कहानी अनुवादः भाग्य में लिखा न थाः ज़रीना बलोच

मलूकान घर का कामकाज ख़त्म करते ही निश्चिंत होकर अभी बैठी ही थी कि मौसी हूर भी जूती को घसीटती हुई आई और मलूकान के पास बैठते ही दीर्घ श्वास लेते हुए कहा-‘मलूकान अब तो लोगों की आँखों से शर्मो-हया निकल गया है। छोटे-बड़े की तमीज भी उनमें नहीं है। इस मुरदार वी॰सी॰आर॰ ने तो मुलक का बेड़ा गर्क कर दिया है। न बच्चों में शिष्टता और न ही दादी-नानी की उम्र के बुज़ुर्गों का लिहाज़। अभी-अभी तुम्हारे पास आ रही थी कि दो छोरे फटफटी पर जा रहे थे। बस, यह समझो कि मुझे कुचल ही जाते अगर मैं हटकर, लड़खड़ाते हुए उस पत्थर से टकराकर न गिर पड़ी होती, जो लड़कों ने खेलने के लिए बीच राह में रखा था। छोरों को ज़रा भी शर्म न आई कि मुझे हाथ देकर उठाते, उल्टा ज़ोर-ज़ोर से ठहाके मारकर मज़ाक उड़ाने लगे।’
‘हाँ मौसी, तुम सही कह रही हो। मैं ख़ुद देख रही हूँ कि हमारी सिंधी कौम के बच्चे बद से बदतर होते जा रहे हैं। इसमें हम सबका दोष है। वे ग़लत माहौल में पल रहे हैं। अनुचित आज़ादी मिली है। उनके माता-पिता और उस्ताद भी उनसे डरते हैं; क्योंकि बचपन में उनकी परवरिश ग़लत बुनियाद पर की जाती है। उन्हें माता-पिता, बहन के लिए इज्ज़त नहीं है, तो तुझ जैसी बुढ़िया की क्यों करेंगे?’
‘बेटी कह तो सच रही हो। इन लफंगों पर किसी का ज़ोर नहीं चलता। मुझे थोड़ा पानी पिला दो तो सरककर शेखों के घर जाऊँ।’
‘मौसी आज जल्दी काम पर जा रही हो?’
‘हाँ बिटिया, दो घर और भी काम के लिए मिले हैं। कई लोगों से
मिलने-जुलने से कुछ ग़म कम ही हो जाता है।’
मैं मौसी के लिए पानी ले आई, पीकर मुझे दुआएँ देती रही। मैं वैसे तो मौसी के लिए चिलम में ताज़ा अंगार डालकर ले आती, पर आज उसे जल्दी थी। कहा-‘अच्छा अब मैं चलती हूँ, इस नामुराद पेट की आग को बुझाना है। कल से लेकर अन्न का दाना भी पेट में नहीं गया है।’
सुनते मलूकान ने कटोरी में लस्सी और एक रोटी लाकर उसके सामने रखी, तो मौसी की आँखों से आँसू छलक पड़े। कहने लगी-‘बेटी सदा आबाद रहो, अल्लाह साँई कभी भी संकटमय दिन न दिखाए तुझे।’ फिर रोटी खाने बैठी और मलूकान अपने काम में इतनी मशगूल हो गई कि मौसी कब चली गई इस बात का उसे पता ही न पड़ा। इस तरह आते-जाते मौसी, मलूकान के घर होते हुए जाती।
कहते हैं कि मौसी हूर जवानी में बहुत सुंदर थी। लोग उसकी सुंदरता का हवाला दिया करते थे। माँ-बाप को भी वह मिन्नतों के बाद मिली थी। उसके बाद एक भाई भी पैदा हुआ था। जब चौदह साल पूरे करके पंद्रहवें साल में पाँव धरा, तो कली से खिलकर गुलाब का फूल बन गई। उसका चलना ऐसे जैसे मोरनी थिरक रही हो, उसकी हँसी ऐसे जैसे सीप-शंख छनक रहे हों। उसका रहन-सहन कस्तूरी के समान सुगंध फैला देता। उसकी बतियाती आँखें हर किसी के दिल में घर कर जाती। हर किसी के साथ यूँ प्यार करती जैसे उन्हें सदियों से जानती हो। उसे न गर्मी की, न सर्दी की परवाह थी। बस, किसी-न-किसी काम में व्यस्त रहती। उसकी हमउम्र भी उसकी सोहबत में आनंदित रहतीं। मजाल है कि कोई सहेली उससे रूठे। उसकी सुरमई आँखें हर किसी को चुंबक की तरह अपनी ओर आकर्षित करतीं। उसका रंग संध्या की लाली जैसा था। माता-पिता ने भी नाम रखा हूर (अप्सरा)। थी भी अप्सरा जैसी। जवानी दीवानी पर उसका चचेरा भाई उस पर मर मिटा। वह उम्र में उससे पाँच साल बड़ी थी। वह उसके रवैये को समझते हुए भी उसे भाव नहीं देती थी, पर मन-ही-मन उससे प्यार करती थी। बस, यूँ ही अलबेले अंदाज में सिर हिलाकर चली जाती।
उसके चचेरे भाई ने चाचा से उसका हाथ माँगा, पर चाचा ने ना कर दी, क्योंकि उस बिचारे के पास बीस हज़ार रुपए न थे। हूर को जब इस बात का पता पड़ा, तो वह कुम्हला गई, क्योंकि उसका प्यार भी चचेरे भाई से था। पर उसने कभी भी उसका इजहार नहीं किया था। एक दिन खेतों की ओर जाते चचेरे भाई ने कहा-‘हूर मैं तुम्हारे सिवाय मर जाऊँगा। चाचा तुम्हारे रिश्ते के लिए पैसे माँग रहे हैं, जो मेरे पास नहीं। मैं उसे खेत का एक हिस्सा लिखकर देता हूँ, तुम क्या कहती हो?’
‘मनू मैं क्या कहूँ? जो बाबा की मरजी। अपने पास तो बेटियाँ भेड़- बकरियों की तरह बिकती हैं। पता नहीं बाबा के दिल में क्या है? और यह भी पता नहीं कि उसने कहाँ सौदा कर दिया है। तुम क्यों ख़ुद को परेशान करते हो? तुम्हारी बहन भी तो चाचा ने पैसों पर बेचकर पचास साल के वृद्ध को दी। उन दिनों तुम कुछ कहते, तो आज तुम्हारी बात में वजन होता।’ ऐसा कहते हुए हूर की आँखों के बाँध अपनी हदें तोड़ बैठे। दिल शिक्सता होकर वह घर की ओर लौटी। महरम, जिसे वह प्यार से ‘मनू’ कहती थी, उसे जाते हुए देखता रहा।
एक दिन पिता ने उसे बीस हज़ार में बेच दिया। पड़ोस के गाँव के एक बड़ी उम्र के जमींदार ने उसे खरीदा, क्योंकि उसे औलाद न थी और फिर एक दिन वह साठ साल के बूढ़े के साथ फेरे लेकर, बूढ़े की गोद में आम की तरह आ गिरी। बस दीवार बन गई-मौन दीवार। कहाँ गए उसके नाज़-नखरे और कहाँ गई उसकी जवानी दीवानी। कहाँ गया उसका चचेरा भाई ‘मनू’ और कहाँ गईं सखी-सहेलियाँ। एक बार उसकी एक सहेली ने उससे कहा भी था कि मनू से शादी कर ले। हूर ने जवाब देते कहा-‘मणि, बाबा तो ऐसे अड़ियल हैं कि वे मनू को और मुझे भी मार देंगे या मरवा देंगे। मुझे अगर पैसों पर बेचकर दूसरी जगह शादी करवा भी देंगे, तो कम-से-कम मनू तो ज़िन्दा रहेगा। मैं तो रहूँगी न ज़िन्दों में, न मुर्दों में!’
यह थी मौसी हूर की कहानी, जो एक दिन न जाने किस बहाव में आकर उसने मुझे बताई थी। कभी-कभी उसके दिल में कोई उबाल आता या मेरे पूछने पर पुरानी यादों की पोटली से कोई किस्सा मुझे बताती थी। इस तरह उसका मन भी हल्का हो जाता था। एक बार मैंने पूछ लिया-‘मौसी, शादी के बाद उस बूढ़े के साथ वक़्त कैसे गुज़ारा?’
‘अरी मलूकान, बिके हुए घोड़ों का क्या मोल?’ उसने ठंडी साँस लेते हुए कहा। ‘जो तकदीर में था वही हुआ। उसके साथ मेरा संयोग था। इसके साथ फेरे लगाए, पर तार मनू के साथ जुड़ी थी। भाग्य में लिखा ही न था। उसके पास नकद बीस हज़ार नहीं थे, क्योंकि वह ग़रीब था। अब तो लड़कियाँ लाखों में बिक रही हैं। बूढ़े अय्याशी के लिए करते हैं और दूसरी बात-एक दूसरे की होड़ में खेत, माल भी बेचकर सुंदर लड़कियाँ खरीदकर शादी कर रहे हैं।’
‘मौसी, पर मनू का क्या हुआ?’
‘सुना है, वह घर छोड़कर डकैतों के साथ डकैत बन गया। मन उखड़ गया था। उन रास्तों पर कैसे चलता, जिन पर मेरा आना-जाना था। जहाँ हमने मिल-जुलकर खेल खेले, हमारी प्रीत तो सच्चे नैनों की प्रीत थी। फकत एक- दूसरे की आँखें मिलाकर हज़ारों शिकवे-शिकायतें करते, तो कभी अठखेलियाँ करते। अगर मुझे पता होता कि ऐसा होगा, तो मैं मनू की ओर नज़र उठाकर कभी न देखती।’
‘मौसी, फिर क्या हुआ?’
‘मलूकान, बात ही मत पूछ, दर्द होता है। अदिलू ने मुझे चाहा तो बहुत, पर मेरी रूह पर उसका रंग चढ़ा ही नहीं। इस मुर्दार दिल को कैसे समझाती। आँखों के आगे सिर्फ़ मनू रहता था। जिसके साथ प्रेम की डोर बँधी थी। जिसके साथ स्नेह का नाता था, रात-दिन जिसके आगे हँसती रहती थी, ज़रा ज़रा सी बात पर बहाना बनाकर हँसी-मज़ाक किया करती, जिसके साथ रूठना-मनाना हुआ करता। एक दिन पति खेत पर गया, तो दो लोगों ने छल-कपट से ‘अदिलू’ को कुल्हाड़ी के एक ही वार से मार डाला। मैं विधवा हो गई। क़ातिलों को किसी ने नहीं देखा। बात इस तरह निगली गई जैसे कोई बिना नाश्ते मक्खन का गोला निगल जाए। मेरे दिल को धक्का लगा और साथ में यह भी लगा कि यह काम इलाक़े के मुखिया का था, क्योंकि उसने मुझे संदेश-वाहक से कहलवा भेजा था, पर मैं ऐसे भी चुप, वैसे भी चुप रही, जब से पैसों के लेन-देन पर ब्याह करके आई थी। फिर बाबा के पास भी नहीं गई। जैसे मैं उस आँगन में पैदा ही न हुई थी। मैके वे बेटियाँ जाती हैं, जो ब्याही जाती हैं या फिर अदली-बदली में रिश्ता हो। यहाँ तो जात ही दूसरी थी। एक बार माँ ने छोटे भाई के हाथों शुद्ध सच्चा घी और कुछ सौग़ातें भेजी थीं। वे भी अदिलू ने लेकर फेंक दीं। मैंने एक शब्द भी नहीं कहा, क्योंकि बिकी हुई औरत बोलती नहीं, फक़त सुनती है; फ़रमान पूरा करती है। मैं गूँगी गाय बन गई। कुछ दिनों के बाद एक वृद्ध महिला मेरे पास इलाची, सुपारियाँ रूमाल में बाँधकर ले आई, ‘यह तुम्हें मुखिया जान मुहम्मद ने भेजी हैं, साथ में सलाम भी भेजा है।’
मेरे तन-मन में आग लग गई। मैंने कहा-‘उस ग़ुलाम मुरीद से जाकर कहो कि मेरे पति को मरवाकर, मुझे विधवा बनाकर, अब मेरे साथ इश्क़ करने चले हो। मेरे साथ ऐसा कुछ भी करना मुमकिन नहीं।’
दूसरी बार एक औरत से कहलवाकर भेजा-‘तुम्हें उठवाकर अय्याशी के बाद भट्टी में डलवाकर जलवा दूँगा। तुम्हारे हुस्न ने मुझे जलाकर खाक कर दिया है। कहो, क्या कहती हो?’
मैंने कहलवाया-‘ऐसे बहादुर और मर्द आदमी हो तो चले आओ।’ उसे आग लग गई। एक दिन अपने किसी डाकू दोस्त के साथ मुझे उठवाने आया। दीवार से फाँदने की आवाज़ पर मैं जाग उठी। सोचने लगी कि अब क्या किया जाए? पल में फ़ैसला कर लिया। मुसीबत का सामना तो करना था। इसलिए अँधेरे में कुल्हाड़ी, जो मैं रात-भर अपने पास रखकर सोया करती थी, उठाकर बिल्ली की तरह बिना आहट किए खाट के नीचे बैठ गई। जैसे ही मुखिया खाट के पास आया, वैसे ही मैंने झपटकर कुल्हाड़ी से वार किया तो सर धड़ से अलग होकर दूर जा गिरा। उस दूसरे पुरुष ने आकर मुझे अपने शिकंजे में दबोचते हुए कहा-‘कहीं जाने की सोचना मत।’
मैंने वह आवाज़ पहचानी, जो हमेशा मेरे कानों में चंग की तरह ध्वनित होती थी। मैंने फौरन चिल्लाकर कहा-‘मनू!’
मनू के हाथ से कुल्हाड़ी गिर पड़ी। मैंने बत्ती की लाट ऊपर करके मनू को देखा। मनू ने मुझे आलिंगन में भरते हुए कहा-‘हूर, आज तुम मेरे हाथों मर जाती।’ फिर मेरे माथे को चूमते कहा-‘मुखिया के कहने पर मैंने ही तेरे पति को मारा, पर मुझे यह पता नहीं था कि वह तुम्हारा पति है। मुझे तो मुखिया ने कहा, ‘यह मेरी बहन का आशिक़ है, इसे मारना है।’ मुखिया मेरा दोस्त था। कितनी ही बार उसने मुझे पनाह दी थी। इसलिए यह काम मैं करने के लिए राज़ी हो गया।’ ऐसा कहते ही उसने मुखिया की लाश उठाई और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला। बाहर घोर अँधेरा था और उस सन्नाटे में वह मुखिया की लाश लेकर न जाने कहाँ चला गया।
‘मलूकान ये हैं दुःखदायक दर्दों की बातें। दर्द भी दर्द जैसे और उम्मीदें भी उम्मीदों जैसी। गाँव छोड़ा, छिपते-छिपाते शहर में पनाह ली है; क्योंकि बाबा के पास जाती, तो मैं फिर से बिक जाती। फिर किसी बूढ़े से हजारों रुपए लेकर बेच देते। अदिलू का और कोई नज़दीकी रिश्तेदार न था। जाऊँ तो कहाँ जाऊँ? अब झाड़ू-बर्तन करके गुज़ारा कर रही हूँ।’
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लेखक परिचय:
ज़रीना बलोच:
जन्म: 29 दिसम्बर 1934, इलाहाबाद चांद गाव, हैदराबाद में।उनका स्वर्गवास कासिमबाद में अक्तूबर 2005 में हुआ। 1960 में अपनी शिक्षा सम्पूर्ण की और उन्हीं दिनों लिखना शुरू किया। 1961 में उन्हें संगीत के लिए पहला सम्मान मिला। 1967 से वह स्कूल में अध्यापिका के रूप में तीस साल अपनी सेवाएँ देती रहीं। उनकी उर्दू, सीराइकी, बलूची, परशियन, अरेबिक, व गुजराती भाषाओं पर दक्षता रही। उनकी पहली अनुवाद की हुई कहानी ‘बूंद-बूंद को भटके’ त्रिमाही पत्रिका ‘महराण’ में प्रकाशित हुई। एक कहानी संग्रह-‘तुम्हारी खोज, तुम्हारी बातें’ नाम से 1992 में प्रकाशित हुआ। उनका लिखा “केडो करोंभार” नामक टी. वी. ड्रामा टेलिकास्ट हुआ और उसे काफी ख्याति मिली। वह ‘जीजी’ के नाम से जानी जाती थी।
जीजी ज़रीना लेखक होने के साथ-साथ एक अच्छी अदाकारा व फनकार भी थीं। लगभग 50 ड्रामों में वह काम कर चुकी थीं। उनकी एक और पहचान भी है-गायक के रूप में। वे सिंध की कोयल मानी जाती है। शेख़ आयाज़ की रचनाओं को उन्होने सुर दिया। अनेक अवार्ड व रिवार्ड उन्हें सम्मानित करते रहे-शाह लतीफ अवार्ड, शाह, सचल, सामी अवार्ड, SANA अवार्ड, राम पंजवानी अवार्ड, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अवार्ड। दुनिया भर में उन्होने अपने कार्यक्रमों के माध्यम से शोहरत पाई।
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अनुवाद- देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत), 12 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 12 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, व् मीर अली मीर पुरूस्कार, राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद व् महाराष्ट्र सिन्धी साहित्य अकादमी से पुरुसकृत। सिन्धी से हिंदी अनुदित कहानियों को सुनें @ https://nangranidevi.blogspot.com/
contact: dnangrani@gmail.com

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