यह पावस
यह पावस अमृत हो जाये
धरती के भींगे अंतर में,
नव-स्नेह अंकुरित हो पाए,
और बूंद बूंद नभ कोरों पर,
गीतों की छटा उमड़ जाये.
तुम बरसा दो नव रस कण में,
वह प्रेम गुंजरित हो जाये.
तुम मेघ दूत बन आ जाओ,
मेरा संसार बुलाता है,
रिमझिम बूंदों की तान लिए,
पावस का हास बुलाता है.
तुम छू लो मन के तार आज,
जीवन का राग संवर जाये,
शूलों से बिंध कर भी खिलती ,
कोमल गुलाब की कलिकाएँ,
संघर्षों में भी पलती है,
दुर्गम राहों पर लतिकाएँ.
तुम बनो बांसुरी कान्हा की,
मधुबन की प्रीत मुखर गाये.
गीतों के कोमल स्वर लय पर ,
मेरी कविता के भाव बनो,
अंतर में पलती प्रीति मधुर ,
तुम रसवंती जल-धार बनो,
बूंदों के संग बिखर जाओ,
यह पावस अमृत हो जाये
पद्मा मिश्रा
मैं अचानक हार जाता हूँ
और तुमसे हारने का
एक, चुप
उत्सव मनाता हूँ
गुदगुदाता है यूँ तुमसे हारना
हार कर
खुद से उलझना
और फिर
भीगे पलों में
चंद्रमा की साक्षी में
किलक बतियाना
या तो सपना है
है या हकीकत
नहीं कोई दाम
न कोई कीमत
अपने अन्दर की नदी में
बिना तैरे
जिन तटों को कभी देखा ही नहीं
जिन द्वीप-टापू को नहीं जाना
हारने की ही शक्ति लेकर
नदी की हर लहर से सुलझ कर
तैरता हूँ
पार जाता हूँ
मैं अचानक हार जाता हूँ
और
तुमसे हारने का
एक, चुप
उत्सव मनाता हूँ
-आलोक तोमर
पहले बड़े ठाट-बाट से आता था रक्षा बंधन
मिठाई की खुशबू में तर
बहन के मान में मस्त
अब तो
चुपके से डाकिये के साथ
आता है रक्षा बंधन
यह रक्षा बंधन का रंग
इतने चुपके से क्यों इतराता है
होली की तरह ठुमकता
दिवाली की तरह दमकता हुआ
क्यों नहीं आता है
नहीं आता है करवा चौथ
और तीज की व्याकुलता में सन कर
जिवतिया , तिनछट्ठ , गणेश चतुर्थी
या बाक़ी घरेलू त्यौहारों और व्रत की तरह
लचक और मचल कर भी नहीं आता
आज़ादी के तिरंगे की तरह
लहराता हुआ भी नहीं आता है
जैसे डोली में जाती थी बहन
-बिलखती , सिसकती
नईहर की राह से गुज़रती
वैसे ही आती है राखी
बहन की ख़ामोश सिसकी में सन कर
विवशता की शांत चादर ओढ़ कर
ससुराल के गांव और शहर को फलांग कर
सरहद और बंदिशों को लांघ कर
डाकिये की थैली में बंद
उस की साइकिल पर चढ़ कर
आता है राखी का बंद लिफ़ाफ़ा
बंद लिफ़ाफ़ा खोलती है पत्नी
बहन के आशीष भरे पत्र को बांचता हूं मैं
आंसुओं में भीग जाती है पत्र की इबारत
भीगी इबारतों की मेड़ पर बैठ कर
बांधती है बेटी दाएं हाथ की कलाई पर
अक्षत-रोली-हल्दी और चंदन का टीका लगा कर
बहन की राखी के रंगीन धागे
मन में बंध जाते हैं
बचपन में उस की किलकारी की तरह
जैसे फूटता है धान गांव में
मन में फूटता है बहन का नेह
बरसता है घर में उस का स्नेह मेह की तरह
जैसे बहती है गंगा किसी उमंग की तरह
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद में
कानपुर , इलाहाबाद से बलिया जाती हुई गंगा
राखी के दिन हमारे लिए बहती है
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद से
अर्चना दी , अलका और आरती के लिए
वैसे ही जैसे बहती है टेम्स नदी
लंदन के किनारे से
सुदूर परदेस से शन्नो दीदी भेजती हैं
आशीष के अग्रिम आखर
जैसे बहती है राप्ती
गोरखपुर के शहर और कछार में
सुदूर गांव में बिरहा गाता हुआ
जैसे कोई बेरोजगार जलता है बेगार में
इस तपिश में सुलग कर
स्नेह का फाहा
अनुराग और आंसू के आसव में सान कर
बहनें भेजती हैं दुःख का पहाड़
राखी की आड़ में
भेजती हैं राखी
अपने अरमानों की राख में दाब कर
ऐसे जैसे उस में संबंधों की
स्नेह की चिंगारी दबी हो
सुख में सुलग-सुलग जाने के लिए
दुःख में दहक-दहक जाने के लिए
इन सारे शहरों में बसी
हमारी बहनें भी बहती हैं
यादों के साथ , लहरों के साथ
अपने सारे सुख-दुःख
अपने पूरे वैभव के साथ
स्नेह के सरोवर में बसे सुख के साथ
भेजती हैं अपनी यादों की गठरी
भाई की देहरी पर
नेह के रेशमी धागों में लपेट कर
ऐसे जैसे यादों की बाढ़ आई हो
गंगा में , राप्ती में , टेम्स में
बलिया , कानपुर , इलाहबाद
गोरखपुर और लंदन में
ऐसे ही आता है रक्षा बंधन
इतराते हुए कलाई पर राखी बंधने के बाद
बहन के नेह में दमकता और इतराता हुआ
बहन के आशीष में जगमगाता हुआ
बहन के सुख में
इस भाई का सिर ऊपर उठाता हुआ
अब हर साल ऐसे ही आता है रक्षा बंधन
इस साल भी आया है
-दयानंद पाण्डेय
जंगल और पहाड़ होना चाहता हूं
मैं जंगल पहाड़ और नदी होना चाहता हूं
मैं चिड़िया हवा और आसमान होना चाहता हूं
मैं इस धरती पर सभ्यता का
अवसान होना चाहता हूं
तुम सभ्य सुशील और
दुनिया की नजरों में महान होना चाहते हो
घर गृहस्थी और दुनियावी व्यवहार में
एक निपुण इंसान होना चाहते हो
मैं इन सब से बहुत दूर
सभ्यता के उस पार बसा
आदिम वह गांव होना चाहता हूं
जहां की आपसदारी
का रंग खून-सा नहीं
नदी के नमकीन पानी-सा
हवा की अदृश्य रवानी-सा लरजता हो
जहां की नदियां और हवाएं
अपनी स्वाभाविक गति और प्रवाह में
हमारी सच्ची खुशहाली के गीत रचती हों
जहां खेतों में अपनी मर्जी से
काम कर रहे आदमी पर
उसकी बाजू में खड़े पहाड़ और
पास ही बहती नदी को पूरा भरोसा हो
जहां आकाश छूती अट्टालिकाएं
और रफ़्तार में ऊंचाई की ओर बढ़ते हमारे कदम
हमारी आत्महत्या की वजहें नहीं हों
जहां जंगल और पहाड़ों पर
नदियों और घाटियों में
पेड़ पक्षियों पानी और हवा
के लिए जगह हो
पेड़ों पर बारिश की बूंदों को भी
सूरज की रौशनी का इंतजार हो जहां
हमारे शब्दों को लय और संगति का
रौशनी को अंधेरों का
पूर्णता को खाली हो जाने का
इंतजार हो जहां
मैं सभ्यता के उस पार
वह अधूरा अनगढ़ गांव होना चाहता हूं
मैं चिड़िया हवा और आसमान होना चाहता हूं…
मैं धरती पर सभ्यता का अवसान होना चाहता हूं
-योगेन्द्र कृष्ण
सुबह के भूले
क्या लौटना होगा
उस द्वीप पर
जहाँ से नौका चली थी
भूल कर तल्खियाँ
मटमैला धूसर आसमान
रास्ते कंटीले
पथ अपरिचित
मंज़िल भटकी हुई
चूक रही अब उम्मीदें
अपना उत्स पाने की
उम्र का प्रौढ़ होना
वहन करना बोझिल कर्तव्य
ऐसे में लौटना ही पड़े
गंदगी से पटे
सुविधा-रहित द्वीप पर
तब भी
बहुत घाटे का नहीं
यह करार
अच्छा है ताउम्र भटकने से
लौटना अपने ही शहर.
-शैलेन्द्र चौहान
जादू वो
अंकित है आज भी
चारो तरफ
एक एक शब्द मानो
मन की शिला पर
शब्द जो कभी
कहे ही नहीं गए
शब्द जो फिर भी
साफ-साफ सुने गए
जैसे बारिश की बूंदें
गिरती हैं रेगिस्तान में
जैसे भूखे की आँख में
आ जाती है चमक
रोटी की आस में
शब्द जो प्रार्थना में
मंत्र की तरह उच्चारते हम
पर यह जादू
निरंतर
और तभी तक तो,
जब तक
चाहत हमारी
बेचैन ना कर दे
हमें प्यार में…
शैल अग्रवाल, बरमिंघम, यू.के.
कुंआ
कोई आवाज नहीं
कोई विचार नहीं
कोई भाव नहीं
दिन होते ही ओढ़ लेता हूं कपड़े
क्या जीवित पुतला ही नहीं बस
अपनी छाया से भागता अकारण
पलक झपकाता
बाजुओं को हिलाता
एकाएक दौड़ने लगता
जैसे याद आया कुछ
छूट गया कुछ
देर हो गई
या भूल गया कुछ ऐसे ही विचार में
कुछ बोलता
कुछ सुनता
समय के पदचाप
धूप के लिए खोलता दरवाजा
बारिश के लिए खिड़की
रोता नहीं दुनिया में अन्याय पर
नहीं आता गुस्सा मुझे झूठ पर
यह भी तो सच है
और क्या मुखौटा ही नहीं मैं उसका !
अपने ही झूठ पर विश्वास नहीं होता मुझे
लोग डेलते मेरे भीतर अपना प्रेम
भेजते संदेश गिरा देते अपनी गठरियों का बोझ
पर कुछ नहीं होता
कोई प्रतिध्वनि नहीं
खाली यह खालीपन ही जैसे सब कुछ
बार बार उसे ही जीते
यह दिन फिर यह दिन किसी के लिए भविष्य
मेरे लिए बस एक और दिन
अपने आप को कुरेदता।
-मोहन राणा, बाथ, इंगलैंड
एक बिरवा
एक बिरवा लगाया है
वो प्यार फलेगा
मनोहर शाख से उसकी
एतबार फलेगा –
संस्कृति खाद जड़ में
सिंचन दया से है
संस्कार फलेगा –
मुसाफिर छांव पाएगे
पंखेरू घर बनाएगे
दूर मजहब के झगड़ों से
एक संसार बसेगा –
पुष्प करुणा के
दया के पात निकलेंगे
मधु मकरंद कोंपल से
स्नेह का परिमल
बिखरेगा –
उदय वीर सिंह, भारत