आकलनः शब्द कम हैं-डॉ. शुभा श्रीवास्तव


(काव्य-संग्रह)
कवयित्री – डॉ० संगीता श्रीवास्तव ‘सहर’ प्रकाशक- सेवक प्रकाशन, वाराणसी

राहुल सांस्कृत्यायन शोध एवं अध्ययन केन्द्र की सचिव संगीता श्रीवास्तव किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। राहुल सांकृत्यायन पर अनेक आलोचना ग्रन्थ लिखने वाली संगीता जी का प्रथम काव्य संग्रह शब्द कम है ठण्डी बयार की भाँति पाठक के समक्ष प्रस्तुत होता है। इस संग्रह को पढ़ते हुए यह महसूस होता हैं कि मनुष्य जीवन पर्यन्त सम्बन्धों, भावों, विचारों और धरनाओ से जो भाव पाता है उन्हें अपनी कल्पनाओं से शब्दों में ढालता है। इस संग्रह की कविताएं जीवन के सुख-दुख के क्षणात्मक भावों का प्रतिफल है। लेखिका स्वयं भी स्वीकार करती है कि “शब्दों की गूंज मेरे कानों में बचपन से ही पड़ती रही है। शनै-शनै मेरी रुचि बनती गई।”

पुस्तक की अधिकांश कविताएं जीवन की अनुभूतियों हैं जो पारिवारिक, सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश से जुड़ते हुए पाठक को बांध लेती है। वस्तुत: प्रत्येक रचना सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरती है। इन रचनाओं में भी इसी प्रक्रिया के अक्श दिखाई देते हैं।

शब्द कम हैं संग्रह पढ़कर पाठक को यह अनुभूति होती है कि वास्तव में शब्द कम है। लहराते खेत खलिहान, हरी घास, झरने, बादल और इन सब को शब्दों में रोपित करके पाठक को प्रकृति की एक नई दुनिया में ले जाने के बाद लेखिका कई सवाल भी करती है। यह सवाल जो उत्तर देने के लिए भीतर झाँकने पर विवश करते हैं। वास्तव में कविता की सार्थकता भी यही है कि इस आपाधापी जीवन से कुछ समय निकालकर खुद को देखे । मनुष्यता को बचाने की युक्ति कविता से होकर गुजरती है यह संग्रह की प्रत्येक कविता कहती है।
आज के युग में जब संवेदनाएं मृत्यु को प्राप्त हो रही है वहीं संगीता जी माता, पिता पर कई कविताएं लिख रही है। पिता की बिमारी, पुत्री का कर्तव्य, दोनों की मनोव्यथा इन शब्दों में देखिए

मृत्यु की प्रतीक्षा का भर्ग
वही जान सकता है जिसे किसी
आसाध्य और मरणासन्न
रोगी के पास रहने का अवसर मिला हो

माँ सरीखी , मां अब नहीं रही इसी प्रकार की कविताए है।
वर्तमान समाज का यथार्थ संगीता की कई कविताओं में पूरी निर्ममता से आया है। यह कविताएं पाठक को बेचैन करती है, विवश करती है कुछ करने के लिए, कुछ सोचने के लिए। पाठक को बेचैन करना हो इन कविताओं का वैशिष्ट्य है..

नहीं है आसान
अमानुविकता के तांडव के बीच मानुविकता का व्यवहार करना

इस संग्रह में घोर यथार्थ ही नहीं प्रकृति से आहलादित मन, प्रकृति प्रेमी सोच, और प्रकृति से जुड़े रहने की आकांक्षा भी है। प्रकृति ऐसी सत्ता है जिसके बिना हमारा अस्तित्व नहीं है। लेखिका प्रकृति को भीतर तक महसूस करती है-

मैं प्रकृति का
नैसर्गिक सुख लूट रही थी
अजीब लुका छिपी खेल रही है
आज प्रकृति
कभी पल में छमा छम करती
बूंदे बरस पड़ती तो कभी
खिलखिलाती धूप
आ जाती बाहे पसारे

कवयित्री का प्रकृति प्रेम संग्रह में स्पष्ट शब्दों में आया है –
मैं निहार रही थी
अपलक प्रकृति के
निश्छल प्रेम को

वसंत के आगमन का उन्माद, वट वृक्ष सी माँ, छन छन बारिश की बूंदे जैसी अनुभूतियां कवयित्री की कलम से बखूबी चित्रित हुई है। पीपल, सुबह की धूप, समंदर किनारे रेत, ओट में आदि कविताएं प्रकृति के मर्म को पाठक के सम्मुख ले आती हैं।

संग्रह की अनेक कविताएं स्त्री मन की खुली पाती है जिन्हें पढ़ने से मन भीग जाता है। कविताओं में पितृ‌सत्तात्मक सोच का विरोध है और पुरुष के छल प्रपंच पर आक्रोश भी है। मिथक का प्रयोग कविता में नई बात नहीं है। इन कविताओं में मिथकों के माध्यम से स्त्री जीवन का सच उकेरा गया है। इस सच का माध्यत्र जितना सीता है उतना ही अहिल्या, द्रौपदी, कुंती, तारा भी है जो पुरुष वंचना का शिकार हुई । संग्रह की प्रपंच कविता इन सभी की आवाज बनकर सामने आई है

तारा जो बाली की भार्या थी
अंगद की जो माँ थी
सुशेण वानर की पुत्री
क्या बालि ने नहीं किया
अत्याचार उस पर
क्या सुग्रीव ने
उसे नहीं बनाया बंदी

अपने पौराणिक, ऐतिहासिक ज्ञान को कवयित्री ने संग्रह में सूत्रों के रूप में पिरोया है जिसका साक्ष्य यह कविताएँ है। इन सभी स्त्रियों की पीड़ा कहते हुए कहती है-

पुरुष तो आखिर
पुरुष ही है
हर जगह
एक ही प्रकृति का गुलाम
ये सब पुरुष प्रपंच की माया है

स्त्री सम्बन्धि भेद भाव के लिए कवयित्री के मन में क्षोभ विद्यमान है। इस क्षोभ को कवयित्री अपना हथियार बनाती है। कही यह हथियार तीव्र भेदक है तो कहीं नुकीली। कई कविताओं में रूपक के माध्यम से भी स्त्री सन्दर्भ व्याख्यायित है। एक उदाहरण बिटिया और मछली का देना चाहूंगी जिसमें महली के माध्यम से बेटियों की मन:स्थिति उद्‌घाटित हुई है-

बेटियां जैसे मछलिया होती है
मछली घरों की तरह
घरों में बंद
हर पल डर के साए में जीती

वहीं दूसरी जगह संगीता कहती है-

“मैंने देखा है इन्हें
काँच के बन्द पिंजरों में
जहाँ ये स्वतन्त्रता की होड़
में जीती है
दिवारों से मुँह टकरा कर
रास्ता खोजती है
न मिलने पर
तलाश जारी रखती है
गजब की जिजीविषा के साथ
जीती है ये मछलियां

संग्रह में कुछ कविताएं निजी जीवन की झांकी है। इन झांकियों में माता पिता के साथ एक अन्य संवेदना उभर कर सामने आती है वह है प्रेम। प्रेम इन कविताओं में रोमांटिक मूड का नहीं बल्कि परिपक्व सामाजिक है। छाया हूँ कविता से एक उदाहरण देती हूं –

मनु के साथ इड़ा थी
शिव के साथ शिवा
आदि से अंत तक
मैं तुम्हारे साथ

कवयित्री की सारी संवेदना इस संग्रह में परिपक्व रूप से सामने आई है। यह संग्रह निश्चय ही पाठकों के मानस पटल पर अपनी पहचान छोड़‌ता है।

डॉ० शुभा श्रीवास्तव
प्रवक्ता
राजकीय क्वीस कालेज
वाराणसी

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