भी। फिर ख़ुद ही बेटी का हाल-चाल भी देने लगी थी बिल्किस,

‘बुख़ार आज भी ज्यों का त्यों ही है, सर । फिर से लाना पड़ा है। पर अकेला कैसे छोड़ती इस हालत में इसे, माँ हूँ, आखिर।’

नज़रें चुराकर बिल्किस खुद अब अपनी आँखें पोंछ रही थी।

‘कोई बात नहीं। मुझे कोई ऐतराज नहीं। तुम बेफिक्र अपना काम करो बिल्किस।’

कहकर मैंने टेलिविज़न खोल दिया।

ख़बरें चल रही थीं सामने हमारे इस अजीब और जटिल वक़्त की ।

वही दुःख-दर्द और दया-करुणा रहित स्वार्थी दुनिया की छवियाँ थीं वहाँ भी।

चन्द सिरफिरों की ज़िद पर युद्ध से पीड़ितों पर बम गिर रहे थे और साथ में अगल-बगल खड़ी इमारतें भी भरभराकर इधर-उधर ताश के पत्तों-सी ही ढह रही थीं। जान बचाकर भागते उन लोगों को देखकर चुप बैठी यास्मीन ने अचानक ही घिग्घी मारकर रोना शुरु कर दिया। हाथ में पकड़ी अपनी गुड़िया रोज़ी की आँखों पर हथेली रखकर उन्हें ढाँप दिया। अब वह उसके बाल सहला रही थी और रोती आवाज़ में उसे समझा रही थी,

‘चल रोज़ी चल, यह जगह अब सुरक्षित नही हमारे लिए। पर चलें कैसे हम, तू चल नहीं सकती, मैं चल नही सकती। हमें लेकर अकेली मम्मा कितना भागेंगी? दबना ही होगा हमें भी इसी मलवे में, जैसे कि अब्बू दब गए थे, अगर मैं ज़िद न करती उनसे तुझे उठाने जाने की।’

‘ क्या हुआ था उस दिन यास्मीन, मुझे बताओ? डरो नहीं। यह तो तस्बीरें हैं बस।’

उसे समझाते हुए मैंने तुरंत ही टेलिविज़न बन्द कर दिया।

पर सहमी बच्ची आसपास से बेख़बर अभी भी अपनी गुड़िया से ही बातें किए जा रही थी,

‘ तुझे तो ले आए थे, पर ख़ुद को नहीं बचा पाए मेरे अब्बू। पूरी-की-पूरी दीवार ने दबा दिया था उन्हें वहीं पर। मम्मा ने तो मेरी आँखें ही बन्द कर दी थीं पर मैंने देखा था अब्बू को हाथ उठाकर खुद को नहीं, मुझे बचाने की कोशिश करते हुए।’

अब मैं वाक़ई में स्तब्ध था। तो शरणार्थी हैं बिल्किस और यास्मीन, कितना कुछ सहा और देखा है इस बच्ची ने छोटी-सी इस उम्र में ही।

बिल्किस और यास्मीन के बारे में सब कुछ जान लेने की, उनकी मदद करने की मेरी इच्छा अब और भी बलवती हो चुकी थी।

यास्मीन का बुख़ार उतर चुका था। फिर भी मैंने ख़ुद ही कहा- इसे ले आया करो बिल्किस। अकेला छोड़ने से भी क्या फ़ायदा? मेरा भी मन लगा रहता है इसके आने से और कमरे में भी एक की जगह दो दिखने लग जाते हैं।

और बिल्किस तुरंत मान भी गई थी। उसके लिए इससे अच्छी और क्या व्यवस्था हो सकती थी। कम-से-कम पीपल के पत्ते-सा मन तो नहीं काँपेगा अब अपाहिज बेटी की फ़िक्र में।

यास्मीन भी अब थोड़ा-थोड़ा खुलने लगी थी मेरे साथ। कभी-कभार तस्बीरों में रंग भरते हुए तो कभी जिग सौ पज़ल बनाते हुए मुझे दिखाने भी लगी थी। और फिर जब मैं तारीफ़ कर देता तो मेरी तरफ़ देखकर कभी-कभी मुस्कराने भी लगी थी वह। यही नहीं, कहानी की किताब पढ़ते हुए मेरे सवालों का जवाब भी देती थी।

उस दिन जब मैंने पूछा , ‘क्या अपने पापा की याद आती है तुम्हे? और क्या याद है तुम्हे अपने पापा के बारे में?’ मुझे बताओ।

तो दूर सूनी दीवार को देखती हुई धीरे-से बोली थी, ‘सब कुछ। वह आख़िरी दिन तो पूरा का पूरा। सुबह-सुबह ही अब्बू ने कहा था- यह जगह, यह घर सुरक्षित नहीं अब हमारे लिए। हमें कहीं और सुरक्षित जगह जाना पड़ेगा।’

‘क्यों अब्बू?’ , पूछने पर कहा था कि ‘लड़ाई शुरु हो चुकी है। सब तहस-नहस हो रहा है। हो जाएगा। कुछ नहीं बचेगा। जान-माल, कुछ भी नहीं। और मैं यह होने नहीं दे सकता। कम-से-कम तुम दोनों के साथ तो हरगिज़ ही नहीं।’

‘हम कहाँ जा रहे हैं? क्या वह जगह सुरक्षित है ? ‘

‘पता नहीं बेटा!’

कहकर रो पड़े थे तब मेरे अब्बू। बस इतना ही याद है मुझे। यही आख़री बात हुई थी हमारी शायद।’

अब और कुछ पूछने की , बात आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं थी मेरी।

फिर भी अगला प्रश्न पूछ ही बैठा मैं कुछ मिनटों की चुप्पी के बाद- कैसे दिखते थे तुम्हारे पापा और क्या करते थे ?’

‘ बहुत अच्छे, बिल्कुल देवदूत जैसे। ऐसा ही बड़ा घर था हमारा भी वहाँ पर। जहाँ एक बड़ी -सी टेबल पर बैठकर पापा कम्प्यूटर पर अपना काम करते रहते थे और मैं वहीं अपने ढेर सारे खिलौनों के साथ खेलती रहती थी। मम्मा की जैसी हमारे घर में भी दो कामवालियाँ आती थीं। सब वहीं दब गए। यह रोज़ी लकी थी जो मेरे साथ आ गई। लकी नहीं अनलकी थी यह भी । इसकी भी तो टांगें नहीं रहीं।’

‘यह लड़ाइयाँ क्यों होती हैं, अंकल?’

उसके शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे और मेरे पास उसके सवालों का कोई जबाव नहीं था। एक अपराधी-सा आँखें चुराता हुआ मैं बुदबुदाया-

‘पता नहीं बेटा।’

‘बेटा’ शब्द सुनते ही यास्मीन ने तुरंत ही अपनी दोनों बाँहें फैला दीं मेरी तरफ। पर मैं भी तो उसकी ही तरह उठने-बैठने से लाचार था।

एक बार फिर मेरा मन भर आया- मेरा दुःख तो कुछ भी नहीं था इस नन्ही -सी जान के दुखों के आगे। शरीर ही अंग-भंग नहीं, आत्मा पर भी घाव सहे हैं इसने तो।

तब आँसू पोंछती बिल्किस यास्मीन को गोदी में उठाकर मेरे पास ले आई थी।

अब यास्मीन कभी मेरे तो कभी अपने बहते आँसू पोंछ रही थी। और तब पहली बार रौशनी की एक किरण दिखी अंधेरे से घिरे रहने वाले मेरे उस कमरे को। हम तीनों की मुस्कान ने तो फक् उजाला ही कर दिया था चारों तरफ। महीनों बाद पहली बार अपने जीवन की कुछ उपयोगिता महसूस हुई थी मुझे । अहसास हुआ कि कोरा कैनवस तो सदा रंगहीन ही होता है। कूँची तो हमारे अपने हाथ ही तो रंग भरते हैं ।

‘उदासी के भी तो कितने रंग हैं…. कितनी चिंगारियां हैं इस राख के ढेर मे भी!डूबने से पहले ही ख़ुद को डूबा मान लेना कौन-सी समझदारी है? अकेला कौन नही यहाँ पर! अब और यह दुःख या अवसाद के रंग नही रहने दूँगा मैं इनके जीवन में। सुख-दुख किसके साथ और किसके जीवन में नहीं? इतनी बडी इस दुनिया में हम सभीको एक-दूसरे की जरूरत है…अकेले होकर भी कोई अकेला नहीं है पर यहाँ पर। व्यर्थ का यह आत्महीनता का बोध अब और नहीं आने दूंगा मन में। आज भी सक्षम है मेरी शेष यह ज़िन्दगी इस बेसहारा परिवार के लिए ,इस बच्ची के लिए। चाहूँ तो, बहुत कुछ कर सकता हूँ मैं और निश्चय ही करूँगा भी ।’

अब तक यास्मीन वापस अपनी कलरिंग बुक में डूब चुकी थी और सफेद पन्ने पर लाल हरा नीला पीला सारे रंग बिखेर दिए थे उसने।
‘यह क्या है यास्मीन?’
पूछने पर बोली,

‘पता नहीं, इंद्रधनुष है शायद जो कल कहानी की किताब में मम्मी ने दिखाया था।’

और तब मैंने उसके धरती -आकाश को जोड़ते हुए कई सारे खूबसूरत गुलाब खिला दिए उसके बगीचे में और हाँ, एक इंद्रधनुष भी बना दिया आसमान से ज़मीं को जोड़ता हुआ।

तस्बीर अब पूरी लग रही थी। और यास्मीन की कानों तक खिंची मुस्कान से तो पूरा पन्ना ही भरा-भरा हुआ और सुंदर।

‘कितना सुंदर!’

कहती, यास्मीन अब हंसते हुए मुझे ही तो देखे जा रही थी। और तभी मुझे पूरी तरह से चौंकाता हुआ एक आश्चर्य और हुआ, आतुर यास्मीन घिसटती-घिसटती मेरे बग़ल में आ गई थी और क्रेयौन मेरे हाथ में देकर पूछ रही थी,

‘जब चंद जरूरी सामान को गठरी में उठाए और भाई को सीने से चिपकाए पिता बाहर निकले ही वाले थे कि दुश्मन की फेंकी मिसाइल की चपेट में आ गए थे। मैंने और माँ ने पाषाण प्रतिमा सा खड़े-खड़े देखा था पल में ही उन्हें गिरते हुए और ख़ून से लथपथ। माँ उनपर ुकी थीं और फिर तुरंत ही भागने लगी थीं मुझे गोदी में उठाए। बस एक ही वाक्य दोहरा रही थीं बारबार-चलो कुछ भी नहीं अब यहाँ हमारे लिए, बेहद ख़तरनाक हो चुकी है यह जगह अब हमारे लिए। पिता और भाई को क्यों नहीं साथ लिया तो चुप हो जाती हैं। कहती है पिता और भाई दोनों आकाश में देवदूत बन गए।
क्या आप देवदूत को भी बुला सकते हैं हमारी इस तस्बीर में अंकल?’

***


शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

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